Sunday, September 8, 2024
Sunday, September 8, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारस्वस्थ लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है दलबदल की मौजूदा राजनीति

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है दलबदल की मौजूदा राजनीति

भारत देश के चुनावों को करोड़पतियों ने हाईजैक कर लिया है। जितने उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतरते हैं. उनमें से बहुसंख्यक करोड़पति होते हैं। चूंकि वे स्वयं करोड़पति होते हैं, इसलिए वे चुने जाने के बाद करोड़पतियों के हितों का ही ख्याल रखते हैं। अब यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि भारतीय […]

भारत देश के चुनावों को करोड़पतियों ने हाईजैक कर लिया है। जितने उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतरते हैं. उनमें से बहुसंख्यक करोड़पति होते हैं। चूंकि वे स्वयं करोड़पति होते हैं, इसलिए वे चुने जाने के बाद करोड़पतियों के हितों का ही ख्याल रखते हैं। अब यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि भारतीय प्रजातंत्र करोड़पतियों के लिए, करोड़पतियों द्वारा बनायी गई व्यवस्था है। हमारे संविधान की उद्देशिका में लिखा है- भारत एक सेक्युलर, सोशलिस्ट रिपब्लिक है। चुनाव के दौरान यह उद्देशिका पूरी तरह भुला दी जाती है। चुनावों के दौरान सेक्युलरिज्म की कोई चर्चा नहीं होती। उल्टे मतदाताओं से धर्म के नाम पर अपील की जाती है। प्रायः उम्मीदवार मंदिर जाते हैं, भगवान से आशीर्वाद मांगते हैं, बड़ी-बड़ी मन्नतें मांगते हैं, भारी-भरकम चढ़ावा चढ़ाते हैं। जाति का तो कहना ही क्या, उम्मीदवारों का चयन ही जाति के आधार पर होता है।

जहां तक सोशलिज्म का सवाल है, लगभग सभी पार्टियां इस शब्द को पूरी तरह भूल गईं हैं। सोशलिज्म का उदेश्य समतामूलक समाज का निर्माण करना है। लेकिन इस देश में मुकेश अंबानी रहते हैं, जिनके मकान में तीन सौ कमरे हैं। इस मकान के संदर्भ में प्रसिद्ध शायर कैफी आजमी की वह कविता याद आती है – ‘आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है, अब इस फुटपाथ पर न सोया जाएगा, तुम भी उठो, हम भी उठें, कोई खिड़की इस दीवार में खुल जाएगी’।

यह बात सिर्फ अंबानी पर लागू नहीं होती। यह स्थिति पूरे देश की है। यह असमानता सिर्फ मकानों व झोपड़ियों तक सीमित नहीं है। यह खेती की जमीन पर भी लागू होती है। यद्यपि हमारे देश में खेती की जमीन पर सीलिंग कानून लागू है परंतु आज भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो सैकड़ों एकड़ जमीन के मालिक हैं, जो खुलेआम सीलिंग कानून का उल्लंघन है।

यह भी पढ़ें…

बिहार के सरकारी स्कूल में बढ़ रही हैं शैक्षिक गतिविधियां पर बुनियादी संसाधन से अब भी हैं दूर

एक और बुनियादी सिद्धांत का पालन नहीं हो रहा है। जिस बड़े पैमाने पर दलबदल कर सरकारें बनाईं और गिराई जाती हैं उसके चलते अब चुनाव का कोई मतलब नहीं रह गया है। मध्यप्रदेश में 2020 में जो हुआ वह इसका जीता-जागता उदाहरण है। आप चुनाव किसी घोषणा-पत्र पर और किसी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर जीते और चुनाव जीतने के बाद सत्ता की खातिर क्षण भर में उस पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल हो गए। मध्यप्रदेश में जो हुआ था वह अवसरवादिता औैर सिद्धांतहीनता की पराकाष्ठा थी। जिन लोगों ने दलबदल किया, उन्होंने पहले चिल्ला-चिल्लाकर भाजपा को साम्प्रदायिक दल बताया था। सन् 2018 में चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा का हमला मुख्यतः ज्योतिरादित्य सिंधिया पर केन्द्रित था। हम ‘माफ करो महाराज’ नारे को भूल नहीं सकते जो सिंधिया के विरूद्ध बार-बार लगाया गया था। वही सिंधिंया माफ करते हुए कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए।

दलबदल ने हमारे देश में प्रजातंत्र को सिद्धांतहीनता के खंभों पर खड़ा कर दिया है। वैसे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के जो अनेक देश आजाद हुए थे, उनमें से हमारा देश उन चन्द देशों में से एक है जहां लोकतंत्र कायम है। परंतु दलबदल का दीमक उसे जिस तरह से बर्बाद कर रहा है उससे लगता है कि एक दिन देश का लोकतंत्र ही खतरे में पड़ जाएगा।

भारत में दलबदल की प्रक्रिया को सैद्धांतिक अमली जामा डॉ. राममनोहर लोहिया ने पहिनाया था। उन्होंने नारा दिया था ‘‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती हैं।” उनका नारा था Equidistance, जिसका उद्देश्य था कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी से बराबर की दूरी रखी जाए। जिंदा कौमें… वाले नारे का मतलब था कि यदि चुनी हुई सरकार गड़बड़ करती है तो उसे पांच साल के पहले ही पलट दो। इस नारे का सहारा लेकर दलबदल शुरू हो गया। अनेक सरकारों को दलबदल के जरिए पलट दिया गया। दलबदल के बारे में एक नया नारा उभरा – ‘आया राम गया राम’। इस तरह पहली बार भगवान राम का नाम राजनीति में घसीटा गया। मध्यप्रदेश भी उन राज्यों में से एक था, जहां दलबदल से सरकार बदली गई। दलबदल के जरिए सरकारें बदलने की इस प्रक्रिया में जनसंघ की प्रमुख भूमिका रही। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र ने सुझाव दिया कि जहां भी ऐसे प्रयास हों वहां की विधानसभा को भंग कर दिया जाए। पंडित मिश्र का यह सुझाव नहीं माना गया। यदि यह सुझाव मान लिया गया होता तो हो सकता है कि दलबदल की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती। अब यह प्रवृत्ति इतनी बढ़ गई है कि उसपर काबू पाना बहुत मुश्किल हो गया है। राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि वे इस प्रवृत्ति को समाप्त करने में पहल करेंगे।

यदि दलबदल को समाप्त करना है तो इसके लिए आम लोगों को ही पहल करनी होगी। आम लोगों को सांसदों पर इतना दबाव बनाना चाहिए कि वे संसद में दलबदल को पूरी तरह प्रतिबंधित करने वाला कानून बनवाने को बाध्य हो जाएं। परंतु यह हमारा दुर्भाग्य है कि सार्वजनिक मुद्दों पर हमारे देश की जनता संगठित नहीं होती है जैसा पश्चिम के राष्ट्रों में होता है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि ऐसे देश हैं जहां जनता की इच्छा के विरूद्ध कोई काम करना बहुत कठिन होता है। जैसे, यदि अमेरिका ईराक पर हमला करता है तो वहां की जनता सड़कों पर निकलकर इसकी भर्त्सना करती है। हम यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे देश की जनता दलबदल के पूरी तरह विरूद्ध है परंतु दलबदल होने पर वह सड़कों पर निकलकर उसका विरोध नहीं करती। यदि जनता दलबदल करने वाले सांसदों और विधायकों का सामाजिक बहिष्कार करने लगे तो भविष्य में कोई भी सांसद या विधायक दलबदल करने का साहस नहीं करेगा। इसी तरह जो अन्य कमियां हमारे लोकतंत्र में आ गईं हैं उन्हें भी प्रबल सामूहिक विरोध के माध्यम से ही दूर किया जा सकेगा।

 

 

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here