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किसके लिए हैं हिंदी के ‘अखबार’? (डायरी 28 फरवरी, 2022)

ब्राह्मण धर्म के जैसे ही लेखन धर्म भी विशुद्ध रूप से धंधा है। धंधा का मतलब व्यापार है। कुछ लोगों के लिए यह रोजगार भी है। और जैसा कि हर धंधे को खरीदार की आवश्यकता होती है, लेखन धर्म को भी खरीदार जरूरी होते हैं और खरीदारों के मुताबिक ही लेखन किया भी जाता है। […]

ब्राह्मण धर्म के जैसे ही लेखन धर्म भी विशुद्ध रूप से धंधा है। धंधा का मतलब व्यापार है। कुछ लोगों के लिए यह रोजगार भी है। और जैसा कि हर धंधे को खरीदार की आवश्यकता होती है, लेखन धर्म को भी खरीदार जरूरी होते हैं और खरीदारों के मुताबिक ही लेखन किया भी जाता है। मतलब यह कि जैसे फिल्मों के लिए एक दर्शक वर्ग होता है, वैसे ही लेखन के लिए एक पाठक वर्ग। इसे ऐसे भी कहें तो अतिश्योक्ति नहीं कि पाठकों को ध्यान में रखकर ही लेखन किया जाता है। विषय भी ऐसा ही चुना जाता है जिसे सारे पाठक पसंद ना भी करें तो कोई बात नहीं, लेकिन एक विशेष पाठक वर्ग जरूर चाहिए।

खैर, मैं आज यह सोच रहा हूं कि हिंदी के अखबार किसके लिए प्रकाशित किये जाते हैं? चलिए इस सवाल से पहले एक और छोटे से सवाल पर विचार करते हैं। भोजपुरी फिल्मों का निर्माण आज किस वर्ग के लिए किया जा रहा है? इसके पहले जब भिखारी ठाकुर जिंदा थे, तब उनके नाटकों दर्शक वर्ग कौन था?

[bs-quote quote=”रांची संस्करण के जैकेट पर यूक्रेन-रूस युद्ध की खबर है और पहले पृष्ठ पर झारखंड की ‘महत्वपूर्ण’ खबरें। महत्वपूर्ण को कोट्स में रखने के पीछे आशय यह है कि हर अखबार के लिए कौन सी खबर महत्वपूर्ण है, अखबार के मालिक लोग तय करने लगे हैं। पहले यह काम संपादक करते थे। अब पटना संस्करण के जैकेट पर यूक्रेन-रूस की खबर नहीं है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज मैं कोई विश्लेषण नहीं करना चाहता। बस कुछ सवालों को दर्ज करना चाहता हूं। मसलन, एक सवाल यही कि हिंदी के अखबार किसे ध्यान में रखकर प्रकाशित किये जाते हैं? मेरे सामने “प्रभात खबर” के दो संस्करणों का ई-पेपर है। एक रांची संस्करण और दूसरा पटन संस्करण। दोनों संस्करणों में कॉमन बात यह कि दोनों में जैकेट है। जब किसी संस्करण में दो-दो पहले पृष्ठ हों तो पहले वाले को हम अखबार वाले जैकेट ही कहते हैं। पहले ऐसा बहुत कम होता था कि प्रथम पृष्ठ के पहले कोई पृष्ठ हो। लेकिन वर्तमान में बाजार ने सब बदल दिया है। अब तो एक क्या एक ही अखबार में तीन-चार जैकेट होते हैं।

खैर, रांची संस्करण के जैकेट पर यूक्रेन-रूस युद्ध की खबर है और पहले पृष्ठ पर झारखंड की ‘महत्वपूर्ण’ खबरें। महत्वपूर्ण को कोट्स में रखने के पीछे आशय यह है कि हर अखबार के लिए कौन सी खबर महत्वपूर्ण है, अखबार के मालिक लोग तय करने लगे हैं। पहले यह काम संपादक करते थे। अब पटना संस्करण के जैकेट पर यूक्रेन-रूस की खबर नहीं है। वहां तो जैकेट पर नीतीश कुमार खबर है। यूक्रेन-रूस की खबर को अंदर के पहले पन्ने पर जगह दी गयी है।

मैं कोई विश्लेषण नहीं कर रहा। सिर्फ यह सवाल दर्ज कर रहा हूं कि क्या ऐसा इसलिए कि झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन आदिवासी हैं और बिहार के मुख्यमंत्री गैर-आदिवासी (जिन्हें आरएसएस का समर्थन हासिल है)?

[bs-quote quote=”कीव पर कब्जे के बाद खारकीव पर अधिपत्य को लेकर रूसी और यूक्रेन के सैनिकों के बीच जंग जारी है। सीएनएन के मुताबिक, रूस अब तक यूक्रेन के नौ शहरों पर कब्जा कर चुका है। उसने यूक्रेन के महत्वपूर्ण आर्थिक संरचनाअें को ध्वस्त कर दिया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मैं तो आज “जनसत्ता” (मेरे लिए आरएसएस की सत्ता) को भी कटघरे में नहीं खड़ा कर रहा है कि वह किस मीडिया का अनुसरण कर रहा है। हालांकि यूक्रेन-रूस के मामले में इस अखबार द्वारा प्रकाशित अधिकांश खबरें, अमेरिकी मीडिया से इंफ्लूएंस्ड हैं। मतलब यह कि रूस के कटघरे में खड़ा किया गया है। वैसे यह बात बहुत डरावनी है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अपने परमाणु बमों से जुड़े सैन्य दल को तैयार रहने का आदेश दिया है। हालांकि इसके लिए पुतिन ने अमेरिका और नाटो देशों के द्वार आक्रामक बयानबाजियों को जिम्मेदार बताया है।

उधर, कीव पर कब्जे के बाद खारकीव पर अधिपत्य को लेकर रूसी और यूक्रेन के सैनिकों के बीच जंग जारी है। सीएनएन के मुताबिक, रूस अब तक यूक्रेन के नौ शहरों पर कब्जा कर चुका है। उसने यूक्रेन के महत्वपूर्ण आर्थिक संरचनाअें को ध्वस्त कर दिया है।

ध्वस्त शब्द से एक दिलचस्प बात जनसत्ता ने अपने संपादकीय के अगले पन्ने पर प्रकाशित की है। यह धर्म का पन्ना है। इस पन्ने पर पहला फीचर आलेख है- “अस्त गुरु कर सकते हैं अस्त-व्यस्त और ध्वस्त”। दिलचस्प यह कि इसे किसी झा, चौबे, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, मिश्रा और पांडे सरनेम वाले ने नहीं लिखा है। इसके लेखक हैं मदन गुप्ता सपाटू। गुप्ता सरनेम वैश्य समाज के लोग रखते हैं। वैश्य समाज के लोग व्यापार अधिक करते हैं। नरेंद्र मोदी भी खुद को वैश्य ही मानते हैं। खैर मदन गुप्ता सपाटू ने अपने फीचर आलेख में बृहस्पति की समीक्षा की है और लोगों को चेताया है कि अस्त होने की दशा में गुरु कितना तांडव कर सकते हैं।

जनसत्ता के इसी धार्मिक पन्ने के सबसे नीचे महाशिवरात्रि से जुड़ी तथाकथित जानकारियां हैं। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण एक आलेख है- पंचग्रही योग बदलेगा देश की दिशा और दशा। यह आलेख चुनाव के संदर्भ में है। यह आलेख बता रहा है कि 27 फरवरी से लेकर 10 मार्च के बीच आकाश में पांच ग्रह अस्तित्व में रहेंगे। सनद रहे कि 10 मार्च को ही पांच राज्यों में हो रहे चुनावों के परिणाम आएंगे। बहरहाल, सवाल यही है कि हिंदी के अखबार किसके लिए हैं? दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के लोगों को यह खुद तय करना चाहिए।

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कल शाम एक कविता सूझी। इसके पीछे छत्तीसगढ़ में आदिवासियों द्वारा चलाया जा रहा आंदोलन है, जिसमें वे अपने इलाके में अर्द्धसैनिक बलों के लिए कैंप बनाये जाने का विरोध कर रहे हैं।

अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किंडल पर भी..

जली हुई रोटियां

हुक्मरान नहीं खाता

और उसे बासी गोश्त भी नहीं चाहिए।

तुम सुनो इस मुल्क बाशिंदों

दिल्ली के सबसे ऊंचे टीले से आ रही आवाज

राजा भूखा है

उसके पास बंदूकें हैं

तोप और मिसाइलें हैं।

क्या इतना पर्याप्त नहीं कि

तुम डर जाओ

और अपनी  मुट्ठियों को 

हवा में यूं लहराकर

इंकलाब जिंदाबाद के नारे बंद करो

गोया जल, जंगल और जमीन पर

तुम्हारा नहीं, हुक्मरान का अधिकार है

और वह पी सकता है

नदी का पूरा पानी

जंगल के सारे फलों पर

उसका एकमात्र अधिकार है

और वह चाहे तो

तुम्हारी जमीन में तुम्हारे श्रम से उपजी फसल

एक कौर में हजम कर सकता है।

लेकिन मैं फिर भी कहूंगा

लड़ते रहना

और इंकलाब जिंदाबाद

कहते रहना।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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