गत 20 जुलाई, 2022 को राजस्थान के जालौर में सरस्वती विद्या मंदिर के 9 वर्षीय विद्यार्थी इंद्र मेघवाल की उसके शिक्षक ने पिटाई की। इस बच्चे का अपराध यह था कि उसने उच्च जाति के अपने शिक्षक के लिए आरक्षित मटके से पानी पी लिया था। ऐसा इंद्र के माता-पिता और सहपाठियों का कहना है। कुछ अन्य लोगों का कहना है कि बच्चे की पिटाई इसलिए हुई थी क्योंकि उसने अपने एक साथी के साथ झगड़ा किया था। बाद में इंद्र की मौत हो गई। ऐसा लगता है कि घटनाक्रम के बारे में बच्चे के माता-पिता और स्कूल के अन्य विद्यार्थियों ने जो कहा है वह सच के अधिक करीब है।
अछूत प्रथा के उन्मूलन और पीने के पानी के सार्वजनिक स्रोतों पर सबके अधिकार के लिए आंदोलन एक-दूसरे के समानांतर चलते रहे हैं। ये आंदोलन कई चरणों से गुजरे हैं। जोतिराव फुले के विचार और उनके प्रयास दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को दिलवाने पर केन्द्रित थे। हिन्दू धर्मग्रंथ, अछूतों को यह अधिकार नहीं देते। अम्बेडकर सामाजिक न्याय के योद्धाओं में सबसे अग्रणी थे। सन 1923 में बंबई विधानमंडल ने राज्य द्वारा पोषित स्कूलों, पीने के पानी के स्रोतों, धर्मशालाओं, अदालतों और दवाखानों को अछूतों के लिए खोल दिया। यह एक ऐतिहासिक निर्णय था।
इसके चार वर्ष बाद, 19 मार्च, 1927 को अम्बेडकर अपने कुछ साथियों के साथ महाराष्ट्र के महाड़ स्थित चावदार तालाब से पानी लेने पहुंचे। उनके साथियों की जमकर पिटाई लगाई गई और तालाब को शुद्ध किया गया। परंतु उनके आंदोलन ने एक नई चेतना पैदा की और अछूतों को यह अहसास हुआ कि उनके साथ किस तरह का अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाता रहा है। सन 1930 में अम्बेडकर ने नाशिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश की। यहां भी उन्हें ऊँची जातियों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। उस समय देश में हिन्दू महासभा अस्तित्व में आ चुकी थी। आरएसएस का गठन सन 1925 में हो चुका था। परंतु न तो आरएसएस और ना ही हिन्दू महासभा ने अम्बेडकर के आंदोलन का समर्थन किया। अछूत प्रथा के उन्मूलन का कार्य महात्मा गांधी ने सन 1933 में शुरू किया।
इस समय हम समाज में दो विपरीत धाराएं देख सकते हैं। एक तरफ अम्बेडकर के विचारों की प्रशंसा में गीत गाए जा रहे हैं तो दूसरी ओर विद्या भारती द्वारा संचालित स्कूलों में ‘संस्कारों‘ पर जोर दिया जा रहा है। संस्कार से उनका आशय वर्ण, जाति और अछूत प्रथा पर आधारित मूल्य हैं।
आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर ने अपनी पुस्तक व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड में वर्ण और जाति व्यवस्था का समर्थन किया। हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के एक अन्य प्रमुख विचारक दीनदयाल उपाध्याय भी जाति व्यवस्था के पैरोकार थे। एकात्म मानववाद का उनका सिद्धांत जातिगत ऊँच-नीच को उचित ठहराता है। जालौर में हुई त्रासदी से यह साफ है कि अछूत प्रथा के निराकरण का जो संघर्ष अम्बेडकर ने शुरू किया था वह आज भी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचा पाया है।
दलितों पर अत्याचार, हमारे समाज की सोच को प्रतिबिंबित करते हैं। इनसे यह पता चलता है कि कई दशकों के सघन प्रयासों के बाद भी हमारा समाज बदल नहीं सका है। दलितों को आज भी जलील किया जाता है। दलितों पर अत्याचार रोकने वाले कानून बहुत कड़े हैं परंतु जमीनी स्तर पर इनके कार्यान्वयन में भारी कमियां हैं। अशोक भारती ने 1991 से लेकर 2020 तक राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आकड़ों के आधार पर नेशनल कन्फिडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी आर्गनाईजेशन्स के लिए एक रिपोर्ट तैयार की है। इसके अनुसार 30 साल की इस अवधि में दलितों पर अत्याचार की 7 लाख घटनाएं हुईं। पिछले दो दशकों में 38 हजार दलित महिलाएं बलात्कार का शिकार हुईं। पिछले 5 सालों में हर घंटे देश में कहीं न कहीं दलितों पर अत्याचार की 5 घटनाएं हुईं। इन आंकड़ों के परिप्रेक्ष्य में हमें यह सोचना चाहिए कि क्या हमारे कानून अप्रभावी हैं?
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एक अन्य पहलू, जिस पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है, वह है ‘हमारी संस्कृति’ पर जोर। यह दक्षिणपंथी राजनीति का प्रमुख स्तंभ है। संस्कृति निश्चित तौर पर किसी भी मानव समुदाय के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। परंतु सवाल यह है कि हम संस्कृति के किस पहलू को महत्वपूर्ण मानते हैं। बुद्ध और कबीर ने समाज में असली समानता पर जोर दिया। इसके विपरीत सरस्वती विद्या मंदिर उस संस्कृति के झंडाबरदार हैं जो उच्च जातियों और श्रेष्ठि वर्ग की संस्कृति है। इन स्कूलों में जो सिखाया जाता है वह भक्ति संतों और जोतिराव व अम्बेडकर जैसे सुधारकों की शिक्षाओं के विपरीत है। इनमें सन 1933 के बाद से महात्मा गांधी द्वारा जातिगत असमानता के खिलाफ लड़ाई को भी महत्व नहीं दिया जाता। अम्बेडकर के प्रभाव के कारण ही महात्मा गांधी ने वर्ण/ जाति आधारित असमानताओं व अछूत प्रथा को समुचित महत्व दिया।
जालौर त्रासदी के अनेक अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा हो रही है परंतु एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसे नजरअंदाज किया जा रहा है वह यह है कि यह घटना एक सरस्वती विद्या मंदिर में हुई। सरस्वती विद्या मंदिर स्कूलों की एक श्रृंखला है जिसका दावा है कि वे शिक्षा और संस्कार दोनों पर जोर देते हैं। संस्कार के नाम पर ये स्कूल अपने विद्यार्थियों को ब्राम्हणवादी मूल्यों की घुट्टी पिलाते हैं।
विद्या भारती द्वारा सन् 1952 से ही सरस्वती विद्या मंदिर संचालित किए जा रहे हैं। जनता पार्टी की सरकार में भाजपा का पूर्व अवतार जनसंघ शामिल था और वाजपेयी और आडवाणी इसमें मंत्री थे। इस सरकार के शासनकाल (1977-78) में विद्या भारती ने औपचारिक स्वरूप ग्रहण किया। विद्या भारती द्वार संचालित स्कूलों की अब हमारी शिक्षा व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान और भूमिका है। भारत में कुल स्कूलों में से 2 प्रतिशत विद्या भारती द्वारा संचालित हैं। विद्या भारती शायद शिक्षा के क्षेत्र में देश का सबसे बड़ा गैर-सरकारी संगठन है। इन स्कूलों में बच्चों को भारत के ‘गौरवशाली व सुनहरे अतीत’ के बारे में बताया जाता है और उनके दिमाग में लैंगिक और जातिगत पदक्रम के मूल्य भरे जाते हैं।
विद्या भारती का कहना है कि दुनिया का हर विकसित राष्ट्र बच्चों को अपने धर्म व संस्कृति की शिक्षा देता है। यह दुर्भाग्य है कि भारत, जो कि धर्म की भूमि है, में बच्चों को हमारे धर्म और संस्कृति से परिचित करवाने की कोई व्यवस्था नहीं है।
इस समय हम समाज में दो विपरीत धाराएं देख सकते हैं। एक तरफ अम्बेडकर के विचारों की प्रशंसा में गीत गाए जा रहे हैं तो दूसरी ओर विद्या भारती द्वारा संचालित स्कूलों में ‘संस्कारों‘ पर जोर दिया जा रहा है। संस्कार से उनका आशय वर्ण, जाति और अछूत प्रथा पर आधारित मूल्य हैं। यह कहना मुश्किल है कि जालौर की त्रासद घटना एक अप्रत्याशित वाकया है या किसी पैटर्न का हिस्सा है।
जिस अध्यापक ने बच्चे की जान ली उसे पवित्र ग्रंथों में समाहित संस्कारों को बढ़ावा देने के लिए नियुक्त किया गया होगा – उन संस्कारों को जिन्हें गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय का अनुमोदन प्राप्त था। इन संस्थाओं ने ‘सेवा’ के नाम पर निम्न जातियों के लोगों को हिन्दुत्व के झंडे तले लाने का अभियान चलाया हुआ है। यह अभियान काफी हद तक सफल भी हुआ है परंतु जालौर की घटना से हमें इतना तो पता चलता ही है कि हिन्दुत्ववादी संगठनों में किस तरह की सड़ांध भरी हुई है।
हम सबको इस बात पर चिंतन करने की आवश्यकता है कि यह घटना क्यों हुई और यह सुनिश्चित करने की भी कि कम से कम स्कूलों में इस तरह के तत्वों के लिए कोई स्थान न हो जो सदियों से अत्याचार झेल रहे समुदायों को आज भी बराबरी का हक देना नहीं चाहते।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।