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ब्राह्मणवाद के खात्मे के लिए सिर्फ बाहर ही नहीं भीतर भी संघर्ष करना होगा

आज भी भारतीय समाज कहीं न कहीं ब्राह्मणवाद के प्रभाव में डूबे हुए हैं। ब्राह्मणों की बात तो छोड़िए, भारतीय समाज का ओबीसी समाज ब्राह्मणों से भी ज्यादा ब्राह्मणवाद के झंडाबरदार बने हुए हैं। माना कि ओबीसी के एक तबके में आज़ थोड़ा-बहुत परिवर्तन हुआ है किंतु कभी-कभी लगता वह परिवर्तन अभी कुछ पढ़े-लिखे  लोगो में ही देखने को मिलता है या फिर केवल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए। खेद की बात है कि आज भी भारतीय समाज के दलित और ओबीसी वर्गों के एक बड़े तबके को गाय-पूजा, संस्कृत और अन्य चीजें आज भी अव्यावहारिक नहीं लगतीं।

ओशो कहते हैं, ‘मैं एक अनाथालय में गया। वहाँ बच्चों को धर्म सिखाया जाता था। मैंने उनसे पूछा कि वे क्या पढ़ाते हैं? क्योंकि मुझे समझ में नहीं आता कि धर्म सिखाया जा सकता है, यह असंभव है। अगर सिखाया जा सकता होता तो 5000 साल पहले से लेकर अब तक तो मनुष्य धार्मिक हो गया होगा। सबको पता है कि ईश्वर है, आत्मा है, मोक्ष है, दीक्षा है, कर्म है। इस बात को वे जानते नहीं, बस मानते हैं। लेकिन उनके धर्म पढ़ाने से कोई भी व्यक्ति इस वजह से धार्मिक नहीं बन पाया है। दरअसल, जो लोग ऐसी बातें मानते हैं, वे बहुत खतरनाक होते हैं, जो लोग ऐसी बातें मानते हैं, वे हमेशा बच्चों/लोगों को मुसीबत में ही नहीं ले जाते अपितु अधर्म में भी ले जाते हैं। जो आदमी रोज गीता पढ़ता है, वह कल मस्जिद जलाने की सलाह दे सकता है। उनका यह ज्ञान बहुत खतरनाक है। यह ज्ञान दुनिया में प्रेम नहीं लाता। ये ज्ञान दुनिया में शांति नहीं लाता। यह युद्ध लाता है, हिंसा लाता है। इस प्रकार यह ज्ञान किसी को धार्मिक नहीं बनाता। फिर भी, मैंने धर्म पढ़ाने वालों से पूछा – आप क्या सिखाते हैं? तब उन्होंने कहा, आप स्वयं बच्चों से पूछिए। मैं बच्चों के पास गया। मैंने खुद बच्चों से पूछा, ‘क्या ईश्वर है?’  उन सभी बच्चों ने हाथ उठाए। उन्हें पढ़ाया गया है कि ईश्वर होता है। उन बच्चों को नहीं पता कि भगवान है या नहीं। लेकिन वे अपने हाथ ऊपर उठा रहे हैं। झूठ की नींव रखी जा रही है। इस नींव पर उनके पूरे जीवन का घर बनेगा। यह नींव झूठी है। ये बच्चे कुछ भी नहीं जानते हैं। जिन बच्चों को हम इतना बड़ा झूठ सिखा रहे हैं, अगर हम उम्मीद करें कि वे जीवन में सत्यवादी बनेंगे, तो यह अन्याय और अज्ञान की बात है। हम इतना बड़ा झूठ उन बच्चों को सिखा रहे हैं जो कुछ भी नहीं जानते हैं। उनका धर्म झूठा है।

अत: यह कहा जा सकता है कि धर्म गरीब आदमी का सबसे बड़ा शोषक है। धर्म ने भारत की सभ्यता को बर्बाद कर दिया है, बहुत नुकसान पहुंचाया है। सभी पंडित-पुरोहितों ने समाज से झूठ बोला है कि मोक्ष प्राप्त करना ही सर्वश्रेष्ठ है। मोक्ष का अर्थ है जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पाना। आत्मा अपने स्वरूप में रहती है। उस मूर्ख को कुछ भी पता नहीं है। उसके मुँह में जो आया बोल दिया होगा। उसके बाद 84 लाख साल तक सोच कर पूरा भारतीय समाज नष्ट हो गया। कुछ मूर्ख थोड़ी सी बुद्धि से यह पता लगा लेते हैं कि पिछले जन्म में वे गधा थे या कुत्ता और अगले जन्म में क्या बनेंगे?

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यह बहुत बढ़िया बिजनेस मॉडल है जिसमें 100% आरक्षण एक जाति के हाथ में है। अगर पुजारी से मोक्ष नहीं मिला तो भूत बन जाओगे। नरक में जाओगे। सबसे अच्छा विज्ञापन वह है जो किसी को डराए और फिर मिथ्या रास्ता दिखाए। दुनिया में इससे बेहतर कोई तरीका नहीं है समझाने या विज्ञापन देने का। दुनिया में किसी पर विश्वास नहीं किया जाता। इसीलिए विज्ञापन में पहले महिला को विधवा होने का डर दिखाओ और फिर उसकी शादी कराने के लिए बीमा का लोभ दिखाओ।

इन बातों के मद्देनज़र हमें ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद में क्या अंतर है, यह समझने की जरूरत है। यह भी कि ब्राह्मणवाद खतरनाक क्यों है। नॉकिंग डॉट कॉम (नॉकिंग न्यूज) के गिरिजेश वशिष्ठ के हवाले से हमें इस बात को समझने में काफी हद तक मदद मिलेगी। वे कहते हैं। आमतौर पर जब हम ब्राह्मणों की बात करते हैं तो इस पर कई तरह की मिली-जुली प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि ब्राह्मणों ने इस देश की पूरी व्यवस्था को बर्बाद कर दिया है और बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि भारत में जो भी सुधार हुआ है, जितनी भी बड़ी चीजें हुई हैं, उसमें ब्राह्मणों का ही हाथ रहा है।

अब इन दोनों चीजों में क्या अंतर है? अगर आप पहचान के नजरिए से देखें तो पहचानना मुश्किल है। मैं हमेशा कहता हूं कि किसी व्यक्ति को मत देखिए, उसके काम को देखिए। जब आप दोनों चीजों को काम से अलग करेंगे तो आपके सामने एक तस्वीर आएगी। इस देश के विकास में और हमारी संस्कृति के विकास या विनाश में, ब्राह्मणों का क्या योगदान था, उनका इतिहास क्या है? और ऐसे तत्वों ने हमारे देश को कैसे नुकसान पहुँचाया?

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जब मैं ब्राह्मण शब्द का प्रयोग करता हूँ तो कहीं न कहीं एक विचार मन में आता है, जिसका मतलब है कि कुछ ऐसा है जो ब्राह्मणों से संबंधित है यानी जो ब्राह्मण जाति में पैदा हुए हैं। बहुत से लोग कहते हैं कि ब्राह्मणवाद एक अलग विचारधारा है, ब्राह्मणवाद कोई जाति नहीं है। लेकिन इसे समझना बहुत मुश्किल और जटिल है। अगर कोई आपसे सीधे पूछे कि भाई यह बताओ कि ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद में क्या अंतर है तो इसका उत्तर देना बहुत मुश्किल हो जाता है। आज मैं उसी के बारे में बात करने वाला हूँ। सबसे पहले मैं उन ब्राह्मणों के बारे में बात करूँगा जिन्होंने इस दुनिया को एक नई दिशा दी।

ईश्वरचंद विद्यासागर को कौन नहीं जानता? वे बंगाल के एक महान नेता थे। 1856 में ईश्वरचंद विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह कानून पारित करने के लिए आवाज़ उठाई । वह एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने बेटे की शादी एक विधवा से करवाई जिसके बारे में उस समय लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे। वहाँ के जुलाहों के पूरे समुदाय में ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे लोगों से जुड़े सुधार के गीत थे। उन्होंने भारत में एक बहुत बड़ा जन-जागरण आंदोलन चलाया था। वह जाति और जन्म से ब्राह्मण थे। वह बहुत सुधारवादी थे।

दूसरा उदाहरण मैं उसी बंगाल के राजा राममोहन राय का लेता हूँ। जब किसी महिला का पति मर जाता था तो किसी को उसकी पत्नी का बोझ न उठाना पड़े, इसलिए उसे उसके पति के साथ ही लोग आग में जला देते थे यानी मार देते थे और उसका नाम ‘सती’  रखा गया। इस प्रकार के सामाजिक ताने-बाने और पुरुषवादी व्यवस्था में एक समय ऐसा आया कि सतीप्रथा को मानने के कारण महिलाएं अपने आप ही पति की चिता में बैठ जाती और जिंदा जल जाती थीं। यह बुराई हमारे देश में गहरे व्याप्त थी। तीसरा उदाहरण महर्षि दयानंद सरस्वती का है। उन्होंने कर्मकांड, मूर्ति पूजा और अन्य चीजों का विरोध किया। और वे उन चीजों के खिलाफ़ लड़ते रहे।

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ये तीनों ही जाति से ब्राह्मण थे। अगर आप आधुनिक सुधारवादियों को छोड़ दें, जिन्हें आप वामपंथी कहते हैं, या वैज्ञानिक सोच के लोग कहते हैं या यूँ कहें जो पुरातनपंथी सोच को नहीं मानते, जो हर तरह के धर्म और कर्मकांड के खिलाफ हैं। ऐसे एक महान वामपंथी नेता नंबूदिरिपाद जाति से ब्राह्मण थे। इसके अलावा श्रीपाद अमृत डांगे भी ब्राह्मण थे। इस देश को सुधारने के लिए, इस देश को दिशा देने के लिए अनेक ब्राह्मणों ने निरंतर काम किया। इन सभी ब्राह्मणों का देश के सामाजिक सुधार में महत्त्वपूर्ण योगदान है। यानि अगर आप जाति से पहचान करने जाएँगे तो मैं आपको ये चार उदाहरण दूँगा। तब आप कहेंगे कि ब्राह्मण बहुत अच्छे होते हैं। लेकिन ब्राह्मण न तो अच्छे हैं और न ही बुरे। अब मैं आपके सामने एक और तस्वीर रखने जा रहा हूँ, जो बहुत ही घिनौनी और शर्मनाक है। यह ब्राह्मणों की तस्वीर नहीं है, यह ब्राह्मणवाद की तस्वीर है।

जब छत्रपति शिवाजी महाराज ने बहुत से राज्य जीते। जब उनका राज्याभिषेक होना था, तब ऐसे पराक्रमी राजा का राज्याभिषेक करने से महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मणों ने मना कर दिया था क्योंकि शिवाजी  को वे जाति से शूद्र मानते थे। अंतत: काशी से एक पुजारी को बुलाया गया। उनका नाम गंगा भट्ट था। काशी से जब गंगा भट्ट आये तो उन्होंने शिवाजी महाराज का राज तिलक तो किया लेकिन पैर से किया क्योंकि उस ब्राह्मण का कहना था कि शूद्र का स्थान पैर में होता है। ऐसे में तो छत्रपति शिवाजी महाराज का राजतिलक उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से किया। उन्होंने उन्हें अपने हाथ से छुआ तक नहीं। शिवाजी के बेटे शंभाजी राव ने भी इस तरह की बहुत सी चीजें सहन की थीं।

आरक्षण के जनक छत्रपति शाहूजी महाराज को भी ऐसी अपमानजनक चीजें सहनी पड़ी थीं। शाहूजी महाराज जब वाणगंगा में स्नान करने जाते थे तो उनके कुल पुरोहित उनका वैदिक मंत्रों से उपचार नहीं करते थे। वे  पुराणों के मंत्र पढ़ते थे। शाहूजी महाराज इस बात इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने घोषणा की कि आज से मेरे राज्य में प्रजापति जाति के लोग पुजारी होंगे और उन्होंने प्रजापति जाति के लोगों को पुजारी बना दिया। उसके बाद प्रजापति जाति के पुजारी लोग वे सारे कर्मकांड करने लगे।

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यहाँ यह समझने में कोई दिक्कत नहीं कि काशी के पुजारी गंगा भट्ट ब्राह्मण जरूर थे लेकिन ब्राह्मणवाद उनके सिर पर सवार था। ब्राह्मण का यही ब्राह्मणवाद सबसे खतरनाक पहलू है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ब्राह्मण बुरा नहीं है, ब्राह्मणवाद बुरा है। जब अधिकतर लोग ब्राह्मणवाद को बुरा कहते हैं तो वे ब्राह्मणों को भी बुरा मानने को विवश हैं। इस ब्राह्मणवाद ने सभी ब्राह्मणों को कठघरे में खड़ा कर दिया जबकि यह पूरी तरह से सत्य नहीं है। ज्यादातर ब्राह्मणवाद से परे हैं लेकिन भीड़ में भीड़ का ही हिस्सा बन जाते हैं। फिर यह जरूरी नहीं कि सभी ब्राह्मण जाति के लोग ब्राह्मणवाद से ग्रस्त हों।  लेकिन आज का सच तो यह भी है कि वे लोग भी जो ब्राह्मण जाति के नहीं हैं वे भी ब्राह्मणों की सोच से प्रभावित हैं।

सावित्रीबाई फुले पर कीचड़ फैंकने वाले सभी ब्राह्मण नहीं थे, उनमें अन्य जातियों के वे लोग भी थे, जो ब्राह्मणवाद से प्रभावित थे। इसके बावजूद सावित्रीबाई फुले ने अपना संघर्ष जारी रखा। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि आज सावित्रीबाई पर कीचड़ फैंकने वालों को कोई नहीं जानता चाहे वह कोई ब्राह्मण रहा हो या फिर कोई और। लेकिन पूरा देश सावित्रीबाई फुले को जानता है और उनका नाम हमेशा और हरेक समाज में जाना जाता रहेगा। अफसोस की बात है कि पुरुष ब्राह्मणों ने यह भ्रमजाल फैलाया था कि अगर लड़कियां पढ़ेंगी तो उनके पति कम उम्र में ही मर जाएंगे। इसलिए उन्हें नहीं पढ़ना चाहिए। लड़कियों को पढ़ाना बुरा ही नहीं अपितु पाप माना जाता था।

विदित हो कि ब्राह्मणों ने कहा कि चवदार  तालाब में आप पानी नहीं पी सकते। अगर पीएंगे तो तालाब गंदा हो जाएगा। उसके बाद बाबा साहब अंबेडकर ने एक सत्याग्रह शुरू किया। बहुत बड़ी संख्या में दलित लोग इकट्ठे हुए। उन्होंने उस तालाब का पानी पिया और उसके बाद ब्राह्मणों ने उस तालाब को शुद्ध किया। ब्राह्मणों ने और शुद्धिकरण के बाद परिणाम यह हुआ कि बाबा साहब अंबेडकर को बहुत दुखद बयान देना पड़ा कि जिस तालाब में कुत्ते, बिल्ली, गाय, भैंस पानी पी सकते हैं, उस तालाब में इंसान पानी नहीं पी सकता। अंबेडकर ने दलितों को चवदार तालाब से पानी पीने का अधिकार दिलाने के लिए 20 मार्च 1927 को महाड़ सत्याग्रह आंदोलन  शुरू किया। महाड़ सत्याग्रह को चवदार तालाब सत्याग्रह के नाम से भी जाना जाता है। यह आंदोलन महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के महाड़ में हुआ था। इस सत्याग्रह का उद्देश्य दलितों को सार्वजनिक चवदार तालाब से पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाना था। अंबेडकर ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस आंदोलन को दलित समुदाय को सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता है।

आज भी हम ब्राह्मणवाद के प्रभाव से बाहर नहीं आए हैं। आज भी भारतीय समाज कहीं न कहीं ब्राह्मणवाद के प्रभाव में डूबे हुए हैं। ब्राह्मणों की बात तो छोड़िए, भारतीय समाज का ओबीसी समाज ब्राह्मणों से भी ज्यादा ब्राह्मणवाद के झंडाबरदार बने हुए हैं। माना कि ओबीसी के एक तबके में आज़ थोड़ा-बहुत परिवर्तन हुआ है किंतु कभी-कभी लगता वह परिवर्तन अभी कुछ पढ़े-लिखे  लोगो में ही देखने को मिलता है या फिर केवल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए। खेद की बात है कि आज भी भारतीय समाज के दलित और ओबीसी वर्गों के एक बड़े तबके को गाय-पूजा, संस्कृत और अन्य चीजें आज भी अव्यावहारिक नहीं लगतीं। लेकिन भविष्य में इसके अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है। समय जरूर लग सकता है।

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बाबासाहेब अंबेडकर ने कालाराम मंदिर सत्याग्रह किया था। उस मंदिर में बहुत बड़ी संख्या में सवर्ण वहां इकट्ठे हुए और उन्होंने पत्थरबाजी शुरू कर दी। वे बाबासाहेब अंबेडकर को मंदिर के अंदर नहीं जाने देना चाहते थे। लेकिन 15,000 दलितों के साथ भीमराव अंबेडकर उस जगह पर पहुंचे और उन्होंने मंदिर में प्रवेश किया, जिसमें ज्यादातर लोग महार जाति के थे। इसीलिए इसे ‘महार आंदोलन’ भी कहते हैं। इसमें महिलाओं की संख्या भी ज्यादा थी। आपने एक चीज महसूस की होगी कि दलित समाज में पढ़ी-लिखी महिलाओं की स्थिति थोड़ी बेहतर हुई है, और वे ज्यादा स्वतंत्र और साफ-सुथरी जिंदगी जीती हैं। किंतु पूरी तरह से नहीं। मन्दिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर आज का माहौल भी कुछ अनुकूल नहीं है। आज भी ऐसे अधिकतर मंदिर हैं जिनमें दलितों का प्रवेश नहीं हो सकता। आए दिन दलितों के मंदिर में प्रवेश न दिए जाने की वारदातें सामने आती रहती हैं। जिसका मुख्य कारण ब्राह्मण नहीं, अपितु ब्राह्मणवाद ही है।

कुछ समय पहले आज तक चैनल ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया था और इस स्टिंग ऑपरेशन में उन्होंने अलग-अलग मंदियों के पुजारियों से बात की थी। कई ऐसे मंदिर निकल कर सामने आए जिनमें आज भी दलितों को प्रवेश करने से रोकते हैं। बरनास का काल भैरव मंदिर है, वहां प्रवेश करने से रोका जाता है। लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर में है, वहां भी उन्होंने स्टिंग ऑपरेशन किया था। बागेश्वर धाम, अल्मोड़ा में स्टिंग ऑपरेशन किया था, वहां के पुजारियों ने कहा कि हमारे पास जो भी आता है, हम उससे उसकी जाति नहीं पूछते। वहाँ के पुजारियों का मानना था – हम इस प्रकार का जाति भेद करके अपने धर्म का नुकसान क्यों करें? यह ब्राह्मणों की बात है। बागेश्वर धाम और  बागेश्वर कै बैजनाथ मंदिर में भी दलितों का प्रवेश वर्जित है। यह अलग बात है कि वहां लोग अपनी पहचान न बताते हुए भी चले जाते हैं, लेकिन वहां इस बात को लेकर काफी सख्ती है।

उल्लेखनीय है कि जगन्नाथ पुरी मंदिर में दलितों के प्रवेश पर रोक थी। जगजीवन राम एक जननेता थे, इसलिए उन्हें मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति थी, लेकिन उनकी पत्नी और अन्य दलितों को प्रवेश से मना कर दिया गया था। इस घटना से जगजीवन राम बहुत दुखी हुए और उन्होंने मंदिर में प्रवेश करने से इनकार कर दिया। बाद में, जगजीवन राम ने इस घटना के कारण मंदिर के शुद्धिकरण की आवश्यकता को स्वीकार किया था। उन्होंने लिखा था कि ‘उन्हें लगता है कि मंदिर में दलितों के प्रवेश पर रोक लगाने से मंदिर का शुद्धिकरण करना आवश्यक हो गया है।’ यह घटना उस समय भारत में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव का एक उदाहरण थी।

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इतना ही नहीं, भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी कई मंदिरों में जाने की अनुमति नहीं थी। कुछ मंदिरों में इंदिरा गांधी के प्रवेश पर रोक थी, विशेष रूप से पुरी के जगन्नाथ मंदिर में। इसका कारण यह था कि उनकी शादी पारसी फिरोज गांधी से हुई थी और मंदिर के नियमों के अनुसार गैर-हिन्दुओं को प्रवेश की अनुमति नहीं थी। जगन्नाथ पुरी मंदिर अपने सख्त नियमों के लिए जाना जाता है, जिसमें गैर-हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है।

वर्तमान में स्थिति जस की तस बनी हुई है। आज भी, कई मंदिर गैर-हिन्दुओं को प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते हैं, और यह एक जटिल मुद्दा है जिस पर बहस जारी है। कुल मिलाकर हमारे समाज में जो भी पिछड़ापन है, जो भी बुराइयाँ हैं, वे प्रथाएं  बदली नहीं जा रही हैं या जिन्हें बदलने से रोका जा रहा है। जो भी हो, हम उन्हें परंपरा कहते हैं, संस्कृति कहते हैं। संस्कृति और परंपरा ब्राह्मणों के शब्द हैं जो आपको अतीत की ओर ले जाते हैं और आपको बदलने से रोकते हैं। यह सब  ब्राह्मणवाद के कारण  है।

उल्लेखनीय है कि सारे सुधार, सारी चीज़ें जो विज्ञान के ज़रिए हमारे पास आ रही हैं वो अतीत को नकारने का काम तो करती हैं किंतु ब्राह्मणवाद द्वारा हमको पुरानी चीज़ों में ही उलझाए रखना, हमको ज्ञान से दूर अज्ञानता में फंसाए रखना जैसे उपक्रम हमेशा किए जाते रहते हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं, जब ग्रहण होता है, जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच में आ जाता है, तब सूर्य ग्रहण लगता है। जब पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ती है, तो वो चंद्र ग्रहण बन जाता है। यह बात पूरी तरह से सिद्ध हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद ब्राह्मणवाद आज भी राहु और केतु के वर्चस्व को अस्वीकार नहीं करता। आज भी कहा जाता है कि विज्ञान से सिद्ध कई चीजें अतीत की बातें हैं। अब हमें बदलना है, आगे बढ़ना है। इसके बावजूद अगर कोई इन सब चीजों को रोके रखता है तो वह ब्राह्मणों का ब्राह्मणवाद ही है, यह समस्या ब्राह्मणवाद की समस्या है, ब्राह्मणों की नहीं। फिर भी आज जो सुधार हो रहे हैं, जो लोग समाज को बदल रहे हैं वे समाज को बेहतर बना रहे हैं, जागरुकता ला रहे हैं, वे सभी जन्म से ब्राह्मण हैं, ऐसा नहीं है। अन्य जातियों के अनेक समाज सुधारक भी हैं। यह खुद सोचने वाली बात है।

यहाँ एक और बात समझने वाली है कि सभी ‘ब्राह्मण’ समाज के दुश्मन नहीं हैं। किंतु ब्राह्मणवाद की सताई हुई जातियों के प्रगतिशील लोग जाति के आधार पर ब्राह्मणों से नाराज होते हैं, यह भी गलत है। कुछ ही ब्राह्मण हैं जो जाति के आधार पर खुद को ब्राह्मणवाद से जोड़ते हैं। ब्राह्मणवाद एक पुरानी व्यवस्था है, जो समाज को बदलने से रोकती है। ब्राह्मण एक ऐसी चीज है जिसे व्यक्ति स्वीकार नहीं करता। जिसके घर में जो पैदा हुआ, वह उसी जाति का हो गया। तो कुल मिलाकर यहाँ इन दोनों चीजों में अंतर समझाने का प्रयास किया गया है। यह भी कोशिश की गई है कि ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद क्या है। और ब्राह्मणों ने देश को कितने अपमान दिए हैं, यह भी हमारे सामने है।

हमारे देश के महापुरुषों ने दलितों को बहुत आगे बढ़ाया है। झलकारी बाई,  रानी लक्ष्मीबाई की बहुत अच्छी मित्र थीं। वह कोली जाति की दलित थीं। दरअसल, ऐसा कहा जाता है कि वह अक्सर उनके साथ रहती थीं। हमारे इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिन्हें छुआ तक नहीं गया है। लेकिन ब्राह्मणवाद के साथ तब भी एक प्रगतिशील समाज था क्योंकि जो लोग ब्राह्मणवाद का उल्लंघन करते थे, उन्हें दंडित किया जाता था, उन्हें सताया जाता था। इसलिए सुधार करना बहुत जरूरी है।

मुझे लगता है आप समझ गए होंगे कि ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद में क्या अंतर है। हमें दोनों के बीच के अंतर को समझकर आगे बढ़ना होगा। ब्राह्मणवाद हम सब में समाया हुआ है। हम किसी भी जाति के हों, हम दलित हैं तो बहुत से दलितों में ब्राह्मणवाद का ज़हर उपस्थित है। ब्राह्मणों में तो यह बीमारी है ही। तमाम राजनेता, चाहे किसी भी जाति के हों, दलितों के महापुरुषों के नाम पर दलितों के वोट तो लेते हैं, लेकिन सोफे पर बैठकर अपने वोटरों को नीचे बिठाते हैं। तो यह भी एक तरह का ब्राह्मणवाद है। लोग जाति के आधार पर दूसरों को दुश्मन मानते हैं, उन्हें भी यह बात समझनी चाहिए कि ब्राह्मणवाद एक अलग चीज है। यह हमारे समाज की एक अलग बीमारी है। ब्राह्मणवाद कोई जाति नहीं है।

 

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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