2014 के चुनावों में कांग्रेस विरोधी हवा और मोदी के बड़े-बड़े वादों से प्रभावित होकर दलित समाज के पढ़े-लिखे हिस्से ने भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दिया था। इसी से उत्साहित होकर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के मार्गदर्शन में भाजपा ने नियोजित रूप से दलितों को अपने साथ जोड़ने की मुहिम शुरू की। किंतु 2024 के आम चुनाव के आते-आते भाजपा और आरएसएस ने बहुजनों के साथ जो बेरुखी दिखाई है, उसके मद्देनजर समाज का बहुजन समाज भाजपा और आरएसएस और भाजपा सरकार से हर प्रकार से विरोधात्मक भूमिका में आ गया है। चुनाव विशेषज्ञों के आकलन के अनुसार बहुजनों का वोट 2024 में भाजपा की ओर जाता नहीं दिख रहा। इस कारण भाजपा और भाजपा की पैत्रिक संस्था आरएसएस के रणनीतिकारों की समझ में नहीं आ रहा है कि दलित समुदाय के भीतर भारतीय जनता पार्टी की पहुँच किस तरह बढ़ाई जाए। नजीतन बहुजनों को संविधान प्रदत्त आरक्षण का विरोध करने वाली आरएसएस आरक्षण के समर्थन में खुलकर उतर आई है। इतना ही नहीं, अब आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने अपने सिपहसालारों को अल्पसंखयक समुदायों जैसे – मुसलमान और इसाईयों के बीच नाना प्रकार से करीबी बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं। भाजपा को 2024 के आसार नजर आने लगे हैं। संघ के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ।
हिंदुत्ववादियों ने डॉ आंबेडकर को सार्वजिनक मंचों पर अपना आदर्श-पुरुष बताना भी शुरू कर दिया। दलितों पर होने वाले अत्याचारों पर शिकंजा कसने की बात बार-बार सरकार द्वारा दोहराई तो जरूर किंतु ऐसा हुआ कुछ भी नहीं। जाहिर है राजनीतिक दल जाति और धर्म के नाम पर सियासत करके सत्त्ता पर काबिज तो हो जाते हैं किन्तु धर्म और जाति, जिसके बल पर पर सत्ता में बैठते हैं, ये राजनेता उसे ही भूल जाते हैं। लगता है कि शायद सियासत का पहला तकाजा है कि सत्ता पर काबिज होने के बाद हर राजनीतिक दल अपने चुनावी वादों को भुला देती है। और अगले चुनावों के दृष्टिगत काम करती है। यही काम आजकल भाजपा करने में जुटी है। प्रधान मंत्री मोदी जी इतनी हताशा में दिख रहे है कि चुनाव जीतने के चक्कर में जाने क्या-क्या किए जा रहे हैं। तमाम सरकारी जाँच एजेसियों को विपक्षी राजनीतिक दलों के खिलाफ मैदान में उतार दिया है। रोजाना ईडी/सीबीआई/आयकर के अधिकारी विपक्षी राजनेताओं और उनके रिश्तेदारों के ठिकानों पर धावा बोल रहे हैं। राजस्थान में एक वाकया ऐसा भी हुआ कि ईडी की जाँच अधिकारी खुद ही पंद्रह लाख रुपये की रंगे हाथों रिश्वत लेते पकड़े गए। इससे हुआ ये कि भाजपा के विरोधियों का और इजाफा हो गया।
उल्लेखनीय है कि यूं तो बहुजनों पर अत्याचार और जघंय अपराधों की घटनाएं सदियों से होती आ रही हैं किंतु केन्द्र में भाजपा की सरकार आने के बाद दलितों पर अत्याचार की घटनायें इतनी बढ़ी हैं कि शासन-प्रशासन की अनदेखी के चलते सभी मामले प्रकाश में भी नहीं आ पाते। केवल कुछ ही मामले सामने आते है क्योंकि पुलिस मामले दर्ज ही नहीं करती। उपर्युक्त के आलोक में कुछ वीभत्स घटनाओं के विवरण कुछ इस प्रकार है।
कुछ महीनों/दिनों पहले की खवर है कि उड़ीसा में दो आदिवासी महिलाओं और उनके गोद में दो साल के बच्चे को सुरक्षा बलों नें गोली से उड़ा दिया। छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों नें आदिवासी युवती से बलात्कार करने के बाद उसकी योनी में चाकू डाल कर नाभी तक चीर दिया। अक्तूबर 2015 में फरीदाबाद के सुनपेड़ गांव में दो दलित बच्चों की हत्या कर दी गई। सरकार द्वारा मीडिया को पूरी तरह गुलाम बना लिया गया है। गंभीर से गंभीर वारदात से मीडिया द्वारा आँख चुराना आम बात हो गई। यहाँ तक कि हाल ही के पिछले महीनों में मणिपुर की दुखद घटना पर न तो मीडिया ने ही बात की और न पीएम मोदी ने मणिपुर का ‘म’ तक नहीं बोला। चुनावी दौर में भी भाजपा सरकार मुंह बंद किए हुए है। ऐसी घटनाओं की कोई कमी नहीं है। सबका बखान करना भी एक लेख में संभव नहीं है। ऐसी घटनाओं पर प्रशासन से लेकर सरकार तक मौन साधे रहती है। जहां अपना हित देखती है तुरंत कर्रवाई करती दिखाई पड़ती है। अन्यथा हमारे देश में रोज ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, लेकिन इन घटनाओं पर न प्रशासन जागता है न ही सरकार। हरियाणा के एक गांव में तब तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई, जब कथित ऊंची जाति के कुछ लोगों ने एक दलित दूल्हे को उसकी बारात में उसे घोड़ा बग्गी पर चढ़ने से रोक दिया और बाराती और पुलिस दल पर पथराव किया। हाल ही में नूँह में दो समुदायों के बीच समाज विरोधी आपराधिक घटनाएं विश्व भर में चर्चा का विषय बनी रही किंतु सरकार आज तक मौन बनी हुई है।
दिसंबर 2015 में ही ओडिशा के दो युवकों के हाथ इसलिए काट दिए गए क्योंकि उन्होंने ईंट भट्टे पर काम करने से इनकार कर दिया था। इस मामले में नामज़द व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया है, लेकिन पीड़ितों को अब भी इंसाफ़ का इंतज़ार है। भारत में यह ऐसा पहला मामला नहीं। बंधुआ मज़दूरों की स्थिति सदा से ही दयनीय बनी रही है। यह घटना पिछले दिसम्बर में ओडिशा के एक छोटे से गांव के दियालु सहित क़रीब 12 लोगों को बिमल नामक दलाल के माध्यम से पास के एक ईंट भट्टे पर काम का लालच दिया गया। लेकिन पास के ईंट-भट्टे की जगह, इन्हें 800 किलोमीटर दूर हैदराबाद के ईंट-भट्टे के लिए ट्रेन में बैठा दिया गया। जब उन्हें लगा कि वे फंसने वाले हैं, तो वे भाग निकले। लेकिन दियालु और उसका एक दोस्त भट्टा-मालिकों के ठेकेदार की पकड़ में आ गया। उन्हें रायपुर ले जाया गया। वहां पर इन लोगों ने काम करने से मना कर दिया तो ठेकेदार ने उनसे पूछा कि सज़ा के तौर पर अपना एक हाथ कटवाओगे या पैर या फिर जान दोगे। दोनों ने पुन: काम करने से मना कर दिया और अपना-अपना दांया हाथ कटवाने का फ़ैसला किया।
पहले दियालु के दोस्त का हाथ उसकी आंखों के सामने काटा गया और फिर दियालु का। उनके हाथ काटकर उन्हें तन्हा छोड दिया गया। बहते खून और दर्द के बीच वे कटे हाथ पर प्लास्टिक बैग बांधकर पास के कस्बे में इलाज के लिए गए। जब खबर बनी तो बिमल दलाल को पुलिस ने पकड़ लिया, लेकिन उन्हें ज़मानत मिल गई। ऐसी न जाने कितनी ही घटनाएं निरंतर घटती हैं जिनमें से कुछ ही प्रकाश में आती हैं। आम राय है कि भारत सरकारें बंधुआ मज़दूरों को छुड़ाने और कसूरवारों को सज़ा देने में नाकाम ही रहती हैं। कहने को तो 1976 से बंधुआ मज़दूरी पर प्रतिबंध है किंतु वास्तविकता इससे परे है।
भारत में व्यापार से जुड़ी मानवाधिकार हनन की समस्या बहुत गहरी है और कंपनियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई में क़ानून का पालन करवाने वाली संस्थाएं भी रुचि नहीं लेतीं| आज के भारत में तो सरकार की देखरेख में पूंजीवाद इस हद तक बढ़ा है कि देश की 70%पूंजी का लगभग 70% अडानी, अम्बानी जैसे कुछ ही पूंजीपतियों की बपौती बनकर रह गया है। किसानों की खासी दुर्दशा है, बेरोजगारी जोरों पर है, रोजी-रोटी का सवाल मुँह बाए खड़ा है। सरकार का कहना है कि देश के लगभग अस्सी करोड़ परिवारों को प्रति माह पाँच किलों राशन उपलव्ध कराया जाता है। महिलाओं पर अत्याचार अपनी चरम पर है। भारतीय मीडिया बेशक ऐसी घटनाओं को अपनी खबर नहीं बनाता किंतु बीबीसी (हिन्दी) ऐसी भारतीय खबरों पर अपनी तीखी नजर रखता है।
गौरक्षा के नाम पर बहुत से निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया। गौरतलब है कि कुछ वर्षों पूर्व गुजरात के गीर-सोमनाथ ज़िले में उना कस्बे में तथाकथित गौ-सेवकों ने चार दलित युवकों की लाठी-डंडों से जमकर पिटाई कर दी। बताया जाता है कि ये युवक समढ़ियाला गांव से एक मरी हुई गाय का चमड़ा लेकर लौट रहे थे। इसके समानांतर यह खबर आई कि ये चारों युवक मरी हुई गायों की खाल उतार रहे थे। उन पर आरोप लगाया कि वो जीवित गायों की हत्या कर रहे थे। इनकी खूब पिटाई करने के बाद इन युवकों को गाड़ी से बांधा गया और नंगा करके फिर जमकर इनकी पिटाई की गई और इसी हालत में उन्हें पुलिस थाने तक ले गए। पीटने वालों ने ख़ुद ही इस घिनौने कृत्य का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर इसे वायरल भी कर दिया। तब जाकर कहीं प्रशासन हरकत में आया। लेकिन अफसोस की बात यह है कि ऐसी घटनाओं को न तो ब्राह्मणवादी मीडिया ने इसे अपनी खबरों का हिस्सा बनाया और न ही प्रिंट मीडिया ने अपने अखबारों में प्रकाशित किया। बताया तो ये जाता है कि पुलिस ने जब कार्यवाही की तब घटना के अगले दिन कुछ आंबेडकरवादियों ने गुजरात के ऊना शहर को तीन घंटों तक जाम रखा, सड़क और बाजार बंद कराने का काम किया। तब कहीं सरकार को मजबूरी में तीन गौ-आतंकवादियों को गिरफ्तार किया गया। यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या मोदी सरकार ने ऐसे गुण्डों को खुला लायसेंस दे रखा कि वो किसी भी प्रकार की हरकत कर सकते हैं। शासन – प्रशासन उनके ऐसे घिनौनें कृत्यों पर आँख बन्द किए रहेगी।
एक सवाल य़ह भी उठता है कि इन चर्मकारों के वो हथियार/औजार ऐसे अवसरों पर कहाँ चले जाते? क्यों उनकी धार कुन्द हो जाती है? क्यों नहीं ये उन हथियारों का प्रयोग ऐसे अवसरों पर करते जब उनपर अत्याचार हो रहा होता है? क्या यह मानसिक गुलामी का प्रमाण नहीं? जिस दिन से दलित वर्ग के ये चर्मकार अपने औजारों का प्रयोग अपनी अस्मिता को बचाने के लिए काम में लाने लगेंगे, अत्याचारियों के दिमाग ठिकाने आने लगेंगे। इस प्रकार के अत्याचार से बचने के लिए एक रास्ता और भी है कि इस प्रकार के पेशे से जुड़े हुए दलितों को चाहिए कि वे किसी भी कीमत पर मृत गायों को उठाने या उनका चमड़ा उतारने से हाथ खींच लें। करने दे गौरक्षकों को मृत गायों/पशुओं का अंतिम संस्कार। यहां यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि अत्याचारियों का प्रतिरोध करना चर्मकारों की यह एक मानसिक कमजोरी है न कि शारीरिक जो आज की नहीं, सदियों की देन है। ….. लेकिन कब तक?
भारतीय संस्कृति और धार्मिक वातावरण में निरंतर घटती घटनाओं से एक बात तो साफ हो जाती है कि भारत के तथाकथित ब्राह्मणवादी तबके द्वारा किए जाने वाले ऐसे तमाम घिनौनें कृत्यों का मकसद महज़ और महज समाज के दबे-कुचले वर्ग पर डर बनाए रखना है। इस नाते ब्राह्मणवादी सोच वाला तबका न केवल समानता का दुश्मन हैं अपितु मानवता का संहारक है। इससे भी गंभीर समस्या ये है कि इस प्रकार के हमलों/वीभत्स घटनाओं में ग़िरफ्तार होने वाले आरोपी अक्सर रिहा हो जाते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि तथाकथित शांतिप्रिय ब्राहम्णवादियों/भक्तों को मेरी ये पोस्ट पसंद नहीं आएगी। हो सकता है कि इस टिप्पणी में उन्हें देशद्रोह के अंश दिखाई दें। मगर वो अपनी और धर्म की रक्षा करने के नाम पर अलग- अलग नामों से संचालित बेड़ों में जब अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा लेते हैं, तब वो देश-प्रेम और देश-द्रोह की परिभाषा को अलग-अलग दृष्टि से देखते हैं।




