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क्या सवर्णों के लिए पिछड़ों की उपलब्धियों को पचा पाना असंभव है ?

  पिछले हफ्ते जब भारत की तीरंदाज दीपिका कुमारी ने तीरंदाजी में भारत को तीन स्वर्णपदक दिलाये तब इसे लेकर अखबारों और चैनलों में जो उदासीनता दिखाई उसने लोगों के बीच एक बहस पैदा कर दिया कि भारतीय मीडिया पर काबिज सवर्णों के लिए पिछड़े वर्गों की उपलब्धियां अपच हो जाती हैं। दीपिका कुमारी जैसे […]

 

पिछले हफ्ते जब भारत की तीरंदाज दीपिका कुमारी ने तीरंदाजी में भारत को तीन स्वर्णपदक दिलाये तब इसे लेकर अखबारों और चैनलों में जो उदासीनता दिखाई उसने लोगों के बीच एक बहस पैदा कर दिया कि भारतीय मीडिया पर काबिज सवर्णों के लिए पिछड़े वर्गों की उपलब्धियां अपच हो जाती हैं। दीपिका कुमारी जैसे अत्यंत गरीब पृष्ठभूमि से आनेवाले खिलाड़ियों के योगदान को लेकर इनमें इतनी ईर्ष्या और हिकारत की भावना होती है कि वे कहीं भी उनका ठीक से उल्लेख नहीं करते। उदाहरण के लिए दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित खबर को देखा जा सकता है जिसमें खेल के पन्ने पर बीच में एक कॉलम दस सेंटीमीटर की खबर है कि ‘दीपिका तीन स्वर्ण जीत फिर नंबर वन’ जबकि उसी पन्ने पर पहली खबर पीवी सिंधु को लेकर है कि ‘विश्व चैंपियन सिंधु के लिए स्वर्ण की राह आसान नहीं’। इसे किस प्रकार समझा जाना चाहिए? क्या यह बाज़ार की ताकत है जिसमें बैडमिंटन के ग्लेमर के मुक़ाबले तीरंदाजी हाशिये का खेल है या फिर मीडिया में बैठे लोगों की सामाजिक नफरत का प्रकटीकरण है ? वास्तविकता तो यह है कि दीपिका कुमारी की उपलब्धियों से पूरे देश का सिर गर्व से ऊंचा हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो कि सोशल मीडिया पर इतने ज्यादा सक्रिय रहते हैं कि तमाम खिलाड़ियों और अभिनेता-अभिनेत्रियों के हालचाल लेते रहते हैं और अक्सर उन्हें बधाई और शुभकामनाएं देते रहते हैं, ने भी दीपिका की उपलब्धियों पर कोई ट्वीट नहीं किया न बधाई दी ।

पीवी सिन्धु और दीपिकी कुमारी की खबरों में फर्क

राष्ट्रीय मीडिया की इस उदासीनता और दुर्भावना ने लोगों को एक बार फिर यह सोचने पर विवश कर दिया कि पिछड़ों की उपलब्धियों को पचा पाना सवर्णों के लिए असंभव है ।

फेसबुक पर अनेक लोगों ने इस रवैये पर खेद और गुस्सा व्यक्त किया

सुप्रसिद्ध कथाकार ममता कालिया ने अपने फेसबुक पर लिखा है ‘कल भारत वर्ष ने तीन स्वर्णपदक जीते हैं। हमारे लिए यह कितने गौरव और हर्ष का विषय है कि दीपिका और अतनु दास ने, जो वास्तव में पति-पत्नी भी हैं, खेल के मैदान में अचूक लक्ष्य भेद किया। आज सुबह मैंने सोचा था प्रथम पृष्ठ पर अखबारों में इस स्वर्ण विजेता, गर्व प्रदाता जोड़ी की फोटो छपी होगी किंतु टाइम्स ऑफ इंडिया ने मुझे निराश किया। पृष्ठ 14,15 तक भी उल्लेख नहीं। कोई देश तब तक ऊंचा नहीं उठ सकता जब तक वह अपने खिलाड़ी, कलाकार, कारीगर और बुद्धिजीवी वर्ग की इज़्ज़त नही करता।कई बरस पहले अनुज ने दीपिका के खेल संघर्ष पर एक अच्छी कहानी लिखी थी, टार्गेट। किसी को आती हो तो वह फेसबुक पर डाले और देखे कितना पसीना बहा कर दीपिका जैसी खिलाड़ी प्रदीप्त होती है। शाबाश दीपिका, अतनु!’

[bs-quote quote=”गाँधीवादी विचारक अरविंद अंजुम ने लिखा है ‘सतयुग, त्रेता, द्वापर होता तो कभी भी दीपिका, अंकिता, और कोमलिका तीरंदाजी का गोल्ड मेडल नहीं जीत पाती। इनका धनुष छूना अर्जित होता और फिर कोई द्रोणाचार्य अंगूठा मांगने आ जाता।’” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अनेक लोगों ने मीडिया के इस जातिवादी चरित्र की भर्त्सना की और दीपिका कुमारी, कोमलिका बारी और अंकिता भगत आदि खिलाड़ियों की जातियों का उल्लेख करते हुये लिखा कि जातिवादी मीडिया के लिए इनकी उपलब्धियां इसलिए अस्वीकार्य हैं ताकि उनकी अपनी राहें आसान रहें और किसी प्रकार का कडा मुक़ाबला न करना पड़े। उल्लेखनीय है कि खेलों में जातिवाद अपने चरम पर तो है ही ऐसी अनेक घटनाएँ लगातार होती रही हैं जिसमें पिछड़े वर्ग के प्रतिस्पर्धियों को डोपिंग जैसे गंभीर मामलों में फंसाकर उन्हें रास्ते से हटा दिया गया है।

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल की पोस्ट पेरिस में चल रही तीरंदाजी वर्ल्ड कप में आज एक नहीं तीन गोल्ड जीते हैं दीपिका कुमारी ने। लेकिन न्यूज चैनलों में इसे लेकर कितना सन्नाटा है। फिर रोएंगे कि ओलंपिक्स में भारत को मेडल क्यों नहीं मिलते। आपके लिए खेल का मतलब क्रिकेट है, जिसे सिर्फ सात देश खेलते हैं। उसके एक प्लेयर के अंगूठे में चोट लग जाती है तो नरेंद्र मोदी फौरन ट्वीट करते हैं। वहीं विश्व तीरंदाजी, जिसमें 55 देश शामिल हुए, में आज दोपहर तीन गोल्ड जीतने वाली दीपिका कुमारी के लिए एक बधाई संदेश तक नहीं।’

युवा पत्रकार शिव दास लिखते हैं “कुम्हार, कोइरी, कुड़मी, जनजाति, महतो आदि बहस के लिए मुद्दा है लेकिन मेरे लिए बस एक ही मुद्दा है कि वह वंचित, शोषित, बहिष्कृत, सामाजिक और शैक्षिक रूप पर से पिछड़े वर्ग से आती हैं, इसलिए प्रधानमंत्री ने उनके तीन स्वर्ण पदक जीतने पर भी बधाई नहीं दी। इतना ही नहीं, आरएसएस और भाजपा के शीर्ष नेताओं ने भी ऐसा ही किया। आरएसएस और भाजपा का असली चरित्र भी यही है। वे इसलिए ही भारतीय संविधान को बदलकर समानता, भाईचारा और आरक्षण के प्रावधान को खत्म करना चाहते हैं।”

शिवदास ने आगे लिखा है ‘आपको लगता है कि वे तथाकथित हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए ऐसा कर रहे हैं लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। आरएसएस और भाजपा के लोग केवल आरक्षण के प्रावधान को खत्म करने के लिए भारतीय संविधान को बदलने की वकालत कर रहे हैं। वे आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को हिन्दू मानते ही नहीं हैं। उनकी वास्तविक परिभाषा में तथाकथित हिन्दू राष्ट्र में सभी संसाधनों के उपयोग और उपभोग का इस्तेमाल केवल ब्राह्मण और ठाकुर को ही करने का अधिकार है। शेष लोग उनके लिए काम करने वाले गुलाम।

तीनों खिलाड़ियों की तस्वीर पोस्ट करते हुये शिवदास लिखते हैं ‘ये तस्वीर निकम्मों और बेइमानों को पच नहीं रही है। उन्हें दर्द है कि जिन्हें हम अपनी जाति के लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए अयोग्य घोषित करते आए हैं, उनकी योग्यता और मेरिट के आगे कैसे दुनिया नतमस्तक हो रही है और उन्हें सलाम कर सम्मान दे रही है। दरअसल जातिवादियों की असली परेशानी का कारण यही है कि उनके निकम्मों को जाति के आधार पर मिलने वाला सम्मान कहीं उनसे श्रमजीवी छीन न ले जाएं। इसीलिए वे हमेशा श्रमजीवियों के सम्मान पर हमला करते हैं। वे पेरिस में तीन गोल्ड मेडल लाने वाली श्रमजीवी, शोषित, बहिष्कृत और पिछड़ी दीपिका कुमारी के सम्मान की चर्चा तक नहीं कर रहे हैं।’

गाँधीवादी विचारक अरविंद अंजुम ने लिखा है ‘सतयुग, त्रेता, द्वापर होता तो कभी भी दीपिका, अंकिता, और कोमलिका तीरंदाजी का गोल्ड मेडल नहीं जीत पाती। इनका धनुष छूना अर्जित होता और फिर कोई द्रोणाचार्य अंगूठा मांगने आ जाता।’

सवर्ण मीडिया की दुर्भावनाएं लगातार बढ़ी हैं

बीते वर्षों में मोदी सरकार सहित भाजपा शासित अनेक राज्यों में पिछड़ों के अधिकारों में लगातार कटौती की गई है। विश्वविद्यालयों में रोस्टर प्रणाली का मामला हो या ई डब्ल्यू एस के जरिये से नियुक्तियों का सवाल। हर जगह पिछड़ों के अधिकार अवैध रूप से कम कर दिये गए। ईडब्ल्यूएस के तहत केवल सवर्णों को नौकरियाँ दी गईं जबकि इसके तहत किसी भी जाति के गरीब उम्मीदवार का चयन कानूनन जायज है ।

इसी तरह से यह एक वास्तविकता है कि भारत में परिश्रम से जुड़े जीतने भी खेल हैं उनमें दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी बढ़ी है। सैकड़ों प्रतिभाशाली खिलाड़ी बेहद गरीबी और अभाव के बीच से विकट संघर्ष करके सामने आए हैं । इन खिलाड़ियों ने न केवल देश का प्रतिनिधित्व किया है बल्कि अपने हुनर से देश का सिर भी ऊंचा किया है। इसके बावजूद सवर्ण मीडिया ने उन्हें यथासंभव उपेक्षित किया है ।

गाँव के लोग
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2 COMMENTS
  1. बहुत अच्छा लेख है। आंखें खोलने वाला। अमन विश्वकर्मा ने एक नये दृष्टिकोण से मीडिया और उसमें खेलों और खिलाड़ियों को मिलने वाले स्पेस को समझने का प्रयास किया है।

  2. इसीलिए तो गोदी मीडिया कहा जाता है इन धनकुबेरों के गुलामों को, इनको पिछड़े, दलितों, शोषितों के शीर्ष पर पहुंचने से अपच हो जाता है।।।। लानत है ऐसी मीडिया पर, हालांकि मैं भी इसी मीडिया का एक हिस्सा हुं, लेकिन हमारी जमीर इतनी मरी हुई नहीं है,,,।

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