पिछले महीने की चौबीस तारीख़ से शुरू हुआ बीमा एजेन्टों का प्रदर्शन अब उनके शांतिपूर्ण असहमति आंदोलन में बदल गया है लेकिन उनकी मांगें और सवाल अभी खत्म नहीं हुये हैं। बेशक उन्होंने अपने संवैधानिक अधिकारों पर किए जा रहे कुठाराघात पर अपने गुस्से को दबा लिया हो लेकिन उनके कलेजे की आग ठंडी नहीं पड़ी है।
पहले आंदोलन और अब असहमति में शामिल एक एजेंट ने नाम न छापे जाने की शर्त पर कहा कि हमारी स्थिति दोधारी तलवार पर चलने जैसी हो गई है। अगर हम काम बंद कर पूरी तरह आंदोलन में शामिल होते हैं तो यह हमारे हित में नहीं होगा।
वह कहते हैं – ‘मान लीजिये हमने किसी की नयी पॉलिसी की है या प्रीमियम लिया है लेकिन महीने-पंद्रह दिन आंदोलन के चलते उसे जमा नहीं करते हैं तो पॉलिसीधारक हमसे रसीद के बारे में पूछेगा और रसीद न मिलने की स्थिति में हमारे प्रति उसका भरोसा कमजोर होगा। इसलिए हम काम बंद नहीं कर सकते।’
इसी कारण एजेंट अपना काम जारी रखे हुये हैं। एक अन्य अभिकर्ता ने बताया कि जिस संस्था को आगे बढ़ाने में हमने अपना खून पसीना एक कर दिया अब उसी संस्था में हमें दमनकारी नियमों में बांधा जा रहा है। हमारी आज़ादी छीनी जा रही है। यहाँ तक कि हमारे बोलने पर भी पाबंदी लगाई जा रही है।
भारतीय जीवन बीमा निगम भारत के सबसे बड़े सार्वजनिक उपक्रमों में से एक है। इसमें करोड़ों लोगों का जीवन जुड़ा है। आँकड़ों के अनुसार इसके स्थायी कर्मचारियों की संख्या एक लाख के ऊपर है जबकि 14 लाख अभिकर्ता हैं। इसके पॉलिसीधारकों की संख्या 28 करोड़ से ऊपर बताई जाती है।
इतने विशाल उद्यम के भीतर असहमति की आग सुलगना अच्छा संकेत नहीं है। ऐसा लगता है कि अफ़सरान अपनी ताकत और अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करते हुये भले अभिकर्ताओं को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन एजेंट वास्तव में अपने अस्तित्व और आज़ादी की दोहरी लड़ाई लड़ रहे हैं। एक तरफ उनको पॉलिसीधारकों की नज़र में अपनी साख बचाए रखनी है तो दूसरी ओर संस्था में अपने संवैधानिक अधिकारों को हासिल करना है।
एक अभिकर्ता ने तल्ख़ अंदाज़ में कहा कि ‘हमारी आर्थिक स्थिति कतई मजबूत नहीं है। वास्तव में हम असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं जिन्हें अपनी मेहनत का ही पैसा मिलता है। जो एलआईसी के स्थायी कर्मचारी हैं उन्हें हर तरह की सुविधा मिलती है। लेकिन हम बीमार पड़ जाएँ या बिस्तर पकड़ लें तो हमारे लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि हमारी रोटी चल जाये या हमें इलाज की सुविधा मिल जाये।’
पिछले साल एक अक्टूबर से ही चल रही है रस्साकसी
आल इंडिया लाइफ इंश्योरेंस एजेंट्स एशोसिएशन के अध्यक्ष एस एल ठाकुर ने बताया कि यह आंदोलन पिछले वर्ष अक्तूबर में जीवन बीमा निगम में हुये बदलावों की पृष्ठभूमि में शुरू हुआ है। ठाकुर के अनुसार भारतीय जीवन बीमा अभिकर्ता अधिनियम 1972 भारतीय जीवन बीमा अभिकर्ता (संशोधन) अधिनियम 2017 अभिकर्ताओं के हितों के अनुकूल नहीं हैं।
उनका कहना है कि यह हमारे मौलिक अधिकारों के ऊपर हमला है। ठाकुर का कहना है कि ये अधिनियम अभिकर्ताओं के दमन के लिए बनाए गए हैं। इसके तहत उनके कमीशन जब्त करना और उन्हें बर्खास्त करना आसान है। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि 1972 के अधिनियम और 2017 के संशोधन अधिनियम में कुछ ऐसी बातें शामिल की गई हैं जो बीमा अभिकर्ताओं के बिलकुल अनुकूल नहीं हैं।
ठाकुर ने आरोप लगाया कि इन्हीं अधिनियमों के तहत प्रबंधन द्वारा 31 अगस्त, 2021 को कूटरचित नियमावली का एक सर्कुलर जारी किया गया जिसमें अभिकर्ताओं की अभिव्यक्ति की संवैधानिक आज़ादी को पूरी तरह छीन लेने का षड्यंत्र किया गया है। यह ऐसा काला कानून है जो किसी भी शोषण, अत्याचार, अन्याय और दमन के विरोध में आवाज उठाने पर अभिकर्ताओं की बर्खास्तगी और उनके कमीशन की जब्ती का प्रावधान लाया गया।
असल में एलआईसी ने व्यावसायिक स्तर पर जो बदलाव किए उससे पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को लेकर उसे आभास था। एक संस्थान के रूप में वह पॉलिसीधारकों के सीधे संपर्क में कभी नहीं रहा बल्कि उसके और पॉलिसीधारकों के बीच में अभिकर्ता ही सेतु हैं। नए बदलावों के संदर्भ में कुछ लोगों का कहना है कि संस्थान ने कॉर्पोरेट सेक्टर के हितों को सर्वोपरि बना दिया है। इसीलिए वह पॉलिसीधारकों के हितों की भी अनदेखी करने लगा है। इसका एक बड़ा उदाहरण है छोटे बीमा को बड़े बीमा में बदलना जिससे कारोबार पर असर पड़ना स्वाभाविक है।
यह है मामला
गौरतलब है कि 1 अक्तूबर 2024 को लाये गए नियमों में पॉलिसीधारकों के पॉलिसी ऋण का ब्याज बढ़ा दिया गया और बोनस घटा दिया गया। सबसे छोटी पॉलिसी के बीमाधन की सीमा एक लाख से बढ़ा कर सीधे दो लाख कर दी गई। इस निर्णय से बड़े पैमाने पर पॉलिसीधारक प्रभावित हुये। कुछ अभिकर्ताओं का कहना है कि इससे बीमा के प्रति लोगों की सामान्य रुचि न केवल घटी बल्कि उपभोक्ताओं पर पहले से चल रही पॉलिसियों का दबाव भी बढ़ गया।
बीमा योग्य आयु पहले पचपन वर्ष थी जिसे घटा कर पचास वर्ष कर दिया गया जिसका सीधा असर यह हुआ कि बहुत सारे पॉलिसीधारक उम्र की अर्हता को खोने लगे और पॉलिसी करने के प्रति उनकी रुचि में गुणात्मक कमी आई। इन तमाम सारी बातों के अलावा अभिकर्ताओं के कमीशन को भी कम कर दिया गया।
सबसे खराब मामला क्ला बैक का है जिसकी अवधि बढ़ाकर एक साल कर दी गई है। इसमें उपभोक्ता को एक साल के दौरान पॉलिसी बंद करने का अधिकार है जिसका बुरा असर अभिकर्ताओं के कमीशन पर पड़ने वाला है। एक अभिकर्ता ने बताया कि यह हमारे और उपभोक्ता के बीच भरोसे का मामला है और कई बार उपभोक्ता की स्थिति के मद्देनजर एजेंट अपना पैसा उसके प्रीमियम में जमा कर देता है। पॉलिसी वापस करने की सूरत में उपभोक्ता को तो उसकी रकम मिल जाती है लेकिन एजेंट का कमीशन इसलिए नहीं मिलता क्योंकि पॉलिसी वापस कर ली गई। इसलिए क्ला बैक की अवधि हमारे लिए घातक है। बीमा व्यवसाय में अभिकर्ताओं के बीच गलाकाट प्रतियोगिता है। क्ला बैक की अवधि बढ़ाने से उनके बीच एक षड्यंत्रकारी कारोबारी संबंध बंता है जो खतरनाक है।
अभिकर्ताओं का कहना है कि इन नियमों का हमारे व्यवसाय ही नहीं पूरे बीमा जगत पर नकारात्मक असर पड़ना तय है। लेकिन इसका सबसे बुरा प्रभाव अभिकर्ताओं पर पड़ रहा है क्योंकि जो बीमा पहले आग्रह की विषयवस्तु था अब वह दबाव का माध्यम बन गया।
एस एल ठाकुर कहते हैं इन तमाम स्थितियों के मद्देनजर हम प्रबंधन से बात करना चाहते थे ताकि नए बदलाओं के अच्छे और बुरे पहलुओं पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया जा सके और जो बदलाव बीमा व्यवसाय के हित में न हो उसे खत्म किया जाय। लेकिन प्रबन्धन की तानाशाही का आलम यह है कि वह हमसे बात करने को ही तैयार नहीं है। इसीलिए आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा।
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धमकी के बावजूद अभिकर्ता पीछे मुड़ने को तैयार नहीं
पिछले महीने कि 24 तारीख को जब भारतीय जीवन बीमा निगम मंडल कार्यालय भेलूपुर वाराणसी के सामने ऑल इंडिया लाइफ इंश्योरेंस एजेंट्स एसोसिएशन ने प्रदर्शन की तैयारी की तो उसे फ्लॉप करने के लिए मंडल प्रबंधक वाराणसी ने शाखा प्रबंधकों को यह निर्देश दिया कि वे अभिकर्ताओं तक यह संदेश पहुंचाने का कार्य करेंकि अभिकर्ता असहमति आंदोलन में भाग न ले वरना उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी।
इसलिए मण्डल कार्यालय पर असोसिएशन के नेतृत्व में इकट्ठा हुये लोगों को देखते ही मुख्य द्वार बंद कर दिया गया। प्रबंधन द्वारा लोगों को चिन्हित किया गया और उनके ऊपर कार्रवाई करने की धमकी फोन और व्हाट्सएप्प के माध्यम से भेजी जाने लगी।
एस एल ठाकुर कहते हैं कि इस तरह भय का माहौल बन गया। लेकिन प्रबंधन का रवैया संविधान और नियम विरुद्ध है। प्रयास किसी भी शासनिक-प्रशासनिक या विभागीय अधिकारी द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से हो रहे आंदोलन को असफल करने का करना संविधान और विधि सहित संस्थान की नियमावली के भी विरुद्ध है।
वह कहते हैं कि दरअसल प्रबंधन ने अभिकर्ताओं के पेट पर हमला करने की रणनीति बनाई है। उनको पता है कि बहुत मशक्कत से रोटी कमाने वाले अभिकर्ताओं के पास कोई स्थायी आमदनी नहीं है। ऐसे में अगर उनके कमीशन की जब्ती अथवा लाइसेन्स खत्म करने का मामला आएगा तो वे पीछे हट जाएँगे। लेकिन पिछले वित्तीय वर्ष की क्लोजिंग के मद्देनजर अभिकर्ताओं ने शांतिपूर्ण ढंग से काम निपटाया और तब तक असहमति आंदोलन जारी रखने का निर्णय लिया है। वे तब तक पीछे नहीं हटने वाले हैं जब तक उनकी बात सुनी नहीं जाती।
अभिकर्ताओं का बीमा व्यवसाय को योगदान
सन 1956 में सभी बीमा कंपनियों को मिलाकर एलआईसी का गठन हुआ था। इसमें पहले दिन से ही 27 हजार स्थायी कर्मचारी नियुक्त हुये और एलआईसी पहले दिन से ही भारत की टॉप एम्प्लॉयर कंपनियों में शुमार हो गई। आज उसके पास कुल एक लाख स्थायी कर्मचारी हैं।
लेकिन ये कर्मचारी पॉलिसीधारकों से सीधे कभी नहीं जुड़े। अभिकर्ताओं द्वारा बड़े पैमाने पर गांवों-शहरों के लोगों को जोड़ने का अभियान चला। अभिकर्ता ही पॉलिसीधारकों के लिए बीमा जगत की प्राथमिक इकाई थे। उन्हीं की मेहनत से लोग एलआईसी से जुड़ते गए। आज भारतीय जीवन बीमा निगम का पूरे देश में विस्तार यह बताता है कि इसके लिए अभिकर्ताओं की बहुत बड़ी फौज ने कितनी मशक्कत की है। भले ही वे स्थायी आमदनी से वंचित रह गए हों लेकिन बीमा व्यवसाय के सम्पूर्ण पूंजी-पसार में उनकी भूमिका ही बुनियादी ईंट की है।
एलआईसी के इतिहास का अवलोकन करने पर पता चलता है कि शुरुआती दिनों में एजेंटों के लिए लोगों को समझाना बड़ी दिक्कत का काम था। स्कीम के बारे में लोगों को समझाने के लिए उन्हें ट्रेन, बस, मोटरसाइकिल, साइकिल से लेकर बैलगाड़ियों तक में जाकर प्रचार करना पड़ा। वे कई-कई किमी पैदल चलते। उसी का नतीजा है कि आज ग्रामीण अंचलों में एलआईसी की 12 करोड़ पालिसियां हैं।
भारतीय जीवन बीमा निगम के हवाले से प्रकाशित समाचारों में यह दावा किया जाता है कि अभिकर्ताओं के हित में कई योजनाएँ लागू की गई हैं लेकिन बातचीत करने पर कई अभिकर्ताओं ने बताया कि ये सब केवल कागजी बातें हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारे कमीशन पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं।
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सवाल यह है
अभिकर्ताओं का मसला यह बताता है कि एलआईसी में जो बदलाव किए जा रहे हैं वह वित्तीय पूंजी के बढ़ते दबदबे के आगे इस संस्थान के नतमस्तक होने का है। हो सकता है आगामी दिनों में छंटनी और वित्तीय बाज़ार में डुबकियाँ लगाने की घटनाएँ तेजी से सामने आने लगें लेकिन अभिकर्ताओं को दबाकर रखने और अपनी शर्तों पर जीने के लिए विवश करने की बात से यह स्पष्ट है कि एलआईसी अब अभिकर्ताओं को अपनी सबसे कमजोर कड़ी मान रहा है।
अभिकर्ताओं की मेहनत से पैदा हुई पूंजी के अंबार ने अब उन्हीं के दमन को आसान बना दिया है। वे वस्तुतः असंगठित और स्थायी कर्मचारी मात्र हैं जिनकी ज़िम्मेदारी उठाने की ज़हमत एलआईसी नहीं लेना चाहती बल्कि उनके पर कतरकर अपने पिंजरे में रखना चाहती है। लेकिन पूंजी के चरित्र में स्थायित्व नहीं होता बल्कि वह सदैव सक्रिय रहकर ही मुनाफा कमा सकती है। बिना मुनाफा पूंजी की मृत्यु अनिवार्य है।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या एलआईसी की पूँजी का रोटेशन इतना मजबूत हो चुका है कि वह स्वयं में ही इतना मुनाफा कमा सकता है कि अब नयी पूँजी पैदा करने की जरूरत नहीं रह गयी है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर अभिकर्ताओं का दमन एलआईसी द्वारा खुद ही अपनी नींव की ईंट को उखाड़ने जैसा है। 14 लाख अभिकर्ताओं की एक विशाल कार्यशक्ति का दमन उसके उज्जवल भविष्य का संकेत नहीं है।
बेशक, अभिकर्ताओं की यह विशाल संख्या मजबूत होकर एलआईसी के निरंकुश पहिये को रोकने का भी माद्दा रखता है।