Sunday, October 13, 2024
Sunday, October 13, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसंस्कृतिकेशव शरण की कविताओं में आम आदमी की पीड़ा है

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

केशव शरण की कविताओं में आम आदमी की पीड़ा है

साहित्य, कला व संस्कृति की राजधानी काशी ने साहित्य के क्षेत्र में अनेक ऐसे रचनाकारों को जन्म दिया जिन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने का काम किया। हिन्दी कविता के क्षेत्र में 80 के दशक में केशव शरण ने नई कविता और गज़लें लिखनी शुरू की। अपने उत्कृष्ट लेखन के चलते केशव शरण ने देखते-देखते […]

साहित्य, कला व संस्कृति की राजधानी काशी ने साहित्य के क्षेत्र में अनेक ऐसे रचनाकारों को जन्म दिया जिन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने का काम किया। हिन्दी कविता के क्षेत्र में 80 के दशक में केशव शरण ने नई कविता और गज़लें लिखनी शुरू की। अपने उत्कृष्ट लेखन के चलते केशव शरण ने देखते-देखते अपनी एक अलग पहचान बना ली। केशव शरण आज हिन्दी कविता के एक बड़े हस्ताक्षर है। केशव जी की कविताओं व गज़लों में आम आदमी की पीड़ा है।

[bs-quote quote=”केशवजी का आज 61 वां जन्मदिन है। डाक विभाग की सेवा से सेवानिवृत्ति के पश्चात वे पूर्णरूप से लेखन कार्य से जुटे है। भविष्य में और भी अच्छा लेखन इसका सभी को भरोसा है। हमारी शुभकामनाएं है कि केशव जी शतायु हो तथा अपने लेखन से आम आदमी के दर्द को उकेरते रहे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

वर्ष 1977 में मै जेपी मेहता इंटर कालेज में इंटर का छात्र था। उन दिनों कविता के क्षेत्र में मैं उभर रहा था। कवि सम्मेलनों में जाने व पत्र-पत्रिकाओं में छपने से मैं कालेज में छात्रों व अध्यापकों का प्रिय था। मुझे याद है कि केशव जी उस समय 11वीं के छात्र थे। एक दिन प्रार्थना सभा के पश्चात केशवजी मुझसे मिले। उन्होंने बताया कि वे भी कविताएं लिखते है। मैंने कहा कि इंटरवल में मिलते है। इंटरवल में वे मुझसे मिले और अपनी कविता की कापी मुझे दिखायी। उनकी कविताएं पढ़कर लगा कि यह मुझसे अच्छा रचनाकार है। मैने उन्हें प्रोत्साहित किया। हम दोनों देखते-देखते एक अच्छे मित्र बन गये। जब भी हम दोनों मिलते एक-दूसरे को जो नया लिखते सुनाते। कविताओं पर चर्चा होती। मै मंचों से ज्यादा जुड़ा और केशव जी पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। नब्बे के दशक में वे हिन्दी कविता के एक बड़े हस्ताक्षर हो गये।
केशव जी ने नई कविता, गजल, हाइकू आदि लिखकर साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान बनायी। उन्होंने तालाब के पानी में लड़की (कविता संग्रह), जिधर खुला व्योम होता है (कविता संग्रह), दर्द के खेत में (गजल संग्रह), कड़ी धूप में (हाइकू संग्रह), एक उत्तर आधुनिक ऋचा (कविता संग्रह), दूरी मिट गयी (कविता संग्रह), कदम-कदम (चुनी हुई कविताएं) तथा न संगीत न फूल (कविता संग्रह) का सृजन किया। गजल संग्रह दर्द के खेत में, कदम-कदम न संगीत न फूल कविता संग्रह का प्रकाशन अगोरा प्रकाशन वाराणसी ने किया।
केशवजी की रचनाओं में आम आदमी की पीड़ा है। उन्होंने आम आदमी की पीड़ा को बहुत करीब से देखा। यही कारण है कि उनकी कविताओं में आम आदमी का दर्द है। उनकी रचनाओं में कहीं-कहीं रोमानियत भी झलकती है जो उनकी संवेदनशीलता को दर्शाती है। केशवजी धीर गम्भीर होने के साथ काफी भावुक भी हैं।  मित्रों के प्रति समर्पण तथा कुछ कर गुजरने के जज्बे के कारण वे सभी के प्रिय भी है।
केशवजी का आज 61 वां जन्मदिन है। डाक विभाग की सेवा से सेवानिवृत्ति के पश्चात वे पूर्णरूप से लेखन कार्य से जुटे है। भविष्य में और भी अच्छा लेखन इसका सभी को भरोसा है। हमारी शुभकामनाएं है कि केशव जी शतायु हो तथा अपने लेखन से आम आदमी के दर्द को उकेरते रहे।

 

केशव शरण की गज़लें

निछावर प्राण कर दूँ ऐसा दीवाना बना डाला

तुम्हारे जगमगाते रुख़ ने परवाना बना डाला

हसीनों की गली से मैं गया मंदिर नवाने शीश

बस इतनी बात का यारों ने अफ़साना बना डाला

कहाँ जाऊँ मैं अब मायूस अपने दिल को बहलाने

फ़सादी फ़ौज ने गुलशन को वीराना बना डाला

न सहरा था इलाक़ा ये न प्यासे थे कभी यूँ हम

बिना सोचे नदी पर बाँध मनमाना बना डाला

यहाँ ही जैसे जमते हैं जगत के इंक़लाबी सब

लगाकर सख़्त पहरे क्या ये मयख़ाना बना डाला

हम अपने दुश्मनों के वास्ते दुश्मन अभी भी हैं

हमारे दोस्तों ने हमको बेगाना बना डाला

न जाने आशिक़ों से क्यों हुकूमत डर गई इतना

कि उसने आशिक़ों के वास्ते थाना बना डाला

दो

वो लगा-लगाके जो बू गया यहाँ कूचा-कूचा महक गया

उसे सारा शहर तलाशता वो दिखा-दिखाके झलक गया

नहीं चाहते हो तबाहियाँ, रहो दूर-दूर ही हूर से

गया पास हूर के जिस समय मुझे भूल सारा सबक़ गया

था सियाह रात के जाल में, ये कमाल तेरे जमाल का

वो कि चाँद हो कि सितारा हो, जो बुझा-बुझा था चमक गया

यूँ ही माह एक है चैत का, वहीं दूसरे कि धरा दिवस

तभी पत्ता-पत्ता मचल उठा तभी पंछी-पंछी चहक गया

ये ज़रूर है कि ज़रा-ज़रा-सी शराब हमने चढ़ा रखी

मैं तुझे कहूँ तू बहक गया, तू मुझे कहे मैं बहक गया

किसी पेड़ पर नये पात हैं किसी पेड़ पर नये फूल हैं

किसी पेड़ पर नये फल लगे, मैं तो देख-देख लहक गया

मुझे है पता कि मैं हूँ कहाँ, मुझे लौटने की डगर पता

यहाँ मैं नज़ारों में खोया हूँ वहाँ होगा चर्चा भटक गया

ज़रा सोच कितनी उमंग से ये सफ़र था हमने शुरू किया

अभी दो क़दम भी चला न था मेरे साथ-साथ कि थक गया

तीन

तुम्हारी महफ़िलों में मैं रहूँ इच्छा जताते हो

अदावत जो रखें मुझसे उन्हें फिर क्यों बुलाते हो

समुंदर बूँद से रचकर डुबोया क्या नहीं मुझको

कि तिल का ताड़ करते हो मुझे उस पर चढ़ाते हो

लहर ऐसी उठाते हो क़यामत ही नज़र आती

उखड़ जाते बड़े पर्वत हवा ऐसी उड़ाते हो

खड़े इक पैर पर हम हैं जुगों से साँस को रोके

यही हमको सिखाते तुम महायोगी कहाते हो

जुटी है भीड़ प्यासों की तुम्हारे मंच के आगे

लिखा है बैनरों पर प्यार का दरिया बहाते हो

अभी से भी सँभल जाओ रहा अच्छा न जागा वो

तुम्हें क्या खा न जाता शेर को ठोकर लगाते हो

बताकर शत्रु तुमने ही दिलायी वीरगति हमको

दिलाकर वीरगति अब तुम हमें अपना बताते हो

तुम्हारी आग कैसी है तुम्हारे सख़्त-से दिल में

नहीं बुझती बुझाने के लिए दुनिया जलाते हो

दिलों को खींच लेते हो निराली जिन अदाओं से

निराली उन अदाओं से दिलों को फिर सताते हो

चार

तुझे देश सौंपा है इसलिए कि दुरुस्त बाद-ओ-आब हो

तुझे इसलिए नहीं लाये हैं कि ख़राब और ख़राब हो

कहाँ कितनी हो रही आय है, कहाँ कितना हो रहा ख़र्च है

कहो स्वार्थहीन तुम अपने को, भला इसका क्यों न हिसाब हो

तुझी से चमन है चहक रहा, तुझी से चमन है महक रहा

यही हर परिंद है कह रहा, यही जूही हो कि गुलाब हो

जहाँ बहकें संत-महात्मा, जहाँ ज्ञानी-ध्यानी तलब करें

वहाँ क्या बिसात अवाम की, जो पिलाते मस्त शराब हो

जहाँ ये सवाल कि कौन है जो करेगा तुमसे बराबरी

वहाँ क्या मिसाल कोई रखे कि  तुम अपना ख़ुद ही जवाब हो

कई भाषा वाले भदंत हो, कई भेष वाले महापुरुष

कई रंग वाले हो मुहतरम, कई रूप वाले जनाब हो

पाँच

कह रहे थे क्यों दुखी है मुँह गिराये है खड़ा क्यों

ख़ुश नहीं था तो नहीं था ख़ुश हुआ तो ख़ुश हुआ क्यों

क्यों नहीं नाराज़ होंगे दर्द जैसी चीज़ देकर

दर्द का सम्मान करता दूसरों से ली दवा क्यों

वो न आये देखने को किन दुखों से मैं गुज़रता

ख़ुद गया जब पास उनके तब लगा ये मैं गया क्यों

इक ज़माना हो गया है जब अदा मैंने वफ़ा की

इक ज़माने बाद उनसे चाहता हूं अब वफ़ा क्यों

छोड़ना आसान है क्या मयकदे में सोचता हूं

दूरियाँ जिससे बजा थीं उस बला से दिल लगा क्यों

तंज सुनने जाइए क्यों बदगुमानों की अड़ी पर

वो रही नद्दी भरी क्यों ये रहा जंगल हरा क्यों

छः

किसी पर दिल लुटाते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

किसी को आज़माते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

समय की बात है जो आँख फेरे थे कभी हमसे

हमें अपना बताते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

सताते हैं सभी को हुस्न वाले बात सच है ये

मगर हमको सताते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

नये प्रेमी नहीं हैं हम पुराने हो चुके कब के

मगर अब तक लजाते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

कभी आता न हमको ध्यान ख़ारों की चुभानों का

कभी जब फूल भाते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

अजब है रात-भर रेला लगा रहता ख़यालों का

सवेरे ख़्वाब आते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

परी अब है नहीं तो फिर परी की याद क्यों इतनी

परी को हम भुलाते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

कपोलों और अधरों की न जातीं ख़ुश्कियां बिल्कुल

नयन आंसू बहाते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

विधाता हो, मसीहा हो कि हो समराट ही कोई

हमीं आशा लगाते हैं ज़रूरत से ज़ियादा ही

सात

सब सही शिकवा-गिला, ज़िंदगी में क्या मिला

प्रश्न लेकिन ये रहा, ख़ुदकुशी में क्या मिला

दोष-गुन सब एक-सा, याकि कोई फ़र्क़ भी

जानवर में क्या मिला, आदमी में क्या मिला

कालिमा अच्छी न थी, पर ढँके थी लाज वो

निर्वसन इस देह को रोशनी में क्या मिला

ये नहीं हासिल अगर, ये नहीं उपलब्धि तो

हो गये मरकर अमर, आशिक़ी में क्या मिला

ख़्वाब का घन-छू भवन, और ये धू-धू नयन

आस क्या शुरुआत में, आख़िरी में क्या मिला

जिस रपट के वास्ते, छान डाला ये नगर

वो नहीं तो ये सही, किस गली में क्या मिला

एक कोने में पड़ी, डायरी थी मिल गयी

क्या खुला कुछ राज़ भी, डायरी में क्या मिला

आठ

क्या बतायें जिस्म, दिल को और जां को क्या हुआ

बिंध गये सब इक तरफ़ से, पर कमां को क्या हुआ

उम्र तन की हो गयी है, इसलिए बस इसलिए !

किसलिए हो जाय बूढ़ा, मन जवां को क्या हुआ

देखकर दो प्रेमियों को क्यों परेशां हाल है

क्यों नहीं अपनी जगह है इस जहां को क्या हुआ

किस मुहब्बत से बरसता आ रहा था अब तलक

क्यों लगा बिजली गिराने, आसमां को क्या हुआ

ख़्वाब की मंज़िल चला था किस नये उत्साह से

क्यों नहीं पहुँचा अभी तक, कारवां को क्या हुआ

था बना तिनका-ब-तिनका ख़ूबसूरत किस क़दर

गिर रहा तिनका-ब-तिनका आशियां को क्या हुआ

हम परिंदों का पुराना है ठिकाना ये चमन

सौंपता सय्याद को है, बाग़बां को क्या हुआ

नौ

ये न पूछो ज़िंदगी के हौसलों में क्या रखा

ज़लज़ले आते रहेंगे ज़लज़लों में क्या रखा

गर्म है बाज़ार बेहद हर तरफ़ अफ़वाह का

एक दिन सच देख लेंगे अटकलों में क्या रखा

बस तमाशा-खेल इनमें या बदल की बात है

देखना ये भी ज़रूरी हलचलों में क्या रखा

था सहारों ने डुबोया ये न भूले हो अगर

देख लेना ठीक होगा संबलों में क्या रखा

क्या न कोई मन मिलाने दिल लगाने के लिए

क्या रखा है मनचलों में, दिलजलों में क्या रखा

स्वर्ग से लाये गये हों या समुंदर पार से

जब न रसमय, वीर्यवर्धक तो फलों में क्या रखा

काट डाला पर्वतों को, मथ दिया संसार को

ये नहीं कहना कभी तुम पागलों में क्या रखा

दस

फिर न चंगी हो सकी है घायलों की ज़िंदगी

प्यार में मारे हुए हम पागलों की ज़िंदगी

उड़ रही थी आशिक़ों में जो कभी तितली बनी

जी रही है वो हसीना साँकलों की ज़िंदगी

रेख जिनकी जा उतरती थी दिलों में तीर-सी

बह गयी है आँसुओं में काजलों की ज़िंदगी

भेद जग ने कर रखा है क्या समझकर क्या पता

पर न कम गोरे तनों से साँवलों की ज़िंदगी

नाप ले चाहे गगन ये इस दिशा से उस दिशा

बस बरसने तक रही है बादलों की ज़िंदगी

एक सन्नाटा भयानक जब यहाँ छाया हुआ

क्यों न होती एक वंशी-मादलों की ज़िंदगी

आ पलों में और आकर छा पलों में ख़ूब है

और छाकर गा पलों में जा पलों की ज़िंदगी

ग्यारह

किस तरफ़ वो स्वस्थ, सुंदर, शोख़ बालाएँ गयीं

उस तरफ़ बाईं गली में या इधर दाएँ गयीं

इस नगर में हो रहा क्या, एक भी चिड़िया नहीं

साँढ़ भी दिखते नहीं हैं और सब गाएँ गयीं

जो सजी थीं एक दिन रंगीन झंडों से ग़ज़ब

आ गये जलपोत तो किस ओर नौकाएँ गयीं

लट्टुओं की जगमगाहट नाचती है किस क़दर

चाँदनी तो लापता ही भाग छायाएँ गयीं

देवियाँ जिसमें नहातीं, ये वही तालाब था

नीर की हर बूँद सूखी, सब्ज़ शाखाएँ गयीं

खेद है रद्दो-बदल में एक मधुशाला ढही

कुछ पुराने ज्ञान की भी पाठशालाएँ गयीं

स्याह, बदबूदार पानी वो वहीं पाती रहीं

छठ मनाने के लिए जिस घाट पर माँएँ गयीं

बारह

मुस्कुराना, ज़ुल्फ़ लहराना नहाके सामने

क्यों नहीं​ होते फ़िदा हम इस अदा के सामने

वो नवाज़े प्यार से या तोड़ डाले खेलकर

दिल लिये बैठे हुए हैं दिलरुबा के सामने

ख़ूबसूरत फूल कितने और जल्वे हुस्न के

दूसरी कोई फ़िज़ा क्या इस फ़िज़ा के सामने

बस ज़रा-से फ़ासले पर रक़्स खुशियाँ कर रहीं

सिर्फ़ ग़म ही तो नहीं हैं ग़मज़दा के सामने

उस प’ है बरसे न बरसे, उस प’ किसका ज़ोर है

चाहतें ही तो करेंगे हम घटा के सामने

जो छलकती है नशीली प्यालियों से आँख की

और कोई है सुरा क्या इस सुरा के सामने

एक महबूबा हमारी भी रही जो खो गयी

किस तरह जाएँ पहुँच उस लापता के सामने

तेरह

इष्ट-मित्रों के मृदुल बरताव की सूरत नहीं

खिन्न दिल के हाल में बहलाव की सूरत नहीं

रेत हो आयी नदी में कश्तियों का कारवां

इस उफनती धार में इक नाव की सूरत नहीं

ऐ मुहब्बत के मसीहा आज केवल ये बता

क्या बिगड़ने के अलावा घाव की सूरत नहीं

अब्र छाता और छँटता ज्वार-भाटे की तरह

बन रही है ठीक से कुछ चाव की सूरत नहीं

सर्दियों की बात भी है मर्ज़ियों की बात भी

बस सिकुड़ना रह गया फैलाव की सूरत नहीं

वोट हमसे क्यों​ लिया बदलाव लाने के लिए

क्यों अभी तक दिख सकी बदलाव की सूरत नहीं

आप छवि सद्भावना की न्यास करते आ रहे

क्या बिगड़ती जा रही सद्भाव की सूरत नहीं

चौदह

देश की धरती हुई पत्थर किसानों के लिए

सरहदों पर बर्फ़बारी है जवानों के लिए

आम जनता पर भले गुज़रे भयानक ज़ुल्म-सा

हुक्म केवल हुक्म होता हुक्मरानों के लिए

और भी कितने बना लो ईंट-पत्थर, लौह के

लोग कम पड़ते नहीं हैं क़ैदख़ानों के लिए

कैंचियों के काम कितने बढ़ गये हैं आजकल

धार पर लायी गयीं जब से ज़ुबानों के लिए

अब न गाने के लिए मृदु कंठ अपने खोलते

पर नहीं हैं तौलते पंछी उड़ानों के लिए

ये हमारे कुछ हठीले रहबरों का है करम

हम पिछड़ते जा रहे कितने ज़मानों के लिए

क्यों खपाएँ माथ वो मेहनतकशों के हाल पर

ये निहायत निम्न बातें हैं महानों के लिए

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here