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धंधे में ईमानदारी  डायरी (29 जुलाई, 2021)

पत्रकार होने का एक बड़ा फायदा यह है कि आप किसी एक विचारधारा में बंधे नहीं रहते। मेरे लिए तो खबर ही महत्वपूर्ण है। मतलब यह कि मेरे लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से जुड़ी खबर भी खबर है और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की गलथेथरी भी खबर ही है। नरेंद्र मोदी का झूठ भी […]

पत्रकार होने का एक बड़ा फायदा यह है कि आप किसी एक विचारधारा में बंधे नहीं रहते। मेरे लिए तो खबर ही महत्वपूर्ण है। मतलब यह कि मेरे लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से जुड़ी खबर भी खबर है और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की गलथेथरी भी खबर ही है। नरेंद्र मोदी का झूठ भी मेरे लिए खबर है और राहुल गांधी की बातें भी खबर हैं । दरअसल, मेरा मानना है कि एक पत्रकार को यदि कोई चीज खुश कर सकती है तो वह खबर ही है। यह बात सभी पत्रकारों के लिए सच है।

[bs-quote quote=” मैं तो यह देखकर हैरान हूं कि भारतीय विदेश मंत्रालय ने अभी तक अमेरिकी विदेश मंत्री के बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की है। क्या अमेरिका के विदेश मंत्री को कोई विशेषाधिकार प्राप्त है? यदि अमेरिका की जगह पाकिस्तान का विदेश मंत्री भारत की सरजमीन पर आकर डेमोक्रेसी का लेक्चर देता तो क्या होता?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कल का दिन तो वाकई बेहद खास था। दो वजहें रहीं। एक तो यह कि अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भारत में आकर लोक और तंत्र के बीच अंतर्संबंध की व्याख्या खूबसूरत व्याख्या की। उन्होंने कहा – “लोकतंत्र को अधिक खुला, अधिक से अधिक समावेशी और अधिक से अधिक उदार और समतामूलक होना चाहिए। इसमें जनता की भागीदारी सबसे अधिक है। तंत्र को यह बात खुले दिल से स्वीकार करनी चाहिए।” मैं तो यह सोचकर हैरान हूं कि वह व्याख्या कर क्यों रहे थे? क्या उन्हें भी यह अहसास है कि भारत में लोक और तंत्र के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है? मैं तो यह देखकर हैरान हूं कि भारतीय विदेश मंत्रालय ने अभी तक अमेरिकी विदेश मंत्री के बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की है। क्या अमेरिका के विदेश मंत्री को कोई विशेषाधिकार प्राप्त है? यदि अमेरिका की जगह पाकिस्तान का विदेश मंत्री भारत की सरजमीन पर आकर डेमोक्रेसी का लेक्चर देता तो क्या होता?

ये सवाल बहुत अच्छे सवाल हैं। जवाब सोचकर देखिए। मुझे यकीन है कि आप भी मुस्कराएंगे मेरी तरह। मेरी आज की मुस्कुराहट तो इसलिए भी है कि कल 28-29 साल के नौजवान तेजस्वी यादव ने 15 साल से सीएम नीतीश कुमार की आंख में आंख डालकर कहा – देख लीजिए, कल कुछ भी हो सकता है। आप इधर बैठे हों और हम उधर। हो सकता है कि हम आपके उपर गोलियां चलवा दें और कार्रवाई के नाम पर दो पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दें।

कल बिहार विधानसभा में एक और घटना घटित हुई। बिहार राज्य अभियंत्रण विश्वविद्यालय अधिनियम में संशोधन के जरिए खुद को चांसलर बनवाने के लिए नीतीश कुमार को नाकों चने चबाने पड़े। दरअसल, विधानसभा में पक्ष और विपक्ष के बीच संख्या का फासला एकदम मामूली है। लिहाजा विपक्ष सत्ता पक्ष को बहुमत साबित करने की चुनौती देता रहता है। यह कल भी हुआ। हालांकि विधानसभा के अध्यक्ष ने खेल कर दिया और सत्ता पक्ष को अपने विधायकों को सदन में बुलाने का मौका दे दिया। और परिणाम यह हुआ कि सरकार के पक्ष में 110 और विपक्ष में 89 मत पड़े।

मैं इस तरह की घटनाओं को इंज्वॉय करता हूं। और यह इसलिए कि इससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं मजबूत होती हैं।

[bs-quote quote=”नीतीश कुमार का लेख अत्यंत ही साधारण है। इस पूरे लेख में उन्होंने बिहार में छात्र आंदोलन के बारे में लिखा है। यह बताने की कोशिश की है कि वे कैसे जेपी के संपर्क में आए। वे यह बताने से भी नहीं चूकते कि एक मौके पर जेपी ने उन्हें शाबासी दी। लेकिन यह शाबासी किस कारण दी, नीतीश कुमार चूंकि इसका खुलासा नहीं करते हैं, इसलिए यकीन नहीं होता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कल दो किताबें मुझे पढ़ने की जरूरत आज महसूस हुई। एक किताब जो कि डॉ. राममनोहर लोहिया के ऊपर केंद्रित थी और यह मुझे बिहार सरकार के पूर्व मंत्री अब्दुलबारी सिद्दीकी ने दी थी। इस किताब में डॉ. लोहिया के ऊपर संस्मरणात्मक लेख थे। यह किताब अब मेरे पास नहीं है। दूसरी किताब जेपी जैसा मैंने देखा खोजने पर मिल गई। इस किताब में जेपी से जुड़े अनेक लोगों के संस्मरण हैं। इसका संपादन जनसत्ता के वरिष्ठ पत्रकार अमलेश राजू ने किया है और प्रकाशक डायमंड बुक्स, नई दिल्ली है। यह किताब अमलेश जी ने मुझे 11 अक्टूबर, 2010 को दी थी।

लालू प्रसाद यादव और जेपी

उस किताब में बहुत सारे लोगों के लेख हैं। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार भी इनमें शामिल हैं जिन्होंने अपना संस्मरण दर्ज किया है। बिहार में छात्र आंदोलन के एक हिस्से को समझने के लिए यह किताब उपयोगी है। इसमें सभी लेखकों ने जेपी से अपने जुड़ाव को बयां किया है। लेकिन कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ, कहना मुश्किल है। एक लेखक रामबहादुर राय भी हैं, उन्होंने अपने लेख में विस्तार से जेपी के जीवन के बारे में लिखा है और उन पलों को भी बयां किया है जिन्हें अनकहे की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें से एक जानकारी यह कि जेपी मोरारजी देसाई की सरकार के कामकाज से खुश नहीं थे। उन्होंने एक पत्र भी लिखा था। रामबहादुर राय मोरारजी देसाई की सरकार को कसूरवार ठहराते हुए लिखते हैं कि उनके कारण ही जेपी को मानसिक आघात पहुंचा और इतना पहुंचा कि जेपी इलाज के लिए अमेरिका गए।

अमलेश राजू की किताब ..

परंतु, काश कि रामबहादुर राय यह लिखते कि जेपी मोरारजी देसाई सरकार की किन नीतियों से परेशान थे। काश कि वे इस संबंध में भी लिखते कि जेपी पिछड़ों के आरक्षण के विरोधी थे और चूंकि मोरारजी देसाई ने मंडल कमीशन का गठन ही इसी मकसद से किया था कि पिछड़ों को उनका वाजिब हक मिल सके। लेकिन रामबहादुर राय चालाक लेखक हैं। अपने लेख में उन्होंने इस सवाल को छुआ तक नहीं है और अपने लेख का अंत “जेपी जिंदाबाद” के तर्ज पर किया है।

नीतीश कुमार का लेख अत्यंत ही साधारण है। इस पूरे लेख में उन्होंने बिहार में छात्र आंदोलन के बारे में लिखा है। यह बताने की कोशिश की है कि वे कैसे जेपी के संपर्क में आए। वे यह बताने से भी नहीं चूकते कि एक मौके पर जेपी ने उन्हें शाबासी दी। लेकिन यह शाबासी किस कारण दी, नीतीश कुमार चूंकि इसका खुलासा नहीं करते हैं, इसलिए यकीन नहीं होता।

इस किताब के लेखकों की सूची में अमलेश राजू ने नीतीश कुमार को तीसरा स्थान दिया है। उनके पहले चंद्रेशखर और अजित भट्टाचार्य हैं। लालू प्रसाद को पंद्रहवें स्थान पर जगह मिली है। लेकिन लालू प्रसाद का संस्मरण वास्तव में संस्मरण है। वे अपने संस्मरण में अपनी बातों को याद करते हैं। ऐसा करते समय वे इतने ईमानदार हैं कि ये बताने से भी नहीं चूकते कि जब राबड़ी देवी गर्भवती थीं और लालू बिहार में छात्र राजनीति  के अगुआ थे तब उनके पास पैसे नहीं थे। लालू प्रसाद ने अपनी व्यथा जयप्रकाश को बताई। जेपी ने उनके लिए तीन सौ रुपए प्रतिमाह राशि का प्रबंध किया। साथ ही पीएमसीएच के डाक्टरों को राबड़ी देवी के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए भी कहा।

लालू की यही खासियत है। इस शख्स ने कुछ भी नहीं छिपाया है। जिन बातों को अमलेश राजू द्वारा संपादित किताब में संकलित लेख में लालू प्रसाद ने रखा है, वे तमाम पत्रकारों के सामने कह चुके हैं।

मैं नहीं जानता कि लालू प्रसाद ने चारा घोटाला किया है या नहीं। मैंने इस पूरे मामले की अपने स्तर से जांच नहीं की। जो कुछ भी पढ़ा है, उसके लेखक सवर्ण रहे हैं। अब लालू प्रसाद को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाले सवर्णों के कहे का विश्वास कैसे किया जाय। जो व्यक्ति सीएम रहने के बावजूद दो महीने तक सर्वेंट क्वार्टर में रहा हो, अपनी प्रसूता पत्नी को रिक्शे से पीएमसीएच ले गया हो, वह इतना भ्रष्ट कैसे हो सकता है?

मुक्तिबोध की कविता संग्रह चांद का मुंह टेढ़ा है पढ़ रहा हूं। इसमें एक कविता है मुझे नहीं मालूम। कुछेक पंक्तियां गवाह के रूप में दर्ज कर रहा हूं।

मुझे नहीं मालूम

सही हूं या गलत हूं या और कुछ

सत्य हूं कि मात्र मैं निवेदन सौंदर्य!

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

गाँव के लोग
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  1. जय प्रकाश जी, मोरार जी के कार्य प्रणाली से असंतुष्ट थे । वे जानते थे कि मोरारका अत्यंत अड़ियल और तानाशाह किस्म के व्यक्ति थथे। और किसी जे नही सुनते है। कुलदीप नैयर के एक बार कहने परएक बार जे । प आए मिल लो मोरार ने कहा था कि मैं तो ग़ांधी से भी नही मिलता था जबकि मोरार जे पी और कृपालनी के द्वारा नियुक्त हुए थे और संसदीय दाल में प्रस्ताव राजनरारण जी कियाथा । जहा तक मंडल कमीशन की बात है यह समाजवादियों के कारण गर्हित हुआ था।लोहिया ने पिछड़ों को विशेष अवसर और 60 % कीबात की थी जे पी व लोहिया कभी आरक्षण के विरोधी नही होसकते थे 1963 में मधुलिमये जी अध्यक्ष ता में सोशलिस्ट पार्टी नेपिछड़ों के आरक्षण का प्रस्ताव पास किया था।

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