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विकास के नाम पर भू-अधिग्रहण के अनुभव, परिदृश्‍य और सबक (1)

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 28 जून, 2022 को जल-जंगल-ज़मीन की कॉर्पोरेट लूट, दमन और विस्थापन के खिलाफ जनसंघर्षों का एक दिवसीय राज्य सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में देशभर के 15 राज्यों (छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, ओड़िशा, जम्मू एंड कश्मीर, दिल्ली, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु और उत्तराखंड) से 500 से ज्यादा प्रतिनिधियों ने हिस्सेदारी की। सम्‍मेलन के अंत में नौ प्रस्‍ताव पारित किए गए। शुरुआती तीन प्रस्‍ताव छत्तीसगढ़ केंद्रित होते हुए भी सामान्‍य प्रकृति के हैं, जिनमें विकास के नाम पर जमीन की लूट रोकने, पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पेसा कानून और भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 के अनुपालन की मांग दर्ज है। बाकी प्रस्‍ताव भी सामान्‍य प्रकृति के हैं। ये सभी प्रस्‍ताव मोटे तौर पर उन्‍हीं संकल्‍पों का दुहराव हैं जो आज से कोई आठ साल पहले ओडिशा के जगतसिंहपुर स्थित ढिंकिया में हुए जनसंघर्षों के दो दिवसीय सम्‍मेलन में पारित किए गए थे। तीन हिस्सों में प्रकाशित की जा रही अभिषेक श्रीवास्तव की लंबी रिपोर्ट का पहला भाग।

 

यहां संयोगों की उपेक्षा नहीं की जा सकती- कोरियाई कंपनी पास्‍को द्वारा जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन के आलोक में हुए ढिंकिया सम्‍मेलन में ही यह तय किया गया था कि तमाम जनसंघर्षों को अब ज़मीन के मसले पर केंद्रित करना होगा।भूमि अधिग्रहण अध्‍यादेश के खिलाफ देशभर से जो आवाज़ एक साथ उठी और जिसने सभी वामपंथी दलों को भी एक मंच पर आने को बाध्‍य कर दिया, वह ढिंकिया सम्‍मेलन और उसके बाद हुए छोटे-छोटे राज्‍यस्‍तरीय सम्‍मेलनों की ही देन था।इसके बरअक्‍स रायपुर सम्‍मेलन की सामान्‍य पृष्‍ठभूमि साल भर दिल्‍ली की सीमा पर चला किसान आंदोलन और तात्‍कालिक पृष्‍ठभूमि हसदेव, सिलगेर, बस्‍तर और कोरबा में विकास के नाम पर हो रहा जमीन अधिग्रहण है।

ढिंकिया सम्‍मेलन के बाद जनसंघर्षों के बीच जमीन के मसले पर संघर्ष-समन्‍वय कायम करने के लिए भूमि अधिकार आंदोलन नाम का जो विशाल मंच बना था, रायपुर सम्‍मेलन उसी की पहल पर हुआ है। लिहाजा, भूमि अधिग्रहण और उसके खिलाफ राष्‍ट्रव्‍यापी संघर्षों को समझने के लिए भूमि अधिकार आंदोलन एक निरंतरता की सुविधा मुहैया कराता है। इसके लिए जरूरी है कि हम ओडिशा से ही भूमि अधिग्रहण की स्थिति का जायजा लेने की शुरुआत करें जहां भूमि अधिग्रहण अध्‍यादेश के विरोध की ज़मीन तैयार की गयी थी।

केंद्र सरकार ने 2015 से कानूनों में संशोधन करके लोगों की सहमति को दरकिनार करते हुए अडानी और अन्य कंपनियों को कीमती कोयला-समृद्ध भूमि सौंप दी थी। हसदेव अरण्य में सात कोयला ब्लॉक आवंटित किए गए हैं।जिन सार्वजनिक उपक्रमों को कोयला ब्लॉक आवंटित किए गए हैं, उन्होंने बड़े कॉरपोरेट घरानों के साथ माइन डेवलपर कम ऑपरेटर (एमडीओ) अनुबंध पर हस्ताक्षर किए हैं, जिससे वे पिछले दरवाजे से खदानों के वास्तविक मालिक बन गए हैं।

 भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन का उलटा चक्र

भूमि अधिकार आंदोलन की स्‍थापना के बाद इन आठ वर्षों में क्‍या-क्‍या हुआ, इसका मूल्‍यांकन करें तो 2015 में भूमि अधिग्रहण अध्‍यादेश के सफल विरोध के अलावा बहुत कुछ सामने नहीं आता है। वास्‍तव में, आठ साल पहले की सफलताएं भी आज नाकामियों में तब्‍दील हो रही हैं। जिस ढिंकिया गांव से यह आंदोलन पनपा था, वहां कोरियाई कंपनी पास्‍को के जाने के बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है। पॉस्को के जाने और उसकी जगह जिंदल स्टील वर्क्स के आने के बाद से पूर्वी मोर्चे पर सबकुछ अशांत है।

पूर्वी तट पर 2013 में साइक्लोन फैलिन, अक्टूबर 2014 में साइक्लोन हुदहुद, मई 2019 में साइक्लोन फानी, नवंबर 2019 में साइक्लोन बुलबुल, मई 2020 में साइक्लोन अम्फन और दिसंबर 2021 में साइक्लोन जवाद आया। इन चक्रवातों ने जहां भी तबाही मचाई, पान की खेती करने वाले इस क्षेत्र के छोटे उत्पादक और मछुआरे हर बार बुरी तरह से प्रभावित हुए।जैसे ही साइक्लोन फानी पुरी जिले में ज़मीन से टकराया, उसने कई घरों और पान के खेतों को नष्ट कर दिया। कुछ महीनों बाद साइक्लोन बुलबुलने बांग्लादेश की ओर बढ़ते हुए इस क्षेत्र को फिर से तबाह कर दिया। साइक्लोन अम्फन ने केंद्रपाड़ा, जगतसिंहपुर, बालासोर और भद्रक को सबसे अधिक प्रभावित किया। यहां तक ​​कि जैसे ही यह अधिक रोष के साथ पश्चिम बंगाल की ओर बढ़ा, इसने फसलों और पशुओं को बहुत नुकसान पहुंचाया। ज्वार की लहरों ने तटबंध तोड़ दिए और खारा पानी हजारों हेक्टेयर फसलों में चला गया।जब लोग कोविड लॉकडाउन के दौरान पान के पत्तों की बिक्री और परिवहन के कारण हुए अभूतपूर्व आर्थिक नुकसान से उबर रहे थे, तो जिला प्रशासन ने जिंदल स्टील वर्क्स की ओर से आर्थिक संकट के कारण उनके भूखंडों को खरीदने के प्रस्ताव के साथ उनसे संपर्क किया।

जब 2005 में पॉस्को परियोजना के लिए आवश्यक भूमि के अधिग्रहण हेतु ओडिशा सरकार में एमओयू पर दस्तखत किए तो यह 4,004 एकड़ जमीन थी, जिसमें से 3,000 एकड़ वन भूमि के रूप में वर्गीकृत थी। ढिंकिया चारि देश के लोगों का सामूहिक प्रतिरोध प्रशासन के लिए सबसे बड़ी बाधा बन गया। सन 2013 तक कंपनी ने कारख़ाने की उत्पादन क्षमता को 12 एमटीपीए से घटाकर 8 एमटीपीए कर दिया था और इसकी भूमि की आवश्यकता को 2,700 एकड़ तक कम कर दिया गया था, जिसे औद्योगिक अवसंरचना विकास निगम (इडको) द्वारा अधिग्रहित किया गया था। यह बड़े पैमाने पर गोबिंदपुर, नुआगांव और गडकुजंगा से आया था। पोस्को के लिए ढिंकिया अभेद्य बना रहा। प्रस्तावित जिंदल स्टील परियोजना, जिसमें एक बिजली संयंत्र और एक सीमेंट कारखाना शामिल है; साथ ही, ओडिशा आर्थिक गलियारे (एसईज़ेड) सहित अन्य बड़ी योजनाओं के लिए और भी अधिक भूमि अधिग्रहण की आवश्यकता पड़ेगी।

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यहां के लोगों को नवंबर 2017 में एक और स्टील प्लांट के प्रवेश के बारे में तब पता चला जब ओडिशा सरकार द्वारा पॉस्को को आधिकारिक तौर पर बाहर निकाले जाने की घोषणा करने के सात महीनों के अंदर जमीन के चारों ओर चारदीवारी का निर्माण शुरू कर दिया गया। 19 अक्टूबर, 2019 को ओडिशा स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने 22 नवंबर को होने वाली जनसुनवाई की घोषणा की। इसके अनुसार, जिंदल स्टील वर्क्स उत्कल लिमिटेड जगतसिंह पुर जिले की इरास्मा तहसील में जटाधारी नदी के मुहाने पर 52 एमटीपीए क्षमता वाले कार्गो को संभालने के लिए मल्टी-कार्गो ऑल-वेदर कैप्टिव जेटी विकसित करने जा रहा था, लेकिन पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार 13.2 एमटीपीए (मिलियन टन प्रतिवर्ष) कच्चे स्टील, 900 मेगावाट कैप्टिव पावर प्लांट और 10 एमटीपीए सीमेंट प्लांट की पर्यावरण मंजूरी के लिए जनसुनवाई की जा रही थी। दिनांक 4 दिसंबर 2021 की रात जब ओडिशा का समूचा तटीय इलाक़ा चक्रवात जवाद की चेतावनी के तहत था, पुलिसकर्मी पंचायत समिति सदस्य देवेंद्र स्वाईं के घर पहुँच गए, जो जिंदल स्टील वर्क्स का विरोध करने वाले प्रमुख नेता हैं।

14 जनवरी, 2022 की सुबह ओडिशा पुलिस ने तब दहशत फैला दी जब उसने अपने खेतों को देखने जा रहे गाँववासियों की एक रैली को ज़बरन रोका। लोगों ने सशस्त्र पुलिस का डटकर विरोध किया और उनसे आगे निकल गए। पुलिस की इस कार्यवाही सबसे बर्बर कार्यवाहियों में शुमार की जाएगी। उसने प्रदर्शनकारियों पर लाठियों की बारिश की, लोगों को अपने बूटों तले कुचला और उनके साथ मार-पिटाई कर क़हर बरपा दिया।इस क़हर का नतीजा यह निकला कि कुछ समय के लिए गलियां सूनी हो गईं और भयानक सन्नाटा छा गया। स्कूली छात्राओं को पीटा गया। कुछ के सिर फोड़ दिए गए।महिलाओं को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया। दिन के अंत में पुलिस ने गाँव में फ्लैग मार्च निकाला।छह लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें निम्‍न शामिल हैं:

जन आंदोलन के नेता देबेंद्र स्वाईं; कैम्‍पेन अगेंस्‍ट फैब्रिकेटेड केसेज़ (भुवनेश्‍वर) के नरेंद्र मोहंती, जो क्षेत्र के दौरे पर आए थे; और मुरलीधर साहू, निमाई मल्लिक, मंगुली कंडी और त्रिनाथ मल्लिक (मुकदमा संख्या 21/22 जीआर-34/22 है, जिसमें आईपीसी, सीएलए और पीपीडी पीएक्ट की धाराएं 307, 147, 148, 323, 294, 324, 354, 336, 325, 353, 332, 379, 427, 506, 186 और धारा 149)। उनके रिश्तेदारों को बिना किसी सूचना के पुलिस वाहनों में जबरन घसीटकर भरा गया, अज्ञात स्थान पर रखा गया और 15 जनवरी की तड़के मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया।ऐसा जान-बूझकर किया गया ताकि उन्हें मेडिकल जांच की मांग करने या पुलिस हिरासत के दौरान किसी को दुर्व्यवहार से अवगत कराने से रोका जा सके। पूरे एक हफ्ते तक ढिंकिया तक पहुँचना दुर्गम बना रहा।

15 जनवरी को त्रिलोचन पुर की ओर से ढिंकिया के बाहर ओडिशा-एसकेएम और उसके समर्थकों की एक टीम को उस समय रोक दिया गया जब वे लाठीचार्ज की घटना की जांच के लिए इलाके में घुस रहे थे और ग्रामीणों को समर्थन और एकजुटता प्रदान कर रहे थे। 50-60 से अधिक लोगों ने टीम को रास्ते में रोका, गाली दी और आरोप लगाया कि मानवाधिकार रक्षक गांववालों के लिए परेशानी पैदा करते हैं। वे लोग धमकी दे रहे थे और अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे। उनके मुंह से शराब की बदबू आर ही थी। टीम में शामिल थे: महेंद्र परिदा, प्रफुल्ल सामंत राय, ज्योतिरंजन महापात्र, प्रदीप्त नायक, संतोष राठा, जमेश्वर सामंत राय, सुजाता साहनी और रंजना पाढ़ी। इसके बाद 21 जनवरी को 13 विपक्षी दलों की 20-सदस्यीय एक टीम ढिंकिया पहुंची और उसी गांव के चौराहे पर लोगों से मुलाकात की जहां विरोध सभाएं हो रही थीं। अलगाव की इस अवधि के दौरान अनुभव किए गए आतंक और डराने-धमकाने की बात करते हुए महिलाएं रो पड़ीं।

दो महीने बाद जिस दिन नरेंद्र मोहंती ज़मानत पर बाहर आए, भुबनेश्‍वर में इस लेखक की उनसे विस्‍तृत मुलाकात और बातचीत हुई। उसी शाम प्रफुल्‍ल सामंतराय और अन्‍य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ लोहिया अकादमी में बैठक हुई। बातचीत से पता चला कि ढिंकिया सम्‍मेलन के बाद से बहुत कुछ यहां बदल चुका था। जमीन अधिग्रहण के नामपर‍ जि‍तना दमन पास्‍को ने नहीं किया था उससे कई गुना ज्‍यादा जिंदल ने कहर बरपाया, लेकिन ज्‍यादा अहम बात यह है कि जो नेता और आंदोलन 2014 में ओडिशा के तटीय क्षेत्र में इसके खिलाफ आंदोलित थे उनमें से ज्‍यादातर आज पूरी तरह शांत हो चुके हैं। इनमें बार-बार कुछ आंदोलनकारी नेताओं का नाम प्रमुखता से आता है।

 जमीन अधिग्रहण का राष्‍ट्रीय परिदृश्‍य

ओडिशा के ढिंकिया में पॉस्‍को के कामयाब आंदोलन से लेकर दमन के ताज़ा दौर तक उलटा घूमा चक्र बताता है कि बीते आठ वर्षों में आंदोलन कमजोर हुए हैं और सरकारें उग्र हुई हैं। अकेले ढिंकिया नहीं क्‍यों, ओडिशा में नियमगिरि का कामयाब आंदोलन जिसने 2013 में पल्‍ली सभाओं की सुनवाई के माध्‍यम से वेदांता जैसी कंपनी को बार का रास्‍ता दिखायाऔर जिसकी कामयाबी का सेहरा राहुल गांधी ने अपने सिर बांधा, वो भी आज तक संकटग्रस्‍त है। 2013 के बाद 2017 में वहां डोंगरिया कोंड आदिवासियों को नक्‍सली बताने का नया चक्र शुरू हुआ और हाल तक गिरफ्तारियां होती रही हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 2017 की पनी एक रिपोर्ट में नियमगिरि सुरक्षा समिति को माओवादी समूह घोषित कर दिया था, जिसके बाद सरकार को आदिवासियों का दमन करने की खुली छूट मिल गयी। नियमगिरि पहाड़ी तक जबरन सड़क बनाएजाने के अलावा यहां राज्‍य सरकार द्वारा कानूनी औजारों का इस्‍तेमाल कर के नये सिरे से बाक्‍साइट खनन के प्रयास किए गए और सुप्रीम कोर्ट तक को गुमराह किया गया। लांजीगढ़ में वेदांता की रिफाइनरी अब तक मौजूद है जो बार-बार आदिवासियों को सशंकित करती है कि उन्‍हें कभी भी उनके कुदरती पर्यावास से खदेड़ा जा सकता है।

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यह आंदोलन अभी थमा नहीं था कि खंडुआलमाली पर्वतों में संघर्ष का एक नया मोर्चा खुल गया। कालाहांडी जिले में स्थिति खंडुआलमाली पहाडि़यों में बॉक्‍साइट खनन के लिए ओडिशा सरकार ने जुलाई 2021 में नोटिस जारी करते हुए नीलामी की निविदा निकाली। इनमें कुल सात खदानें हैं जहां ताज़ा खनन प्रस्‍तावित है और चार ऐसी खदानें हैं जिनका नवीनीकरण होना है। इसका विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि कुल 11 खदानों को मिलाकर 4000 हेक्‍टेयर वनक्षेत्र के समाप्‍त हो जाने पर खतरा मंडरा रहा है। इस मामले में न तो यहां कोई ग्राम सभा हुई है और न ही प्रभावितों से कोई परामर्श किया गया है। नियमगिरि संघर्ष के दौरान निर्मित नियमगिरि सुरक्षा समिति के पुराने आंदोलनकारी अब खंडुआलमाली के मोर्चे पर संघर्ष में जुट गए हैं।

नीति आयोग की एक ताज़ा रिपोर्ट (नेशनल मल्‍टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्‍स बेसलाइन रिपोर्ट) कहती है कि ओडिशा की 29.4 प्रतिशत आबादी बहुआयामी रूप से गरीब है। रिपोर्ट का यह आंकड़ा चौंकाने वाला है क्‍योंकि इस राज्‍य की 40 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जाति और जनजाति से आती है और यहां के 62 आदिवासी समुदायों में से 13 को ‘विशिष्‍ट रूप से अरक्षित समूह’ घोषित किया जा चुका है।

हसदेव अरण्य क्षेत्र के वनवासी लोग एक दशक से अपने प्राचीन जैव-विविधता से भरपूर जंगलों और उनके जीवन की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं

बिलकुल यही स्थिति छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्‍य और सिलगेर में कायम है, हालांकि दोनों जगहों पर अलग-अलग कारणों से आदिवासियों की जमीनें ली जा रही हैं। ‘छत्तीसगढ़ के फेफड़े’ के रूप में जाना जाने वाला हसदेव अरण्य का जंगल मध्य भारत के सबसे बड़े अक्षुण्ण घनेवन क्षेत्रों में से एक है जो 170,000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है।हसदेव अरण्य में खनन से भारत के सबसे खूबसूरत जंगलों और पारिस्थितिकीय रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक बेहद महत्त्वपूर्ण वन का नुकसान होगा, जिसे सरकार ने खुद नीतिगत रूप से खनन के लिए ‘नो-गो’ या ‘इनवियोलेट’ माना था। यह हसदेव-महानदी नदी प्रणालियों के जलविज्ञान पर अप्रत्याशित प्रभाव डालेगा जिसका पारिस्थितिकी और आजीविका-जैसे मत्स्यपालन और कृषि-पर विनाशकारी और बेहद प्रतिकूल प्रभाव होगा। यह मध्यभारत में बांगो जलाशय और तीन लाख हेक्टेयर सिंचित दो-फसली कृषि भूमि को पूरी तरह बाधित करेगा। खनन से जैवविविधता और वन्यजीवों (हाथी, तेंदुआ और भालू जैसी संरक्षित प्रजातियों) को बड़ा नुकसान होगा और मानव-वन्यजीव संघर्ष में अनियंत्रित बढ़ोतरी होगी। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए यह जीवन, आजीवि का और पहचान कीअ पूरणीय क्षति होगी।

हसदेव अरण्य की ग्राम सभाएं अपने जल-जंगल-ज़मीन को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और राज्य व केंद्र सरकारों की कॉर्पोरेटपरस्त अनीतिगत कार्यवाहियों के खिलाफ लंबे समय से खड़ी रही हैं। हसदेव अरण्य क्षेत्र के आदिवासी और अन्य वनवासी लोग एक दशक से अपने प्राचीन जैव-विविधता से भरपूर जंगलों और उनके जीवन, आजीविका और पहचान की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो कोयला खनन के विस्तार से खतरे में है। पांचवीं अनुसूची क्षेत्र की ग्रामसभाओं ने खनन गतिविधियों का विरोध करने के लिए नियमित रूप से पेसा अधिनियम 1996, वनअधिकार अधिनियम 2006 और संविधान की अनुसूची 5 के प्रावधानों द्वारा सुनिश्चित अपने कानूनी और संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग किया है लेकिन व्यापक प्रतिरोध और आधिकारिक तौर पर इन वनों के संरक्षण की आवश्यकता के बावजूद राज्य व केंद्र सरकार द्वारा खनन गतिविधियों की अनुमति दी गई है।

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केंद्र सरकार ने 2015 से कानूनों में संशोधन करके लोगों की सहमति को दरकिनार करते हुए अडानी और अन्य कंपनियों को कीमती कोयला-समृद्ध भूमि सौंप दी थी। हसदेव अरण्य में सात कोयला ब्लॉक आवंटित किए गए हैं।जिन सार्वजनिक उपक्रमों को कोयला ब्लॉक आवंटित किए गए हैं, उन्होंने बड़े कॉरपोरेट घरानों के साथ माइन डेवलपर कम ऑपरेटर (एमडीओ) अनुबंध पर हस्ताक्षर किए हैं, जिससे वे पिछले दरवाजे से खदानों के वास्तविक मालिक बन गए हैं। अकेले छत्तीसगढ़ में 2015 और 2020 के बीच 7.6 करोड़ टन सालाना (एमटीपीए) की राशि के 7 कोयला ब्लॉक इस मार्ग के माध्यम से अडानी को सौंपे गए हैं ताकि अडानी इन ब्लॉकों का खनन करके मुनाफा कमा सके। ओडिशा और मध्यप्रदेश जैसे अन्य राज्यों ने पहले ही अडानी को सरकारी स्वामित्व वाली खदानों के ‘खदान संचालक’ बनाकर भारत के कोयला क्षेत्र के संचालन को नियंत्रित करने में सक्षम करते हुए 25 एमटीपीए तक दे दिया है।अडानी के खनन कार्यों को सुविधाजनक बनाने के लिए सरकार पेसा और वनअधिकार अधिनियम के तहत “ग्रामसभा” की सहमति की आवश्यकता को दरकिनार कर रही है और बिना परामर्श के हीमदनपुर दक्षिण, गिधमुडीपटुरिया, केतेएक्सटेंशन और परसा कोयला ब्लॉक के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए अधिसूचना जारी की है।

छत्तीसगढ़ के मुख्‍यमंत्री भूपेश बघेल

दुर्भाग्य से, पूर्व राजनीतिक प्रतिबद्धता के बावजूद छत्तीसगढ़ की सरकार स्पष्ट रूप से अवैध और अलोकतांत्रिक इन प्रक्रियाओं के प्रति मूकदर्शक बनी रही थी। अक्‍टूबर में प्रभावित लोगों ने 300 किलोमीटर दूर स्थित रायपुर तक पदयात्रा निकाली और उसके बाद छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के प्रतिनिधिमंडल ने दिल्‍ली आकर प्रेस कॉन्‍फ्रेंस करने के बाद राहुल गांधी से मुलाकात की, तब जाकर सूरत में थोड़ा बदलाव आया। दबाव में आकर आनन-फानन में छत्तीसगढ़ के मुख्‍यमंत्री भूपेश बघेल ने जून 2022 के पहले सप्‍ताह में बयान दिया कि पेड़ तो क्‍या, हसदेव में एक डाल तक नहीं काटी जाएगी। इसके बाद हसदेव में खनन को उन्‍होंने रोक दिया। सिलगेर में हालांकि भूपेश बघेल ऐसा कुछ नहीं कर सके क्‍योंकि वहां मामला खनन के माध्‍यम से ‘विकास’ का नहीं है बल्कि केंद्रीय सुरक्षा बलों की छावनियां बनाये जाने का है, जिसका विरोध स्‍थानीय आदिवासी एक साल से कर रहे हैं। यह जमीन की लूट के माध्‍यम से विकास का ही एक और चेहरा है, जो सैन्‍यकरण के रूप में हमारे सामने आता है।

क्रमशः…

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