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कभी हिंदी साहित्य और कविता में एक वाम शिविर हुआ करता था। इसके ऊपर प्रगतिशील लेखक संघ का झंडा लहराता था। समस्त साहित्य-परिक्षेत्र में प्रभुत्व रखने वाली यह अग्र शक्ति थी। इसके एक से एक क़द्दावर कवि और लेखक जनप्रतिबद्ध होकर सत्ता के विरुद्ध क्रांतिकारी रचनाएँ और कृतियाँ दे रहे थे। बनारस की कविता में […]

कभी हिंदी साहित्य और कविता में एक वाम शिविर हुआ करता था। इसके ऊपर प्रगतिशील लेखक संघ का झंडा लहराता था। समस्त साहित्य-परिक्षेत्र में प्रभुत्व रखने वाली यह अग्र शक्ति थी। इसके एक से एक क़द्दावर कवि और लेखक जनप्रतिबद्ध होकर सत्ता के विरुद्ध क्रांतिकारी रचनाएँ और कृतियाँ दे रहे थे। बनारस की कविता में भी ऐसे तीन कवि थे। धूमिल और गोरख पाण्डेय तथा इनके बीच की कड़ी राजशेखर जी। मूर्धन्य समालोचक नामवर जी की कृपा सिर्फ़ धूमिल पर बरसी। ” सड़क से संसद तक ” धूमिल का काव्य संग्रह आया और सड़क से संसद तक छा गया। निस्संदेह अन्य से धूमिल की कोई तुलना नहीं। धूमिल अपनी तरह के एक मज़बूत और बड़े कवि हैं। उनके जैसी मुहावरेदार और आग्नेय भाषा और घुमावदार ताबड़तोड़ शैली व बयान की वेधक अभिव्यक्ति किसी के पास नहीं थी। अपनी इन विशेषताओं से वे परवर्ती और युवा कवियों में ख़ूब लोकप्रिय हुए जिन्होंने उनकी ख़ूब नक़ल की और नष्ट हो गए। धूमिल की कविता में जो चार्म था वह उन्हें रिझाने के लिए काफ़ी था। धूमिल की कविता में जो अतिव्यंजनात्मक एक अमूर्तन और कोलाज जैसा रचाव था वह उन्हें बहकाने के लिए काफ़ी था। अंज़ाम देखकर धूमिल की नक़ल करने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे समाप्त हो गई। धूमिल का निधन आपातकाल के दौरान हुआ था।

सोवियत संघ के विघटन के बाद गोरख पाण्डेय ने आत्महत्या कर ली जो धूमिल से उम्र में काफ़ी छोटे थे। गोरख पाण्डेय सधी अभिव्यक्ति और कथ्य के कवि थे जिनकी नक़ल नहीं हो सकती थी। मरते वक़्त वे जन संस्कृति मंच के पदाधिकारी थे। जन संस्कृति मंच वामपंथी साहित्य का तीसरा खेमा था जो प्रगतिशील लेखक संघ से टूटकर बना था। दूसरा खेमा जनवादी लेखक संघ था। राजशेखर जी साम्यवादी भी थे और इस नाते स्वाभाविक रूप से जनवादी भी। वे किसी संघ के घोषित सदस्य और पदाधिकारी नहीं थे। किसी भी वामपंथी संघ के कार्यक्रमों में उन्हें बुलावा आ सकता था और वे सहर्ष जा सकते थे। जनवादी लेखक संघ ने साम्यवादी विचारधारा का आग्रह छोड़ दिया था। जनता से सहानुभूति रखने वाला और जनता के लिए लिखने वाला कोई भी जनवादी लेखक संघ का मेम्बर हो सकता था, मंदिर का पुजारी और छद्म रूप से संघी भी। राजशेखर जी किसी लेखक संघ के सदस्य या पदाधिकारी नहीं बने। वे साम्यवाद के पथ पर अपने ढंग से एकला चलते रहे। वे धूमिल और गोरख पाण्डेय के बीच की कड़ी थे। वे दोनों से जुड़े थे और दोनों के साथ समय बिताया था। राजशेखर जी की कविता भी इन दोनों के बीच की कविता है, जहाँ तक मैं समझता हूँ।

बनारस के रेडिकल कवि राजशेखर

बनारस के बाहर के लोग राजशेखर जी को उनकी कविता से ज़्यादा धूमिल के दूसरे संग्रह ” कल सुनना मुझे” के सम्पादन और उस पर उनकी सम्पादकीय के लिए जानते हैं। इस कृति पर धूमिल को मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ था। धूमिल के इस संग्रह की प्रस्तावना किसी साम्यवादी समालोचक ने नहीं, हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति के विराट चिंतक और सुरम्य लेखक विद्यानिवास मिश्र ने लिखी थी। राजशेखर जी कट्टर साम्यवादी थे लेकिन विद्यानिवास मिश्र जी उन्हें चाहते थे। वे उन्हें कहीं काम भी दिलवाना चाहते थे। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर घनघोर अभावों में संघर्षरत राजशेखर जी

तब युवा नहीं रह गये थे और दूसरे विद्यानिवास जी की छवि धुर दक्षिणपंथी होने के कारण वेअपने साम्यवादी संकोचवश उनका कार्मिक प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर पाए। यूं उद्यम तो कई राजशेखर जी ने किए लेकिन किसी में सफल नहीं हो पाए। साझे का उनका छापाख़ाना भी बैठ गया जिसमें उनके पार्टनर के साथ उनकी मुक़दमेबाज़ी भी हुई। कहानीकार पत्रिका के सम्पादक और कहानीकार कमल गुप्त द्वारा रोटरी क्लब की तरफ़ से एक टाइपराइटर दिलवाया गया था जिसे लेकर वे कई साल बनारस कचहरी जाते रहे और काग़ज़ात टाइप करते रहे। एक दिन वह टाइपराइटर भी बैठ गया। फिर फ्रीलांसिंग ही चारा रह गया।

लेकिन तब तक उनके दो बड़े बेटे कमाने लगे थे और उन पर आर्थिक दबाव कम हुआ। पाँच बेटों और चार बेटियों के पिता राजशेखर जी ने कैसे घर सँभाला, संतानों की परवरिश की, सभी बेटियों की शादी की, सतत और दीर्घ साहित्य-साधना की एक कमाल ही है। राजशेखर जी से भी ज़्यादा इसका श्रेय राजशेखर जी की पत्नी को है। राजशेखर जी की पत्नी ने कोई भी परिस्थिति रही हो राजशेखर जी को कोई तनाव नहीं दिया। वे पति को परमेश्वर समझने वाली महिला थीं। राजशेखर जी को जो तनाव मिला वह घर के बाहर से मिला। और जो कुछ मदद उन्हें मयस्सर हुई वह उनके उस छोटे भाई से मिली जो बहुत पहले से अमेरिका में जा बसे थे और वहीं शादी की और वहीं के नागरिक होकर रह गए। लेकिन राजशेखर जी की जो सेवा और देखभाल राजशेखर जी की पत्नी ने की वह लाजवाब है। यही कारण है कि सात साल पूर्व अपनी पत्नी के निधन के बाद वे टूट गए और उनका लिखना-पढ़ना एकदम-से बंद हो गया।

राजशेखर जी ने ख़ूब लिखा। उन्हें कवि राजशेखर जी के नाम से जाना जाता था। उन्होंने कविताएँ लिखीं, गीत, ग़ज़ल सानेट लिखे। काव्य-नाटक लिखे। उनके काव्य-नाटक आकाशवाणी से प्रसारित हुए, प्रशंसित हुए। आकाशवाणी की अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता में उनके काव्य-नाटकों को पुरस्कार भी मिले। इसके बावजूद बनारस की किसी नाट्य-संस्था ने उनके काव्य-नाटकों को मंचित नहीं किया जबकि उनके काव्य-नाटक मिथक कथाओं और चरित्रों को लेकर थे बस एक हल्का-सा प्रगतिशील पाठ लिए जो हमारे समाज के लिए ठीक ही था। यह है कि उनके काव्य-नाटकों की भाषा संस्कृतनिष्ठ थी और कथा-तत्व उनमें कम रहता था। उनके लिखे चार काव्य-नाटक हैं लेकिन प्रकाशित कोई नहीं हुआ है। उनकी दो ग़ज़लें साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपकर ख़ूब प्रशंसा पाई थीं—

बोतलों से ढारकर मुझको अँधेरा

पी रहा है गारकर मुझको अँधेरा

खोलकर चुपचाप अपना द्वार रात

ढूँढ़ती है धुन्ध में आकार रात

उनके जीते-जी उनकी एक ही किताब प्रकाशित हुई थी, ग़ज़लों की किताब ” बोल लहू में डूबी शाम ” जिसे छपवाने का श्रेय गीतकार और तत्कालीन तहसीलदार ओम धीरज जी को है। शेष सारा लेखन छपने की बाट जोहता रहा। आज भी, उनके मरणोपरांत भी, जोह ही रहा है।

जब तवक़्क़ो ही उठ गई गालिब !

राजशेखर जी एक दशक से साहित्य-समारोहों में नहीं जा रहे थे। लोगों से मिलने के प्रति उदासीन हो गये थे। उनमें कहीं गहरे यह भाव पैठ गया था कि लोगों ने उनकी उपेक्षा की है, तिरस्कार किया है। यह सही भी था। उनकी कृतियों का अप्रकाशित रह जाना, सरकार की ओर से पेंशन की व्यवस्था न हो पाना, कठिनाइयों के वक़्त लोगों द्वारा मुँह फेर लेने के अनुभव , जब वे कहीं आने-जाने लायक़ नहीं रह गये तब किसी का उनके पास जाकर उनका हाल-चाल न लेना, ये कुछ ऐसे घाव थे जो उनके लिए बहुत पीड़ाजनक थे। राजशेखर जी के अकेले पड़ते जाने के पीछे उनका स्वभाव भी एक कारण था। वे एक विचार-कट्टर व्यक्ति थे और उग्र स्वभाव के होने के कारण वे किसी की ग़लत बात बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। उनको आप कैसे झेलते हैं एक मुहावरा बन गया था।

एक दलित सज्जन थे जो सरकारी नौकर थे और अम्बेडकर- साहित्य के विक्रेता। लेकिन वे न तो वे साहित्यकार थे और न उन्हें साहित्य की समझ थी। वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं थे, लेकिन ट्रेड यूनियन के विभागीय पदाधिकारी थे। वे अपने को रेडिकल कम्युनिस्ट समझते थे और नक्सलाइट कहते थे। इसी क्रम में वे अपने को अम्बेडकरवादी नक्सलाइट भी कहने लगे। उन्होंने दलित साहित्य को लेकर एक पत्रिका भी निकालनी शुरू कर दी। वे न लेखक थे, न कवि, न पत्रकार, लेकिन सीधे सम्पादक बन गए। गुड़-गोबर किसी तरह वे पत्रिका निकालने लगे और राजशेखर जी के पास आने-जाने लगे। उन्होंने जब राजशेखर जी को बताया कि वे अम्बेडकरवादी नक्सलाइट हैं तो राजशेखर जी को बहुत बुरा लगा। राजशेखर जी भी अपने को नक्सलाइट ही कहते थे। इसके समर्थन में उनकी विचारधारा और उनका साहित्य था और छठें दशक में बर्नपुर पश्चिम बंगाल में उनके प्रवास के दौरान उनका नक्सलाइट आंदोलन से जुड़ाव था। जब उन पर बहुत दबाव पड़ा और उनके जान पर बन आई तो वे भागकर बनारस अपने घर आ गए।

यह सातवें दशक के शुरुआत की बात है। यह बात अम्बेडकरवादी नक्सलाइट जी को मालूम थी या नहीं लेकिन उनका अपने को अम्बेडकरवादी नक्सलाइट बताना अखर गया। फिर भी राजशेखर जी उन्हें झेल गये। लेकिन इस बात की चर्चा उन्होंने कई लोगों से की। एक बार अम्बेडकरवादी नक्सलाइट जी किसी साहित्यकार मंडली में बैठे हुए थे। वहाँ उन्होंने बताया कि वे आजकल राजशेखर जी के यहाँ उठ-बैठ रहे हैं, जिस पर किसी ने शरारतवश उनसे पूछ लिया कि महाराज कैसे आप उनको झेलते हैं ? और वे फूलकर कुप्पा ! उन्हें लगा कि वे बहुत बड़ी समावेशी शख़्सियत और उदार व्यक्ति हैं। अगली बार वे राजशेखर जी के पास बैठे तो अपनी महिमा उनके आगे उगल ही बैठे कि लोग कहते हैं कि आप कैसे राजशेखर जी को झेलते हैं ! यह सुनना था कि राजशेखर जी उबल पड़े कि आप हो कौन, कवि हो, साहित्यकार हो, मेरे दोस्त हो ! मैं आपके पास जाता हूँ कि आप मेरे पास आते हो।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि जब राजशेखर जी को ग़लत समझा गया और उनके साथ ग़लत व्यवहार किया गया।

जब मैंने उन्हें देखा

अक्सर लोग मुझसे पूछते थे कि राजशेखर जी का क्या हाल-चाल है। कारण कि वे उसी मुहल्ले के थे, जिस मुहल्ले का मैं हूँ। उनके घर के पास ही मेरा भी घर है। सिकरौल हमारा मुहल्ला है। यहीं राजशेखर जी भी पैदा हुए और यहीं मैं भी। अंतर बस यह है कि राजशेखर जी सिकरौल गाँव में पैदा और जवान हुए और मैं सिकरौल मुहल्ले में। फिर भी बीसवीं सदी के नवें दशक तक इसका लुक गाँव का ही था। उनका स्कूली नाम रामनारायण सिंह था साहित्यिक नाम राजशेखर। हाईस्कूल पास करते-करते मैं कविताएँ लिखने लगा था। ग्यारहवीं पास किया तो जनकवि गणेश प्रसाद सिंह ‘मानव’ के घर आयोजित होने वाली काव्य पाठ करने लगा। वहाँ लोग मुझसे पूछने लगे, राजशेखर जी को जानते हो, बहुत बड़े कवि हैं और तुम्हारे ही मुहल्ले सिकरौल में रहते हैं। मानव जी की गोष्ठी में वे भी जाते थे लेकिन उस समय कई हफ़्तो से वे वहाँ नहीं गए थे। मैंने सिकरौल में पता किया यहाँ कवि राजशेखर जी कहाँ रहते हैं। कोई नहीं बता पाया। संयोग से एक दिन मैं घर आ रहा था। मुख्य सड़क से गाँव या मुहल्ले के मोड़ पर दो आदमी बतिया रहे थे जिनमें एक गोरे-चिट्टे, नाटे क़द के व्यक्ति थे जिनकी उम्र पचास के आस-पास रही होगी। उनकी बातचीत में मुझे एक शब्द सुनाई दिया – कविता। यह शब्द सुनकर मैं वहाँ रुक गया और इंतज़ार करने लगा दोनों के अलग होने का।

कुछ वर्ष पहले फ़ोन पर बतियाते हुए

कुछ देर बाद उन्होंने एक-दूसरे को विदा किया। गोरे-चिट्टे व्यक्ति ने गाँव में प्रवेश किया। मैं समझ गया यही राजशेखर जी होंगे और अगर ये नहीं हुए तो भी ये राजशेखर जी को जानते होंगे और उनका पता बता देंगे। उनके पीछे-पीछे चलता हुआ मैं उनके पास पहुँचा। उन्हें प्रणाम किया और पूछा, क्या आप राजशेखर जी को जानते हैं ? उन्होंने बताया कि वे ही राजशेखर हैं, बताओ क्या काम है ? मैंने बताया कि मैं कविता लिखने का अभ्यास कर रहा हूँ। मानव जी की गोष्ठी में मुझे बताया गया था कि राजशेखर जी एक बड़े कवि हैं और सिकरौल में ही रहते हैं, तुम उनसे मिलो। तभी से मैं आपसे मिलना चाहता था। उन्होंने पूछा, किसके घर के हो। मैंने बताया कि मैं शिवव्रत जी का बेटा हूँ। हालाँकि, मेरा पिता जी छह साल पहले गुज़र चुके थे। फिर वे जान गये मेरे दादा और ताऊ जी कौन हैं। बाद में उन्होंने बताया कि वे और मेरे ताऊ जी सहपाठी थे और तुम्हारे पिता कनिष्ठ थे और हम तीनों पिसनहरिया मिडिल स्कूल में एक साथ पढ़ने जाते थे। वे मुझे अपने घर ले गये और चाय पिये-पिलाये। इस तरह उनसे परिचय मज़ेदार रहा जबकि मैं उनका घर भी जानता था

उनको देखता भी था। उनके घर में पीछे की तरफ़ एक बाग़ीचा भी था जिसमें छोटे-बड़े कई पेड़ थे और फूलों की झाड़ियां थीं जिनमें चिड़ियाँ चहकती रहती थीं। जब मैं बच्चा था और मेरी दादी जी ज़िन्दा थीं, राजशेखर जी की माँ मेरे दादी से मिलने मेरे घर आती थीं। राजशेखर जी जितने दुबले-पतले थे, उनकी माँ उतनी ही पृथुलकाय थीं कि हम छोटे बच्चे उन्हें देखकर दूर से हँसते थे। उनके हाथ में हमेशा एक मोटी-सी छड़ी रहती थी। सिकरौल गाँव में मेरे पिता और ताऊ के अलावा उनके दोस्तों में एक निषादराज यादव भी थे जो सिकरौल गाँव के नगर महापालिका में शामिल होने के बाद पहले सभासद बने थे लेकिन उसके बाद वे अचानक ग़ायब हो गए और उनका कभी पता नहीं चला। निषादराज यादव बहुत पढ़ाकू थे। साहित्य के प्रति अभिरुचि उनके कारण ही राजशेखर जी में जगी। राजशेखर जी बताते थे कि निषादराज यादव ने मुंशी प्रेमचंद के प्रेस में भी काम किया था। ज्ञातव्य है कि मुंशी प्रेमचंद का प्रेस उनकी मृत्यु के बाद भी बरसों बनारस में चलता रहा। राजशेखर जी के साथ अपने या उनके घर में बैठने से ज़्यादा घूमने में मज़ा आता था। ऐसे में राजशेखर जी संस्मरणजीवी हो जाते थे। ऐसे समय में उनकी तल्ख़ियाँ कम हो जाती थीं। अपने इलाक़े की गलियों से होते हुए जब हम वरुणा नदी की ओर जा रहे होते तो ख़ुशी से वे चहक उठते कि यार केशव ! तुम तो मुझे मेरे बचपन में ले आते हो। वे वनस्पतियों के औषधीय गुणों और पशु-पंछियों की विशेषताओं का वर्णन करते चलते।

राजशेखर जी का जन्म 9 अगस्त 1933 को सिकरौल गाँव, वाराणसी में हुआ था। उनके पिताजी पश्चिम बंगाल में भवन-निर्माण के विशेषज्ञ और ठेकेदार थे। उनका हाथ बँटाने 1955 में वे पश्चिम बंगाल चले गये। नक्सल आंदोलन में धर-पकड़ से बचने के लिए वे बनारस आ गए और फ्रीलांसिंग करने लगे। अनेक सृजनात्मक विधाओं में लेखन के साथ वे अख़बारों में लेख और कॅालम भी लिखते रहे। बीच में जब उनका मन होता वे चित्र भी बनाते थे। उनका लिखा मन को आंदोलित करता है तो उनके बनाये चित्र आँखों को बाँधते हैं। उनके विपुल लेखन और चित्रण का समग्र एक सपना ही है क्योंकि वे अकादमिक दुनिया से जुड़े नहीं थे। वे लोगों के बीच लोगों के कवि थे। धूमिल और गोरख पाण्डेय से जुड़ा होना उनके लिए प्रीतिकर था तो त्रिलोचन शास्त्री का साथ आह्लादक अनुभव था। त्रिलोचन शास्त्री के रहते और घूमते-फिरते वे भी सॉनेट लिखने लगे। हिन्दी में सॉनेट के कवि के रूप में त्रिलोचन जी के बाद राजशेखर भी एक शिखर हैं। कभी कमलेश्वर जी ने एक पत्रिका निकाली थी कथायात्रा नाम से। उसमें उन्होंने राजशेखर जी के तीन सॉनेट छापे थे। इसके दूसरे अंक में क़तील शिफ़ाई का एक इंटरव्यू छपा था जिसमें क़तील साहब ने राजशेखर जी के उन सॉनेटों की काफ़ी तारीफ़ की थी।

राजशेखर जी के सॉनेट से परिचय के लिए उनका एक सॉनेट पढ़ते चलें जिसे उन्होंने अपने कवि मित्र मिलिन्द काश्यप को याद करते हुए लिखा था। उन्होंने इसका शीर्षक दिया है– मिलिन्द काश्यप से एक वार्ता :

तुम्हें याद है निर्वासन की वे यात्राएँ

पुलिस ज़ुल्म की वह त्रासद ग़मनाक कहानी

सहमे देख रहे थे जिसे छात्र-छात्राएँ

बाहर हम कर दिए गए थे घर से बेमानी

 

ख़ूब याद है मुझे टूटते कैसे पंजर

भाड़े के मकान में रहकर जाना

बदल गए होते उपवन में कितने बंजर

जितना हमें पड़ा है अपना ख़ून बहाना

 

अर्थहीन लेखक का साथ कौन देता है

किन्तु लालफीताशाही के इस निज़ाम में

दिन यदि काले हों तो हाथ कौन देता है

फ़र्क़ नहीं होता कुछ अध्यापक ग़ुलाम में

 

पीड़ित हो तुम ! पीड़ित का स्वर बूझ रहे हो

मेरे साथ मित्र तुम भी तो जूझ रहे हो

राजशेखर जी की उस जीवन-संत्रास की कविता है जो घर की दहलीज़ से लेकर विश्व के छोर तक फैला है। इसके विभिन्न अनुभवों व रूपों को उन्होंने टकराने के अंदाज़ में बाँधा है। उनकी एक अलग काव्य शैली और भाषा है। उनकी कविता के शब्द भड़के हुए और भड़कीले हैं। उनकी कविता की मुख्य शब्दावली– रात, अँधेरा, सन्नाटा, आग, धुआँ, धुंध, आँधी-तूफ़ान, सैलाब, सलीम, श्रमिक, चीख़, सुरंग, दु:स्वप्न, ख़ून, गीदड़, सियार, उल्लू, गिद्ध, भेड़िया, शेरनी, शेर, जंगल, चट्टान, ज़ख़्म, ज्वालामुखी, बेड़ियाँ, बन्दूक़, युद्ध, हत्यारा, तानाशाही, गोरिल्ला वाली है। तो ज़ाहिर है कि इनके पर्यायवाची, विशेषण और क्रियाएँ भी इन्हीं के अनुरूप तेवर लिए होंगी। उनकी कविता में सर्वत्र एक भावावेश है और इसमें स्वयं की, जनता की, जगत की पीड़ाएँ हैं जो अन्याय, शोषण और अत्याचार की देन हैं। उनकी कविता हो या सॉनेट, ग़ज़ल, गीत, मुक्तक हों, सब में ये विशेषताएँ विद्यमान है। वे गीतों में भी रूमानी नहीं होते। वहाँ भी वे अपनी प्रचंड संघर्ष-चेतना के साथ मौजूद रहते हैं–

शेर और भालू का भात-टाट एक है

बनवासी सपनों की आज यही टेक है

काले अँगरेज़ बिछाकर/ देखो, जाल रे

छींट रहे धोखे का चारा महीन रे

ख़तरे में जंगल है बजो मेरी बीन रहे

पर्वत पर आग लगी/ अपने को चीन्ह रे

जंगल मत छीन मेरा/ मंगल मत छीन रे

ऊपर आपने ग़ज़ल देखी ही — बोतलों से ढारकर मुझको अँधेरा/ पी रहा है गारकर मुझको अँधेरा।

कहाँ तक कितने उद्धरण दिए जाएँ ! परिचयात्मक सुविधा की दृष्टि से उनकी एक छोटी-सी कविता दे रहा हूँ जो उनकी पूरी कविता का अक्स है, ऐसा हम कह सकते हैं। कविता का शीर्षक है- सौगंध

आतताई के हाथों/ पिटा हुआ आदमी/ प्रत्याक्रमण से पलटकर/ यदि बर्बर के ख़िलाफ़/ मुट्ठी बाँधकर खड़ा हो जाता है/ तो मेरी कविताओ !/ ज़ख़्म से रिसते/ ताज़े लहू की सौगंध है तुम्हें/ आख़िरी साँस तक तुम/ उसका साथ मत छोड़ना !

राजशेखर जी कविताएँ जीवन में अत्यधिक संघर्षरत एक रेडिकल कम्युनिस्ट की कविताएँ हैं जिसकी पालिटिक्स साफ़-पाक है।

वे इससे अधिक के मुस्तहक़ थे

एक साल बिस्तर पर रहने के बाद वे 25 जनवरी 2021 को दुनिया छोड़ गए। फेसबुक, व्हाट्स एप और समाचारपत्रों में उनके निधन की सूचना प्रसारित होने के बाद भी उनकी शवयात्रा में शामिल साहित्यकारों की संख्या अफ़सोसजनक रूप से कम थी। घाट पर सिर्फ़ डॉ रामसुधार सिंह और रामजी यादव ही दिखे। तेरहवीं पर लोग ज़रूर जुटे और एक संतोषजनक श्रद्धांजलि सभा हुई राजशेखर जी के कई फोटों के एक बड़े पोस्टर और लम्बी-चौड़ी मेज पर उनकी दस-बारह किताबों के साथ। दरअसल, वे किताबें नहीं उनकी टंकित पांडुलिपियाँ थीं जिन पर कवर डिजाइन करके डाल दिया गया था। यह कमाल उनके सुपुत्र धनंजय कुमार का था। धनंजय कुमार ने बताया कि इनके अलावा भी कई पांडुलिपियाँ हैं जिन्हें वे अपने हाथों टंकित करके सुरक्षित रखे हैं। राजशेखर जी की सुरक्षित पांडुलिपियाँ प्रकाशित हों, आइए हम सब प्रार्थना करें !

क्योंकि राजशेखर तो अक्षुण्ण और अप्रतिहत रचनाशीलता के मेयार थे । उनमें दुनियादारी होती तो वे इतने अलक्षित और उपेक्षित भला क्योंकर रहते । वे मुंह पर कहने की आदत के शिकार न हुये होते बल्कि मौका देखकर मुंह देखी कर दिया करते और स्थापित हो जाते । लेकिन उनकी वह शिफत कहाँ होती जिसने उन्हें केवल और केवल राजशेखर बना रहने दिया और कुछ भी नहीं । उन्होंने अपने आपको मिटा दिया । बक़ौल गालिब

हस्ती हमारी अपनी फ़ना पर दलील है

याँ तक मिटे कि आप ही अपनी कसम हुये !!

27 June, 2021

गाँव के लोग
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