समय परिवर्तन के साथ-साथ बहुत कुछ बदल जाता है। यहाँ तक कि शब्द भी और शब्दों के अर्थ भी। इसे यूं समझ सकते हैं कि बहुत पुराने समय में ‘वेदना’ शब्द को दो तरह से जाना जाता था, यथा सुखद वेदना और दुखद वेदना। लेकिन वर्तमान में ‘वेदना’ शब्द को केवल और केवल एक ही अर्थ में जाना जाने लगा है। वह है ‘पीड़ा’। इसी संदर्भ में यदि ‘राष्ट्रवाद’ शब्द को समझना है तो यह भी जानना होगा कि समय के साथ-साथ ‘राष्ट्रवाद’ की परिभाषा ने भी कई रूप धारण किए हैं।
आज के समय में ‘राष्ट्रवाद’ की भावना के साथ आज की राजनीति जिस प्रकार का आचरण कर रही है, ऐसा लगता है यह समझने की जरूरत है कि संघ और भाजपा का राष्ट्रवाद क्या था आज क्या है? इसे सावरकर के अनुसार ‘हिंदुत्व’ कहा जाता है..उनके इस ‘हिंदुत्व का अर्थ ‘हिन्दू धर्म’ से नहीं है। उनके अनुसार ‘हिन्दू धर्म’ धार्मिक आस्था पर आधारित एक जीवन-चर्या है, जबकि ‘हिंदुत्व’ की अवधारणा ‘हिन्दुओं’ को एक राजनीतिक श्रेणी या समुदाय में समेटने के लिए की गयी है। यहाँ यह कहा जा सकता है संघ का ‘हिन्दुत्व’ ही उनका आज का ‘राष्ट्रवाद’ है जिसमें सामाजिक सद्भावना की जगह राजनीतिक भावना ज्यादा परिलक्षित होती है।
प्लेटो ने कहा था कि लोकतंत्र से ही तानाशाही जन्म लेती है। भारतीय लोकतंत्र में प्लेटो का यह कथन सच होता दिख रहा है। किसी न किसी रूप में आज सत्ता की कार्यप्रणाली इस बात का संकेत है। नई सरकार के दौर में लोकतंत्र में तानाशाही जोरों से पनप रही है। आज की सत्ता ने सरकार की स्वतंत्र कहे जाने वाली एजेंसियों… यहाँ तक की न्यायलय को भी अपने इशारों पर नचाने के उपक्रम बराबर किए जा रहे हैं। चुनाव आयुक्त जैसे महत्वपूर्ण पद की नियुक्ति का काम भी अपने चहेते के हक में करने पर उतारू है। वर्तमान भाजपा सरकार से सवाल पूछना तो आज दूर की कौड़ी हो गई है।
प्रिंट मीडिया ही नहीं, इलेक्ट्रानिक मीडिया भी सरकारी माफिया हो गया है। फिर भी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ समस्त भारत में यत्र-तत्र- सर्वत्र आयोजित धरनों से सरकार की नींद उड़ी हुई है। इसी के साथ ही सरकार की गरीब और निरीह समाज के प्रति उपेक्षा का भाव और अमीरों के प्रति स्नेह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है यथा 100 रुपए के कर्जदार को सजा और करोड़ों के चोरों को देश से बाइज्जत विदेशों में विचरण करने की छूट इस सरकार से पहले की सरकारों की कार्यकाल में कभी नहीं मिली। कमाल तो ये है कि सारे के सारे आर्थिक भगोड़े केवल और केवल गुजराज के ही रहे हैं। और सरकार यानि कि मोदी जी उन्हें बाइज्जत देश में वापिस लाने का प्रसाद बाँटते नहीं अघा रहे हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ सबको हर तरह की स्वतंत्रता प्राप्त है। परन्तु हमारे देश में इसी प्रकार के भ्रष्टाचार का फैलाव दिन-भर-दिन बढ़ रहा है। लोग इसी स्वतंत्रता और हमारी सरकार के दोहरे मापदण्डों के चलते तथा सरकारी पैरोकारों से अच्छे संबंधों के चलते का लाभ उठाते रहे हैं। ये बात अलग है कि वर्तमान सरकार के कार्यकाल में हेराफेरी का व्यवसाय कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है।
वर्तमान राजनीतिक दौर में न केवल सामाजिक/धार्मिक क्षेत्र में अराचकता और आपसी द्वेष का ग्राफ बढ़ा है अपितु सार्वजनिक हलकों के साथ-साथ संसद भी गाली-गलौज का अखाड़ा बन गई है। विदित है कि संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जब भी बात होती है तो उसमें लगाए गए उचित प्रतिबंधों का भी जिक्र किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19(2) में ऐसा लिखा है। सांसदों को विशेषाधिकार है कि वे इसका पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सांसद रमेश बिधूड़ी ने शायद इसी विशेषाधिकार का भरपूर फायदा उठाया और संसद के भीतर ही गाली-गलौज पर उतर आए। बिधूड़ी ने 21 सितंबर को लोकसभा में बहुजन समाज पार्टी के सांसद कुंवर दानिश अली के खिलाफ सांप्रदायिक बयान दिया और लगातार गाली देते नजर आए। इस तरह की भाषा का इस्तेमाल संसदीय इतिहास में शायद ही कभी किया गया हो। खेद की बात तो है कि रमेश बिधूड़ी जब ये आपत्तिजनक बयान दे रहे थे, उस वक्त उनके बगल में पूर्व स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन और पीछे पूर्व कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद बैठे हुए थे। वीडियो में दोनों नेता बिधूड़ी के बयान पर हंसते दिख रहे हैं। यहाँ तक संसद अध्यक्ष ओम विरला इस घटना को संसदीय मर्यादा को भूलकर चुपचाप देखते रहे।
हालांकि हेट स्पीच पर सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि इसे रोकने के लिए 2018 में जारी की गई गाइडलाइन का ही पालन कराएंगे। कोर्ट ने 7 जुलाई 2018 को हेट स्पीच पर रोक लगाने के लिए गाइडलाइन जारी की थी। इसमें राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को इस तरह की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए जिलों में नोडल अफसर तैनात करने को कहा था। लेकिन सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आज भी कुंडली मार कर बैठी है। जनता के हितों को केंद्र सरकार ने ताक पर उठा कर रख दिया। मणिपुर में महीनों से आग लगी हुई है किंतु राज्य और केंद्र सरकार ने मणिपुर की घटना पर आंख तो क्या मुँह तक नहीं खोला है। मणिपुर में ही नहीं बल्कि हरियाणा के नूंह-गुरुग्राम में भी हिंदू-मुसलमान के बीच हिंसा का खेल खेला गया। यहाँ तक की राजनेताओं की रैलियों में एक समुदाय विशेष के प्रति भाषाई हिंसा का प्रयोग करके समाज में आपसी अलगाव के हालात पैदा किए जाते हैं। देश में यत्र-तत्र-सर्वत्र हो रहीं बलात्कार की घटनाएं भी ठंडे बस्ते में पड़ी हैं। समाज के दलित / दमित लोगों पर निरंतर हो रहे अत्याचारों की तो कहीं कोई गिनती ही नहीं है।
अभी हाल ही में तीन अक्टूबर (भाषा) को पुलिस दिल्ली के विशेष प्रकोष्ठ ने समाचार पोर्टल ‘न्यूजक्लिक’ और उसके पत्रकारों के घरों पर सुबह छापेमारी की। अधिकारियों ने बताया कि विशेष प्रकोष्ठ ने एक नया मामला दर्ज कर जांच शुरू की है। इससे पहले, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने भी ‘न्यूजक्लिक’ के वित्त पोषण के स्रोतों की जांच के तहत कंपनी के परिसरों पर छापे मारे थे। विशेष प्रकोष्ठ केंद्रीय एजेंसी से मिली जानकारी के आधार पर छापे मार रहा है।
ज्ञात हो कि भारत छोड़ो आन्दोलन का वह समय था जब हमारे लक्ष्यों और आदर्शों की निष्ठा ने राष्ट्र को एक सूत्र में पिरो दिया था। उस आन्दोलन में न तो जातियाँ ही आड़े आईं और न धर्म ही । फिर आजादी प्राप्त होने के बाद क्या हो गया कि सामाजिक न्याय के सूत्रधार जाति-भेद की विषमता मिटाने के नाम पर व धार्मिक ठेकेदार धर्म के नाम पर जातिगत एवं धार्मिक विद्वेष और राजनैतिक मोर्चाबंदी पुख्ता कर रहे हैं। आदमी को आदमी से दूर करने लगे हैं। आजादी प्राप्ति से पूर्व के जो राष्ट्रीय लक्ष्य एवं मूल्य, जो आदर्श भारतियों को सामुहिक रूप से स्फुरित करते थे, जैसे बिखर गए हैं। आत्मनिर्भरता के सुस्वप्न में देखा राष्ट्रीय स्वाभिमान जैसे आज विलुप्त हो गया है। हमारी राजनीति का तो लगता है, लौकिक रूप ही गायब हो गया है। आस्थाएं डगमगा रही हैं। सामाजिक न्याय का लक्ष्य मात्र भाषणों या फिर कागजों में सिमटकर रह गया है। आजादी प्राप्ति के बाद की राजनीति ने अवसरवादिता एवं शून्यवाद को ही जन्म दिया है। नीति और नीयत दोनों ही गुड़-गोबर हो गई हैं। मूल्यों के बिखराव के वर्तमान दौर में सभी राजनैतिक पार्टियाँ उठापटक में लगी हैं। ‘आओ! सरकार सरकार खेलें’ के खेल में लिप्त हैं। भारतीयता जैसे नैपथ्य में चली गई है। धर्मांधता, जातियता, धन-लोलुपता और विलासता राजनैतिक मंच पर निर्वसन थिरक रही है। राजनैतिक नारे दिशाहीनता ही पैदा कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि ऐसी सारी की सारी दुर्दांत घटनाएं ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर की जा रही हैं। राष्ट्रवाद में हिंदुत्व का तड़का लगा दिया जाता है। हम यहाँ पर केवल राष्ट्रवाद पर ही बात करेंगे। पहले सोचते है कि आखिर राष्ट्रवाद है क्या। मोटे तौर पर जो विचारधारा किसी भी राष्ट्र के सदस्यों में एक साझा पहचान को बढ़ावा देती है उसे राष्ट्रवाद कहते हैं। माना जाता है कि राष्ट्रवाद (nationalism) एक विश्वास है कि लोगों का एक समूह इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर स्वयं को एकीकृत करता है। राष्ट्रवाद के आधार पर बना राष्ट्र कल्पना में तब तक बना रहता है जब तक कि वह राष्ट्र-राज्य में तब्दील नहीं हो जाता।
राष्ट्रवाद को चित्रित करना वास्तव में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। फिर भी ‘इतिहास के एक विशिष्ट चरण में राजनीतिक, वित्तीय, सामाजिक और विद्वतापूर्ण कारणों का परिणाम-राष्ट्रवाद एक स्पष्ट कट स्थलाकृतिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों के एक समूह का एक परिप्रेक्ष्य, अनुभव या अनुभूति है जो एक समान भाषा में संवाद करते हैं। जिनके पास एक लेखन है, जिसमें देश की इच्छाओं का संचार किया गया है, जो सामान्य प्रथाओं और तुलनीय परंपराओं को साझा करते हैं, जो अपने निडर पुरुषों से प्यार करते हैं और कभी-कभी एक समान धर्म के होते हैं।
किंतु हमारे देश में भाजपा और आरएसएस के राष्ट्रवाद की दो अलग-अलग धाराएं देखने को मिलती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से कहा कि राष्ट्रवाद हमारी पहचान है और उनको राष्ट्रवाद के संदेश और एजेंडे पर फोकस करना चाहिए क्योंकि दो साल पहले उनकी रिकॉर्ड जीत में यह प्रमुख कारण रहा है। हैरत अंग्रेज बात तो ये रही कि उन्होंने अपने नेताओं से कहा कि बीजेपी का चुनाव जीतना ही उनका राष्ट्रीय कर्तव्य है। अब आप संघ परिवार के राष्ट्रवाद की परिभाषा सहज ही समझ सकते हैं।
यहाँ राष्ट्रवाद को विस्तार से समझने की आवश्कता महसूस हो रही है। दरअसल राष्ट्रवाद को अगर आसान शब्दों में राष्ट्र से प्रेम ही राष्ट्रवाद कहलाता है। लेकिन सत्ता की मारामारी में भारत में राष्ट्रवाद की परिभाषाएं भी बदल गयी हैं। आज का राष्ट्रवाद सत्ताशीन पार्टी विशेष के लोगों के लिए ही है। अगर आप उस पार्टी के समर्थक नहीं है तो आप राष्ट्रवादी नहीं हो सकते। राष्ट्रवाद के नए-नए मायने भी निकल आये हैं। एक सच्चे राष्ट्रवादी बनने के लिए पहले तो आपको आँखें मूंदना सीखना पड़ेगा। सरकार के किसी भी कार्यक्रम में किंतु-परंतु लगाने की हिमाकत नहीं करनी जो सही हुआ वो भी सही और जो गलत हुआ या हो रहा है वो भी सही, बस आज के राष्ट्रवाद की यही परिभाषा शेष रह गई है। यूं भी कहा जा सकता है कि आज के राष्ट्रवादियों ने बुरा देखने, बुरा सुनने, बुरा बोलने, बुरा करने जैसी तमाम बुराइयों को दिल से लगा लिया है। राष्ट्रवादी बनने के लिए अगला रूल ये है कि आपको हर उस इंसान की आलोचना करनी है जो समाज की बुराइयों पर बात करना चाहता है। उन्हें देशद्रोही बोलकर खुद को राष्ट्रवादी सिद्ध करना है। इतना ही नहीं एक सच्चे राष्ट्रवादी को दलितों पर सदियों से हो रहे अत्याचार और औरतों के साथ हो रहे अमानुषिक व्यवहार/शोषण पर भी आँखें मूंद लेनी है। आज के राष्ट्रवादियों का ध्येय समाज के उन लोगों से लड़ना है जो समाज को सुधारने की दिशा में कुछ न कुछ काम कर रहे हैं और उनसे जो लोग हमें हिन्दू-धर्म में फैली बुराइयों का खुलासा करते हैं। आज के दौर में आप समाज और देश के हित में बात करने वाले लोगों का सामाजिक तिरस्कार करने पर ही आप सच्चे राष्ट्रवादी कहलायेंगे
असल में राष्ट्रवाद आज के युग में राजनीतिक राष्ट्रवाद हो गया है। भाजपा ने राष्ट्रवाद का एक बार फिर संकल्प लेते हुए आतंकवाद पर जीरो टॉलरेंस और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रथम सरोकार माना है। दरअसल राष्ट्रवाद जनसंघ के दिनों की अवधारणा है। 2019 का जनादेश लेने के मद्देनजर प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने फिर राष्ट्रवाद, अंत्योदय, सुशासन वाले पुराने संकल्पों को दोहराया। यह भाजपा की सनातन विचारधारा हो सकती है। ये भाजपा की प्रेरणा, दर्शन और मूल मंत्र भी हो सकते हैं, लेकिन इन भावनात्मक शब्दों से आम आदमी का सरोकार क्या है? आज की सरकार आरएसएस के बुनियादी एजेंडे को ही आगे बढ़ांने का काम कर रही है। गंगा मैया की सफाई और निर्मलता, संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण, कई और मुद्दे पहले भी भाजपा के संकल्प रहे हैं और आज भी उन्हें दोहराया जा रहा है। क्या संघ और भाजपा का राष्ट्रवाद यही है? एकता और अखंडता को एक इकाई के तौर पर ग्रहण करें, तो वही राष्ट्रवाद है, लेकिन यह मान्यता तो 71 साल पुरानी हो चुकी है। यह हमारी सांस्कृतिक विरासत है।
2022 में ‘भारत राष्ट्र’ आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है, देश में अमृत काल समारोह मनाया जा रहा है। बेशक भारत माता की जय, वंदे मातरम और जयहिंद के नारे ‘राष्ट्रीय’ हैं, वंदनीय हैं, लेकिन क्या यही राष्ट्रवाद है? नए भारत में, नए परिप्रेक्ष्य में, ‘राष्ट्रवाद’ क्या है? भाजपा को कमोबेश अब इसे परिभाषित करना चाहिए। पाकिस्तान के खिलाफ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ और बालाकोट में एयर स्ट्राइक के जरिए भी ‘राष्ट्रवाद’ की व्याख्या नहीं की जा सकती। बेशक राष्ट्रीय सुरक्षा हमारे सर्वोपरि सरोकारों में शामिल होनी चाहिए। वह प्रत्येक सरकार का बुनियादी दायित्व है, लेकिन रोजगार, काला धन, स्मार्ट सिटी, बुलेट टे्रन, गाय और न्यायिक तथा पुलिस सुधार आदि भी तो सरकार के प्राथमिक दायित्व हैं। भाजपा ने इन्हें भुला दिया है। समग्र विकास भी राष्ट्रवाद का प्रतिरूप है। बेशक प्रत्येक परिवार को पक्का मकान, बिजली-पानी, 100 फीसदी विद्युतीकरण, गांवों को परिवहन योग्य सड़कों से जोड़ना, किसानों-छोटे कारोबारियों को 60 साल की उम्र के बाद पेंशन, हर घर में शौचालय, घर-घर पेयजल, किसानों की आय दोगुनी के साथ-साथ निर्यात को भी दोगुना करना, रेल की पटरियों को ब्रॉडगेज के साथ उनका विद्युतीकरण करना आदि भी संकल्प हैं। यदि ये संकल्प हासिल कर लिए जाते हैं, तो यह भी एक सफल राष्ट्रवाद होगा। भाजपा का जो परंपरागत ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ रहा है, वह शाब्दिक ज्यादा है, व्यावहारिक कम।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के बारे में जनधारणा है कि यह ‘राष्ट्रवाद’ के दर्शन पर आधारित संगठन हैं। मगर, ऐसा नहीं है। अब आरएसएस ने भी यह साफ कर दिया। दूसरी ओर, आरएसएस को ‘हिंदू सर्वोच्चता के आधार पर स्थापित’ बताया गया है और उस पर अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुस्लिम विरोधी गतिविधियों के प्रति असहिष्णुता का आरोप लगाया गया है। औपनिवेशिक काल के दौरान, आरएसएस ने ब्रिटिश राज के साथ सहयोग किया और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कोई भूमिका नहीं निभाई। किंतु आम चुनाव 2024 में भाजपा के गिरते ग्राफ के चलते आरएसएस ने ‘राष्ट्रवाद’ से तौबा करने और अब ‘राष्ट्रीयता’ पर देगा जोर देने का दावा किया है। विदित हो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का एक, हिन्दू राष्ट्रवादी, अर्धसैनिक, स्वयंसेवक संगठन हैं, जो व्यापक रूप से भारत के सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का पैतृक संगठन माना जाता हैं।
दुनिया भर में सरकारों के कामकाज़ का तरीका बदल रहा है। सरकारें बदल रही हैं। राजनीतिक और सामाजिक अवधरणा बदल रही है। फलत: राष्ट्रवाद का नया मॉडल हमारे सामने है। राष्ट्रवाद आज की राजनीति का अभिन्न अंग हो गया है। दुनिया भर की सरकारें मीडिया को हथियाने का प्रयास कर रही हैं। हर जगह मीडिया का राजनीतिकरण हो गया है। यह केवल भारत की ही बात नहीं है अपितु फ्रांस, लंदन, पोलैंड, रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रिया के नेता राजनीतिक मुद्दों पर ही सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए हुए हैं। ये सरकारें विपक्ष को खत्म कर देने के मूड में ही देखी जाती हैं। थोड़ा-बहुत पुराने राष्ट्रवाद को बचाकर रखती हैं, बयानों या कागज़ों में ही सही, ताकि जनता में लोकतंत्र का भ्रम बना रहे। लगातार विज्ञापनों और भाषणों के जरिए यह दिखाने की प्रक्रिया कि कुछ तो हो रहा है, बेशक जमीन पर कुछ भी न हो रहा हो लेकिन कागजों में जोर पकड़ती जा रही है। कहना अतिशयोक्ति नहीं कि आज सबके अपने-अपने राष्ट्रवाद हैं।
उल्लिखित है कि अंग्रजों के शासनकाल में जो अंग्रेजों के खिलाफ जन-आन्दोलन करते थे। वो राष्ट्रद्रोही और जो उनकी गुलामी को चाहे जैसे स्वीकार कर रहे थे या उनके लिए मुखबरी कर रहे थे…वो राष्ट्रप्रेमी। ठीक वही हालत आज की है जो लोग सरकार के कामों पर किंतु-परंतु करते हैं या किसी भी प्रकार का प्रश्नचिन्द लगाते दिखते हैं… वो राष्ट्रद्रोही और वो जो सरकार के उल्टे-सीधे कामों पर आँख मून्दकर सरकार के पक्षधर बने रहते हैं… वो राष्ट्रप्रेमी। कहा जा सकता है कि देश के साथ जो भी अच्छा-बुरा हो रहा है, उसकी राजनीतिक दलों को कोई भी चिंता नहीं रह गई है। राजनीतिक दलों का तो येनकेन-प्रकारेण सत्ता में बने रहना मात्र ही ध्येय रह गया है। वास्तव में आज का राष्ट्रवाद एक राजनीतिक प्रपंच बनकर रह गया है। क्या ऐसा राष्ट्रवाद भारत के विनाश की गारंटी नहीं है? क्या 21वीं सदी में ऐसे राष्ट्रवाद के साथ भारत आगे बढ़ सकता है?