उत्तर प्रदेश के बाहुबली -4
मायावती ने वजूद पर तलवार चलाई तो मुलायम सिंह ढाल बनकर बचाने खड़े हुए, अखिलेश ने हाथ झटका तो भाजपा के साथ सुर मिलाने की कोशिश की पर बात नहीं बनी तो अपनी अलग पार्टी बनाई फिर भी भरपूर मिलता है योगी का आशीर्वाद
सन 1993, प्रतापगढ़, एक छोटी-सी रियासत भदरी का इकलौता वारिस, उम्र 26 (असली या नकली जो भी रही हो यह राज का विषय है) अचानक अपनी गृह विधानसभा कुंडा से चुनाव लड़ने का ऐलान कर देता है। ना कोई पार्टी ना कोई पैगाम, बस ‘जीत से कम कुछ भी मंजूर नहीं…’ के फरमान के साथ निर्दलीय उम्मीदवारी दर्ज होती है। परिवार का कोई सियासी इतिहास नहीं रहा, पर पिता का सामंती वजूद कट्टर हिंदूवादी आस्था के साथ स्थानीय तौर पर जरूर कायम था। चुनावी ऐलान के साथ कुंडा विधानसभा का पूरा रंग हिन्दू आस्था के साथ उस मुसलमान को हराने के लिए खड़ा हो जाता है जिसका नाम था नियाज हसन। नियाज हसन और कांग्रेस के दबदबे वाली इस सीट पर वैसे तो 1991 में ही भाजपा ने सेंध लगा दी थी। शिव नारायण मिश्रा ने नियाज हसन को करारी मात दी थी पर 1993 में राजा के लोगों ने भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलने के बजाय कांग्रेस के नियाज को ही फोकस किया। इससे राजा ने पहले ही कदम की चाल से भाजपा जैसी पार्टी को कुंडा में मिट्टी में मिला दिया और भाजपा ने उनके खिलाफ अपना प्रत्याशी भी नहीं उतारा। और तब से आज तक भाजपा उस मिट्टी में दुबारा अंकुरित नहीं हो पाई। भाजपा की हर लहर पर राजा का कहर भारी पड़ा। दूसरी ओर, भाजपा का समर्थन पाकर स्थानीय लोगों के दिमाग में बिना कट्टर हिन्दू छवि बनाए ही मुस्लिम विरोधी चेहरा बन गए। इस पूरे खेल में कुछ चालें रणनीतिक थीं तो कुछ इत्तफाक से राजा के पाले में आ गई थीं ।
नियाज हसन कांग्रेस के नेता थे। उन्होंने कभी अपनी धार्मिक छवि बनाने की कोशिश नहीं की थी पर इस अचानक आए लड़के ने उनकी कई सालों की राजनीति को जिस तरह से एक झटके में धार्मिक विभाजक रेखा पर चाक करने का षड्यन्त्र रचा उसने चुनाव से पहले ही उनके पाँवों तले की जमीन खींच ली। पूरी विधानसभा में एक ही गूंज शेष दिखी तूफान…. तूफान….
[bs-quote quote=”राजा भइया की विनम्रता, भाषा का चयन, साहित्य की समझ, कबीर, तुलसी, रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं के उद्धरण के साथ मुहावरे और लोक कथाओं का जरूरत के अनुरूप प्रयोग करना उन्हें अन्य बाहुबली नेताओं से अलग बनाता है। शायद ही किसी ने उन्हें कभी किसी मंच पर धैर्य खोते हुए या किसी के खिलाफ कोई अपशब्द बोलते हुए सुना गया हो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यह ‘तूफान’ उपनाम था कुँवर रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भइया का। यह उपनाम अब चलन से बाहर हो चुका है पर उस समय रघुराज और राजा भैया दोनों से ज्यादा वही चर्चित था। चुनाव शुरू हुआ तो चक्रव्यूह बना, विजातीय सेनापति बनाए गए, स्वाजातीय सैनिक बने और शेष हिन्दू उत्साहवर्धक और समर्थक के रूप में तूफान सिंह उर्फ राजा भईया के अभियान का हिस्सा बन गए और सब मिलकर ‘कुंडा की मुगलिया सल्तनत’ को पूरी तरह से नेस्तनाबूत करने के भाव से आगे बढ़े। समर्थकों ने तूफान नाम का शोर इतना तेज फैलाया कि बिना किसी आपराधिक वारदात को अंजाम दिए ही राजा भैया को ‘कुंडा का गुंडा’ बना दिया। 1993 के चुनाव में इस समीकरण से जीत मिली तो गुंडा होने का रसूख भी मजबूत हुआ और समर्थकों ने इस भाव को अपने लाभ के लिए ‘टेरर’ के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। बिना मांगे शक्ति वर्चस्व का वरदान मिल रहा हो तो कौन नहीं लेना चाहेगा? राजा ने भी अपने को शक्ति केंद्र मानने से कोई गुरेज नहीं किया। शक्ति की हनक समर्थक फैलाते रहे। खासतौर पर स्वजातीय समर्थकों ने राजा के नाम का खौफ आम आदमी के मन में बैठाने में कोई गुरेज नहीं किया और इसके समानांतर राजा ने सार्वजनिक तौर पर अपनी भाषायी विनम्रता और स्नेहपूर्ण भाव के रंग को दिन-ब-दिन ज्यादा चटख बनाने की कोशिश जारी रखी। 1993 की जीत के साथ कुंडा और राजा भइया एक दूसरे के पूरक हो गए। जीत का सिलसिला 1993 से 2023 तक जस का तस कायम है। छह बार वह निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़े पर भविष्य की राजनीति को ध्यान में रखकर उन्होंने किसी पार्टी के साथ सम्मानजनक स्थिति बनती न देखकर अपनी खुद की पार्टी बनाई और 2022 के चुनाव में वह पहली बार अपनी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में जीतकर विधानसभा पँहुचे। उत्तर प्रदेश विधानसभा में उनकी पार्टी के दो सदस्य हैं, जिनके दम पर पर वह उत्तर प्रदेश विधानसभा की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी कहलाने का हक रखते हैं।
सियासत को साम्राज्य में बदलने के लिए लिया अपराध का सहारा
1993 में जीत हुई तो विधायक बने, पर मंसूबे बड़े थे इसलिए इसलिए धीरे-धीरे पाँव फैलाना शुरू किया। 1993 में ही किसी पार्टी को स्पष्ट जनादेश न मिलने स्थिति में कल्याण सिंह के साथ खड़े हुए और सरकार बनाने में मदद की। तब पहली जीत के साथ यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। अपना पाँव फैलाने के लिए अब दूसरे की जमीन चाहिए थी, बहुतों ने अपनी जमीन थाल में सजा कर पेश कर दी और खुद को उनके किलेदार में बदल लिया पर कुछ लोगों ने अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखने से इनकार कर दिया। तब उनके साथ कैसे निपटना है यह भी राजा को किसी से सीखने-समझने की जरूरत नहीं थी। इस निपटाने की प्रक्रिया में जो निपटते थे अक्सर वह आवाज हो जाते थे, इसके बावजूद कुछ लोग हिम्मत कर कानून तक पँहुचने लगे। मुकदमों की संख्या धीमी गति से बढ़ रही थी। वर्ष 1997 से 1999 तक, कार्यक्रम मंत्री रहे। 1999 से 2000 तक तक खेल और युवा मामलों के मंत्री बने। 2004 से 2007 तक खाद्य और और नागरिक आपूर्ति मंत्री रहे और 2012 में जेल से निकालने के बाद अखिलेश यादव सरकार में 2017 तक जेल मंत्री बने।
सियासी सफर में उन्होंने अपने आपको इस तरह से तैयार कर लिया था कि जिसकी सरकार बनती दिखती उसी के सामने तुलसीदास की चौपाई ‘जेहि विधि होहि नाथ हित मोरा। करहुँ सो बेगि दास मैं तोरा।।’ को मंत्र भाव से सुनाने पँहुच जाते। उनके इस मंत्र को पहले कल्याण सिंह ने उपकृत किया और बाद में इस मंत्र के प्रभाव में आकर मुलायम सिंह यादव ने तो पूरा नाथ भाव ही ग्रहण कर लिया। इस मंत्र का असर सिर्फ मायावती पर नहीं हुआ। मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी के हित की अनदेखी करके राजा भैया का साथ दिया और उनके खिलाफ अपना प्रत्याशी उतारना बंद कर दिया और खुला समर्थन घोषित कर दिया, जिसका फायदा यह हुआ कि रघुराज प्रताप सिंह की जीत हार का अंतर चुनाव दर चुनाव बढ़ने लगा। 1993 के बाद से 2017 तक मुलायम सिंह ने राजा के खिलाफ समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी ना उतारकर राजा के किले अभेद्य बनने का काम कर दिया। 1996 के चुनाव से उन्होंने कुंडा विधानसभा के बगल की सीट बिहार (सुरक्षित) विधानसभा पर भी अपना समर्थित प्रत्याशी उतार दिया और हनक यहाँ भी काम कर गई और राजा के समर्थन से रामनाथ सरोज विधायक बन गए।
अब वह दो विधानसभाओं के मालिक बन गए तो निगाह जिला पंचायत, ब्लाक प्रमुख से लेकर पंचायती चुनाव की सीटों पर गई। ग्राम प्रधान, बीडीसी से लेकर जिला पंचायत सदस्य और ब्लाक प्रमुख जैसे पदों पर उन्होंने अपने उन गुर्गों को आसीन कराना शुरू किया जो पदासीन तो खुद रहें पर उनका रिमोट पूरी तरह से राजा के हाथ में रहे। जिसने विरोध करने की कोशिश की पहले उसके विरोध की ताकत का मूल्यांकन होता और अगर विरोध का स्वर कमजोर दिखता तो उसे विरोध करने के लिए छोड़ दिया जाता। परन्तु उस विरोध से नुकसान दिखता तो उसे बेंती (बेंती वह जगह है जहाँ राजा का घर है) से बुलावा आता और उस बुलावे की खबर का असर यह होता कि विरोध का सारा तेवर धराशायी हो जाता। दोनों ही विधानसभाओं की लोकतान्त्रिक व्यवस्था पूरी तरह से राजा की निरंकुश तानाशाही की भेंट चढ़ गई थी। राजा की मर्जी ही दोनों विधानसभाओं का भाग्य लिख रही थी।
सन 1999 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर उन्होंने अपने चचेरे भाई अक्षय प्रताप सिंह उर्फ गोपाल को प्रतापगढ़ का संसदीय प्रत्याशी बनवा दिया। पहली बार मुकाबला टक्कर का था सामने कालाकांकर रियासत के राजा और कांग्रेस के कद्दावर नेता की बेटी रत्ना सिंह थीं। रत्ना सिंह पहले भी इस सीट से सांसद रह चुकी थीं और पूरी दमदारी से चुनावी मैदान में थीं। चुनाव के दौरान दोनों गुटों में कई हिंसक झड़पें भी हुईं और राजा के खिलाफ भी कई मुकदमें हुए। इसी चुनाव से राजा भैया ने खुले तौर पर आपराधिक साजिशों को अंजाम देना शुरू किया। 2002 में भाजपा विधायक पूरन सिंह बुंदेला ने अपहरण और जान से मारने का आरोप लगाया, जिसमें पहली बार राजा की गिरफ़्तारी हुई। कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह और मुलायम सिंह यादव के सत्ताकाल में बुलंद हुई निरंकुशता पर मायावती की गाज गिरी। 2002 में सत्ता संभालने के छह माह के भीतर ही अपहरण के आरोप तथा अन्य मामलों को लेकर राजा भैया मय पिता उदय प्रताप सिंह और चचेरे भाई अक्षय प्रताप सिंह के जेल पँहुचा दिए गए।
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घर पर छापा पड़ा तो बड़ी मात्रा में असलहे बरामद हुए और 600 एकड़ के तालाब में नर कंकाल मिलने से पूरे प्रदेश में सनसनी फैल गई। उनके पूर्व पीआरओ ने भी खाद्य मंत्री रहते हुए अनाज घोटाले का आरोप लगाया। सरकार ने गैंगेस्टर और आतंकवाद निरोधक कानून पोटा की धाराओं में कार्रवाई की। तकरीबन 26 महीने जेल में रहना पड़ा। जेल जाते ही भाजपा ने राजा भैया से दूरी बना ली। इस दौर में मुलायम सिंह यादव एकमात्र आखिरी उम्मीद साबित हुए। समाजवादी पार्टी ने राजा भैया के समर्थन में धरना-प्रदर्शन किया। 2003 में मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बनने के 25 मिनट के भीतर राजा भैया पर से पोटा हटा लिया गया। पोटा हटाने के मामले में हाईकोर्ट ने रोंक लगा दी हालांकि 2004 में पोटा को ही एक कानून के रूप में रद्द कर दिया गया था और 2005 में जेल से रिहा होने के बाद राजा भैया को मुलायम सरकार में कैबीनेट मंत्री का पद दे दिया गया।
2007 में मायावती ने पुनः एक बार सरकार बनाई। 2007 से 2012 के दौरान लंबे समय बाद कुंडा और बाबागंज विधानसभा क्षेत्र में राजा के लोग शांत रहे और आम आदमी को फिर से अपनी रीढ़ सीधी करने का मौका मिला। 2012 में वापस समाजवादी पार्टी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई तब एक बार फिर निर्दलीय किन्तु सपा समर्थित राजा भैया अपने पुराने पोर्टफोलियो के साथ कैबिनेट मंत्री बनने में कामयाब हुए।
2 मार्च, 2013 को कुंडा सर्किल के हथगंवा इलाके के एक गाँव बलीपुर के प्रधान नन्हे यादव की चुनावी रंजिश में गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस घटना से आक्रोशित नन्हें समर्थकों ने आरोपी कयामत पाल के घर पर हमला कर दिया और घर में आग लगा दी। आक्रोशित भीड़ दूसरे आरोपी संजय उर्फ गुड्डू सिंह के घर की तरफ बढ़ रही थी तब कुंडा सीओ जियाउल हक मौके पर पँहुच गए और रोकने लगे। भीड़ और सीओ के बीच कहा-सुनी शुरू हो गई। बंदूक की छीना-झपटी में गोली चल गई और प्रधान के भाई सुरेश यादव की मौके पर मौत हो गई। भीड़ का आक्रोश बढ़ गया और भीड़ ने जियाउल हक पर हमला कर दिया। मार-पीट के साथ किसी ने गोली मार कर जियाउल हक की हत्या कर दी। इस मामले में सीओ की पत्नी परवीन आजाद ने राजा भैया और कारीबियों के खिलाफ केस दर्ज कराया।
इस मामले में विपक्ष ने जब सरकार को घेरना शुरू किया तब राजा को मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा। बाद में सीबीआई से क्लीन चिट मिलने से राजा को सपा ने पुनः मंत्री पद सौंप दिया। 2017 का चुनाव भी राजा भैया ने सपा के समर्थन से ही लड़ा था पर सपा को बुरी तरह से हार मिली, तब धीरे-धीरे राजा का झुकाव योगीजी की तरफ बढ़ने लगा।
बाद में राजा की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाकर अखिलेश ने राजा भैया से दूरी बना ली। यह दूरी अब तक भले ही राजा भइया के सियासी सफर को न रोक पाई हो, पर उनके खिलाफ छविनाथ यादव और गुलशन यादव को मजबूत सिपाही के रूप में खड़ा कर तलुओं में जलन तो पैदा कर ही दिया है। 2022 में गुलशन यादव ने जिस तरह से टक्कर दी उससे यह तो साफ हो गया है कि अब राजा के लिए सब कुछ पहले जैसा आसान नहीं रह गया है। 2022 में राजा को चुनाव जीतने के लिए जिस तरह से एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा उसने साफ कर दिया की आने वाला सफर आसान नहीं होने वाला है। कुंडा नगर पालिका चुनाव में गुलशन पहले भी राजा समर्थित उम्मीदवार के सामने अपने उम्मीदवार को जिता चुके हैं। जिला पंचायत में भी कई सीटें राजा से सपा छीन चुकी है। पार्टी बना कर भी वह अपने पुराने विधानसभा क्षेत्र के बाहर अपनी जीत की कोई जमीन नहीं तैयार कर पा रहे हैं। सियासी सफर भले ही जारी है पर गुलशन यादव और छविनाथ यादव ने उसे कठिन बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। जीवन के निजी मोर्चे पर भी 28 साल के वैवाहिक जीवन के बाद तलाक की अर्जी भी दाखिल हो चुकी है।
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इन सबके बावजूद सार्वजनिक जीवन में राजा भइया की विनम्रता, भाषा का चयन, साहित्य की समझ, कबीर, तुलसी, रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं के उद्धरण के साथ मुहावरे और लोक कथाओं का जरूरत के अनुरूप प्रयोग करना उन्हें अन्य बाहुबली नेताओं से अलग बनाता है। शायद ही किसी ने उन्हें कभी किसी मंच पर धैर्य खोते हुए या किसी के खिलाफ कोई अपशब्द बोलते हुए सुना गया हो। यह सोचना भी मुश्किल लगता है कि कोई बाहुबली, राजनीति और गुंडई से अलग टेक्नोलॉजी, सिनेमा, साहित्य, चित्रकला, वास्तुकला, ऑटो सेक्टर और पालतू जानवरों के साथ उन्नत कृषि जैसे तमाम विषयों पर भी दावे के साथ बात कर सकता है। ये कुछ बातें उनके विरोधियों को भी उनसे सीखनी चाहिए।
कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।
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