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बात, जो पूंजीवाद और नवउदारवाद के विमर्श के परे भी है डायरी (17 अगस्त, 2021)

पूंजीवाद मेरे जीवन में पहली बार तब आया जब मैं पत्रकार बना ही था। पटना से प्रकाशित दैनिक आज में मुझे जो बीट दिया गया था, उसमें सीपीआइ, सीपीएम और भाकपा-माले आदि पार्टियां थीं। इन दलों के नेताओं द्वारा इस शब्द का इस्तेमाल लगभग हर प्रेस विज्ञप्ति में किया ही जाता था। संवाददाता सम्मेलनों में […]

पूंजीवाद मेरे जीवन में पहली बार तब आया जब मैं पत्रकार बना ही था। पटना से प्रकाशित दैनिक आज में मुझे जो बीट दिया गया था, उसमें सीपीआइ, सीपीएम और भाकपा-माले आदि पार्टियां थीं। इन दलों के नेताओं द्वारा इस शब्द का इस्तेमाल लगभग हर प्रेस विज्ञप्ति में किया ही जाता था। संवाददाता सम्मेलनों में भी यह शब्द बार-बार मेरे सामने आता। लेकिन मेरी समझ से बाहर का था यह शब्द। मैंने उन दिनों समझने की कोशिश ही नहीं की। बस प्रेस विज्ञप्ति को थोड़ा जोड़-घटाव करके खबरें लिख लेता था। लेकिन एक बार दीपंकर भट्टाचार्य का साक्षात्कार लेने का असाइनमेंट मिला। उन दिनों रामनरेश राम जिंदा थे और विधायक थे। वीरचंद पटेल मार्ग, पटना में तब उनका आवास ही माले का प्रांतीय दफ्तर था। इंटरव्यू वहीं लेना था। लेकिन प्रश्न तैयार करने में पसीने छूट गए। तीन दिन पहले मार्क्स को पढ़ना शुरू किया और सबसे पहले यही कि पूंजीवाद क्या है और कैसे इसने दुनिया को बदला है।

खैर, वह इंटरव्यू अच्छे से हुआ और संपादक महोदय से शाबासी भी मिली। लेकिन मेरी भूख बढ़ गयी थी। मैं यह सोचने लगा था कि पूंजीवाद के नये संस्करण नवउदारवाद और ब्राह्मणवाद में कौन-सी बातें कॉमन हैं। बाजार कैसे हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है? क्या भारत की जातिगत व्यवस्था इस नवउदारवाद का संरक्षक है या फिर क्या नवउदारवाद ने जातिगत व्यवस्था को नये सिरे से मजबूती दी है?

चूंकि मैं कंप्यूटर साइंस वाला रहा हूं तो हर फलसफे को कंप्यूटर के जरिए ही सोचता रहा हूं। मेरी जेहन में वे दिन आए जब मैं कंप्यूटर साइंस के अल्फाबेट्स सीख रहा था। उन दिनों आपरेटिंग सिस्टम आज के जैसा नहीं था। मतलब यह कि कमांड आधारित इंटरफेस हुआ करता था। कंप्यूटर ऑन करने पर रंगबिरंगा डेस्कटॉप नजर नहीं आता था। आता था तो केवल एक ब्लैंक स्क्रीन और ब्लिंक करता हुआ कर्सर। इसी कर्सर के सहारे तब हम कमांडों का उपयोग करते और कंप्यूटर हमारे निर्देशों का पालन करता था। यह टेक्स्ट आधारित इंटरफेस था। माइक्रोसॉफ्ट से नाता तभी से जुड़ा था। उन दिनों डॉस (डिस्क ऑपरेटिंग सिस्टम) का उपयोग मैं अधिक करता था। यूनिक्स भी तब मेरा पसंदीदा था। लेकिन भारत में तब डॉस को ही प्रसिद्धि हासिल थी। बेचारा यूनिक्स तो तमाम खूबियों के बावजूद हाशिए पर रहा।

[bs-quote quote=”अटल बिहारी बाजपेई थे बहुत डरपोक। मोदी ने उन्हें डराकर रखा था। ब्राह्मण थे, इसलिए उनका डरना देश के ब्राह्मणों ने छिपा लिया। 2002 में वह जान चुके थे कि भाजपा अब भारतीय जनता पार्टी नहीं, भारत जलाओ पार्टी बन चुकी है। तब आडवाणी, जेटली और कुशाभाऊ ठाकरे की तिकड़ी थी, जिसने नरेंद्र मोदी को आज का नरेंद्र मोदी बनाया। इसके बाद तो बिहार वाले नीतीश कुमार ने भी गुजरात जाकर नरेंद्र मोदी को भारत का प्रतिनिधित्व करने का आमंत्रण दे दिया। तब जनाब नीतीश कुमार केंद्र सरकार में मंत्री थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

फिर एक नया इंटरफेस आया। यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। डॉस के कमांड प्रोम्प्ट पर जाकर “विन” टाइप करना पड़ता था और थोड़ी ही देर में चमत्कार सामने आता। एक रंगीन डेस्कटॉप। एक ऐसा इंटरफेस जिसके लिए कमांड रट्टा मारने की जरूरत नहीं थी। सबकुछ आंखों के सामने होता था। इसे डब्ल्यूवाईएसडब्ल्यूवाईजी यानी “व्हाट यू सी इज व्हाट यू गेट”। हम जो भी कल्पना कर सकते थे, वह हमारे स्क्रीन पर मौजूद हो सकता था। यह इंटरफेस एक क्रांति का दूत था। क्रांति आई भी।

आपरेटिंग सिस्टम के मामले में एक सॉफ्टवेयर डेवलपर के रूप में मेरा अंतिम साबका आरटीओएस (रियल टाइम आपरेटिंग सिस्टम) से पड़ा। तब कियोस्क मशीनों जैसे कि एटीएम और सूचना प्रदाता उपकरणों के लिए मुझे इसे सीखने की जरूरत आन पड़ी थी। अब तो इस टेक्नोलॉजी में इतना बदलाव हो चुका है कि अब मेरी समझ में भी कुछ नहीं आता। खासकर एंड्रायड ने तो कमाल ही कर दिया है।

खैर, आज बीते दिनों को याद करने का खास मकसद है। मकसद यह दर्ज करना कि बाजार और सियासत में बहुत समानताएं हैं। सबसे बड़ी समानता तो यही कि जो दिखता है, वही बिकता है। यह कांसेप्ट भी विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम के कारण ही आया। क्योंकि इसके जरिए सचमुच वह सब संभव है जो हम सोच सकते हैं। मल्टीमीडिया ने यह संभव किया। सियासत में बदलाव भी तभी से होना शुरू हुआ। नहीं तो इसके पहले सियासत के रंग-ढंग ही अलग थे। देश का प्रधानमंत्री मन की बात कहने के लिए बार-बार रेडिया पर नहीं आता था। बात-बात पर ट्वीट नहीं करता था। फेसबुक जैसा प्लेटफार्म भी नहीं था उन दिनों।तब देश के प्रधानमंत्री की मर्यादा थी। प्रधानमंत्री का नाम इज्जत से लिया जाता था। लोग उसकी बात सुनते भी थे। सहमति और असहमति भी सामने आती लेकिन आज के जैसी नहीं। कहने का मतलब यह कि जैसे बाजार में वही सामान बिकता है जिसे दिखाया जाता है, ठीक इसी प्रकार सियासत में उसी का सिक्का चलता है जिसे या तो बाजार चलाना चाहता है या फिर जो बाजार के हिसाब चलना और खुद को परोसना जानता है।

[bs-quote quote=”वैसे बीते 15 अगस्त, 2021 को उन्होंने 88 मिनट तक भाषण पूरे देश को सुनाया। इसी बात को लेकर सोशल मीडिया पर किसी ने लिखा है – भारतीय एथलीट नीरज चोपड़ा ने 87 मीटर भाला फेंका और गोल्ड जीता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 88 मिनट तक फेंककर (भाषण देकर) उनका रिकार्ड तोड़ दिया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

बाजार की अपनी शर्तें होती हैं। बाजार किसी भी उत्पाद को बिना रैपर के मान्यता नहीं देता। रैपर जरूरी होता है। बिना रैपर के किसी उत्पाद के होने का कोई मतलब नहीं है। इन सबके पीछे भी यह मुआं विंडोज ही है जो कमाल की कारीगरी करने का ऑप्शन देता है। महिलाओं के देह का सबसे अधिक उपयोग बाजार ने इसी तकनीक के सहारे किया है। यदि यह नहीं होता तो विज्ञापनों में आकर्षक महिलाएं तो होतीं लेकिन “इरोटिज्म” नहीं होता। किसी इत्र के प्रचार में वह ऐसे नहीं दिखतीं कि इत्र के मोहपाश में अपनी सुध-बुध खो देतीं और यहां तक कि सेक्स…

खैर, हम सेक्स की नहीं राजनीति की बात करेंगे। अब देखिए कि इस बार भी हमारे देश के पीएम ने बाजार के रैपरवादी संस्कृति को बढ़ावा देते हुए खुद को एक रैपर में डाला। और तो और उन्होंने डेढ़ घंटे तक भाषण दिया। अबतक तो यह इल्जाम केवल कवियों पर लगता था कि वे अपनी कविताएं सुनाने के क्रम में सुध-बुध सब खो बैठते हैं। लेकिन आजकल के हमारे सियासतदान कवियों को पीछे छोड़ने में लगे हैं। उन कवियों को जिनके बारे में कहा जाता है – जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि।

तो यह सब परिवर्तन विंडोज के कारण ही आया है। मैं तो यही मानता हूं। नहीं तो हमारे देश के पहले के प्रधानमंत्री सब लाल किले के प्राचीर पर औसतन आधे घंटे में अपना भाषण खत्म कर लेते थे। तब बात डॉस के कमांड मोड के जैसे की जाती थी। मुझे तो मनमोहन सिंह के भाषण याद है। उनके भाषण भी पचास मिनट तक लंबे होते थे लेकिन वह भी इसलिए कि उनके भाषण में बाजार महत्वपूर्ण था, अनिवार्य तत्व नहीं। भाषण के उद्देश्य स्प्ष्ट होते थे। जनता को नयी जानकारियां और सरकार के मंसूबे आदि के बारे में बताते। घोषणाएं भी होती थीं, लेकिन इतनी नहीं कि चीन घबरा जाय, अमेरिका की पैंट गीली हो जाय या फिर पाकिस्तान का कलेजा फट जाय।

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वैसे पाकिस्तान और अन्य देशों को लालकिले के प्राचीर से डराने-धमकाने वालों में अटल बिहारी वाजपेयी भी रहे। लेकिन वे भी अधिक से अधिक 36 मिनट तक ही लाल किले के प्राचीर से बोल सके। उनके संबोधन में समय इसलिए भी लगता था क्योंकि बेचारे एक वाक्य के बाद रूकते थे। सोचते थे कि अगला वाक्य क्या होगा। दूरदर्शन पर जब उनका भाषण लाइव होता तो मैं तो केवल उनके आंखों की हरकतों को देखता था। जितनी बार आंख खुली और बंद हुई, जनाब उतनी बार रूकते थे। लेकिन थे बहुत डरपोक। मोदी ने उन्हें डराकर रखा था। ब्राह्मण थे, इसलिए उनका डरना देश के ब्राह्मणों ने छिपा लिया। 2002 में वह जान चुके थे कि भाजपा अब भारतीय जनता पार्टी नहीं, भारत जलाओ पार्टी बन चुकी है। तब आडवाणी, जेटली और कुशाभाऊ ठाकरे की तिकड़ी थी, जिसने नरेंद्र मोदी को आज का नरेंद्र मोदी बनाया। इसके बाद तो बिहार वाले नीतीश कुमार ने भी गुजरात जाकर नरेंद्र मोदी को भारत का प्रतिनिधित्व करने का आमंत्रण दे दिया। तब जनाब नीतीश कुमार केंद्र सरकार में मंत्री थे।

समय बहुत महत्वपूर्ण है। मुझे लगता है कि मोदी को आने वाले समय में केवल इसलिए याद किया जाएगा कि इस व्यक्ति ने अपने कार्यकाल में कितनी बार अपनी वेशभूषा बदली, कपड़े बदले, कितनी देर की हवाई यात्रा की और कितनी देर तक भाषण दिया। वैसे बीते 15 अगस्त, 2021 को उन्होंने 88 मिनट तक भाषण पूरे देश को सुनाया। इसी बात को लेकर सोशल मीडिया पर किसी ने लिखा है – भारतीय एथलीट नीरज चोपड़ा ने 87 मीटर भाला फेंका और गोल्ड जीता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 88 मिनट तक फेंककर (भाषण देकर) उनका रिकार्ड तोड़ दिया है

कई बार सोचता हूं कि डॉस ही रहता तो ठीक था। आदमी को मल्टीटास्किंग नहीं बनना होता। हम पत्रकार भी केवल पत्रकार ही होते। अब तो हर अखबार में कारपोरेट एडिटर का कांसेप्ट है। यह सामान्य अर्थों वाले संपादक का बाप होता है। यही तय करता है कि किस खबर से बाजार को कितना फर्क पड़ता है और कौन खबर बाजार व अखबार के लिहाज से जरूरी है। पत्रकार भी तब केवल खबर लिखते थे। कुछेक दलाली भी करते थे, लेकिन चूंकि इंटरफेस डॉस का था तो सबकुछ ढंका-तोपा था। पत्रकारों की भी इज्जत थी।

उन दिनों प्यार भी अलहदा था। एक सफेद पन्ने पर प्रेम पत्र लिखना और फिर उसे इत्र में डुबाकर प्रेमिका  तक पहुंचाने का जज्बा भी कम अलहदा नहीं था। अब आज के हालात देखिए। मैसेज बॉक्स में जाइए और प्रेम का इजहार कर डालिए। दुनिया का इंटरफेस बदल चुका है। मैंने अपने जीवन में डॉस के इंटरफेस को जिंदा रखा है। इसी जज्बे के साथ एक कविता अपनी प्रेमिका के लिए –

ख्याल मेरे मन में भी आता है कि

तोड़ लाऊं आसमान के सितारे

और रख दूं घर के भंडार कोने में

ताकि जब छिप जाय सूरज

तब जलती रहे रोशनी

और तुम उस रोशनी में

मुझसे मिलो ऐसे 

गोया हो रहा हो सवेरा।

 

बाजदफा ख्याल यह भी आता है कि

हवाओं को आदेश दूं

ताकि तुम्हारी जुल्फें उड़ती रहें

उड़ता रहे तुम्हारा आंचल

और तुम अपनी मुट्ठी में कैद कर सको

बसंती बयार

ताकि जब जेठ की दुपहरी हो तो

तुम बेखौफ जी सको।

 

कई बार जब तुम्हें सोचता हूं

तो सोचता हूं कि

मेरे अंदर है एक ज्वालामुखी

और तुम हिमालय के जैसी

तुम बर्फ की चादर ओढ़

मुस्कराती हो

मैं अपने अंदर के ताप से जलता हूं।

 

कभी-कभी सोचता हूं कि

वक्त और आदमी दोनों एक जैसे हैं

न वक्त रूकता है

और न आदमी

लेकिन मैं रूक जाना चाहता हूं तुम्हारे लिए

ताकि तुम और मैं

जी सकें एक जीवन।

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं

 

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