अब इस सवाल पर विचार कीजिए कि किस पैमाने पर 91 API स्कोर से ऊपर वाले मोहम्मद शाहनवाज और शैलेंद्र कुमार सिंह 'सुटेबल' नहीं हुए? ध्यातव्य रहे कि API की अंतिम चयन में कोई भूमिका नहीं होती। अंतिम चयन इंटरव्यू के आधार पर ही होता है, जिसमें शामिल अभ्यर्थियों के इंटरव्यू में प्राप्त अंक कभी सार्वजनिक नहीं किए जाते। इसलिए भीतर क्या हुआ, बाहर ये पता ही नहीं चल पाता। इंटरव्यू बोर्ड में शामिल सदस्यों की जातियाँ, उनके व्यवहार, आरक्षित श्रेणी के ऑब्जर्वर की भूमिका जैसे सवालों के जवाब अमूमन नहीं मिल पाते।
अकादमिक संस्थाओं को सामाजिक न्याय परक बनाने के लिए उसमें कई बुनियादी सुधार किए जाने की ज़रूरत है। इन सुधारों की एक बानगी 'मंडल कमीशन रिपोर्ट' में शुमार 'शिक्षा क्रांति' है, जिसे लागू नहीं किया गया। बहरहाल, कुछ तात्कालिक सुधार करके फ़ौरी बदलाव लाए जा सकते हैं
जहां तक आरक्षण की अवधारणा पर चल रहे सार्वजनिक विमर्शों का सवाल है, इस देश के कम जनक्षेत्र की तरह ही अकादमिक जनक्षेत्र में भी आरक्षण को लेकर बेहद नकारात्मक रूख़ रहा है। मगर EWS जैसे घोर आपत्तिजनक प्रावधान के लागू होने के बाद आरक्षण संबंधी विमर्श में शातिर बदलाव देखने को मिल रहा है। कल तक जातिवादी सवर्ण आरक्षण को बेइंतहा नफ़रत से देखते थे कि आरक्षण भीख है, बैसाखी है। आरक्षण मेरिट की हत्या करता है। जब से EWS लागू किया गया है, तब से जातिवादी सवर्ण खेमे में निर्लज्ज ख़ामोशी पसरी हुई है।

बहुत ही तार्किक रूप से डॉ लक्ष्मण यादव जी ने शिक्षण संस्थाओं तथा अन्य संस्थानों में NFS के नाम किए जा रहे अवैधानिक एवं मनुवादी षडयंत्र का पर्दाफाश किया है। ओबीसी वर्ग से आने वाले अधिकांश नेता तो लगभग दिमागी और स्वाभिमान के नजरिए से दिवालिया और पत्तल चट्टू हैं वे क्या आवाज उठाएंगे इस प्रकार के अन्याय के खिलाफ। अब बहुजन समाज के शिक्षित युवाओं को ही आगे आकर इस प्रकार के अन्याय, शोषण और भेदभाव के खिलाफ सड़क से संसद तक लड़ाई लड़नी होगी। उन्हें संविधान और विधि द्वारा प्रदत्त अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष और प्रतिरोध का बिगुल बजाना होगा तभी कुछ बात बनेगी।