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ग्राउंड रिपोर्ट

बिहार के सरकारी स्कूल में बढ़ रही हैं शैक्षिक गतिविधियां पर बुनियादी संसाधन से अब भी हैं दूर

बिहार के सरकारी स्कूल पिछले कई सालों से शिक्षकों एवं बुनियादी संसाधनों की कमी से जूझते रहे हैं। राज्य के 38 जिलों में सैकड़ों नवसृजित स्कूल स्थापित किए गये हैं, जिनके पास अभी तक जमीन उपलब्ध नहीं कराया जा सका है। भवन एवं जमीन के अभाव में ऐसे स्कूल झोपड़ी में चल रहे हैं। सैकड़ों […]

बिहार के सरकारी स्कूल पिछले कई सालों से शिक्षकों एवं बुनियादी संसाधनों की कमी से जूझते रहे हैं। राज्य के 38 जिलों में सैकड़ों नवसृजित स्कूल स्थापित किए गये हैं, जिनके पास अभी तक जमीन उपलब्ध नहीं कराया जा सका है। भवन एवं जमीन के अभाव में ऐसे स्कूल झोपड़ी में चल रहे हैं। सैकड़ों विद्यालयों को उत्क्रमित तो कर दिया गया, लेकिन उसे उसके अनुकूल संसाधन उपलब्ध नहीं कराया गया है। हालांकि, राज्य सरकार ने शिक्षकों की कमी को दूर करने के लिए पिछले तीन-चार सालों से बहाली की प्रक्रिया चला कर लगभग दो लाख शिक्षकों को बहाल करने की कवायद पूरी कर रही है। छात्रों एवं शिक्षकों की उपस्थिति बढ़ाने को लेकर भी शिक्षा विभाग ने सख्ती बरती है, जिसका कमोबेश असर दिख रहा है। पढ़ने-पढ़ाने के सिलसिले ने रफ़्तार पकड़ ली है। लेकिन मूलभूत संसाधनों के अभाव में ग्रामीण विशेषकर सुदूर ग्रामीण इलाके के स्कूल आज भी जूझ रहे हैं।

कुकुरमुत्ते की तरह खुल रहे प्राइवेट स्कूलों के बावजूद आज भी सरकारी स्कूल ही गांव के गरीब बच्चों के लिए शिक्षा ग्रहण करने का एकमात्र केंद्र बना हुआ है। बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि बढ़ाने के उद्देश्य से सरकार द्वारा कई योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। इसके अलावा सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई प्रयोग भी किये जा रहे हैं, जिससे कि छात्रों में शैक्षणिक कौशल और ज्ञान विकसित हो सके। खेल-खेल में पढ़ाई के लिए स्कूलों को किट उपलब्ध कराए जा रहे हैं। स्कूली छात्रों में खेल प्रतिभा को विकसित करने के लिए खेल-सामग्री भी हर साल खरीदी जाती है। इस वर्ष तो छात्रों में वैज्ञानिक व नवाचार की दृष्टि विकसित करने के उद्देश्य से सरकार की ओर से स्कूलों में साइंटिफिक किट भी उपलब्ध कराये जा रहे हैं। लेकिन ये सारे किट्स, स्किम, सामग्री, संसाधन उन्हीें स्कूलों के लिए उपयोगी साबित होंगे, जिनके पास भवन है। जो स्कूल जमीनविहीन व भवनविहीन है, उसके लिए ये सब सामग्री व संसाधन बेमानी है। ऐसे बहुत सारे स्कूल हैं, जिनके पास छात्र-छात्राओं के बैठने के लिए बेंच-डेस्क तक नहीं है।

ऐसा ही एक स्कूल डुमरी परमानंदपुर स्थित उत्क्रमित मध्य विद्यालय है। जो बिहार के मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से करीब 55 किलोमीटर दूर पारू प्रखंड में स्थित है। जिसका कोड नंबर 10140300401 है। यह स्कूल 15 धुर में बना है, जिसमें 388 छात्र-छात्राएं नामांकित हैं, जबकि क्लासरूम के नाम पर मात्र दो कमरों हैं। इसके अतिरिक्त एक किचन और लड़के-लड़कियों के लिए अलग अलग शौचालय की व्यवस्था है। पेयजल के लिए स्कूल में एक हैंडपंप है। स्कूल में आठ शिक्षक एवं एक शिक्षिका नियुक्त हैं। कल्पना कीजिए कि दो कमरे में कक्षा एक से आठ तक के बच्चे कैसे एक साथ पढ़ते होंगे? विद्यालय प्रभारी अरुण राय कहते हैं कि दो कमरों में सभी कक्षाएं संचालित करना मुश्किल है। ऐसे में एक शिक्षक जब एक क्लास के बच्चों को रूम में पढ़ाते हैं तो दूसरे शिक्षक अन्य क्लास के बच्चों को पास की एक बांसवारी के नीचे पढ़ाते हैं, जो एक ग्रामीण की निजी जमीन है। वह कहते हैं कि हमारे पास मध्य विद्यालय के लिए जितनी जमीन व कमरे चाहिए, वह नहीं हैं। ऐसे में बच्चे कहां पढ़ेंगे? इसीलिए शिक्षक सुरेंद्र कुमार बांसवारी को साफ-सुथरा करवा कर उसी में बच्चों को पढ़ाते हैं।

वहीं, जिले के साहेबगंज प्रखंड के हुसेपुर स्थित राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय, हुस्सेपुर परनीछपरा का भी कुछ ऐसा ही हाल है। कोड संख्या 10140101901 वाले इस स्कूल की स्थापना वर्ष 2007 में हुई थी। यह स्कूल कक्षा 1 से लेकर 8 तक के बच्चों के लिए है, लेकिन संसाधनों के अभाव में इस इलाके के बच्चे सही से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं। यह स्कूल भूमिहीन है, हालांकि इसके लिए मौखिक रूप से दो कट्ठा ज़मीन की घोषणा हो चुकी है, जिसकी अभी तक स्कूल के नाम से रजिस्ट्री नहीं हुई है। यह स्कूल भी मात्र दो कमरों में संचालित होता है और बच्चों की संख्या 400 है। जबकि पांच शिक्षक और दो शिक्षिकाएं हैं। अनुमान लगाइए कि किस प्रकार दो कमरों में 400 छात्र-छात्राएं एक साथ बैठकर पढ़ पाते होंगे? क्या एक कमरे में 200 बच्चे बैठ पाएंगे? वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में शिक्षक शेष बच्चों को बाहर बैठा कर पढ़ाने के लिए मजबूर हैं। लेकिन जाड़े और बरसात के मौसम में खुले आसमान या फिर पेड़-पौधों के नीचे ये नौनिहाल कैसे पढ़ पाएंगे? ऐसे हालात में बच्चे ड्राॅपआउट तो होंगे ही।

एक और स्कूल की स्थिति को देखकर आप बिहार के सरकारी स्कूलों में संसाधनों की कमी का अनुमान लगा सकते हैं। कोड संख्या 10140109401 प्राथमिक विद्यालय हुस्सेपुर जोड़ा को ही लीजिए, जिसे अब तक ज़मीन भी उपलब्ध नहीं हो सकी है। यह स्कूल कागजों में ही चल रहा है। इसके पास न जमीन है, न भवन है और न कोई कमरा है। विद्यालय की स्थापना साल 2006 में हुई थी। विद्यालय में तीन शिक्षक व एक शिक्षिका पदस्थापित कर दिए गये, लेकिन जमीन व भवन ही नहीं है। आश्चर्य है कि इसके बावजूद इस स्कूल में 130 बच्चे नामांकित भी हैं। शिक्षा विभाग के आदेशानुसार वर्तमान में उक्त विद्यालय के सभी बच्चे माध्यमिक विद्यालय, पचरुखिया में शिफ्ट किये गये हैं। वहीं, उच्च विद्यालय हलिमपुर के तीन भवन हैं और कमरे सिर्फ 6 हैं। स्कूल में कक्षा 1 से 12 तक में लगभग 726 बच्चे पढ़ते हैं, लेकिन उनके बैठने की सुविधा नाकाफी है। मात्र तीन शिक्षिकाएं व दो शिक्षक सभी 12 कक्षाओं को एक साथ कैसे संचालित करते होंगे, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। कम कमरे होने के कारण बच्चों को पढ़ने में घोर असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। यहां पेयजल की सुविधा तो है, लेकिन शौचालय क्षतिग्रस्त है। ये सिर्फ एक जिले की चंद बानगी है। पूरे प्रदेश का आंकड़ा उठा कर देखा जाए, तो चैंकानेवाले तथ्य सामने आएंगे।

उत्क्रमित मध्य विद्यालय डुमरी परमानंदपुर में पढ़ने वाले छात्र संजीव कुमार व छात्रा रोशनी कुमारी बताती हैं कि बरसात के समय कक्षा 1 से लेकर 8 तक के सभी बच्चों को एक साथ भेड़-बकरी की तरह बरामदे पर बैठा कर पढ़ाया जाता है। बाकी दिन बांसवाड़ी के नीचे पढ़ने को मजबूर होते हैं। वहीं अभिभावक लखींद्र दास, गिरीश दास व बसंत दास का कहना है कि कमरों की कमी के कारण हमारे बच्चे पेड़ के नीचे पढ़ते हैं। यही कारण है कि बरसात के मौसम में बहुत सारे बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। यहां के सरपंच राजकुमार दास बताते हैं कि हमलोगों ने ग्रामीणों के साथ मिलकर पारू प्रखंड व जिला शिक्षा कार्यालय को कई बार लिखित शिकायत भी की है, लेकिन अबतक कोई समाधान नहीं निकल पाया है। वहीं पारू प्रखंड के ब्लॉक शिक्षा अधिकारी उत्तम प्रसाद का कहना है कि विभाग भूमिहीन व भवनहीन स्कूलों की समस्याओं का समाधान निकालने का हर संभव प्रयास कर रहा है।

ऐसे एक दो मामले नहीं हैं बल्कि अकेले मुजफ्फरपुर जिले में 216 ऐसे सरकारी स्कूल हैं, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है। यह स्थिति तब है, जब जिला प्रशासन एवं शिक्षा विभाग ने जमीन दानदाताओं को प्रेरित करने के लिए प्रस्ताव दिया कि जो कोई प्राथमिक विद्यालय के लिए कम-से-कम 20 डिसमिल जमीन देगा, स्कूल उसके नाम रखा जाएगा। इसके बावजूद अभी तक सभी नवसृजित स्कूलों को स्थाई रूप से जमीन उपलब्ध नहीं हो सकी है। दो सौ से अधिक स्कूलों को दूसरे विद्यालयों के साथ टैग करके पठन-पाठन का काम चलाया जा रहा है। इस वजह से भूमिहीन विद्यालयों में नामांकित बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है। हालांकि जिला प्रशासन ने सभी अंचलाधिकारियों एवं प्रखंड शिक्षा पदाधिकारियों को भी निर्देश दिया था कि इस काम को जल्दी पूरा किया जाए, लेकिन फिलहाल ऐसा संभव होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। मुजफ्फरपुर ही नहीं, वैशाली, बेगूसराय से लेकर सुपौल, मधुबनी, बेतिया, औरंगाबाद समेत अन्य जिलों का भी यही हाल है। कुछ स्कूल तो दूसरे विद्यालयों से टैग करके चलाए जा रहे हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी स्कूल हैं, जहां नौनिहाल पेड़ की छांव में बैठ कर पढ़ने को मजबूर हैं। अब देखना यह है कि ये सिलसिला कब तक चलता रहेगा?

(सौजन्य से चरखा फीचर)

सपना कुमारी मुजफ्फरपुर (बिहार) की समाजसेवी हैं।

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