हर एक त्यौहार के पीछे धार्मिक और सांस्कृतिक कहानियाँ होती हैं। आज के दौर में यह प्रश्न जटिल है लेकिन उन्हें किस तरीके से समझा जाए? लेकिन यह आवश्यक है कि उन्हें समझा जाय। बहुत से लोग सारे त्योहारों को हिंदूवादी होने का लेबल लगाकर उन्हें न मनाने की बात करते हैं और अपने पैरों में खुद ही कुल्हाड़ी मार देते हैं। तिलक ने सामूहिक गणपति पूजन का इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया। बाबा साहेब आंबेडकर ने अपनी दीक्षा ‘विजयादशमी’ के दिन ली जिसे उन्होंने अशोक विजयादशमी कहा। हालांकि दीक्षाभूमि के कार्यक्रम दो अलग-अलग तिथियों के हिसाब से होते है। बहुत से लोग इसे 14 अक्टूबर के दिन मानते हैं तो अधिकांश लोग अशोक विजयादशमी के दिन को ही दीक्षाभूमि में एकत्र होते है।
भारत के अन्दर हर एक त्यौहार के सीधे रिश्ते किसानों और उनकी फसल की बुआई, कटाई से सम्बंधित ही होते है। होली का समय भी फसल के पकने और काटने का समय है। किसान के लिए इनका बेहद महत्त्व है। होली को लेकर बहुत सी कहानियाँ हैं और जैसे कि मैंने कहा तर्क के धरातल पर धर्म कभी भी खरे नहीं उतर सकते क्योंकि धर्म वहीं से शुरू होता है जहा तर्क ख़त्म होता हैं।
[bs-quote quote=”तर्कवादी और मानववादी बनने का रास्ता बहुत कठिन है और मुझे लगता है कि उससे बड़ा मानवतावादी बनना है कम से कम हमारे सामाजिक हालात के सन्दर्भ में। बाबा साहेब इस बात को जानते थे इसलिए उन्होंने एकदम यह दावा नहीं कर दिया कि देवी-देवताओं या धर्म को ख़त्म कर दो। उन्होंने बुद्धिज़्म की भी अपनी नितांत नयी व्याख्या दी जिसे हमें नवयान कहते हैं। लोगों को पोंगा-पंडितों और आडम्बरों से दूर रहने की सलाह दी, धार्मिक कर्मकाण्डों में अपना समय न लगाने की बात की। क्योंकि समाज अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह सम्पूर्ण क्रांति कर डाले और इसका कारण बाबा साहेब आंबेडकर ने बताया था और वह है सीढ़ीनुमा असमानता। यानी जाति के अन्दर जाति है” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मै अभी भी अपने प्रेरणा केंद्र में हूँ और मैंने बहुत नजदीक से पूरे गाँव में बदलाव को देखा है। ये बदलाव हमारे द्वारा कोई विशेष अभियान चलाने से नहीं हुआ लेकिन केंद्र में जो बहस और बातें होती हैं उन्हें लोग सुनते हैं और उन्हें लगता है कि इससे उन्हें लाभ होता है। कल जब गाँव के कुछ बुजुर्ग मुझसे मिले तो मैंने उनसे कहा ‘मिलन की खुशियाँ मनाये, दहन का जश्न नहीं’। होलिका कौन थी या रावण कौन था या कोई और क्या था? ये थे या नहीं, इस पर भी मुझे चर्चा नहीं करनी है लेकिन मैं किसी भी व्यक्ति के ज़िंदा जलाने का जश्न नहीं मना सकता। जैसा मैंने कहा कि धार्मिक भावनाओं में कोई तर्क नहीं होता इसलिए उनसे तर्क करने की जरूरत नहीं होती। मै धार्मिक ग्रंथों और परम्पराओं को आलोचना के परे नहीं मानता लेकिन मै जानता हूँ कि समाज बदलाव के लिए धार्मिक ग्रंथों के बदलने का इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिए। कुछ हकीकतों को समझने का प्रयास किया जाना चाहिए।
त्योहारों को मनाएँ या ना मनाएँ यह तो एक व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है और उसका सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन हमारे देश में त्यौहार समुदायों के सामूहिक जश्न का रूप भी हैं। जितने भी त्यौहार हैं अलग अलग स्थानों पर अलग-अलग परम्पराओं के साथ मनाये जाते हैं। नवरात्र में उत्तर भारत में कोई लहसुन प्याज भी नहीं खाता लेकिन बंगाल में बिना माछ-भात के काम नहीं चलता। हर जगह अलग-अलग नैरेटिव हैं, लेकिन पिछले दो-तीन दशको में हिंदुत्व और आरएसएस की प्रेरणा से कार्यरत ‘बुद्धिजीवी’ ओर ‘इतिहासविद’ कोशिश कर रहे हैं कि त्योहारों की विविधता को ख़त्म कर उन्हें समरूपी बना दिया जाए। भारत में हर एक त्यौहार का एक बौद्ध और जैन पक्ष भी है। उसके अलावा दलित-आदिवासी और बहुजन पक्ष भी है और ये भी अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तरीके से मनाये जाते हैं। भगवानों के रूप भी विविध हैं और उनके नैरेटिव भी अलग-अलग लेकिन उन सब के ऊपर ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण लादकर त्योहारों के दर्शन को महिला-विरोधी और बहुजन-विरोधी बना दिया गया है। अब सवाल यह है कि क्या ये लड़ाई हम इन त्योहारों के बहिष्कार के जरिये जीत सकते हैं या त्योहारों या संस्कृति का ‘बहुजनीकरण’ करके जीत सकते हैं? इसके लिए बहुत संयम की आवश्यकता है।
जब हम एक बड़े समाज की सांस्कृतिक विरासत की बात करते हैं तो हम यह कतई नहीं भूल सकते कि बहुजन समाज का दर्शन रविदास का बेगमपुरा है, वह कबीर की मानववादी परंपरा है, वह नानक, दादू, नारायण गुरु और अन्य महान दार्शनिकों और चिंतकों का दर्शन भी है। वह चार्वाक की परंपरा भी है, तो अनेकों स्थानीय परम्पराएँ भी हैं। और इन सबमें एक समानता है कि ये सभी बुद्ध की बौद्धिकता और मानववादी मूल्यों पर आधारित हैं। जिस समाज की इतनी बड़ी परम्परा हो वह किसी को क्रूरता से जला डालने का जश्न तो कभी नहीं मना सकता। इसलिए त्योहारों के इस पक्ष को न भूलें और उसी अनुसार निर्णय लें। बाकी बाबा साहेब अम्बेडकर ने पूरी 22 प्रतिज्ञाओं से बता दिया कि हमें क्या करना चाहिए?
[bs-quote quote=”यदि हमने प्रकृति का दोहन बंद नहीं किया तो दुनिया के लिए खतरे की घंटी है। इसलिए दशहरा, दिवाली और होली सभी के मनाने के तरीके प्रकृति के नियमों के अनुरूप करने पड़ेंगे। वही बहुजन संस्कृति रही है जिसमें हम नदी, पेड़, पहाड़, फसल, आदि को पूजते हैं और उसके समक्ष अपना शीश झुकाते हैं। हमारे त्योहारों में सकारात्मक बदलाव की जरूरत है और बहुजन समाज के मानवीय मूल्यों और प्रकृति प्रेम से ही संभव है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मै यह बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि हम जानते हैं कि अभी भी समाज का अधिकाँश भाग मुसीबत में है और संघर्षरत है। वह मेहनतकश भी है। उसकी मानसिक संवेदनाओं को हम महज शब्दों की बाजीगरी से नहीं जीत सकते। तर्कवादी और मानववादी बनने का रास्ता बहुत कठिन है और मुझे लगता है कि उससे बड़ा मानवतावादी बनना है कम से कम हमारे सामाजिक हालात के सन्दर्भ में। बाबा साहेब इस बात को जानते थे इसलिए उन्होंने एकदम यह दावा नहीं कर दिया कि देवी-देवताओं या धर्म को ख़त्म कर दो। उन्होंने बुद्धिज़्म की भी अपनी नितांत नयी व्याख्या दी जिसे हमें नवयान कहते हैं। लोगों को पोंगा-पंडितों और आडम्बरों से दूर रहने की सलाह दी, धार्मिक कर्मकाण्डों में अपना समय न लगाने की बात की। क्योंकि समाज अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह सम्पूर्ण क्रांति कर डाले और इसका कारण बाबा साहेब आंबेडकर ने बताया था और वह है सीढ़ीनुमा असमानता। यानी जाति के अन्दर जाति है और सबके अपने अंतर्द्वंद हैं इसलिए उनके समाधान के लिए हमारे सांस्कृतिक प्रयास एकतरफ़ा और एक ही नैरेटिव के नहीं हो सकते। यह एक लम्बी लड़ाई है और बिना समाज में गए इसका समाधान नहीं हो सकता। समाधान लोगों को गरियाने और जलील करने में भी नहीं है। कोई भी व्यक्ति या समाज केवल इसलिए ख़राब या असंवेदनशील इसलिए नहीं है क्योकि वह कोई त्यौहार मानता या नहीं मानता है। जरूरत इस बात की है कि हम लोगों तक पहुंचें और उनके दुःख दर्द को समझें। बिना उनकी समस्याओं में हिस्सा लिये या दुःख-दर्द को समझे न तो हम उनको समझा सकेंगे और न ही वे हमारी बात समझेंगे।
धर्म और वैज्ञानिक चिंतन की बहस दुनिया भर में है। तर्कवादी, मानववादी लोग इस कार्य में लगे हैं लेकिन वे धार्मिक लोगों से नफ़रत नहीं करते अपितु धर्म के सार्वजानिक जीवन में इस्तेमाल के खिलाफ हैं और राज्य के कानूनों को धार्मिकता में ढालने के विरोधी हैं। ऐसे सभी लोग मानते हैं कि राज्य के कानूनों का धर्मनिरपेक्ष होना जरूरी है। एक मानववादी समाज बनाने के लिए हम सभी को भारत की बहुजन मानववादी विरासत को समझना होगा और उस पर चलना होगा
[bs-quote quote=”परम्पराओं का विकल्प देने की जरूरत है जिन्हें लोग स्वीकार कर सकें। याद रखिये कि कभी भी बहुत ‘क्रांतिकारी’ बनकर आप बदलाव नहीं ला सकते। कंम से कम ऐसे समाज में जहाँ अभी भी अशिक्षा और अन्धविश्वास है। इसलिए बुद्ध के मध्यम मार्ग की आवश्यकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
चूंकि ये सभी त्यौहार सदियों से चले आये हैं और सभी अपने-अपने तरीके से मनाये जाते हैं इसलिए उनको ब्राह्मणवादी बता देना उन्हीं ताकतों के हाथो में खेलना है जो सदियों से दलित-आदिवासियों का शोषण करते आये है।
ऐसा नहीं है कि हम वैकल्पिक संस्कृति की बात नहीं करते लेकिन वैकल्पिक संस्कृति अक्सर अल्पसंख्यकों की होती है। बहुजन समाज का विकल्प तो उन त्योहारों का बहुजनीकरण करना है जिन्हें पुरोहितवाद ने अपनी कुटिल परिभाषाओं से दलित-आदिवासी-महिला विरोधी बना दिया है।
धर्म की किताबों को बदला नहीं जा सकता लेकिन परम्पराएँ और रीति-रिवाज समय के हिसाब से बदलते रहते हैं। बाबा साहेब ने जब गांधी जी के एक पत्र में शास्त्रों की आलोचना की तो उन्होंने यही कहा कि शास्त्र भगवान के बनाए हुए हैं और भगवान के बनाए हुए को कोई बदल नहीं सकता। बाबा साहेब ने कहा कि यदि शास्त्रों में जहाँ पर भी अन्याय और जाति-लिंग के आधार पर भेदभाव की बात की गयी है, उन्हें हटा दिया जाना चाहिए तो गाँधी जी ने उससे साफ़ इनकार कर दिया था कि धर्म में कोई बदलाव नहीं हो सकता। यह बात हिन्दू ही नहीं किसी भी धर्म के लोग कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। हालांकि दुनिया भर के नास्तिक, मानववादी लोग धर्म की पुस्तकों को अंतिम सत्य नहीं मानते जिनमें मैं भी शामिल हूँ, लेकिन आज के दौर की यह भी हकीकत है कि धर्म की पुस्तकों को पूर्णतः समझने वाले बहुत कम लोग होंगे और अधिकांश लोग धर्म के नाम पर चल रही परम्पराओं से ही काम चलाते हैं। इसलिए परम्पराओं का विरोध मुश्किल होता है। गीता और रामायण की आलोचना करना आसान है लेकिन खाप पंचायतों से बाहर रहना या छठ पूजा न मनाना, ब्रह्मभोज में शामिल न होना आदि मुश्किल होता है क्योंकि दरअसल समाज तो परम्पराओं में जीता है। इसलिए परम्पराओं का विकल्प देने की जरूरत है जिन्हें लोग स्वीकार कर सकें। याद रखिये कि कभी भी बहुत ‘क्रांतिकारी’ बनकर आप बदलाव नहीं ला सकते। कंम से कम ऐसे समाज में जहाँ अभी भी अशिक्षा और अन्धविश्वास है। इसलिए बुद्ध के मध्यम मार्ग की आवश्यकता है। एकदम से लोगों के विश्वास पर चोट कर आप अपने को लोगों से दूर करते हैं और वह क्षेत्र पूरी तरह उन लोगों के लिए खाली छोड़ देते हैं जो उनका शोषण करते आये हैं। इसलिए सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में हमारी जिम्मेवारी बड़ी है और मात्र चीजों की आलोचना कर आगे बढ़ जाने से कुछ नहीं होगा। त्योहारों का विकल्प देना हमारी जिम्मेवारी है लेकिन वे तभी स्वीकार्य होंगे जब स्थानीय लोग आप पर भरोसा करते हों। जिन लोगों ने बौद्ध धम्म अपनाया वे भी परम्पराओं से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाए लेकिन अम्बेडकरी विवाह में लोग अब हिन्दू देवी-देवताओं के स्थान में पर बाबा साहेब, सावित्री माई, रमाई, ज्योतिबा फुले के चित्र लगाते हैं। इस वर्ष तो छठ के पर्व में भी हमने लोगों को बाबा साहेब और बुद्ध के चित्रों के साथ छठ मनाते देखा। अब इसकी आलोचना आसानी से हो सकती है लेकिन अगर इसमें सकारात्मकता देखें तो यही कि परिवर्तन धीरे-धीरे आता है। अगर आप केवल उनलोगों के बीच में बोलने के आदी हैं, जो आपकी विचारधारा में पहले से ही हैं तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अपनी विचार धारा में नए लोगों को लाना सबसे बड़ी चुनौती है। एक ही जाति, पार्टी और विचार के लोगों में भाषण देकर तालियाँ पिटवा लेना एक बात है और धर्म की रूढ़ियों में जकड़े समाज को अपने विचारों की ओर लाना बहुत कठिन है। यह चुनौतीपूर्ण तो है लेकिन असंभव नहीं है। लोगों को कोई भी बात घुट्टी में पिलाकर नहीं बताई जा सकती अपितु उनमें परिवर्तन की एक लम्बी लड़ाई चलाना आवश्यक है जो उनके दैनिक प्रश्नों की लड़ाई से जुड़कर ही सफल हो सकती है। यदि हम समाज के साथ उसके जीवन-मरण के प्रश्नों पर साथ खड़े हैं तो वे आपकी बातों को गंभीरता से लेंगे और उस पर चलेंगे भी। नहीं तो किसी के भाषणों के लिए लोगों के पास समय नहीं है।
[bs-quote quote=”जिन लोगों ने बौद्ध धम्म अपनाया वे भी परम्पराओं से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाए लेकिन अम्बेडकरी विवाह में लोग अब हिन्दू देवी-देवताओं के स्थान में पर बाबा साहेब, सावित्री माई, रमाई, ज्योतिबा फुले के चित्र लगाते हैं। इस वर्ष तो छठ के पर्व में भी हमने लोगों को बाबा साहेब और बुद्ध के चित्रों के साथ छठ मनाते देखा। अब इसकी आलोचना आसानी से हो सकती है लेकिन अगर इसमें सकारात्मकता देखें तो यही कि परिवर्तन धीरे-धीरे आता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मुझे बेहद ख़ुशी है कि मलवाबर मुसहर बस्ती के लोगों ने हमारी बातों को समझा। उनका इस बार का होलिका दहन नाम मात्र का था। एक समय था जब लोग हंगामा करते थे और घरों से जबरन लकड़ियाँ इकट्ठा करते थे लेकिन अबकी बार बहुत शांतिपूर्वक तरीके से सब कुछ हो गया। लोग समझ गए कि जब खाना बनाने के लिए लकड़ी नहीं है, और उससे भी अधिक यह कि व्यक्ति के अंतिम संस्कार के लिए भी लकड़ी उपलब्ध नहीं है तो फिर होली के लिए लकड़ियाँ कहाँ से आएंगी। हमारी माई रामरती देवी की मौत के समय यह समस्या आई थी लेकिन हमारे पास लकड़ियाँ थीं तो उनके अंतिम संस्कार में दिक्कत नहीं हुई। लोग अब यह बात समझते हैं कि लकड़ियों को बर्बाद नही किया जाए। इसका अभिप्राय यह भी कि मौजूदा आर्थिक पर्यावरणीय हालात भी हमारे बहुत से त्योहारों के मनाने के तरीको में परिवर्तन लायेंगे। मतलब साफ़ है, कि जो भी त्यौहार प्रकृति विरोधी हैं उन्हें बदलना पड़ेगा। दुनिया का अंतिम सत्य प्रकृति ही है और बड़ी से बड़ी ताकत को प्रकृति के आगे झुकना पडेगा। यदि हमने प्रकृति का दोहन बंद नहीं किया तो दुनिया के लिए खतरे की घंटी है। इसलिए दशहरा, दिवाली और होली सभी के मनाने के तरीके प्रकृति के नियमों के अनुरूप करने पड़ेंगे। वही बहुजन संस्कृति रही है जिसमें हम नदी, पेड़, पहाड़, फसल, आदि को पूजते हैं और उसके समक्ष अपना शीश झुकाते हैं। हमारे त्योहारों में सकारात्मक बदलाव की जरूरत है और बहुजन समाज के मानवीय मूल्यों और प्रकृति प्रेम से ही संभव है। त्योहारों और परम्पराओं को पुरोहितवाद से मुक्त कर उनका बहुजनीकरण कर ही हम भविष्य की पीढ़ियों को एक नया विकल्प दे सकते हैं जो सार्थक और सबके हित में होगा!
विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।
Nice article
त्योहारों का बहुजनिकरण एक हारे हुए सांस्कृतिक योद्धा का विलाप लगता है।यह ब्राह्मणवाद को अम्बेकरवाद के साथ घोल मेल कर साथ साथ चलाने की वकालत करके अपनी ही खिल्ली उड़वाने की चेष्टा कर रहा है । अगर धार्मिक त्यौहारों का रूप बदल चुका है तो उनका वही पुराण स्वरूप बनाने हेतु प्रयत्न कीजिये। उन्हें आम जन मानस की भावनाओं के अनुरूप जो अतीत में जिस रूप में थे मनाने की परम्परा की शुरुआत कीजिये।जनता को दोराहे पर खड़ा मत कीजिये।आलोचना से परे कोई महापुरुष नही होता। जरूरी नही कि हम बाबा साहब की सभी बातें आँख बंद करके ज्यों की त्यों मानकर चलें।आज विज्ञान का युग है हमे त्योहारों को विज्ञान के अनुसार नए रूप से मनाने की प्रक्रिया की जरूरत है ।