कैसा फागुन क्या बसंत है,
इनका आना-जाना
वे क्या समझे दु:ख की जो
नित जाने बोझ उठाना।
चीख-चीख कुछ कहे पपीहा,
कहाँ गया पी कहाँ कह रहा,
कोयल की हर एक कूक पर
कहीं बिरह में बदन दह रहा।
खिलते फूल, भटकते भँवरे,
तन-मन में उमंग का भरना,
उनके लिए अर्थ क्या रखे,
जो न समझते जीना-मरना।
जीवन बोझ मानकर सोचे,
इस धरती पर आना,
नहीं अलग अबतक कर पाए,
सुख-दुख, रोना-गाना।
जिनको रोटी के लाले हैं,
वे बहार क्या हैं, कब जाने,
अर्द्ध नग्न तन रहने वाले,
कब शृंगार शब्द पहचाने।
साया की जिनको तलाश है,
कदम-कदम पर ठोकर खाए,
सराबोर जो रहे रक्त में,
उनको और रंग कब भाए।
त्योहारों को ढूँढा करते,
कूड़े में कुछ दाना,
मन छलनी हो जाता सुनकर,
तरह-तरह का ताना।
युग-युग से जल रही होलिका,
इन्हें सिखाए निशि-दिन जलना,
अपना सब कुछ फूँक, जलाकर,
पश्चाताप लिए कर मलना।
आँसू में डूबती जिंदगी
को भाए नवरंग रास क्या?
पतझड़ जहाँ सदा छाया हो,
तो होवे मधुमास आस क्या?
उलझन का पग-पग फैला,
दूभर ताना-बाना,
होता रहा तिरोहित नभ में,
‘कैसे जिएँ’ तराना।
जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’ सेवानिर्वित्त न्यायाधीश हैं।
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