एक और साल अब अलविदा कहने को तैयार है। दुनिया एक नए साल के स्वागत के इंतजार में खड़ी है। यह विश्लेषण का वक्त है कि हमने और हमारे समाज ने ख़त्म हो रहे इस साल में क्या सृजित और विघटित किया। इस मूल्यांकन में जब हम दलित समाज की स्थिति पर नजर डालते हैं, तो ऐसा लगता है कि साल नहीं, बल्कि सदियों से इनके हक और सम्मान पर धूल की एक मोटी पर्त जमी है। जिसे साफ करने के मजबूत राजनीतिक इरादे भी कम से कम इस वर्ष तो नहीं देखने को मिले। इस वार्षिक मूल्यांकन में आज दलित उत्पीड़न की सामाजिक स्थिति से रूबरू करवा रहे हैं कुमार विजय…
मेरी माँ मैला कमाती थी/ बाप बेगार करता था/ और मैं मेहनताने में मिली जूठन को/ इकट्ठा करता था, खाता था/ आज बदलाव इतना आया है कि/ जोरू मैला कमाने गई है/ बेटा स्कूल गया है और मैं कविता लिख रहा हूँ।
कवि मलखान सिंह की यह कविता दलित जीवन त्रासदी और उनकी सामाजिक स्थिति को सच के बहुत करीब से उजागर करती है। संविधान से अधिकार मिलने के बावजूद अभी भी दलित जीवन में मामूली बदलाव ही देखने को मिला है। जातीय उच्चता बोध की तमाम लातें, आज भी दलित की पीठ को निशाना बनाए हुए तनी दिखती हैं। इन लातों के खिलाफ लंबे समय से सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष होता रहा है, जिसके फलस्वरूप सामाजिक स्थिति में बहुत कुछ बदलाव भी हुआ है। राजनीति से लेकर साहित्य, शिक्षा और समाज में दलित समाज की हिस्सेदारी भी बढ़ी है। बावजूद इसके दलित समाज का बहुसंख्यक हिस्सा आज भी सम्मानजनक जीवन का हिस्सेदार नहीं बन सका है। दलित समाज को उत्पीड़ित करने वाली घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। संविधान में समान अधिकार प्राप्त कई जातियाँ, पीढ़ियों और परम्पराओं से मिले श्रेष्ठता बोध के अहंकार में दलित समाज के सम्मान को कुचलने के प्रयास में लगी हुई हैं।
मीडिया के पूरी तरह गोदी मीडिया बन जाने के बाद उसका काम केवल सत्ता के जूते चमकाना भर रह गया है। वह लगातार चीख-चीख कर यह प्रचारित कर रहा है कि मोदी राज में सब सुखी और सम्मानित हैं, लेकिन सोशल मीडिया और मीडिया में तमाम ऐसी ख़बरें साल भर देखने को मिलीं, जिसे देखकर लगता है कि हम सभ्यता के किसी नए जंगल में पहुँच गए हैं। इस बात को सत्यापित करने वाली कई घटनाएँ इस बीच चर्चा में आई हैं, जिनमें साफ़ तौर पर दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय प्रताड़ित किया गया है। इस तरह की घटनाएँ सबसे ज्यादा उन प्रदेशों से सामने आ रही हैं जहाँ भाजपा की सरकार है। भाजपा शासित राज्यों में आए दिन दलितों-आदिवासियों के साथ बर्बरता की खबरें आ रही हैं।
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर के दिए हुए संवैधानिक अधिकार के बावजूद दलित समाज के जीवन में आज भी वंचना और तिरस्कार का एक घना कुहासा छाया हुआ है। इतिहास में तब्दील होने को तैयार खड़ा वर्ष 2023 भी दलित समाज के उत्पीड़न का बड़ा गवाह रहेगा। मध्य प्रदेश की दलित उत्पीड़न की एक पुरानी घटना का वीडियो इस वर्ष वायरल हुआ था। उत्तर प्रदेश भी पूरे वर्ष दलित उत्पीड़न का अखाड़ा बना रहा।
वर्ष 2023 में हुई कुछ दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर जब नजर डालते हैं तो इस देश के वह सारे नारे जो ‘वसुधैव कुटुंबकम’, ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं…’ जैसे दंभनाद से भरे पड़े हैं, वह खोखले नजर आने लगते हैं। देश के उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक दलित उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार हो रही हैं। देश भर की राजनीतिक निगाहें भले ही आज दलित वोटर को अपने पाले में कर लेने की होड़ में लगी हों, पर उनके जीवन की त्रासद स्थिति में बदलाव लाने की आतुरता फिलहाल किसी भी राजनीतिक दल में वैसी नहीं दिखती है कि एक झटके में बहुत बड़े बदलाव की स्थिति निर्मित हो जाए। यह कहने के पीछे कोरी भावुकता नहीं है, बल्कि अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े हैं।
आंकड़ों में क्या है दलित उत्पीड़न की स्थिति
एनसीआरबी यानी नेशनल रिकार्ड ब्यूरो ने साल के अंत में दलित उत्पीड़न की घटनाओं का पिछले तीन सालों का आंकड़ा जारी किया है, जिसके अनुसार भारत में दलित या फिर अनुसूचित जाति के साथ साल 2022 में 57,582 घटनाएँ हुई हैं। इनमें राज्य के रूप में मध्य प्रदेश 12,714 घटनाओं के साथ सर्वाधिक दलित अपराध वाले राज्य के रूप में सामने आया है। साल 2021 में 50,900 घटनाएँ हुई थीं, जबकि साल 2020 में दलितों के खिलाफ अपराध की 50,291 घटनाएं घटित हुई थीं।
इस रिपोर्ट में साफतौर पर देखा जा सकता है कि आजादी के अमृतकाल में घटनाएँ कम नहीं हुई हैं, बल्कि उनमें बढ़ोत्तरी ही हुई है। मार्च 2023 में भारत सरकार ने संसद में बताया कि 2018 से 2020 के दौरान दलितों के खिलाफ हुए अपराध के 1.9 लाख से अधिक मामले दर्ज किए गए हैं। अब जबकि 2020 से 2022 के आंकड़े बता रहे हैं कि अंतिम तीन वर्षों में यह संख्या डेढ़ लाख के पार जा चुकी है। यह हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि यह आंकड़े एनसीआरबी के हैं। अपराध पर जीरो टालरेंस की बात कहने वाला उत्तर प्रदेश दलितों के उत्पीड़न के मामले देश में नंबर एक बना हुआ है।
देश को शर्मसार करती दलित उत्पीड़न की घटनाएं
दलित उत्पीड़न की सबसे शर्मनाक घटना का गवाह बना मणिपुर जहां आरक्षण के नाम पर सुलगी आग में हजारों दलित आदिवासी परिवार बेघर हो गए, वहीं दो आदिवासी लड़कियों को तथाकथित ऊंची जाति के लोगों द्वारा सरे आम नग्न करके घुमाया गया। यहाँ कुकी समाज की औरतों के बलात्कार की बहुत सी घटनाएं घटीं, जिसे मीडिया में भी जगह नहीं मिल सकी। इन घटनाओं ने दुनिया के सामने देश के ज़ेहनी चरित्र की कलई खोल कर रख दी। मणिपुर कोई अलग देश नहीं है, बल्कि भारत का ही हिस्सा है पर यहाँ की हिंसक और अपमानजनक घटनाओं के मामले में जहां तमाम रिपोर्टों ने राज्य सरकार की मिलीभगत का आरोप लगाया, वहीं केंद्र सरकार की चुप्पी पर भी सवाल उठे।
मध्य प्रदेश में सीधी की एक घटना का वीडियो खूब वायरल हुआ। इस वीडियो में सत्ता के करीबी एक ब्राह्मण युवक प्रवेश शुक्ला द्वारा आदिवासी व्यक्ति के मुंह पर पेशाब करने का मामला देखा गया। वैसे तो यह घटना कुछ साल पुरानी थी पर यह 2023 में वायरल हुई। इस घटना ने सत्ता को जनआक्रोश के दबाव में ला दिया और आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने आदिवासी दलित को अपने आवास पर बुलाकर अपने हाथ से उसका पैर धोया और साथ बैठाकर भोजन किया।
मध्यप्रदेश के ही सागर जिले में नितिन अहिरवार नामक अट्ठारह वर्षीय युवक की ह्त्या इसलिए कर दी गई कि उसकी बहन ने हमलावरों के खिलाफ दायर यौन उत्पीड़न के मामले को वापस लेने से इंकार कर दिया था। युवक की हत्या करने के साथ उसकी माँ को भी गाँव में निर्वस्त्र करके घुमाया गया था। आरोपी यहाँ भी तथाकथित उच्च जाति के ही थे।
मध्य प्रदेश में ही 7 जुलाई को दो भाइयों को बंधक बनाकर पीटने का मामला सामने आया। यहाँ दो मजदूर भाई काम करके बाइक से वापस जा रहे थे उसी दौरान बारिश की वजह से उनकी बाइक गिर गई और इसको लेकर जयपाल सिंह बघेल और प्रेम सिंह परमार से विवाद ही गया और उन दोनों ने आठ घंटे से ज्यादा समय तक दोनों भाइयों को बंधक बनाकर पीटा।
मध्य प्रदेश के ही शिवपुरी जिले में 30 जून को लड़कियों को छेड़ने का आरोप लगाकर दो दलित युवकों के साथ मार-पीट की गई और उनको पूरे गाँव में मुंह काला करके घुमाया गया। इसके साथ ही दोनों युवकों को मैला खाने पर भी मजबूर किया गया।
पंजाब में 9 मार्च को अमृतसर के श्रीगुरुरामदास इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस एंड रिसर्च में काम करने वाली एक दलित एमबीबीएस इंटर्न को जातिगत भेदभाव से तंग आकर आत्महत्या करनी पड़ी।
पश्चिम बंगाल की एक घटना में अंबेडकर जयंती के दिन यानी 14 अप्रैल को बालुरघाट में तीन आदिवासी महिलाओं को दंडवत परिक्रमा यानी रेंगकर परिक्रमा करने के लिए मजबूर किया गया।
हैदराबाद में 9 अप्रैल को ऑनर किलिंग का एक मामला सामने आया जहाँ एक दलित युवक को उसके रिशतेदारों द्वारा चाकू घोंप कर मार दिया गया।
गुजरात में सैलरी मांगने पर एक दलित युवक को सिर्फ पीटा ही नहीं गया, बल्कि उसे मुंह से सैंडिल उठाने को भी मजबूर किया गया।
राजस्थान आज भी जातीय भेदभाव की सबसे ज्यादा सुलगती जमीन है। इस जमीन से अक्सर दलित उत्पीड़न की घटनाएँ सामने आती रहती हैं। साल 2023 भी इससे अछूता नहीं रहा। 13 अप्रैल को बाड़मेर में दलित कोजाराम की हत्या काफी हुई थी। छह साल पुराने जमीन विवाद मामले में कोजाराम की हत्या उनके गाँव असाड़ी में बहुत ही निर्मम तरीके से की गई थी। जबकि कोजाराम ने पूर्व में अपने उत्पीड़न के नौ मामले दर्ज कराए थे। इससे साफ पता चलता है कि दलित समाज के लिए प्रशासन कितना अगंभीर है। कोजाराम की दो बेटियों का अपहरण भी हमलावरों ने कर लिया था। राजस्थान के बाड़मेर में ही अप्रैल में एक दलित महिला का बलात्कार करने के बाद उसे जिंदा आग के हवाले करने का भी मामला सामने आया था।
उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र, उड़ीसा, तेलंगाना भी दलितों के खिलाफ अपराध के मामले में बढ़त बनाते ही दिखते हैं।
उत्तर प्रदेश में कैसा रहा दलित अपराध का ताप
‘आइये महसूस करिए जिंदगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आप को’ कवि अदम गोंडवी की यह कविता बहुत पहले दलित समाज पर उत्तर प्रदेश में हो रहे अपराध पर लिखी गई थी। यह कविता बहुत ही ताकतवर अंदाज में सामंत समाज की क्रूरता को सामने लाती है, पर यह कविता भले ही आज भी किसी अलगनी पर टंगी पर हो लेकिन यूपी का जातीय ताप वैसे का वैसा ही बना हुआ दिखता है।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में महज 1200 रुपये की मजदूरी की मांग पर एक 18 वर्षीय दलित युवक की हत्या कर दी गई। मारे गए युवक के बड़े भाई ने इस घटना को लेकर कहा था कि ‘इस देश में दलित होने की कीमत चुकानी पड़ती है। उसकी गलती क्या थी? उन्होंने सिर्फ 1200 रुपये के लिए उसे मार डाला। हमारी जान कितनी सस्ती है।
एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, दलित उत्पीड़न की घटनाओं में महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले उत्तर प्रदेश में बढ़े हैं। 29 अक्तूबर को बांदा जिले के पतौरा गाँव में घर से लगभग 100 मीटर दूर स्थित आटा चक्की पर काम करने गई महिला का ब्राह्मण समाज के लोगों द्वारा सिर्फ बलात्कार ही नहीं किया गया, बल्कि बहुत ही क्रूर तरीके से हत्या करने का मामला सामने आया। महिला की लाश तीन टुकड़ों में मिली थी। पुलिस ने इस मामले को फिलहाल दुर्घटना बताया था, जबकि दलित परिवार ने बलात्कार और हत्या का आरोप लगाया था।
अमेठी के रामदाय पुर गाँव में एक दलित युवक के अंतरजातीय प्रेम विवाह करने पर लड़के के पिता पर धारदार हथियार से हमला कर हत्या कर दी गई और उसकी दादी को गंभीर रूप से घायल कर दिया गया।
उत्तर प्रदेश से जयपुर जा रही बस में एक 20 वर्षीय दलित लड़की के बलात्कार का मामला सामने आया। केबिन में बैठी लड़की के साथ बस चालक और परिचालक ने ही इस शर्मनाक कृत्य को अंजाम दिया था।
देवरिया में सितंबर माह में एक दलित शिक्षक की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई कि उसने सड़क पर चारपाई डालने और अपने पैर पर थूकने का विरोध किया था।
सितंबर माह में ही संपत्ति विवाद को लेकर कौशांबी जिले में एक दलित परिवार के तीन सदस्यों की हत्या कर दी गई।
मेरठ में पैसा मांगने के विवाद में एक दलित व्यक्ति के पैर में गोली मारने के बाद गला दबाकर हत्या कर दी गई और बाद में उसके शव को पेड़ पर लटका दिया गया।
नवंबर माह में बदायूं जिले में सार्वजनिक नल से पानी पीने की वजह से 24 वर्षीय एक युवक की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई।
जौनपुर जिले में लड़की छेड़ने के आरोप में एक दलित युवक को न सिर्फ मारा पीटा गया, बल्कि उसे पेशाब पीने पर भी मजबूर किया गया। आँख के भौ छिल कर उसका चेहरा ख़राब कर दिया गया।
इस वर्ष आम दलितों पर ही नहीं बल्कि दलित नेता चंद्रशेखर रावण पर भी जानलेवा हमला हुआ। गोली उनके पेट को छूते हुए निकल गई। इस घटना में वह बाल-बल बच गए।
मरते रहे दलित और चुप्पी साधे रही दलित राजनीति
वर्ष 2023 में दलित अत्याचार की घटनाएँ भले ही बढ़ती रहीं, पर किसी राजनीतिक दल ने दलित सम्मान के सवाल पर कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। उत्तर प्रदेश में दलित समाज की स्वीकृत नेता का हक रखने वाली बहुजन समाज पार्टी की मायावती ने इस समाज को वोट के लिए भले ही साध लिया हो, पर उसके सम्मान के संघर्ष में वह जमीनी रूप से इस वर्ष लगभग गायब ही रही। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक कार्ड तैयार करने में जरूर कुछ हद तक कामयाब हुए पर वह अभी तक दलित सम्मान के संघर्ष में कोई महत्वपूर्ण पहल नहीं कर पाए हैं।
दूसरी ओर, भाजपा अपने तमाम सांस्कृतिक एजेंडे समाज पर थोपना चाहती है, पर उसे यह भी पता है कि जिन जातियों की श्रेष्ठता को वह स्थापित करने के प्रयास में लगी हुई है, उनकी सामाजिक भागीदारी कितनी भी ताकतवर क्यों ना हो, पर सामाजिक हिस्सेदारी महज 15 से 20 प्रतिशत ही है। इतने कम वोट की हिस्सेदारी के सहारे वह सरकार नहीं बना सकती, इसलिए वह वोट के लिए पिछड़े, दलित और अब पसमांदा मुसलमानों को भी अपने साथ जोड़कर आगे बढ़ना चाहती है। अब राजनीतिक तौर पर भी भाजपा की शब्दावली में ‘दलित, पिछड़े समाज के हक़ और सामाजिक न्याय’ जैसे शब्द बहुतायत में सुनाई देने लगे हैं, पर यह शब्द महज चुनावी जुमले से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं।
ऐसे ही प्रयासों के तहत भाजपा उत्तर प्रदेश में दलित वोट में सेंधमारी करने का प्रयास करती दिखी। मिर्जापुर में भाजपा के मंत्री नंदगोपाल गुप्ता ने दलित के घर जाकर भोजन कर उसे उपकृत करने का प्रयास दिखाया।
यह कुछ घटनाएँ मात्र हैं, जो यह दिखाती हैं कि आजादी के अमृतकाल में आ जाने के बाद भी दलित समाज के लिए बहुत कुछ नहीं बदला है। ऐसे में दलित समाज पर बढ़ते हमलों को लेकर कभी न कभी तो यह सवाल पूछना ही होगा कि आखिर इतना दुस्साहस करने की हिम्मत इन उत्पीड़कों को मिलती कहाँ से है? तो इसका सीधा सा उत्तर है ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’।
आज जिस राष्ट्रवाद की हुंकार भरी जा रही है, उसके नेपथ्य में यही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, जिसे खत्म करने और सामाजिक न्याय की पक्षधरता करने के लिए कुछ राजनीतिक पार्टियाँ जातीय जनगणना की मांग कर रही हैं, पर भाजपा के लिए यह घाटे का सौदा है। भाजपा ब्राह्मणवादी और सामंती धारणा को ताकतवर बनाए रखने के लिए जिस छद्म तरीके से काम कर रही है, उसे जातीय जनगणना के आंकड़े ध्वस्त कर सकते हैं।
भाजपा नहीं चाहती है कि उसके हिंदुत्व के आंकड़े में किसी तरह की सेंध लगे। जातीय जनगणना हर जाति-समूह को उसकी वास्तविक ताकत बता देगा। तब हर जाति, व्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी के बराबर भागीदारी की भी मांग करेगी। आरक्षण का ढांचा, जो अभी तोड़ा जा रहा है, वह जातीय अनुपात में, हिस्सेदारी की स्थिति में और भी मजबूत हो जाएगा। फिलहाल तो अभी दलित समाज रामराज की आभासी उम्मीद में मूत्र-स्नान को अभिशप्त ही दिख रहा है। अंतत: यही कहा जा सकता है कि इस वर्ष दलित सम्मान के पक्ष में राजनीतिक स्वर बहुत ही कमजोर रहा और सवर्ण जातियों के लात दलित समाज के सम्मान पर लगातार आघात करते रहे।
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