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प्रदर्शनकारी लोककलाओं को संजोने का माध्यम है लोकरंग

लोकरंग लोक जीवन पर आधारित सांस्कृतिक कला, संगीत और साहित्य का केंद्र है। लोकरंग सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष और लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा उत्तर प्रदेश के जनपद कुशीनगर के छोटे से जोगिया जनूबी पट्टी में पिछले 16 वर्षों से यह कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं। इस कार्यक्रम के माध्यम से सुभाष चंद्र लोक संस्कृति से […]

लोकरंग लोक जीवन पर आधारित सांस्कृतिक कला, संगीत और साहित्य का केंद्र है। लोकरंग सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष और लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा उत्तर प्रदेश के जनपद कुशीनगर के छोटे से जोगिया जनूबी पट्टी में पिछले 16 वर्षों से यह कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं। इस कार्यक्रम के माध्यम से सुभाष चंद्र लोक संस्कृति से संबंधित तमाम कलाकृतियों को संजोने एवं उसे पिरोने का काम कर रहे हैं। इस कार्यक्रम में हर साल देश-विदेश के कोने-कोने से सैकड़ों कलाकार एवं बुद्धिजीवी आते हैं और अपनी कला एवं अनुभव का परिचय देते हैं। सुभाष चंद्र लोकरंग पत्रिका भी निकालते हैं जिसमें लोक संस्कृति की महत्वपूर्ण दास्तां संग्रहित हैं।

पिछले दो साल से मैं लोकरंग में शामिल हो रहा हूँ‌। कार्यक्रम के माध्यम से मैंने ‘लोक’ के बारे में जानने व समझने की कोशिश की है। साथ ही लोक संस्कृति की खूबसूरती का अनुभव भी किया है। वर्ष 2023 में लोकरंग के विभिन्न आयाम देखने को मिले, जिसमें लोक संस्कृति से संबंधित नृत्य, गायन, नाटक, कला, साहित्य के साथ एक नई चीज देखने को मिली, वह था बहरूपिया। बहरूपिया बनकर शमशाद और उनके साथियों ने गांव में घूम-घूम कर लोगों को हँसाते हुए अपनी कला का अनूठा प्रदर्शन किया।

कलाकारों को सम्मानित करते गाँव के लोग पत्रिका के संपादक और कहानीकार रामजी यादव

रात्रि आठ बजे से लोकरंग के मंच पर लोक कलाकारों का प्रदर्शन आकर्षण का केंद्र बिंदु था। इस कार्यक्रम में दक्षिण अफ्रीका के डरबन से केएम नंदलाल आए थे। उनके पूर्वज वहाँ गिरमिटिया मजदूर के रुप में गए थे और वहीं बस गए। बावजूद इसके केएम नंदलाल को भारत देश की मिट्टी से अगाध प्रेम है। जैसा कि उनके गीतों में साफ-साफ दिखाई दे रहा था। पिछले वर्ष नीदरलैंड से आए राजीव मोहन ने भी अपने गीतों से भारत देश की मिट्टी को याद किया था। कहने का मतलब लोकरंग के माध्यम से हम विदेश में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों की भावनाओं को भी जान पाते हैं। आदिवासियों के बीच अपनी लोक संस्कृति है जो कि वंदना टेटे के टीम द्वारा खड़िया आदिवासी नृत्य तथा तारकेश्वर काजी द्वारा प्रस्तुत की गई थारू लोक नृत्य उनके जनजीवन से परिचित कराती है। लोकरंग के मंच पर इनका शानदार प्रदर्शन रहा। कार्यक्रम में लोक कलाकारों द्वारा लोकगीतों का भी गायन हुआ जिसमें बृजेश यादव और निसार अली के लोकगीत लीक से हटकर नई तरह से दिखाई दिए। उनके लोकगीतों में आधुनिक परिवेश एवं परिस्थितियों की समझ तथा प्रतिरोध का स्वर साफ दिखाई देता है। इस मंच से कबीर के पद का भी गायन हुआ। 15वीं सदी में उनके लिखे गए पद 21वीं सदी के सत्ता और व्यवस्था से टकराते हैं इसलिए ‘लोक’ को जिंदा रखने के लिए कबीर जरूरी कवि है। कार्यक्रम के दोनों दिन दो अलग-अलग नाटकों का मंचन हुआ। पहले दिन परिकल्पना और निर्देशक पुंज प्रकाश दस्तक पटना द्वारा जामुन का पेड़ तथा दूसरे दिन नाचा थिएटर रायपुर छत्तीसगढ़ से निसार अली द्वारा निर्देशित टैच बेचइया नाटक का मंचन हुआ। मंच का कुशल संचालन प्रो. दिनेश कुशवाहा ने किया।

हर वर्ष की भांति इस बार भी एक महत्वपूर्ण विचार गोष्ठी का आयोजन हुआ। इस बार गोष्ठी का विषय था- लोक संस्कृति का भविष्य बनाम भविष्य की लोक संस्कृति। सभी विद्वानों द्वारा गोष्ठी के विषय पर गंभीर चर्चा हुई। लोक का अभिप्राय जनसाधारण से है। लोक ग्रामीण समाज के वंचित, पिछड़े, किसान, मजदूर और कम पढ़े-लिखे लोगों का जनसमूह है। उनके बीच की रहन-सहन, बोली-भाषा, गीत, नृत्य, त्योहार, कला आदि लोक संस्कृति का हिस्सा है। अब शिक्षित समाज में शहरीकरण व आधुनिकीकरण की छाप तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में लोक संस्कृति का भविष्य क्या होगा! इस विषय पर चिंतन जरूरी है। जब कोई वर्तमान पीढ़ी किसी कला के लिए अपनी पहचान बना चुकी होती है तो दूसरी तरफ देखा जाता है कि उनकी अगली पीढ़ी उसमें कोई रुचि नहीं दिखाती है। शायद इसी संदर्भ में लोकरंग की टीम द्वारा संगोष्ठी के लिए इसी विषय का चयन किया गया।

जैसा कि गाँव के लोग की कार्यकारी संपादक अपर्णाजी ने कहा कि मैंने बहरूपिया शमशाद से बात किया तो उन्होंने बताया कि उनके पिताजी भी यही काम करते थे लेकिन अब उनके बच्चों में यह कार्य करने में कोई रुचि नहीं है वे कहते हैं कि इस कार्य में ज्यादा पैसे और यथोचित सम्मान नहीं है। सबकी अगली पीढ़ी शिक्षा और रोजगार की तलाश में आगे बढ़ रही है, इससे लोक से दूरियां बढ़ रही हैं।

कोलकाता से आईं आशा सिंह ने कहा कि लोक संस्कृति में हमें अब नए तत्वों को शामिल करना होगा। इससे हमारी लोक संस्कृति सुरक्षित रहेगी। गोष्ठी में चर्चा हुई कि हमारा पढ़ा-लिखा समाज अब एकांगी होता जा रहा है, क्या वे भविष्य में अपने समूह में रहना स्वीकार करेंगे? यदि हां तो लोक संस्कृति बची रहेगी अन्यथा नहीं।

लोकरंग का लुत्फ़ उठाते दर्शक

मनोजजी ने नेहा सिंह राठौर के गीतों का उदाहरण देते हुए कहा कि लोक संस्कृति के विषय में अब नए प्रयोग हो रहे हैं। साथ ही उन्होंने बिहार की चारों बहनों का उदाहरण देते हुए कहा कि शादी-विवाह सहित विभिन्न कार्यक्रमों में जाकर ठेका पर यह लोग गायन का काम करती हैं। यह लोक संस्कृति को बढ़ावा देता है। इस विषय पर मेरा मानना है कि जहां आसपास की महिलाएं समूह में बैठकर लोक गायन का कार्य करती हैं, यह कार्य भविष्य में ठेका प्रथा में परिवर्तन हो जाएगा। मुझे लगता है कि एक दशक बाद ‘पर्दा’ धीरे-धीरे गायब भी हो जाएगा! तब हमारी लोक संस्कृति किस दिशा में जाएगी? समाज में वैदिक रीति-रिवाज से शादियां धीरे-धीरे बंद हो रहीं हैं। यदि भविष्य में यह बंद हो जाएगा तो महिलाओं के पास किस प्रकार के गीत होंगे? गीत होंगे या नष्ट हो जाएंगे, अभी ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता।

इस विषय पर चिन्तक और विचारक सुरेश खैरनार ने मोबाइल व इंटरनेट पर दखल देते हुए कहा कि लोक संस्कृति के भविष्य पर यह माध्यम सबसे अधिक खतरनाक वायरस है। यह अब किसी के हाथ से नहीं छूटने वाला है।

प्रोफेसर दिनेश कुशवाहा ने कहा कि लोक संस्कृति मिश्रित संस्कृति होती है, जिसे धर्म, सत्ता, राजसत्ता और राजसत्ता निर्देशित करती है।

कवयित्री वंदना टेटे ने आदिवासी संस्कृति को सूक्ष्मता से समझाया। उन्होंने कहा कि आदिवासी पुरखा संस्कृति में विश्वास करते हैं, जो हमारी ज्ञान-परंपराओं, गीत, कहानी, गाथाओं से बने हैं।

गोष्ठी का कुशल संचालन गाँव के लोग पत्रिका के संपादक और कहानीकार रामजी यादव ने किया।

संभावना कला मंच द्वारा बनाए गए भित्ति चित्र

कार्यक्रम में संभावना कला मंच द्वारा चारों तरफ खूबसूरत भित्ति चित्र बनाये गये थे। सारे चित्र बेहद आकर्षित और सजीव दिखाई जान पढ़ते थे। सुभाषजी के घर के सामने कविताओं और गीतों के पोस्टर लगे हुए थे। उनके प्रयास से ये पोस्टर आधुनिकता का दस्तावेज हैं।

गाँव के लोग
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