भारत विविधता व विषमता के लिहाज़ से दुनिया का सबसे अनूठा देश है। भारत का संविधान लागू होने के बाद इसे एक आधुनिक राष्ट्र बनना था। राष्ट्र निर्माण की इस परियोजना की अगुवाई प्राथमिकता के लिहाज़ से अकादमिक संस्थानों को करनी थी। जिसकी पहली ज़रूरत अकादमिक संस्थानों के समावेशी, सामाजिक न्याय परक होना था। मगर अफ़सोस कि राष्ट्र निर्माण की अगुआई की ज़िम्मेदारी थामे अकादमिक संस्थानों में ही गहरी साज़िशों के पाठ्यक्रम बने। वंचितों शोषितों को राष्ट्र निर्माण में शुमार करने की स्वाभाविक ज़िम्मेदारी थामने वाले ये अकादमिक संस्थान ही सामाजिक सांस्कृतिक वंचना व अन्याय के केंद्र बन गए। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि इन पर अवैध कब्ज़ा करने वाले लोग अपने ज़ेहन में भारत का संविधान नहीं, मनुस्मृति को जज़्ब किए हुए थे। उनकी भाषा व भाषणों के प्रगतिशील लिबास में छिपी बैठी मनुस्मृति अक्सर ताक झांक करने लगती है। जिसे हालिया गोविंद बल्लभ पंत समाज विज्ञान संस्थान, झूंसी, इलाहाबाद यूपी के विवादित प्रकरण के बहाने समझा जा सकता है।
पंत संस्थान ने UR पद पर नियुक्ति पर 16, EWS के लिए 9 और OBC के लिए भी 16 अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए शॉर्टलिस्ट किया। इन्हें API (एकेडमिक परफॉर्मेंस इंडेक्स) के घटते क्रम में रखा गया। यानी असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने की न्यूनतम अर्हता, पात्रता लिए हुए पात्र उम्मीदवारों की सूची। अब यदि शॉर्टलिस्टेड उम्मीदवारों की आरक्षित व अनारक्षित सूची पर गौर करेंगे, तो वहां API स्कोर के आधार पर विभाजन कुछ इस प्रकार है। UR में 93 से 87, EWS में 87 से 81 और OBC में 93 से 83 API स्कोर के अभ्यर्थियों को शॉर्टलिस्ट किया गया।
[bs-quote quote=”अब इस सवाल पर विचार कीजिए कि किस पैमाने पर 91 API स्कोर से ऊपर वाले मोहम्मद शाहनवाज और शैलेंद्र कुमार सिंह ‘सुटेबल’ नहीं हुए? ध्यातव्य रहे कि API की अंतिम चयन में कोई भूमिका नहीं होती। अंतिम चयन इंटरव्यू के आधार पर ही होता है, जिसमें शामिल अभ्यर्थियों के इंटरव्यू में प्राप्त अंक कभी सार्वजनिक नहीं किए जाते। इसलिए भीतर क्या हुआ, बाहर ये पता ही नहीं चल पाता। इंटरव्यू बोर्ड में शामिल सदस्यों की जातियाँ, उनके व्यवहार, आरक्षित श्रेणी के ऑब्जर्वर की भूमिका जैसे सवालों के जवाब अमूमन नहीं मिल पाते।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
संस्थान द्वारा इंटरव्यू के लिए शॉर्टलिस्ट की गई सूची का विश्लेषण एक अहम घोटाले को उजागर करता है। 93 से 87 तक API स्कोर के अभ्यर्थी UR में शामिल किए गए हैं। 87 से 81 तक API स्कोर वाले गरीब सवर्ण माने जाने वाले अभ्यर्थी EWS सूची में शामिल किए गए। मगर OBC की सूची में 93 से 83 तक API स्कोर वाले अभ्यर्थियों को शामिल कर दिया गया। जबकि 87 से ऊपर API के OBC को UR में नहीं रखा गया। यानी UR जिसे अनारक्षित यानी ‘ओपन फ़ॉर ऑल’ होना चाहिए था, वह रिज़र्व फ़ॉर सवर्ण हो गया। यानी 50 फीसदी आरक्षण सवर्णों को दे दिया गया।
अंतिम परिणाम नियमतः इंटरव्यू में चयनित अभ्यर्थियों के API स्कोर की तुलना करना इसलिए भी ज़रूरी है, ताकि ‘मेरिट’ के नाम पर किए जा रहे खुल्लमखुल्ला जातिवाद को बेनक़ाब किया जा सके। चयनित अभ्यर्थियों की API देखें। UR पर अविरल पांडे 91 और निहारिका तिवारी 93, EWS पर चयनित माणिक कुमार 81 है। गौरतलब है कि OBC में शॉर्टलिस्टेड टॉप दो अभ्यर्थियों मोहम्मद शाहनवाज 93 और शैलेंद्र कुमार सिंह 91.5 है।
अब इस सवाल पर विचार कीजिए कि किस पैमाने पर 91 API स्कोर से ऊपर वाले मोहम्मद शाहनवाज और शैलेंद्र कुमार सिंह ‘सुटेबल’ नहीं हुए? ध्यातव्य रहे कि API की अंतिम चयन में कोई भूमिका नहीं होती। अंतिम चयन इंटरव्यू के आधार पर ही होता है, जिसमें शामिल अभ्यर्थियों के इंटरव्यू में प्राप्त अंक कभी सार्वजनिक नहीं किए जाते। इसलिए भीतर क्या हुआ, बाहर ये पता ही नहीं चल पाता। इंटरव्यू बोर्ड में शामिल सदस्यों की जातियाँ, उनके व्यवहार, आरक्षित श्रेणी के ऑब्जर्वर की भूमिका जैसे सवालों के जवाब अमूमन नहीं मिल पाते। जिसके चलते देश भर के शिक्षण संस्थान सामाजिक न्याय की कब्रगाह बन चुके हैं। इसमें NFS एक टूल है। जिसकी बानगी पंत संस्थान में दिखा कि 81 API स्कोर वाला माणिक कुमार EWS के लिए सुटेबल हो गया, मगर 93 API स्कोर वाला मोहम्मद शाहनवाज OBC पद पर सुटेबल नहीं मिला? यहाँ मेरिट नहीं, जाति केंद्र में रखी जाती है।
[bs-quote quote=”अकादमिक संस्थाओं को सामाजिक न्याय परक बनाने के लिए उसमें कई बुनियादी सुधार किए जाने की ज़रूरत है। इन सुधारों की एक बानगी ‘मंडल कमीशन रिपोर्ट’ में शुमार ‘शिक्षा क्रांति’ है, जिसे लागू नहीं किया गया। बहरहाल, कुछ तात्कालिक सुधार करके फ़ौरी बदलाव लाए जा सकते हैं” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
जहां तक आरक्षण की अवधारणा पर चल रहे सार्वजनिक विमर्शों का सवाल है, इस देश के कम जनक्षेत्र की तरह ही अकादमिक जनक्षेत्र में भी आरक्षण को लेकर बेहद नकारात्मक रूख़ रहा है। मगर EWS जैसे घोर आपत्तिजनक प्रावधान के लागू होने के बाद आरक्षण संबंधी विमर्श में शातिर बदलाव देखने को मिल रहा है। कल तक जातिवादी सवर्ण आरक्षण को बेइंतहा नफ़रत से देखते थे कि आरक्षण भीख है, बैसाखी है। आरक्षण मेरिट की हत्या करता है। जब से EWS लागू किया गया है, तब से जातिवादी सवर्ण खेमे में निर्लज्ज ख़ामोशी पसरी हुई है।
पंत संस्थान, झूंसी, यूपी ने इस संदर्भ में भी एक नायाब उदाहरण पेश किया है। EWS में चयनित अभ्यर्थी का API स्कोर 81 है, वहीं OBC में NFS क़रार दिए गए कैंडिडेट मोहम्मद शाहनवाज का API स्कोर 93 है। अब सबसे अहम सवाल यह बनता है कि अगर न्यूनतम अर्हता प्राप्त करके एक पद पर 16 अभ्यर्थी इंटरव्यू के लिए शॉर्टलिस्ट किए गए, तो उनमें से एक भी अभ्यर्थी को किस आधार पर ‘सुटेबल’ नहीं पाया गया? ‘सूटेबिलिटी’ की वह कौन सी कसौटी है, जिसके मुताबिक़ 81 API स्कोर वाले अभ्यर्थी को ‘सुटेबल’ पाने वाला इंटरव्यू बोर्ड एक OBC में वह ‘सूटेबिलिटी’ क्योंकर नहीं पाता है यानी 93 API वाला OBC नाक़ाबिल होकर NFS हो गया, जबकि 91 वाला सवर्ण UR पर व 81 API वाला एक सवर्ण EWS पर चयनित हो गया. मेरिट क्या होती है।
भारतीय अकादमिक संस्थानों का समावेशी व न्यायप्रिय होना शिक्षा जगत मात्र के लिए ही नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण की अवधारणा के चरितार्थ होने के लिहाज़ से भी एक अवश्यम्भावी प्राथमिकता होनी चाहिए। अकादमिक संस्थाओं को सामाजिक न्याय परक बनाने के लिए उसमें कई बुनियादी सुधार किए जाने की ज़रूरत है। इन सुधारों की एक बानगी ‘मंडल कमीशन रिपोर्ट’ में शुमार ‘शिक्षा क्रांति’ है, जिसे लागू नहीं किया गया। बहरहाल, कुछ तात्कालिक सुधार करके फ़ौरी बदलाव लाए जा सकते हैं, मसलन-
1. जीबी पंत समाज विज्ञान संस्थान जैसी वे सभी नियुक्तियां पूरी तरह अवैधानिक हैं, जहां आरक्षित सीटों पर न्यूनतम अर्हता प्राप्त अभ्यर्थियों के शामिल होने के बावजूद NFS किया गया हो। इन्हें तत्काल रद्द किया जाए।
2. उच्च व उच्चतर शिक्षण संस्थानों में नियुक्तियों के लिए यह ठोस प्रावधान किया जाए कि न्यूनतम अर्हता प्राप्त अभ्यर्थियों के आवेदन के बाद कहीं भी किसी भी नियुक्ति प्रक्रिया में आरक्षित सीटों पर NFS नहीं किया जा सकता है।
3. इंटरव्यू बोर्ड को समावेशी बनाया जाए। आरक्षित वर्ग से आने वाले प्रोफ़ेसरों को मात्र ऑब्जर्वर बनाकर न बिठाया जाए। बोर्ड के सभी सदस्यों का पूरा विवरण अंतिम परिणाम के साथ सार्वजनिक किया जाए। आरक्षण से छेड़खानी व NFS को कानूनन जुर्म घोषित करके सज़ा का प्रावधान हो।
4. उच्चतर शैक्षणिक संस्थानों के शैक्षणिक पदों पर अंतिम चयन इंटरव्यू मात्र से न होकर 85% API अथवा पारदर्शी लिखित परीक्षा के प्राप्तांक और 15% इंटरव्यू के नम्बर जोड़कर हों। इंटरव्यू में शामिल सभी अभ्यर्थियों को इंटरव्यू में मिले अंकों को भी सार्वजनिक किया जाए।
5. देश के प्रत्येक शैक्षिणक संस्थानों के सभी स्तर के पदों पर कार्यरत लोगों की श्रेणीवार सूची सार्वजनिक हो. इसके साथ ही संस्थान का अद्यतन रोस्टर भी सार्वजनिक किया जाए, जिसकी सालाना समीक्षा हो। बैकलॉग, शॉर्टफॉल तत्काल लागू किया जाए और आरक्षित पदों को विशेष प्रावधान के तहत तत्काल स्थायी नियुक्ति के ज़रिए भरा जाए।
जब तक ऐसे कुछ ठोस प्राथमिक बुनियादी उपचार उच्च शिक्षण संस्थानों में नहीं किए जाते हैं, देश के दलित, पिछड़े, आदिवासी नौजवानों की हक़मारी कभी NFS के नाम पर, तो कभी विचारधारा के नाम पर होती चली आई है और होती चली जाएगी। ऐसे में वैसा विश्वविद्यालय, वैसा शैक्षणिक संस्थान या वैसा राष्ट्र हम कभी बनाने में कामयाबी हासिल नहीं कर सकते, जैसा भारत को संविधान लागू होने के बाद बनना था।
डॉ. लक्ष्मण यादव ओजस्वी वक्ता और ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं।
बहुत ही तार्किक रूप से डॉ लक्ष्मण यादव जी ने शिक्षण संस्थाओं तथा अन्य संस्थानों में NFS के नाम किए जा रहे अवैधानिक एवं मनुवादी षडयंत्र का पर्दाफाश किया है। ओबीसी वर्ग से आने वाले अधिकांश नेता तो लगभग दिमागी और स्वाभिमान के नजरिए से दिवालिया और पत्तल चट्टू हैं वे क्या आवाज उठाएंगे इस प्रकार के अन्याय के खिलाफ। अब बहुजन समाज के शिक्षित युवाओं को ही आगे आकर इस प्रकार के अन्याय, शोषण और भेदभाव के खिलाफ सड़क से संसद तक लड़ाई लड़नी होगी। उन्हें संविधान और विधि द्वारा प्रदत्त अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष और प्रतिरोध का बिगुल बजाना होगा तभी कुछ बात बनेगी।