Friday, November 22, 2024
Friday, November 22, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारक्या पुलिस प्रशासन की जवाबदेही केवल सत्ता के प्रति ही है ?

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

क्या पुलिस प्रशासन की जवाबदेही केवल सत्ता के प्रति ही है ?

गोरखपुर में एक होटल में अर्धरात्रि में छापेमारी के बाद उत्तर प्रदेश की पुलिस ने बहादुरी दिखाते हुए कानपुर एक व्यापारी मनीष गुप्ता को इतना मारा कि उसकी मौत हो गयी। मनीष गुप्ता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रशंसक थे और उनके ‘विकास’ कार्यों को देखने के लिए गोरखपुर गए थे। जब मामले ने राजनीतिक रंग […]

गोरखपुर में एक होटल में अर्धरात्रि में छापेमारी के बाद उत्तर प्रदेश की पुलिस ने बहादुरी दिखाते हुए कानपुर एक व्यापारी मनीष गुप्ता को इतना मारा कि उसकी मौत हो गयी। मनीष गुप्ता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रशंसक थे और उनके ‘विकास’ कार्यों को देखने के लिए गोरखपुर गए थे। जब मामले ने राजनीतिक रंग लिया तो मुख्यमंत्री जी ने कहा कि पुलिसवालों के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी। क्योंकि कानून को हाथ में लेने का अधिकार किसी के पास भी नहीं है। उन्होंने मृतक के परिवार को दस लाख रुपए की आर्थिक मदद देने का ऐलान किया। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव तुरंत कानपुर पहुंचे और उन्होंने मृतक के परिवार को पार्टी की ओर से 20 लाख रुपए देने की बात कही। सुना है कि प्रियंका गाँधी ने भी मनीष गुप्ता की पत्नी को फोन कर अपनी सहानुभूति जताई। बसपा की अध्यक्ष सुश्री मायावती ने भी इस घटना पर सरकार को आड़े हाथों लिया।

यह बात एक हकीकत है कि आदित्यनाथ कि पुलिस आज कटघरे में हैं। चूंकि मरने वाला कोई मुसलमान नहीं था, अन्यथा पुलिस के आला अधिकारी कुछ नए आईकार्ड दिखाकर उसे आईएसआई का एजेंट बता देते। अखबारों की हेडलाइंस बनतीं कि उत्तर प्रदेश पुलिस को बड़ी कामयाबी : त्योहारों के समय बड़े धमाके की योजना बनाते आतंकी पकड़े गए और जो लोग भी उसके अधिकारों के लिए बात करते वे देशद्रोही कहलाते। यह इस देश की सच्चाई है कि इस समय का नैरेटिव सत्ताधारी जातियां बना रही हैं और पुलिस प्रशासन उनके अनुसार ही काम करता है। सभी राजनीतिक दल भी इस कार्य में न्याय की बात करते हैं, जो कोई गलत बात नहीं है, बस इतना-सा गलत होता है जब किसी मोईन या रईस को बेरहमी से मारा जाता है या बिना जाँच के प्रेसवार्ता में आतंकी बनाकर पेश किया जाता है। उसके प्रति भी तो कोई सहानुभूति होनी चाहिए। तब भी तो यह सोचा जाना चाहिए कि उसका परिवार होगा और बच्चे होंगे। आखिर वह भी तो भारत के नागरिक है।

[bs-quote quote=”अभी असम में पुलिस रेड का एक वीडियो वायरल हुआ। जिसमें पुलिस अतिक्रमण हटाने गयी और उसका विरोध कर रहे ग्रामीणों पर फायरिंग की, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी। वैसे वीडियो में दिखाई दे रहा है कि व्यक्ति निहत्था है और पुलिस की कार्यवाही का विरोध कर रहा है। लेकिन दर्जनों पुलिस वाले एक निहत्थे पर जैसे टूट पड़ते हैं वो केवल कायरता है। आखिर उसे गिरफ्तार भी तो किया जा सकता था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पुलिस बर्बरता का आम दृश्य 

अभी असम में पुलिस रेड का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें पुलिस अतिक्रमण हटाने गयी और इसका विरोध कर रहे ग्रामीणों पर फायरिंग की, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी। वैसे वीडियो में दिखाई दे रहा है कि व्यक्ति निहत्था है और पुलिस की कार्यवाही का विरोध कर रहा है। लेकिन दर्जनों पुलिस वाले एक निहत्थे पर जैसे टूट पड़ते हैं वह केवल कायरता है। आखिर उसे गिरफ्तार भी तो किया जा सकता था। उस व्यक्ति को मारने तक की ही बात नहीं है। पुलिस के साथ जो सरकारी फोटोग्राफर आया है वह उस व्यक्ति के मरने के बाद उसके शरीर के ऊपर कूदता है और अपनी लात से शव पर हमला करता है। पुलिस कुछ नहीं करती। क्या यह हमारी पत्रकारिता है? क्या यह पुलिस की न्यायप्रियता है कि मरने के बाद भी व्यक्ति को बेइज्जत करो? राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार तो मरने पर सभी को सम्मान के साथ उनकी आस्था और धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करवा दिया जाता है। भारत में हर दिन घटनाएं हो रही हैं और हमारे पास शब्द नहीं होते उनके लिए। हम अफगानिस्तान और तालिबान पर बहस कर रहे हैं, लेकिन ग्राहम स्टेंस को मारने वाले या असम में शव के ऊपर कूदकर अपनी नफरत की आग बुझाने वाले फोटोग्राफर या माब लिंचिंग करने वाले लोग, किसी तालिबानी से कम हैं क्या ?

इस आलेख का सन्दर्भ केवल उत्तर प्रदेश है। पुलिस का चरित्र सत्ता को खुश रखने का होता है इसलिए पुलिस में कोई सुधार की मांग विपक्ष में रहते हुए हर एक करता था। लेकिन सत्ता में आकर उसका इस्तेमाल करना सीख जाता है। पुलिस और प्रशासन में अधिकारी सब यह समझते हैं कि उनके आका क्या चाहते हैं? वे प्रमोशन या फेवर के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं। क्योंकि अभी तक किसी की जनता के प्रति किसी उत्तरदायित्व के सिद्धांत को माना नहीं गया है। पुलिस या प्रशासन से कुछ गलती हुई है तो उसकी सजा किसे मिले यह अभी तक निर्धारित नहीं हुआ। क्योंकि प्रशासन से लेकर पुलिस और सत्ता के हर केंद्र में रखे हुए व्यक्ति अपने कुकर्मो के लिए जिम्मेदार नहीं होते, इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं। अधिकांश समय उनकी कुत्सित हरकतें हमारे राष्ट्रवाद और अन्य जुमलों में दब के रह जाती हैं। मरने वाला यदि तिवारी, गुप्ता, मिश्रा है, तभी खबर बनती है और समाज की सोई आत्मा जग जाती है। लेकिन यदि वह अन्य, विशेषकर मुस्लिम है तो फिर पुलिस जो भी नैरेटिव बनाती है, वही खबर बनती है और यही सत्ताधारियों की सबसे बड़ी ताकत है। जिसके कारण से उनके हर एक असंवैधानिक कार्य को जनता की अनुमति मिल जाती है।

हाशिमपुरा हत्याकांड के विरोध में प्रदर्शन करते लोग

हाशिमपुरा का जघन्य हत्याकांड -1987

22 मई 1987 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जनपद के हाशिमपुरा गाँव से पीएसी ने 50 मुस्लिम युवाओं को अपनी गाड़ी में लादा और गाँव से कुछ दूर जाकर रात के अँधेरे में उनका एनकाउंटर कर दिया। सभी शवों को गाज़ियाबाद जिले के मुरादनगर स्थित  गंगनहर में फेंक दिया। घटना की खबर तब लगी, जब मरा समझ कर छोड़े गए लोगों में कुछ लोग ज़िंदा निकले और उन्होंने पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाई। पुलिस की तरफ से लीपा-पोती की गयी लेकिन जनता के दवाब में सरकार ने कुछ निर्णय लिए। फिर भी मुक़दमे में इतनी देरी की गयी कि सभी आरोपी या तो मर चुके थे या बहुत बुजुर्ग हो चुके थे। पीएसी के 19 जवानों पर इस सन्दर्भ में मुकदमे चले। 2015 में दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट की एक अदालत ने साक्ष्यों के अभाव में सभी अभियुक्तों को बरी भी कर दिया था लेकिन लगातार प्रयासों के बाद दिल्ली उच्च न्यायलय ने 31अक्टूबर 2018 को सभी अभियुक्तों को आजीवन कारावास दिया।

[bs-quote quote=”22 मई 1987 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जनपद के हाशिमपुरा गाँव से पीएसी ने 50 मुस्लिम युवाओं को अपनी गाड़ी में लादा और गाँव से कुछ दूर जाकर रात के अँधेरे में उनका एनकाउंटर कर दिया। सभी शवों को गाज़ियाबाद जिले के मुरादनगर स्थित  गंग नहर में फेंक दिया। घटना की खबर तब पता चली, जब मरा समझ कर छोड़े गए लोगों में कुछ लोग ज़िंदा निकले और उन्होंने पुलिस में एफआईआर दर्ज की।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लेकिन ऐसे किस्से कम नज़र आते हैं। प्रशासन की इच्छा नहीं होती कि न्याय मिले। क्योंकि यदि पुलिस के आला अधिकारी या सूबे का मुख्यमंत्री किसी कार्य के लिए जेल जाएं तो दंगे होना बंद हो जायेंगे। लेकिन ऐसा होता नहीं है। और यही पुलिस और प्रशासन की सबसे बड़ी ताकत होती है। हाशिमपुरा कांड के समय उत्तर प्रदेश में वीर बहादुर सिंह मुख्यमंत्री थे। उसके बाद उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का सफाया हो गया और फिर सामाजिक न्याय की सरकारें आना शुरू हुईं, लेकिन पुलिस के चरित्र को वे भी नहीं बदल सकीं। खांटी समाजवादी मुलायम सिंह भी पुलिस की मारपीट की आदत नहीं छुड़वा पाये और न ही उसमें दलित -मुसलमानों की पर्याप्त भर्ती करवा पाए। पुलिस नेताओं के राजनैतिक एजेंडे के अनुसार चलती रही और हत्याएं होती रहीं और नेता उन पर पर्दा डालते रहे।

 रामपुर का तिराहा हत्याकांड 1994

1993 से उत्तराखंड क्षेत्र में उत्तर प्रदेश से अलग होने का आन्दोलन व्यापक तौर पर मज़बूत हो चुका था। हालाँकि आन्दोलन की मजबूती उत्तर प्रदेश में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करवाने से और तेज हो गई। पृथक राज्य की मांग को लेकर उत्तराखंड के सभी संगठनों ने दिल्ली के लाल किला मैदान में 2 अक्टूबर 1994 को एक बहुत बड़ी रैली का आयोजन किया था और उसमें भाग लेने के लिए पर्वतीय अंचलों से भारी संख्या में कार्यकर्ता दिल्ली के लिए प्रस्थान कर रहे थे। लोकतंत्र में आप मतभेद रखते हैं लेकिन राजनीतिक विरोधियो को आन्दोलन करने या सार्वजानिक तौर पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने से नहीं रोक सकते। दूसरी बात यह कि प्रदर्शन दिल्ली में हो रहा था और आन्दोलनकारी उसमें भाग लेने के लिए वहां जा रहे थे। दिल्ली पुलिस ने उन्हें अनुमति दी हुई थी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार उस समय इतने गुस्से में थी कि उसे लगा कि प्रशासन के दम पर वह लोगों पर दमनकर आन्दोलन को कुचल देगी।

अगल राज्य की मांग के लिए धरने पर बैठी महिलाएं

सरकार के पसंदीदा अधिकारी वहां तैनात थे। डीएम अनंत कुमार सिंह और एसएसपी बुआ सिंह। रात के एक बजे जब 50 से अधिक गाड़ियां रूड़की से आगे बढ़ीं तो नारसेन और रामपुर का तिराहा में उन्हें पुलिस के बैरिकेड मिले और बहुत बड़ी संख्या में पुलिस बल जिन्होंने लोगों को आगे जाने से रोका। क्योंकि आंदोलनकारियों की संख्या भी बहुत थी और पुलिस भी, ऐसे में तनाव की स्थिति में पुलिस की गोली से रात के समय 7 आन्दोलनकारी मारे गए। ऐसी भी खबरे आयीं कि बहुत से आन्दोलनकारी गायब थे और कई  महिला आंदोलनकारियों के साथ बलात्कार किया गया। इस घटना ने पूरे उत्तराखंड क्षेत्र का उत्तर प्रदेश के साथ पूरी तरह  मानसिक-सामजिक अलगाव पैदा कर दिया और हकीकत यह है कि इसके बाद उत्तराखंड राज्य का बनना कोई रोक नहीं सकता था और पूरे प्रदेश में मुलायम सिंह यादव रातोंरात खलनायक बन गए।

रामपुर का तिराहा हत्याकांड के बाद पुलिस फायरिंग में पूरे उत्तराखंड में 28 से अधिक लोग मारे गए थे लेकिन आज भी इस हत्याकांड के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं हुई है। प्रदेश में इतनी सरकारें आयी हैं लेकिन किसी न किसी बात का बहाना बनाकर अधिकारी बच जाते रहे हैं। पूरी सरकारी जांच मात्र लीपा-पोती होती है। आज घटना के 27 वर्षों के बाद भी पूरे मुकदमे का गायब हो जाना क्या दिखाता है ? सत्ता तंत्र में बैठे अधिकारी सरकार की भाषा बोलते हैं और अपने को बचाने के पूरे इंतज़ाम कर लेते हैं। राजनीतिक लोग सत्ता में आते हैं और अपने काम के आधार पर चुने जाते हैं, और हार भी जाते हैं। लेकिन ‘बाबू लोग’ हमेशा आपके ऊपर निर्णय लेंगे और कोई जवाबदेही नहीं होगी।

[bs-quote quote=”रामपुर का तिराहा जो मुजफ्फरनगर जिले में आता है, में एक शहीद स्मारक है। जहां 28 आंदोलनकारियों के नाम हैं जो राज्य आन्दोलन के दौरान पुलिस की गोली से मारे गए थे। उसमें उनलोगों के नाम नहीं हैं जो इसके खलनायक थे। उसमें महिलाओं के साथ अत्याचार की कुछ भी बात नहीं है। आखिर ये स्मारक केवल इसलिए नहीं बनते कि हम वहां जाकर अगरबती जलाएं। अपितु इसलिए बनने चाहिए कि हमारी पीढ़ियां जाने की ऐसी घटनाएं कितनी खतरनाक होती हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

रामपुर का तिराहा, जो मुजफ्फरनगर जिले में आता है, में एक शहीद स्मारक है। जहां 28 आंदोलनकारियों के नाम हैं जो राज्य आन्दोलन के दौरान पुलिस की गोली से मारे गए थे। उसमें उनलोगों के नाम नहीं हैं जो इसके खलनायक थे। उसमें महिलाओं के साथ अत्याचार की कोई भी बात नहीं है। आखिर ये स्मारक केवल इसलिए नहीं बनते कि हम वहां जाकर अगरबती जलाएं। अपितु इसलिए बनने चाहिए कि हमारी पीढ़ियां जानें कि ऐसी घटनाएं कितनी खतरनाक होती हैं। ये स्मारक न केवल तथाकथित शहीदों की बात करें अपितु खलनायकों के नाम भी बताएँ। उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस ने इसका पूरा लाभ लिया लेकिन जो दल मूल रूप से उत्तराखंड की मांग उठाते रहे वे हाशिये पर चले गए।

राजनाथ सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते डीएम अनंत कुमार सिंह पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड दोनों राज्यों में देशभक्तों की सरकार है लेकिन एक राज्य में मुख्यमंत्री बड़ी-बड़ी बाते करेंगे और दूसरे में इस घटना को कोई याद भी नहीं करेगा। आखिर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को किसने रोका है कि वह केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार से इस सन्दर्भ में त्वरित कार्यवाही की बात न करें? लेकिन राजनीति में ऐसे चेहरे ही चलते हैं जो अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग बाते करें। नेताओं और पार्टियों का पाखंड तो साफ नज़र आता है कि अब आन्दोलन के दौरान महिलाओं पर हुए अत्याचार पर कोई बात नहीं करता।

उत्तर प्रदेश में पुलिस की हरकतें हर एक शासन काल में लगभग एक-सी हैं। पीएसी का मुस्लिम विरोधी चरित्र तो जग जाहिर था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने उसे वर्दी वाला गुंडा तक कह डाला। उत्तर प्रदेश के सभी नेताओं, चाहे वे किसी भी समाज के हों, ने सत्ता के मजे लिए और विरोधियों और आन्दोलनों को दबाने के लिए पुलिस और प्रसाशन का सहारा लिया और आज पुलिस वही कर रही है जो प्रशासन करता आया है।

बाबा साहेब अम्बेडकर ने बहुत पहले वर्णवादी समाज के ऊपर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह सीढ़ीनुमा असमानता है। इसमें जो जाति जितनी ‘ऊंची’ होती चली जाती है उसका सम्मान उतना ही बढ़ता रहता है। और सीढ़ी में नीचे के पायदान पर जैसे-जैसे आप उतरते हैं जातियों के प्रति असम्मान भी वैसे ही बढ़ता जाता है। उत्तर प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था भी इस समय ऐसी ही है, जिसमें जाति के अनुसार आपकी ‘औकात’ निर्धारित होती है और दुर्भाग्यवश मुसलमानों की स्थिति इस समय सबसे हाशिये वाली है, क्योंकि उन पर किसी भी गैरकानूनी कार्यवाही को आप अपने ‘विशेष’ नैरेटिव से सही ठहरा सकते हैं।  मनीष गुप्ता की हत्या के बाद सवर्णों की समझ में भी आना चाहिए कि पुलिस के नैरेटिव को आँख मूंदकर स्वीकार करने की जरूरत नहीं है। और यह कि पुलिस को जनता के प्रति जिम्मेवार बनाया जाए और सभी नागरिको के साथ बराबरी का व्यवहार हो ताकि हम कानून के शासन के आधार पर अपने देश को आगे बढ़ा सकें। सवाल यह है जो लोग दिन-रात झूठ को सच बनाने वाली खबरें बना रहे हैं और जिनके पास राजनैतिक एजेंडे के नाम पर केवल नफ़रत और धर्मौन्माद फैलाना हो उनसे उम्मींदे क्यों? हम नफ़रत के एजेंडा फैलाने वालों से तो कोई उम्मींदे नहीं करते, क्योंकि वे तो वही कर रहे हैं जिसकी विशेषज्ञता उन्हें हासिल है। हमारी शिकायत तो उन लोगों से है जो सामाजिक न्याय की बात करते हैं। बाबा साहेब, लोहिया, नेहरु, गाँधी की बात करते हैं। आखिर उन्हें इन सवालों को ईमानदारी से उठाने से कौन रोक रहा है? याद रखिये सवालों के जवाब मात्र सहानभूति और मुआवजे में नहीं हैं। वह भी आवश्यक है, लेकिन मुख्य प्रश्न है प्रशासन की जवाबदेही कैसे तय होगी और क्या अधिकारियों को उनके किए की सजा मिलेगी या नहीं ?

 

विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
1 COMMENT
  1. सूक्ष्म और सटीक विश्लेषण। वस्तुस्थिति का यथार्थपरक चित्रण। पुलिस और प्रशासन की मानसिकता का बारीकी से विवेचना की गई है। लेखक साधुवाद के पात्र हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here