सोनभद्र यात्रा – 3
उम्मीद करता हूँ कि सोनभद्र की मेरी इस यात्रा की पहली और दूसरी शृंखला अब तक आप पढ़ चुके होंगे नहीं पढे हों तो नीचे दिए लिंक पर जाकर इसे देख सकते हैं।
द्वतीय शृंखला का अंतिम अंश
फिलहाल इतनी यात्रा के बाद रात गहरा आई है और कल सुबह इस शहर के कुछ विशिष्ट लोगों से भी मिलना है। डॉ अर्जुनदास केशरी जैसे लाइव लीजेंड से मिले बिना भला कैसे लौटा जा सकता है। यहाँ के ग्रामीण जीवन और सामाजिक अर्थव्यवस्था को भी उसके पूरे खुरदुरे पन के साथ महसूस करना है। मुनीर बख्श आलम साहब के उस घर भी जाना है जहां से उन्होंने साझी विरासत की आवाज बुलंद की। उनके परिवार से भी मिलना है। उस इत्र की खुशबू भी महसूस करनी है जिसका जिक्र बहुतों ने किया है।
गतांक से आगे
सोनभद्र। उम्मीदों भरा दिन और वात्सल्य भरी रात बीत चुकी थी। नई सुबह का उजास नए उल्लास की तरह मेरे हिस्से आया था। आज पहली मुलाक़ात डॉ अर्जुनदास केसरी के साथ तय थी। इस मुलाक़ात के लिए शिवेंद्र जी ने सारी व्यवस्था पहले से ही कर रखी थी। अमरनाथ सिंह ‘अजेय’ को भी उन्होंने बुला लिया था। अमरनाथ अजेय ने डॉ अर्जुनदास के समग्र सृजन पर समीक्षकीय लेखन किया है, जो लोक का आलोक नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित है। मैं अपनी दृष्टि से डॉ अर्जुनदास के सृजन संसार को तो देखना चाहता था पर समानान्तर रूप से उन दृष्टियों के सहारे भी डॉ केशरी को समझना चाहता था। जो लंबे समय से डॉ केशरी के रचना संसार की तहें खोलने का यत्न कर रही हैं। फिलहाल अजेय जी किस तरह से डॉ केशरी को महसूस करते हैं उस पर काफी कुछ बातें हुई। चूकि पूर्व दिवस में ही अमरनाथ अजेय जी द्वारा संकलित पुस्तक अप्रत्याशित का विमोचन हुआ था तब यह भी ठीक लगा कि इसी समय उनसे शिवेंद्र जी के उस साहित्य पर भी बात कर ली जाये जिसका समीक्षकीय संकलन उन्होंने प्रद्युमन तिवारी और प्रभात सिंह चंदेल के साथ मिलकर किया है।
डॉ अर्जुनदास केशरी के सृजन परिदृश्य से मैं थोड़ा सा परिचित था, ‘विंध्य क्षेत्र का सांस्कृतिक वैभव, करमा, भारत की विशिष्ट विभूतियाँ आदि किताबें काफी पहले ही पढ़ चुका था पर लोक पर तो डॉ अर्जुनदास केशरी जितना काम शायद ही किसी और ने किया हो यह भी पता था। इसलिए जिज्ञासाएं बहुत सी थी और इत्तफाक से किसी पूर्व सर्ग की तरह मेरे पास शिवेंद्र जी थे और अब अजेय जी भी आ गए थे। शिवेंद्र जी से बात करते हुये कुछ गिरहें खुल चुकी थी और अब अजेय जी डॉ केशरी के व्यक्तित्व की विराटता का आख्यान बता रहे थे। तब तक ‘माता जी(शिवेंद्र जी की धर्मपत्नी)’ ने सब्जी और गर्मा-गर्म पराठा भी तैयार कर दिया था। सुबह की गुलाबी ठंडक फिजा और मन दोनों पर मखमली तौर पर तारी थी, ऐसे में गर्मा-गर्म पराठा सुबह की सबसे शानदार नेमत की तरह मेरे हिस्से में आया हुआ था। फिलहाल नाश्ता पूरा हुआ और हमारा कारवां शिवेंद्र जी, अजेय जी, प्रभात और मैं डॉ केशरी के घर की ओर चल पड़े। फासला चंद मिनट का था पर जिन गलियों से होकर हम जा रहे थे वह शायद अभी मुंह ही धुल रही थी। बहुत रौनक नहीं थी। आदमी के बच्चों के साथ, मुर्गियाँ और और बकरियाँ गली के बीराने और खालीपन को पूरी मस्ती के साथ भर रही थी।
अब हम डॉ केशरी के दरवाजे पर थे। घर के अगले भाग में एक बड़ी सी स्टेशनरी की दुकान थी जिसमें डॉ केशरी के पौत्र बैठे हुये थे। उस दुकान से गुजरते हुये हम घर के अंदर दाखिल हुये जहां डॉ केशरी बैठे हुये थे। अमरनाथ अजेय ने उनसे परिचय करवाया। यथोचित स्थान पर हम सब बिराजमान हो चुके थे। समय कम था इसलिए बिना ज्यादा देर किए मैंने अपना कैमरा आन कर दिया था। सबसे पहले मैं यह जानना चाहता था कि लोक के साथ उनके जो सरोकार हैं वह उन्हें उनके लोक सौंदर्य के साथ बनाए और बचाए रखने के हैं या फिर उन्हें उनकी अज़ाब सी जिंदगी से बाहर लाकर समाज की मूलधारा में लाने के हैं? डॉ साहब ने बताया कि वह इन दोनों पहलुओं से बराबर का सरोकार रखते हैं। उनका कहना था कि मैं सबसे पहले उस प्रयास में लगा कि लोक में ध्वनित होते संगीत, नृत्य और कला के परिदृश्य को सहेज लूँ और इसी अपेक्षा के साथ आदिवासी समाज तथा समाज के अन्य जीवन को करीब से देखना शुरू किया। उस स्थिति में यह भी बोध हुआ कि इनकी कला का जो सौंदर्य है वह सौंदर्य इनके जीवन का नहीं है इसे भी मैंने अपनी किताबों में उठाया है पर मेरा फोकस कला की परिधि के भीतर ज्यादा था। मैं चाहता था और आज भी चाहता हूँ कि लोक के बैभव को वह लोग भी जानें जो खुद को सभ्य समाज का हिस्सा बताते हुये लोक की वंचना का मज़ाक उड़ाते हैं।
डॉ अर्जुनदास केशरी लोक और लोक रागों के साथ पूर्वाञ्चल के सांस्कृतिक वैभव पर अब तक किताबों का आधा शतक पूरा कर चुके हैं। लोक महाकाव्य के रूप में उल्लेखित लोरिकायन उनकी बहुचर्चित रचना है। आदिवासियों के नृत्य करमा से कलापारखियों को परचित कराने में डॉ केशरी का योगदान अविस्मरणीय है। करमा आदिवासियों का सबसे महत्वपूर्ण नृत्य है। डॉ केशरी आदिवासी जीवन में करमा की भूमिका को विस्तार से बताते हैं तब ऐसा लगता है कि देर तक उनके अनुभूत सौंदर्य और जीवन को सुनते रहा जाय। वह इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि आदिवासी जीवन में लैंगिक असमानता नहीं है। सुख के साधन भले ही कम हैं पर स्वतन्त्रता के सरोकार ज्यादा हैं।
आदिवासी जीवन शीर्षक से लिखित किताब में उन्होंने आदिवासी जीवन को बहुत ही बारीकी से दिखाया है। उसमें कला का उछाह है तो भूख की वेदना भी है। महुए और ताड़ी की तीखी और मादक गंध है तो प्रकृति के साथ एक बहुत ही रूमानी अन्योनाश्रित रिश्ता भी दिखता है।
डॉ केशरी पिछले 60 साल से लोक पर कार्य कर रहे हैं। इस यात्रा में वह लोक में आए बदलाव की बात पूछने पर कहते हैं कि बदलाव तो बहुत आया है, जो नहीं आना चाहिए था वह भी आया है, क्योंकि जो मूल संस्कृति है, जीवन है वह प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक के जीवन में बहुत कृत्रिमता आ गई है, मैंने सांस्कृतिक केंद्र इलाहाबाद के साथ काम करते हुये पलामू, रोहताश सलूजा, सीधी, मिर्जापुर, सोनभद्र के हर जंगल का चप्पा-चप्पा देखा। अब विकास के नाम पर बहुत बदलाव हों चुका है। यह अलग बात है उनके विकास के नाम पर दूसरे लोग ज्यादा विकसित हों गए।
साथ में मौजूद शिवेंद्र जी डॉ केशरी के बारे में अपनी टिप्पणी करते हुये कहते हैं कि डॉ साहब ने आदिवासी जीवन के सांस्कृतिक पक्ष को अपने लेखन का विषय बनाया पर यह भी बताया कि सोनभद्र के आदिवासी हैं कहाँ, किस हालत में हैं, उनका सामाजिक-आर्थिक जीवन किस तरह बदल रहा है। वह डॉ केशरी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुये बताते हैं कि डॉ केशरी कभी आलोचनात्मक हुये ही नहीं, यदि यह आलोचक होते तो संस्कृति-सभ्यता को भी आलोचना की दृष्टि से देखते। वह कहते हैं कि इनका मूल व्यक्तित्व प्रशंशा मूलक है, इन्होंने कभी किसी की आलोचना की ही नहीं।
इस पर मैं जब वापस डॉ केशरी से यह कहता हूँ कि क्या ऐसा नहीं है सिर्फ प्रशंशा की वजह यह तो नहीं है कि ऊपरी आवरण से प्रभावित होते रहे हों और गंभीरता से विषयों के अंदर प्रवेश ही नहीं किया हो? इस पर वह कहते हैं कि देखिये मेरा आशय सृजन को लेकर अलग है। इस पर विषय से थोड़ा अलग जाकर बात करते हुये वह लोरिकायन और विजयमल के संग्रह कि परिस्थितियों और संघर्ष के हवाले से अपने लोक के सरोकार को स्पष्ट करते हैं। यहाँ सहज ही यह समझ में आ जाता है कि उनके सरोकार जीवन को कला और प्रकृति के करीब से देखने के रहे हैं। वह संघर्ष में गहरे तक उतरते हैं पर उनका यत्न किसी भी सूरत में लोककला के परिदृश्य को संजो लेने का रहता रहा है। बावजूद इसके मैं उनसे ही पूछता हूँ कि आप लोक को बचाने की जरूरत ज्यादा महसूस करते हैं या लोककला को? वह कहते हैं, ‘दोनों को, दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। वापस पूछता हूँ कि दोनों में से क्षरण किसका ज्यादा हो रहा है? वह कहते हैं कि दोनों का ही, विकास की संस्कृति जिस तरह से लोक पर थोपी जा रही है उससे दोनों अपना मूल स्वरूप खो रहे हैं। यहीं वह आदिवासी जीवन के उस सबसे बड़े संकट की गांठ भी खोलते हैं कि किस तरह सरकार ने आदिवासी जीवन को विकसित जीवन घोषित कर उनके वह तमाम अधिकार छीन लिए जिसमें वह आदिवासी जीवन के हक के तहत जंगल के मालिक थे पर, अब औद्योगिक विकास के लिए सरकारें जंगल की ज़मीनें उद्योगपतियों को बेंच रही हैं और अपने ही घर में आदिवासी बेदखल किए जा रहे हैं।
फिलहाल डॉ केशरी भविष्य को लेकर चिंतित हैं वह कहते हैं कि मैं भविष्य को लेकर भयान्वित हूँ, नई पीढ़ी इस पूरे लोक को लेकर गंभीर नहीं दिखती है। कोई वहाँ जाकर शोध नहीं करना चाहता है। बहुत सी बाते हैं जिन पर डॉ केशरी से बात की जानी चाहिए। उन्होंने समाज के सबसे हाशिये के जीवन को बहुत करीब से जिया है। वंचित जीवन की त्रासदी कि एक सघन समझ है उन्हें।
अमरनाथ अजेय ने डॉ अर्जुनदास केशरी के समग्र सृजन पर समीक्षकीय लेखन किया है वह डॉ केशरी को लेकर बताते है कि डॉ केशरी का आकाश बहुत बड़ा है, साहित्य का भी समाज का भी। यह अपने मूल स्वभाव में शिक्षक हैं। उन्होने जिस निरंतरता से लेखन किया है उससे प्रेरणा लेनी चाहिए। वह समाज की छुपी हुई चीजों को सामने लाने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध रहे हैं।
डॉ अर्जुनदास केशरी के सिरहाने छत से टंगा हुआ आदिवासी समाज का धनुष-बाण दिखता है। उसे सिरहाने लटकाने का उनका परिप्रेक्ष्य कुछ भी हो पर मुझे मिथक कथा के अर्जुन और धनुष के संबंध याद आते हैं। हमारे अपने अर्जुन भी पिछले साठ साल से कितने एकाग्र भाव से अपने लक्ष्य पर ध्यान टिकाये हुये हैं, उससे भी अच्छा यह लगता है कि उनका इरादा किसी मछली की आँख भेदने का नहीं है बल्कि वह तो सिर्फ ज्ञान गहने में लगे हुये हैं और दुनिया की तमाम आँखों को लोक का सौंदर्य, लोक का भवितव्य दिखाने का यत्न कर रहे हैं। उनसे मिलना मेरे लिए जीवन का सघन अनुभव बनता है। उनसे अभी कई और घंटे बतियाने का मन करता है पर समय कम है और यात्रा अभी लंबी है। खुर्शीद आलम अभी इंतजार कर रहे हैं। शिवेंद्र जी से भी किसी तरह उनके साहित्य पर बतियाने का यत्न करना है और डॉ अनिल मिश्र के पैतृक आवास भी जाना है जहां 200 वर्ष पूर्व बने पोखरे को देखना है। ग्राम्य जीवन की कठिन जिंदगी को भी थोड़ा पास से देखना है।
यात्राएं कितना समृध्द करती हैं इसे शिद्दत से महसूस करते हुये अभी तो बस वह सेल्फी देखने का मन कर रहा है जिसके फ्रेम में मैं डॉ अर्जुन दास केशरी के साथ हूँ और मन ‘करमा’ कर रहा है। सोनभद्र की यात्रा के बारे में अभी और भी बतियाना है। मिलते हैं अगले अंक में