इजराइली हमले में अपने पिता को खोने वाली तलीन अल-हिनावी अब एकदम अकेली रह गई है। इस बच्ची के अपने परिवार में सभी लोग हमले में मारे गए। अब वह अल बरका अनाथालय कैम्प में रह रही है। तलीन कहती है कि वह गाजा सिटी में अपने घर लौटना चाहती है ताकि बाकी लोगों की तरह पढ़ाई कर सके।
ऐसी ही दास्तान खान यूनूस के रिफ्यूजी कैंम्प में रहने वाली 10 साल की नादा अल-गरीब की है। उसने बताया कि इस युद्ध ने मेरे पिता और मेरे इकलौते भाई को हमसे छीन लिया। उसके कैम्प पर इजरायली सेना ने हमला किया और परिवार के सभी लोग मारे गए। उस समय वह खाना लेने के लिए बाहर गई हुई थी इसलिए बच गई।
ऐसे हजारों बच्चे हैं, जिनकी अपनी दास्तां है। गाजापट्टी में पिछले एक साल से इस्राइली सेना के द्वारा हवाई हमले और सैन्य कार्रवाई जारी है। इस एक साल में सोलह हजार से अधिक बच्चे मारे गए और अठारह हजार से अधिक बच्चे अनाथ हो गए हैं।
7 अक्टूबर 2023 के दिन हमास ने इजरायल पर हमला किया, जिसके चलते इजरायल के1200 नागरिक मौत के मुंह में समय गए। इसके बाद इजरायल जवाबी सैन्य कार्रवाई कर गाजा पर लगातार हमले का रहा है।
करीब 23 लाख आबादी वाले गाजा में अभी तक 41000 से अधिक लोगों की मौतें हुईं। इस मौत में 16,765 केवल बच्चे ही हैं। गाजा के अलग-अलग हिस्सों से आने वाले लोग सिर्फ अल-आवासी मानवीय क्षेत्र में रहने के लिए मजबूर हैं, जो गाजापट्टी का सिर्फ 10% हिस्सा है।
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संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि युद्ध के चलते पिछले एक साल में 18000 से अधिक बच्चे अनाथ हो गए, उनको पालने वाला कोई नहीं बचा है।
यही हाल लेबनान का भी है, लेबनान की राजधानी बेरुत में भी अफरा-तफरी मची हुई है। सड़कों से लेकर पार्किंग तक शरणार्थी ही दिखाई दे रहे हैं। युध्द से प्रभावित लोग सड़क किनारे गद्दे बिछाकर सो रहे हैं, पार्किंग में गाड़ियों को खड़ा कर अस्थायी तंबू बनाकर रह रहे हैं। वहीं कुछ लोग समुंदर के किनारे लकड़ी या प्लास्टिक के कैम्प बनाकर रह रहे हैं।
लेबनान सरकार ने शरणार्थियों के कैम्प की व्यवस्था स्कूल, कॉलेज और दूसरी सरकारी इमारतों में की है। यह शरणार्थी कैम्प समाजसेवी संगठनों की ओर से चल रहे हैं।
विदेश में नौकरी करने वाले पेशे से इंजीनियर इमाद और कॉलेज में पढ़ रही एला बेरुत उमर फारुक स्कूल स्थित एक शरणार्थी कैम्प में युद्ध के बाद वे लोगों की मदद करने के लिए वापस लौट आये हैं।
सीरियाई मूल की नूर हसन 25 साल पहले शरणार्थी बनकर लेबनान आई हैं। हमलों के पहले नूर के पति बेकरी में काम करते थे लेकिन अब वे शरणार्थी कैम्प की कतार में खड़े होकर खुद रोटी बंटने का इंतजार कर रहे हैं।
52 साल की साओसन बेरूत के चर्च के पास गद्दा डाले बैठी हैं। बेरुत से 50 किलोमीटर दूर दक्षिण में डेर जहाइन की रहने वाली है ! मोबाइल फोन में अपने मकान की तस्वीर दिखाते हुए बताती हैं कि उनका पूरा मकान इजराइल द्वारा किए गए हमले में तबाह हो गया।अमेरिका और इंग्लैंड का इजराइल के युध्द के बारे में पिछले पचहत्तर सालों से जो रवैया है, वही आज भी बना हुआ है।
जहाँ फिलिस्तीन की कुल जनसंख्या 20 लाख थी, जिसमें यहूदियों की जनसंख्या सिर्फ छह लाख और बाकी फिलिस्तीनी थे। फिलिस्तीन की 10,000 स्क्वेयर किलोमीटर जमीन थी, जिसमें से 56% प्रतिशत जमीन अर्थात 5,700 स्क्वेयर किलोमीटर जमीन छ: लाख यहूदियों को दे दी और बाकी बची 4,300 स्क्वेयर किलोमीटर जमीन 14 लाख अरेबियन लोगों को दी गई। इसमें भी सबसे अधिक उपजाऊ जमीन यहूदियों के हिस्से में और अरेबियन को ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी क्षेत्र दिया गया। यह बंटवारा ही अन्यायपूर्ण तरीके से हुआ?
मामला यहीं नहीं रुका इजराइल ने हर लड़ाई-झगड़े के बाद अरेबियन से पचहत्तर सालों में उन्हें जमीन से बेदखल किया और आज 56% हिस्से की जगह इजराइल ने 90% जमीन पर अतिक्रमण कर लिया है। जगह-जगह पच्चीस तीस फीट की कंक्रीट की दीवारों को खड़ा कर दिया है।
विश्व की सबसे घनी आबादी वाले इलाके गाजापट्टी और वेस्ट बैंक को बनाए रखना क्या मानवाधिकार की दुहाई देने वाले अमेरिका तथा इंग्लैंड को दिखाई नहीं देता है?
महात्मा गाँधी ने 1938 में ही ‘Surely it would be a crime against humanity to reduce the proud Arabs so that Palestine can be restored to the Jews partly or wholly as their national home’ बोलते हुए कहा कि जिस तरह से इंग्लैंड अंग्रेजों का है फ्रांस फ्रेंच लोगों का है उसी तरह से फिलिस्तीन अरेबियन का है। यहूदियों को अरेबियन पर लादना गलत और अमानवीय भी है। यह चेतावनी महात्मा गाँधी ने इजराइल के अस्तित्व में आने के दस वर्ष पहले ही चेतावनी दे डि थी।
गांधी की विरासत की बात करने हम सब लोगों की नैतिक जिम्मेदारी है कि ऐसे संकट के समय फिलिस्तीन की जनता का देना चाहिए।