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ग्राउंड रिपोर्ट

 नई शिक्षा नीति : विश्वविद्यालयों पर भगवा आकांक्षाओं का कब्जा ज्ञान-विज्ञान के लिए नाबदान साबित होगा  

भारत में नई शिक्षा नीति लागू कर दी गई है। इसके तहत विश्वविद्यालय स्तर पर अनेक ऐसे नए पाठ्यक्रम चलाये जा रहे हैं जो न केवल अतार्किक, विज्ञान और प्रगति विरोधी हैं बल्कि आज के दौर में बेमतलब है। भारतीय ज्ञान परंपरा के नाम पर फलज्योतिष, विमानशास्त्र , पौरोहित्य जैसे पाठ्यक्रम पढ़ाये जा रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में शिक्षामंत्री रहे डॉ मुरली मनोहर जोशी के आदेश से चलाये जाने वाले पौरोहित्य पाठ्यक्रम पर सवाल उठा था कि दलित जाति के विद्यार्थियों द्वारा यह उपाधि लेने पर क्या उनका चयन मंदिर के पुजारी के रूप में होगा? उस समय संघी विद्वान इसका जवाब नहीं दे पाये थे। अब अधिक सुनियोजित तौर पर ऐसे पाठ्यक्रमों को बनाया गया और 'मजबूत' सरकार द्वारा आसानी से लागू किया गया है। पिछले दस सालों में विश्वद्यालयीन शिक्षा-प्रणाली और तंत्र में आए परिवर्तनों पर प्रमोद मुनघाटे का विचारणीय लेख।

इन दिनों महाराष्ट्र के विश्वविद्यालयों में ‘प्राचीन भारतीय विज्ञान’ की शिक्षा प्रदान करने की मुहिम चल रही है। 2020 की नई शिक्षा नीति में ‘भारतीय ज्ञान परम्परा’ के अंतर्गत शिक्षा और शोधकार्य का प्रावधान रखा गया है। इसके अनुसार ‘पारम्परिक शास्त्र’ और ‘प्राचीन विद्या’ विषयों के पाठ्यक्रम तैयार कर उन्हें लागू किया जा रहा है। पुणे के एक उच्च शिक्षा संस्थान में ‘पुष्पक विमान विद्या’ पढ़ाई जा रही है, इसके ‘सलाहकार’ भूतपूर्व कुलपति डॉ. वसंत शिंदे हैं। मुंबई विश्वविद्यालय में ‘मंदिर व्यवस्थापन’ पढ़ाया जा रहा है। रामटेक के कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय में ‘फलज्योतिष’ का पाठ्यक्रम पढ़ाया जा रहा है। इसी तरह नागपुर विश्वविद्यालय ने अभी-अभी हिंदू धर्म-संस्कृति के पाठ पढ़ाने के लिए एक धार्मिक संस्था के साथ अनुबंध किया है।

इन संदर्भों में कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं। पहला, नई शिक्षा नीति के प्रावधान के अनुसार ‘भारतीय ज्ञान परम्परा’ की शिक्षा लागू करने का निश्चित उद्देश्य क्या है? दूसरा, दुनिया के किसी भी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों के दायरे में न आने वाले ‘शास्त्रों’ और ‘विद्याओं’ को भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाने का वास्तविक उद्देश्य क्या है? विश्वविद्यालय मूलतः शोधकार्य और ज्ञान-निर्माण के केन्द्र होते हैं इसलिए उनके लिए कोई भी विषय वर्जित नहीं होता; परंतु सवाल यह है कि वैज्ञानिक अध्ययन की कसौटी पर पहले ही निरर्थक साबित हो चुके अवैज्ञानिक विषयों को ‘छ्द्म विज्ञान’ के स्वरूप में क्यों पुनर्जीवित किया जा रहा है? साथ ही, एक विशेष  सांस्कृतिक और धार्मिक परिपाटी की प्राचीन परम्पराओं और कर्मकांडों का प्रशिक्षण प्रदान करने के ‘आदेश’ जब विश्वविद्यालयों को दिये जाते हैं, तब संदेह पैदा होना स्वाभाविक है।

ध्यान दें कि संदेह पैदा होने के इन कारणों को समझने और इन निर्णयों का विरोध करने की आखिर क्या आवश्यकता है? उदाहरण के लिए, फलज्योतिष ‘विज्ञान’ नहीं है, जनता को उसके चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए।  1975 में दुनिया के 186 वैज्ञानिकों द्वारा इस आशय का एक पत्रक प्रकाशित किया गया था। इनमें 18 नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक शामिल थे। फलज्योतिष की सत्यता के बारे में पश्चिमी देशों में अनेक वस्तुनिष्ठ परीक्षण किये गये थे। उनके माध्यम से फलज्योतिष के पूरी तरह ढकोसला होने की बात सिद्ध हो गई है। इसीलिए दुनिया के किसी भी नामचीन विश्वविद्यालय की विज्ञान शाखा में इस तरह के अवैज्ञानिक पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाए जाते।

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परंतु इन दिनों भारत में जिस प्रकार का राजनीतिक वर्चस्व है, वह पुनरुत्थानवादी विचार-मंथन के अंतर्गत नए ज्ञान-निर्माण की बजाय अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा  के मद्देनज़र विश्वविद्यालयों का उपयोग कर रहा है। इसमें तर्क और विज्ञान की उपेक्षा करते हुए समाज में अवैज्ञानिक तत्वों को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है।

इसी तरह का एक अन्य उदाहरण तथाकथित प्राचीन विमानविद्या का दिया जा सकता है। प्राचीन पुराणों में ‘पुष्पक विमान’ जैसी अनेक कल्पनाएँ पाई जाती हैं। मगर विमान बनाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया का विवरण देने वाली कोई भी लिखित सामग्री उपलब्ध न होने के कारण ‘विमानशास्त्र’ का कोई अस्तित्व नहीं रहा है। बहुत पहले ही इस बात का खुलासा वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. जयंत नार्लीकर द्वारा किया गया था।

1998 में जब डॉ. मुरली मनोहर जोशी केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री थे, तब नागपुर विश्वविद्यालय में ‘पौरोहित्य’ और ‘फलज्योतिष’ के पाठ्यक्रम आरम्भ करने के आदेश ‘ऊपर‘ से आए थे। यह प्रस्ताव भी संसद में लाया गया था। संसद में अनेक सदस्यों द्वारा इसका विरोध करते हुए सवाल उठाया गया कि, ‘दलित जाति के विद्यार्थियों द्वारा अगर यह उपाधि ली जाती है, तो क्या मंदिर के पुजारी के रूप में उनका चयन किया जाएगा?’

उस समय नागपुर में प्राध्यापक संगठन और प्रगतिशील आंदोलन के कार्यकर्ताओं द्वारा विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर आंदोलन किया गया था। उसके बाद वह प्रस्ताव वापस ले लिया गया था। उन दिनों प्रगतिशील विचारों के छात्र संगठन सक्रिय थे क्योंकि तब विश्वविद्यालयों में छात्र-संघ के गठन के लिए चुनाव होते थे। अब इनके बंद हो जाने के कारण विश्वविद्यालयीन राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित हस्तक्षेप ठंडा पड़ गया है।

न केवल विश्वविद्यालयों में, बल्कि देश के अन्य क्षेत्रों में भी बाबागीरी और अवैज्ञानिक घटनाओं का विरोध करने की जिम्मेदारी हमेशा ही विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों और शोधकर्ताओं की रही है। दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में इस तरह के आंदोलन निरंतर होते रहे हैं। महाराष्ट्र में जब मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे, उन दिनों अचानक एक दिन गणेश की मूर्ति द्वारा दूध पीने के समाचार प्रसारित हुए थे। यह अफवाह हवा की तरह तेज़ी से फैल गई थी। स्वयं मुख्यमंत्री के हाथों से गणेश के दूध पीने की ख़बरें छपी थीं। उस वक़्त प्रोफेसर यशपाल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष थे। उन्होंने टीवी पर इसे अंधश्रद्धा सिद्ध कर प्रमाणित करते हुए समझाया था। प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने चप्पल बनाने के औज़ार का उपयोग किया था। (वर्तमान काल में किसी विश्वविद्यालय का कुलपति या भौतिकशास्त्र का कोई प्राध्यापक क्या इस तरह का साहस कर सकता है, इस बात की कल्पना कीजिएगा।)

 मगर अब किसी विश्वविद्यालय का कोई शोधकर्ता या प्राध्यापक सामाजिक प्रबोधन के लिए पहल नहीं कर पाता। इसके विपरीत, नई शिक्षा नीति के अनुसार, इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से मुस्लिम शासन के कालखंड को हटाने का दृढ़ समर्थन करता है। वे जानते हैं कि उनकी हरेक गतिविधि पर एक ‘अदृश्य शक्ति’ का पहरा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण या सामाजिक प्रतिबद्धता की बजाय अपने कैरियर को महत्त्व देना उनके लिए स्वाभाविक है। एक अन्य कारण भी है कि, अब उन्हें सुरक्षा देने वाले शिक्षक संगठन भी अस्तित्व में नहीं हैं। राजनीतिक विश्लेषकों अथवा सत्यान्वेषण करने वाले शोधकर्ताओं और प्राध्यापकों को विश्वविद्यालयों द्वारा निलंबित किये जाने की घटनाएँ निरंतर घट रही हैं। सिम्बियॉसिस संस्थान पुणे के बुद्धिप्रामाण्यवाद या तर्कवाद पढ़ाने वाले प्राध्यापक को धार्मिक भावनाएँ आहत होने के नाम पर गिरफ्तार किया गया। इसी वर्ष फरवरी महीने में पुणे विश्वविद्यालय के ललित कला केन्द्र में एक नाट्य-प्रदर्शन के दौरान कुछ संगठनों ने ऊधम मचाया, मगर गिरफ्तारी विभागाध्यक्ष की हुई।

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विश्वविद्यालयीन प्राध्यापक संगठनों के अचानक विलुप्त होने का कारण जानने के लिए हमें पीछे जाना होगा। पहले विश्वविद्यालय के प्रबंधन करने वाले प्राधिकरण लोकतांत्रिक पद्धति से स्थापित होते थे। इसके लिए बाकायदा चुनाव होते थे। इन चुनावों में प्राध्यापक संघों के बीच मुकाबला होता था। अब ये चुनाव क्यों नहीं होते? पुराने महाराष्ट्र विश्वविद्यालय अधिनियम में (यूनिवर्सिटी एक्ट) अध्ययन मंडलों से लेकर संसद तक के सर्वोच्च प्राधिकरणों में सदस्यों का चयन चुनाव द्वारा किये जाने का प्रावधान था। विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक समूहों के विद्वान चुनाव लड़कर नियुक्त होते थे इसीलिए पहले कोई भी निर्णय एकांगी नहीं होता था।

मगर 2014 के बाद, 2016 में महाराष्ट्र के विश्वविद्यालयों के लिए नवीन विश्वविद्यालय अधिनियम लागू किया गया। विश्वविद्यालय के संवैधानिक मंडल और समितियों के सदस्यों का चयन चुनाव के माध्यम से होने की मात्रा लगभग शून्य तक लाई गई। अधिकतर सदस्य या तो राज्यपाल, या फिर कुलपति द्वारा मनोनीत किये जाने का प्रावधान इस कानून में है। 2014 के बाद महाराष्ट्र में राज्यपाल की नियुक्तियाँ किस तरह की गई हैं, यह बात सर्वविदित है। कुलपति का चयन ‘प्राचीन भारतीय संस्कृति का संवर्द्धन और संरक्षण’ के व्यापक उद्देश्य के लिए काम करने वाले देश के संगठनों, राजनीतिक दलों और संस्थाओं के प्रभाव से हो रहा है, यह स्पष्ट दिखाई देता है। इसीलिए केन्द्र सरकार, प्रदेश के राज्यपाल और विश्वविद्यालय के कुलपति, ये तीनों एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए श्रृंखला बनाकर काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में ऐसा कभी नहीं हुआ था। 2016 के महाराष्ट्र विश्वविद्यालय अधिनियम में लोकतंत्रविरोधी प्रावधानों में संशोधन करने के लिए यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सुखदेव थोरात द्वारा एक समिति की स्थापना की गई थी। परंतु 2019 के बाद हुई नूरा कुश्ती में उनके प्रतिवेदन का क्या हुआ, पता ही नहीं चला।

परिणामस्वरूप अध्ययन मंडल के दस सदस्यों में से आठ सदस्य विशेष विचारधारा की संस्थाओं में कार्यरत, प्राचीन संस्कृति का संरक्षण और संवर्द्धन करने वाले संगठनों से जुड़े लोग या इसी तरह की संस्थाओं या व्यवसायों में अग्रसर रहने वाले लोग नियुक्त किये गये। फलस्वरूप मंडल की बैठकों में विरोध करने वाले सदस्य ही नहीं बचे। 2014 के बाद प्रत्येक संस्थान में कार्यरत लोकतांत्रिक संरचना को ध्वस्त करने की सोची-समझी कोशिश की गई। जबकि विश्वविद्यालय नई पीढ़ियों को गढ़ने वाले, सामाजिक संरचना पर दीर्घकालीन प्रभाव डालने वाले संस्थान के रूप में जाने जाते हैं।

एक विशिष्ट संकुचित विचारधारा के प्रसार के लिए बहुत व्यापक और दीर्घकालीन नीतियों की रचना कर, उन्हें अमल में लाने की महत्त्वाकांक्षा पालने वाले संगठन जब लोकतांत्रिक (तथाकथित रास्ते से) रास्ते से सत्ता का केन्द्र बन जाते हैं, तब इस तरह की घटनाएँ घटित होती हैं। ज्ञान के क्षेत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों को बरकरार रखने के लिए निरपेक्ष ज्ञान ही काम आता है। अभी भी पानी सर से नहीं गुज़रा है। समाज और देश को मूलतत्ववादी विचारों की गिरफ़्त और राजनीतिक तानाशाही से बचाने के लिए लोकतंत्र पर विश्वास रखने वाले प्राध्यापकों और विद्यार्थी संगठनों को निडर होकर एकजुटता के साथ आगे आना ज़रूरी है।

मराठी दैनिक ‘लोकसत्ता’ (02 जुलाई 2024, पृ.07) में प्रकाशित लेख को साभार अनूदित किया गया है। मूल मराठी से इसका हिंदी अनुवाद प्रसिद्ध रंगकर्मी उषा वैरागकर आठले ने किया है। 

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