शब्द और सबद में अंतर है? कबीर को पढ़ते हुए यह सवाल मेरी जेहन में आ ही जाता है। कबीर सबद का मतलब सृष्टि का रचयिता बताते हैं और शब्द वह है जो हम बोलते, सोचते और लिखते हैं। तो क्या सबद शब्द का देसी स्वरूप नहीं है? शायद हो भी क्योंकि शब्द बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। शब्दों की रचनाओं पर यदि कोई साहित्य लिखा जाय तो यकीनन वह दिलचस्प साहित्य होगा और उससे इतिहास की कई तहें जो अबतक ढंकी रखी गई हैं, सामने आ जाएंगीं।
मैं बीते दिनों हिमाचल की यात्रा पर था। मेरे साथ मेरी पत्नी रीतू भी थी। अचानक उसने यह सवाल किया कि पहाड़ों पर इन रास्तों की खोज किसने की? इसका इतिहास क्या है? सवाल गैर-वाजिब नहीं थे। मैंने जवाब दिया कि इस दुनिया में दो तरह के आविष्कारक हुए हैं। एक ऐसे आविष्कारक, जिन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर कोई आविष्कार किया और दूसरे वे जिन्होंने समूह के स्तर पर आविष्कार किया। ये पहाड़ी रास्ते दूसरे श्रेणी के आविष्कारकों के आविष्कार हैं। पहली श्रेणी के आविष्कारकों में न्यूटन, एडिसन, आइंस्टीन आदि का नाम लिया जा सकता है। इनके बारे में साहित्य भी उपलब्ध है। लेकिन दूसरी श्रेणी के आविष्कारकों के बारे में साहित्य नहीं है।
मैं उसे यह समझाने की कोशिश कर ही रहा था कि उसने हस्तक्षेप किया। उसका कहना था कि दूसरे श्रेणी के आविष्कारक कौन थे? आविष्कार कई तरह के हुए। जैसे पहिए का आविष्कार, कृषि का आविष्कार, हथियारों का आविष्कार और रास्तों का आविष्कार। अभी हम रास्तों के आविष्कार पर विचार करते हैं।
[bs-quote quote=”उसने कहा कि अच्छा इसी वजह से कृष्ण एक गरेड़ी समाज में अवतरित हुए जो गाय-भैंस चराते हाेंगे। मेरे पास उसकी इस बात पर हंसने की कोई वजह नहीं थी। मैंने उसे समझाया कि केवल कृष्ण ही नहीं, यह देखो कि ईसाा का जन्म भी एक गरेड़ी परिवार के यहां हुआ। बुद्ध के पहले मक्खलि गोसाल का उदाहरण भी देखो जो हमारे कीकट प्रदेश के बड़े आजीवक और दर्शनशास्त्र के महानतम अध्येता रहे। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तो रास्तों का आविष्कार उनलोगों ने किया जो मवेशीपालक थे। भेड़-बकरियां-गाय-भैंस आदि चराया करते थे। इन्हें भारत में हम गरेड़िया समाज के लोगों के रूप में संबोधित करते हैं। दरअसल हुआ यह होगा कि मवेशियों को चराने के क्रम में वे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर गए होंगे और इसी क्रम में उन्होंने सुगम रास्तों की खोज की होगी। वैसे यह केवल रास्तों का आविष्कार मात्र नहीं था, बल्कि सभ्यता का आविष्कार भी था।
सभ्यता का आविष्कार कैसे? मैंने रीतू को न्यूटन के गति के पहले नियम का उदाहरण दिया और कहा कि सभ्यता का विकास तभी होता है जब कोई उसमें हस्तक्षेप करता है। यह तो सभी जानते हैं कि पहले पाषाण युग आया और तब मानवों ने पत्थर के हथियार बनाए। ये हथियार बनानेवाले कौन लोग रहे होंगे? वही, जो जंगलों और पहाड़ों पर आते-जाते होंगे। उन्हें अपनी सुरक्षा और खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हथियार बनाने पड़े होंगे। हुआ होगा यह कि वे कहीं रास्ते में जा रहे होंगे और सामने शेर आ गया होगा, तब अपनी जान बचाने के लिए उन्होंने भारी पत्थर उसके सिर पर दे मारा होगा। तब शेर अचेत हो गया होगा या फिर घायल होकर भाग गया होगा। फिर उन्होंने सोचा होगा कि यदि पत्थर नुकीले हों तो शेर को मारा जा सकता है। ऐसे ही पत्थर के हथियार बनाए गए होंगे। फिर यही विचार लेकर वे आगे की यात्राओं पर गए होंगे और लोगों को बताया होगा। कृषि के आविष्कार में भी इसी गरेड़ी समाज के लोगों की अहम भूमिका रही होगी।
रीतू धार्मिक स्वभाव की है। उसे गरेड़ी वाली बात समझ में आ गयी तो उसने कहा कि अच्छा इसी वजह से कृष्ण एक गरेड़ी समाज में अवतरित हुए जो गाय-भैंस चराते हाेंगे। मेरे पास उसकी इस बात पर हंसने की कोई वजह नहीं थी। मैंने उसे समझाया कि केवल कृष्ण ही नहीं, यह देखो कि ईसाा का जन्म भी एक गरेड़ी परिवार के यहां हुआ। बुद्ध के पहले मक्खलि गोसाल का उदाहरण भी देखो जो हमारे कीकट प्रदेश के बड़े आजीवक और दर्शनशास्त्र के महानतम अध्येता रहे।
खैर, यह तो हम पति-पत्नी के बीच की बातचीत रही। लेकिन शब्द वाकई महत्वपूर्ण होते हैं। आज दो शब्द-युग्म मेरे सामने हैं। एक है कश्मीरी विस्थापित और दूसरा है कश्मीरी पंडित।
[bs-quote quote=”परिसीमन आयोग ने दो सीटें कश्मीरी विस्थापितों के प्रतिनिधियों के मनोनयन के लिए आरक्षित करने की अनुशंसा की है। जिस शब्द का इस्तेमाल किया गया है, वह काबिल-ए-गौर है– कश्मीरी विस्थापित। आयोग ने अपनी रपट में कश्मीरी पंडित शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है। मतलब यह कि कश्मीरी पंडित महज सियासी शब्द हैं। वैसे मकसद यही है कि हिंदू धर्मावलंबियों की संख्या हर हाल में अधिक से अधिक हो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, कल जम्मू-कश्मीर परिसीमन आयोग ने अपनी रपट केंद्र सरकार को दे दी है। इस रपट में जम्मू-कश्मीर में विधानसभा क्षेत्रों की संख्या बढ़ाकर 90 कर दी गई है। पहले जब लद्दाख इसका हिस्सा था तब क्षेत्रों की संख्या 87 थी। लद्दाख को अलग किए जाने के बाद यह घटकर 83 हो गई थी। केंद्र सरकार की परियोजना थी कि इसे बढ़ाकर 90 किया जाय। तो उसने किया यह है कि उसने 7 क्षेत्र बढ़ा दिए हैं। छह सीटें जम्मू संभाग और एक सीट कश्मीर संभाग में बढ़ाया गया है। अब जम्मू में 43 और कश्मीर संभाग में 47 सीटें हैं।
दरअसल, ऐसा करने के पीछे भाजपा की राजनीतिक साजिश है। जम्मू संभाग में हिंदू धर्मावलंबी अधिक रहते हैं तो इस संभाग में छह सीटें बढ़ाने का मतलब है कि विधानसभा में हिंदू धर्मावलंबियों की संख्या बढ़े ताकि मुसलमानों को सत्ता से दूर रखने के तमाम प्रयास किये जा सकें।
खैर, राजनीतिक साजिशें तो तभी शुरु हो गयी थीं, जब जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा छीन लिया गया और उसे दो टुकड़ों में बांट दिया गया। मैं तो शब्द के बारे में सोच रहा हूं। परिसीमन आयोग ने दो सीटें कश्मीरी विस्थापितों के प्रतिनिधियों के मनोनयन के लिए आरक्षित करने की अनुशंसा की है। जिस शब्द का इस्तेमाल किया गया है, वह काबिल-ए-गौर है– कश्मीरी विस्थापित। आयोग ने अपनी रपट में कश्मीरी पंडित शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है। मतलब यह कि कश्मीरी पंडित महज सियासी शब्द हैं। वैसे मकसद यही है कि हिंदू धर्मावलंबियों की संख्या हर हाल में अधिक से अधिक हो।
सचमुच राजनीतिक साजिशें भी गजब की होती हैं। देखना है कि जम्मू-कश्मीर के लोग इसे किस रूप में देखते हैं।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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