जो लोग सामाजिक न्याय और बीपी मंडल के प्रति डॉ ओमशंकर की दीवानगी और सरोकारों से परिचित हैं उनमें से अधिकांश लोग उन्हें बीपी मंडल के परिवार का मानते है। इसमें डॉ ओमशंकर का मधेपुरा निवासी होना भी एक घटक है। लेकिन इस धारणा में सच्चाई नहीं है। बीपी मंडल परिवार से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं है।
उनका परिवार बिलकुल अलग है। उनका परिवार भी बहुत बड़ा और समृद्ध था लेकिन भाइयों के बीच बँटवारे के कारण वह समृद्धि खत्म हो गई और सबको अपनी आजीविका के लिए अलग संघर्ष करना पड़ा। उनके पिता कुमर किशोर अपने पाँच भाइयों में सबसे छोटे थे। बँटवारे के बाद उनके हिस्से में गरीबी और संघर्ष आया। लेकिन वह एक आदर्शवादी और अपने पेशे के प्रति ईमानदार अध्यापक थे। दिनांक 23 जून को 76 वर्ष की अवस्था में कुमर किशोर ने संक्षिप्त बीमारी के बाद इस दुनिया को अलविदा कहा।

डॉ ओमशंकर ने अपने माता-पिता की स्मृतियों को साझा करते हुये एक बार बताया था उनके ऊपर जिन कुछ लोगों का गहरा प्रभाव था उनमें सबसे ज्यादा माँ और पिताजी का ही था। मैंने जब से होश संभाला तब से उन दोनों को कड़े संघर्ष में ही देखा। इसके बावजूद न उनके सपने टूटे और न उन्होंने किसी के सामने घुटने ही टेके। वे अपने जीवन, लक्ष्य और बच्चों की परवरिश के प्रति बहुत संवेदनशील और ईमानदार रहे। सफलता के लिए कोई भी शॉर्टकट उन्हें मंजूर नहीं था।
डॉ ओमशंकर की माँ के नाना बहुत अमीर और प्रभावशाली व्यक्ति थे। उन्होंने कई विद्यालयों की स्थापना की थी। अपनी नातिन को वह डॉक्टर बनाना चाहते थे लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई। बाद में माँ ने अपने बेटे को डॉक्टर बनाकर नाना की यह इच्छा पूरी की। वह कहते हैं कि मेरे यहाँ तक पहुँचने में माँ का अतुलनीय योगदान है।
अपने बचपन के दिनों में अपने माता-पिता के संघर्षों को याद करते हुये डॉ ओमशंकर भावुक हो उठे। उनका इकलौता छोटा भाई, जिसे वह बहुत प्यार करते थे, किसी असाध्य बीमारी से ग्रस्त था। छोटे बेटे की दवा के लिए माता-पिता कई वर्ष ऐसी स्थिति में रहे जहां अस्पताल उनके जीवन अभिन्न अंग हो गया था। घर पर बड़े बेटे के साथ केवल एक घरेलू सेवक था जो रोटी बना देता था। पति-पत्नी दोनों ने छोटे बेटे का जीवन बचाने का हर प्रयत्न किया लेकिन दुर्भाग्य से उसे बचा नहीं पाये। यह परिवार के लिए बहुत बड़ा आघात था।
अपने घर के उस दौर के हालात के बारे में डॉ ओमशंकर एक घटना के हवाले से बताते हैं कि वे जाड़े के दिन थे। लगभग पाला पड़ रहा था। सबके घर के सामने अलाव जले हुये थे लेकिन मेरे घर में अलाव नहीं जला था। घर में केवल सेवक और मैं ही थे। मेरे पास ठंड से बचने के लिए कपड़े नहीं थे। मैंने अपने बदन पर बोरा लपेटा और अपने ताऊ के दरवाजे पर गया ताकि अपने बदन को सेक सकूँ।
वहाँ मौजूद सबलोगों ने एक दूसरे को रहस्यमय ढंग से देखा और मुस्कुराए। किसी ने कहा – अरे हट जाओ भाई। इस टूअर को भी अलाव सेक लेने दो। उस समय मुझे बहुत कुछ तो समझ में नहीं आया लेकिन उन सबकी ज़हरीली मुस्कान से मैं समझ गया कि मेरे लिए उनके मन कितनी हिकारत है। मैं वहाँ से वापस घर चला आया।
ये स्थितियाँ थीं तो कलेजा मुंह को लानेवाली लेकिन इन्होंने मुझे फौलादी इरादों वाला बना दिया। इसमें माँ और पिताजी की प्रेरणा ने मुझे हमेशा उत्साह से लबरेज रखा। डॉ ओमशंकर ने याद करते हुये कहा- पिताजी कहते थे किसी भी स्थिति में झूठ मत बोलो क्योंकि झूठ का एक कतरा सच की बड़ी-बड़ी इमारतों को कमजोर कर देता है।
वह एक अध्यापक थे और यह जानते थे कि इतिहास ने उनके कंधों पर नई पीढ़ियों को गढ़ने का दायित्व दिया है। मैं भी उनके लिए बेटे से ज्यादा एक विद्यार्थी ही था। वे पढ़ाई के मामले में किसी प्रकार की कोताही बर्दाश्त करनेवाले नहीं थे। न ही अपने बच्चों के लिए कोई विशेषाधिकार देने के पक्षधर थे। आपको शायद पता ही हो कि उन दिनों एक अध्यापक की कमाई आखिर होती ही कितनी थी। उसमें भी बेटे को डॉक्टर बनाना और बेटियों को पढ़ाना। सब खर्चे बहुत मुश्किल से पूरे हो पाते। लेकिन यह मेरे माता-पिता का आत्मसंघर्ष ही था कि वे इसको लेकर कभी कातर और दयनीय नहीं हुये। यही बात उन्होंने मेरे भी जीवन में बोयी।
वह कहते हैं कि जब मेरा एमबीबीएस का रिजल्ट आनेवाला था तो मैं मधेपुरा शहर गया था लेकिन वहाँ पता नहीं चल पाया कि मेरा क्या हुआ। बस में आते हुये एक आदमी ने बताया कि मेरे इलाके का एक लड़का डॉक्टर बन गया है। लेकिन वह उसे जानता नहीं। यह उसके लिए बहुत गर्व की बात थी। लेकिन मुझे लगा यह मेरे माता-पिता की आकांक्षाओं और उनके सपनों का परीक्षाफल है।
जो लोग डॉ ओमशंकर को जानते हैं उन्हें अच्छी तरह मालूम होगा कि वह भारत के उन विरल डॉक्टरों में से एक हैं जो डॉक्टरी पेशे को जनता की सेवा का माध्यम मानते हैं और जिन्होने पैसा कमाने के हर प्रलोभन को बेरहमी से ठोकर मारा है। वह कहते हैं कि अगर इस पेशे को बेचना होता तो मैं आंदोलन करके अपने जीवन को खतरे में न डालता। आराम से कई बड़े अस्पताल बनवाता और इस व्यवस्था में फिट हो जाता।
हाल ही में डॉ ओमशंकर ने सर सुंदरलाल अस्पताल के हृदय रोग विभाग के लिए निर्धारित ब्लॉक को दूसरे विभाग को दिये जाने के विरुद्ध 20 दिन लंबा आमरण अनशन किया। उन्होंने लंबे समय से काशी में एम्स के लिए अभियान चलाया है। प्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ नरेश त्रेहन के संस्थान एस्कॉर्ट से अपनी चिकित्सकीय पारी शुरू करनेवाले डॉ ओमशंकर ने जब बीएचयू में एमडी के एण्ट्रेंस में पहला स्थान पाया तब दिल्ली का मोह छोड़कर बनारस आ गए और यहाँ एक लंबी और जुझारू पारी शुरू की।
वह कहते हैं कि दरअसल यह माता-पिता के उन्हीं आदर्शों का परिणाम है कि दिल्ली और पैसों के मोह ने मुझे कभी नहीं बांधा। उन्होंने अपने सभी बच्चों में जनसरोकार और संवेदना के बीज बोये। मेरी नई पीढ़ी भी कहीं न कहीं उन्हीं आदर्शों और मूल्यों को महत्वपूर्ण मानती है। पिता कहते थे कि अगर आप धन-दौलत के लपेटे में आ गए तो फिर सामाजिक परिवर्तन की ओर पाँच कदम भी नहीं चल सकते। मुझे आश्चर्य होता है कि यह मेरा भी कोर वैल्यू बन गया है।
डॉ ओमशंकर कहते हैं मेरे पिता कुंवर किशोर सामाजिक न्याय और कबीर के विचारों में आजीवन गहरा विश्वास रखते रहे। किसी भी तरह का पाखंड और अधकचरा विचार उन्हें छू तक नहीं पाया। हमने भी उनकी स्मृतियों के प्रति वही आदरभाव बनाए रखा है। उनके जाने का दुख बहुत गहरा है लेकिन उनकी बौद्धिक और भावनात्मक विरासत हमारे जीवन के हर कोने में बनी रहेगी।




