Sunday, September 8, 2024
Sunday, September 8, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारक्या भारत में धर्मनिरपेक्षता अतीत का अवशेष बन गई है?

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

क्या भारत में धर्मनिरपेक्षता अतीत का अवशेष बन गई है?

  करोड़ों भारतीय आतुर थे कि हमारे देश के खिलाड़ी टोक्यो ओलम्पिक में शानदार प्रदर्शन करें और अधिक से अधिक संख्या में पदक लेकर स्वदेश लौटें। अनेक भारतीय खिलाडियों ने दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित खेल स्पर्धा में पदक जीते। परन्तु इस सफलता का उत्सव मानाने की बजाय कुछ लोग विजेताओं की जाति और धर्म का […]

 

करोड़ों भारतीय आतुर थे कि हमारे देश के खिलाड़ी टोक्यो ओलम्पिक में शानदार प्रदर्शन करें और अधिक से अधिक संख्या में पदक लेकर स्वदेश लौटें। अनेक भारतीय खिलाडियों ने दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित खेल स्पर्धा में पदक जीते। परन्तु इस सफलता का उत्सव मानाने की बजाय कुछ लोग विजेताओं की जाति और धर्म का पता लगाने के प्रयासों में जुटे हुए थे। रपटों के अनुसार, लवलीना बोरगोहेन और पी.वी. सिन्धु द्वारा ओलम्पिक खेलों में भारत का मस्तक ऊंचा करने के बाद, इन्टरनेट पर सबसे ज्यादा सर्च यह पता लगाने के लिए किये गए कि लवलीना का धर्म और सिन्धु की जाति क्या है?

भारत में सांप्रदायिक और जातिगत पहचानों के मज़बूत होते जाने की प्रक्रिया के चलते यह आश्चर्यजनक नहीं था। बल्कि यह भारत में धार्मिक और जातिगत विभाजनों को और गहरा करने में वर्तमान शासन की सफलता का सुबूत था। इस प्रक्रिया को हमारी वर्तमान सरकार जबरदस्त प्रोत्साहन दे रही है और शासन से जुड़े अत्यंत मामूली से लेकर अत्यंत गहन-गंभीर मुद्दों को सांप्रदायिक रंग देने का हर संभव प्रयास कर रही है। संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र है, जिसमें राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है। यद्यपि क़ानूनी दृष्टि से भारत अब भी एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र है परन्तु हमारी सरकार हर मुद्दे को सांप्रदायिक रंग दे रही है। इससे उसे दो लाभ हैं: पहला, लोगों का ध्यान सरकार की कमियों और उसकी जवाबदारी से हट जाता है और दूसरा, इससे सरकार के विचारधारात्मक एजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद मिलती है। इस स्थिति को हम कुछ उदाहरणों से समझेंगे।

[bs-quote quote=”स्वतंत्रता के बाद के शुरूआती वर्षों में सरकारी नीतियां काफी हद तक धार्मिक प्रभाव से मुक्त रहीं और कम से कम सिद्धांत के स्तर पर भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना रहा। यह स्थिति अब बदल रही है। सत्ताधारी दल खुलेआम देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का मखौल बना रहा है और जिन लोगों ने संविधान की रक्षा करने की शपथ ली है वे ही धार्मिक पहचान के आधार पर समाज को ध्रुवीकृत करने के प्रयासों में लगे हुए हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हम शुरुआत असम से करते हैं जो अपने पड़ोसी राज्य मिजोरम के साथ गंभीर विवाद में उलझा हुआ है। पूर्वोत्तर भारत और विशेषकर असम का सामाजिक-राजनीतिक तानाबाना अत्यंत जटिल है। वहां के लोगों की अनेक पहचानें हैं – धार्मिक, नस्लीय व भाषाई। वहां बड़ी संख्या में प्रवासी रहते हैं और वहां के राज्यों की सीमाओं को अनेक बार मिटाया और नए सिरे से खींचा गया है। असम में पिछले कुछ वर्षों से राजनैतिक उथलपुथल मची हुई है और वहां के लाखों नागरिक अनिश्चितता के माहौल में जी रहे हैं। उन्हें पता नहीं है कि कब उन्हें उनकी नागरिकता से वंचित कर दिया जायेगा। नागरिकों की राष्ट्रीय पंजी (एनआरसी) का मुद्दा राजनैतिक है, जो ‘बांग्लादेशी प्रवासियों’ के प्रति नफरत के भाव से प्रेरित है। परन्तु दरअसल इसके निशाने पर हैं बांग्ला-भाषी हिन्दू और मुसलमान. इसने असम के समाज को विभाजित और अस्थिर कर दिया है। असम में हुए चुनावों में सत्ताधारी दल की विजय के पीछे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण था, जिसे ‘घुसपैठियों’, ‘मियांओं’ और ‘बाहरी लोगों’ के नाम पर जूनून भड़का कर हासिल किया गया था।

नागरिकों का राष्ट्रीय पंजीकरण

इस सन्दर्भ में असम के मुख्यमंत्री का यह आरोप उनकी ही पोल खोलने वाला है कि दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद के पीछे धार्मिक पहचानें हैं। सरमा ने कहा कि असम द्वारा पूरे क्षेत्र में बीफ का प्रदाय रोकने के प्रयासों के कारण ईसाई-बहुल मिजोरम में गुस्सा है। यह आरोप झूठा है क्योंकि दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद का लम्बा इतिहास है। इस विवाद में पांच लोगों ने अपनी जान गँवा दी और पूरे उत्तरपूर्व में अशांति फैलने का खतरा पैदा कर दिया। असम और मिजोरम के बीच सीमा विवाद की शुरुआत असम के लुशाई हिल्स क्षेत्र को एक अलग राज्य मिजोरम का दर्जा देने से हुई। इस विवाद के पीछे हैं 1875 की एक अधिसूचना, जिसके अंतर्गत लुशाई हिल्स और कछार के मैदानी इलाकों का पृथक्करण किया गया और 1933 में जारी एक अन्य अधिसूचना जिसमें लुशाई हिल्स और मणिपुर के बीच सीमा का निर्धारण किया गया। मिजोरम का मानना है कि सीमा निर्धारण का आधार 1875 की अधिसूचना होनी चाहिए, जो बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन (बीईएफआर) एक्ट, 1873 से उद्भूत थी. इस एक्ट के निर्माण के पहले मिज़ो लोगों से विचार-विनिमय किया गया था।  असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा से यह उम्मीद की जा रही थी कि वे एक परिपक्व राजनेता की तरह इस बहुत पुराने और जटिल विवाद का हल निकालेंगे। उसकी जगह, उन्होंने विवाद के लिए पूरी तरह से मिजोरम को दोषी ठहराते हुए उसे असम से मिजोरम में गायों के परिवहन से जोड़ दिया। असम ने हाल में एक कानून पारित कर राज्य में गायों के वध को प्रतिबंधित कर दिया है। सरमा ने यह सन्देश देने की कोशिश की कि यह विवाद इसलिए शुरू हुआ क्योंकि ईसाई-बहुल मिजोरम को यह भय था कि इस कानून से राज्य में बीफ की कमी हो जाएगी। उन्होंने एक विशुद्ध राजनैतिक विवाद को साम्प्रदायिक रंग दे दिया। जाहिर है कि इससे विवाद का कोई व्यवहार्य हल निकलने की सम्भावना कम ही हुई।

ये भी पढ़ें :

जाति जनगणना का प्रश्न

असम का नया कानून सांप्रदायिक सोच पर आधारित है। सरमा गौमांस पर राजनीति करना चाहते हैं।  उन्हें यह अहसास है कि इस मुद्दे को लेकर भावनाएं भड़काना आसान होगा, विशेषकर भीड़ द्वारा लिंचिंग की कई घटनाओं के मद्देनज़र। सरमा द्वारा प्रस्तावित असम कैटल प्रिजर्वेशन बिल 2021 राज्य के उन सभी इलाकों में बीफ और बीफ उत्पादों की खरीदी-बिक्री को प्रतिबंधित करता है जहाँ ‘मुख्यतः हिन्दू, जैन, सिक्ख और ऐसे अन्य समुदाय रहते हैं जो बीफ का सेवन नहीं करते’ और ‘जो किसी भी मंदिर या सत्र (वैष्णव मठ) से पांच किलोमीटर से कम दूरी पर हैं।’ यह विधेयक असम के रास्ते दूसरे राज्यों में मवेशियों के परिवहन पर भी रोक लगता है। यह असम के समाज को बीफ खाने वालों और न खाने वालों में बांटने की कवायद है। इस कानून से पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में बीफ का प्रदाय गंभीर रूप से प्रभावित होगा क्योंकि असम ही उत्तरपूर्व के राज्यों को शेष भारत से जोड़ता है। इन राज्यों में बीफ खाने वाले लोगों की खासी आबादी है। यह कानून इस क्षेत्र की संस्कृति में दखल है और खानपान की स्वतंत्रता के अधिकार पर हमला है। इसके ज़रिये बीफ के मुद्दे पर पूर्वोत्तर के समाज का ध्रुवीकरण करने और बीफ के सेवन को सांप्रदायिक पहचान से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है. इस तरह की नीतियों से सांप्रदायिक आधार पर भौगोलिक विभाजन को बढ़ावा मिलता है और विभिन्न इलाकों को वहां के रहवासियों के धर्म के आधार पर लेबल करने को क़ानूनी जामा पहनाया जा सकता है। देश के अन्य भागों के अनुभव से यह पता चलता है कि इससे लोगों के बीच भौतिक दूरियां बढ़तीं हैं और धर्म-आधारित मोहल्लों के निर्माण को प्रोत्साहन मिलता है। आश्चर्य नहीं कि असम में 2021 में हुए चुनावों में, हिन्दू-बहुल इलाकों ने भाजपा का साथ दिया और मुस्लिम-बहुल इलाकों में अन्य राजनैतिक दलों को सफलता हासिल हुई। इस तरह के ध्रुवीकरण से सत्ताधारी दल को चुनावों में लाभ हुआ है और इसलिए वह उसे और गहरा करना चाहता है। वर्नियर गिल्स लिखते हैं, ‘जिन इलाकों में कांग्रेस गठबंधन ने अच्छा प्रदर्शन किया वहां मुस्लिम आबादी की बहुलता थी. दूसरी ओर, जिस इलाके में हिन्दुओं की आबादी जितनी ज्यादा थी, वहां भाजपा को उतने ही ज्यादा वोट मिले।’

राज्य की सरकार द्वारा साम्प्रदायिकता की आग को सुलगाए रखने के प्रयासों का यह एकमात्र उदाहरण नहीं है। राज्य द्वारा दो बच्चों की नीति को लागू करने के लिए बनाये गए कानून का बचाव करते हुए सरमा ने मुसलमानों को सीधे निशाना बनाया। इस कानून के अंतर्गत, छोटे परिवार वालों को शासकीय नौकरियों और पदोन्नति में प्राथमिकता दी जाएगी। इसके अलावा, दो से अधिक संतानों वाले लोग पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। सरमा ने कहा, ‘अगर प्रवासी मुस्लिम समुदाय, परिवार नियोजन अपना ले तो हम असम की कई सामाजिक समस्याओं को हल कर सकते हैं।’ सरमा ने मुसलमानों से यह अपील तब की जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) और जनगणना के आंकड़ों से यह पता चला है कि राज्य में मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर 1991-2001 में 1.77 प्रतिशत से घटकर, 2000-2011 में 1.57 प्रतिशत रह गई है। क्या सरमा की ‘अपील’ का यह अर्थ नहीं है कि राज्य की सामाजिक समस्याओं के लिए मुसलमान ज़िम्मेदार हैं? यह विडम्बना ही है कि इस तरह के गंभीर आरोप लगाते समय सरमा ने किन्हीं भी तथ्यों या आंकड़ों का हवाला नहीं दिया। सरमा ने जनसंख्या वृद्धि को एक समुदाय से जोड़ कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को और गहरा करने का प्रयास किया जबकि यह सर्वज्ञात है कि जनसँख्या वृद्धि का सम्बन्ध विकास, शिक्षा और महिलाओं के सशक्तिकरण से है।

ये भी पढ़ें :

धर्म, साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद और अन्तर्धार्मिक विवाह

कमज़ोर समुदायों को निशाना बनाने और हर मुद्दे को धर्म के चश्मे से देखने का यह सिलसला असम तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में हो रहा है. जिस समय देश में कोविड की दूसरी लहर से हर दिन हजारों लोग मर रहे थे उस समय भाजपा सांसद तेजस्वी सूर्या, अस्पतालों में बिस्तरों और ऑक्सीजन की कमी की समस्याओं से निपटने का प्रयास करने की बजाय, कोविड मरीजों को बिस्तर आवंटित करने की बेंगलुरु नगर निगम की प्रणाली में कथित घोटालों के लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराने में व्यस्त थे। और इस आरोप का आधार क्या था? कोविड कण्ट्रोल रूम में 17 मुस्लिम कर्मचारियों की उपस्थिति! सूर्या ने भाजपा के दो विधायकों के साथ कण्ट्रोल रूम पर ‘छापा’ मारा। इस दौरान बसावनगुडी के विधायक सुब्रमन्या एक कर्मचारी से कहते हैं, ‘तुम्हें नगर निगम में भर्ती किया गया है या किसी मदरसे में? तुम्हारे कुकर्मों के कारण हमें जनता के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है। हमें पता है कि कौन लोग बिस्तर आवंटित नहीं होने दे रहे हैं और बिस्तरों के लिए कितना पैसा वसूल रहे हैं।’ बंगलुरु दक्षिण से सांसद सूर्या यूट्यूब पर कण्ट्रोल रूम में पदस्थ 17 मुस्लिम कर्मचारियों के नामों की सूची पढ़ते हुए देखे जा सकते हैं। वे यह नहीं बताते कि कण्ट्रोल रूम में 205 कर्मचारी हैं, जिनमें से केवल 17 मुसलमान हैं!  धर्म के आधार पर कर्मचारियोँ या किसी भी अन्य तबके का वर्गीकरण मुसलमानों को बलि का बकरा बनाने का एक और उदाहरण है। पिछले लगभग दो वर्षों से भारत कोविड-19 महामारी की विभीषिका से गुजर रहा है। इसका भी उपयोग मुसलमानों पर आतंकी का लेबिल चस्पा करने और उन पर ‘कोरोना जिहाद’ करने का आरोप लगाने के लिए किया गया जैसा कि तबलीगी जमात को लेकर हम सबने देखा।

[bs-quote quote=”वर्तमान सत्ताधारी दल इस्लाम के प्रति डर का माहौल पैदा कर रहा है। यह कहा जा रहा है कि मुसलमान इस देश के लिए खतरा हैं और इस खतरे से निपटने के लिए कानून बनाया जाना आवश्यक है। ऐसे कानून बनाए जा रहे हैं जो अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

भारत के स्वाधीनता संग्राम से जिस सांझा राष्ट्रवाद का उदय हुआ वह समावेशिता और प्रजातंत्र पर आधारित था। भारत के संविधान निर्माताओं ने यह तय किया कि भारत का न तो कोई राज धर्म होगा और ना ही राज्य के नीति निर्धारण में धर्म की कोई भूमिका होगी। परंतु इसके साथ-साथ देश के सभी नागरिकों को अपनी पसंद के धर्म में आस्था रखने, उसका आचरण करने और प्रचार करने का अबाध अधिकार होगा। स्वतंत्रता के बाद के शुरूआती वर्षों में सरकारी नीतियां काफी हद तक धार्मिक प्रभाव से मुक्त रहीं और कम से कम सिद्धांत के स्तर पर भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना रहा। यह स्थिति अब बदल रही है। सत्ताधारी दल खुलेआम देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का मखौल बना रहा है और जिन लोगों ने संविधान की रक्षा करने की शपथ ली है वे ही धार्मिक पहचान के आधार पर समाज को ध्रुवीकृत करने के प्रयासों में लगे हुए हैं।

वर्तमान सत्ताधारी दल इस्लाम के प्रति डर का माहौल पैदा कर रहा है। यह कहा जा रहा है कि मुसलमान इस देश के लिए खतरा हैं और इस खतरे से निपटने के लिए कानून बनाया जाना आवश्यक है। ऐसे कानून बनाए जा रहे हैं जो अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाते हैं। देश के विकास में उनके योगदान को नकारा जा रहा है। केवल बहुमत के बल पर बिना किसी बहस के कानूनों को पारित किया जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता के झीने से पर्दे को भी यह सरकार हटाने पर आमादा है।

अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनूदित।

नेहा दाभाड़े सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे मुंबई में रहती हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here