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ग्राउंड रिपोर्ट

लोकल हीरो : दो बच्चों को गोद लेने की इच्छा एक पूरे समुदाय के बच्चों का जीवन बदलने का अभियान कैसे बनी?

बनारस के कुख्यात रेडलाइट एरिया शिवदासपुर में बहुत कुछ बदल गया है। ऊपर से यह इलाका नयी इमारतों और बाज़ारों से जगमगा रहा है लेकिन असली बदलाव अंदर आ रहा है। शहर की एक महत्वपूर्ण संस्था गुड़िया ने रेडलाइट एरिया के बच्चों के जीवन में एक नयी रौशनी पैदा की है और वे पढ़ते-लिखते हुये अपने लिए एक बेहतर और सम्मानजनक जीवन जीने की तैयारी कर रहे हैं। गुड़िया संस्थान के कर्ता-धर्ता अजित सिंह और सांत्वना मंजू ने देह व्यापार के विरुद्ध भारत के सबसे बड़े अभियानों का नेतृत्व किया है। पढ़िये कैसे अनाथालय में पली-बढ़ी एक बच्ची ने अपना जीवन समाज से अपमानित और बहिष्कृत बच्चों की बेहतरी में लगा दिया।

उनका पूरा नाम सांत्वना मंजू है लेकिन सभी उन्हें मंजू ही पुकारते हैं। हंसमुख और हाजिर जवाब मंजू रेड लाइट एरिया शिवदासपुर में स्थित संस्थान ‘गुड़िया’ की कोऑर्डिनेटर हैं। हम उनका काम देखने शिवदासपुर स्थित गुड़िया संस्थान में साढ़े तीन बजे पहुंचे तो संस्थान के लोहे के विशाल दरवाजे में अंदर से ताला लगा हुआ था। आवाज देने पर 20 वर्षीय सेफी और वहाँ की केयरटेकर अनु ने झाँककर देखा और फोन पर अनुमति लेने के बाद गेट खोलकर हम लोगों को अंदर कर तुरंत ही ताला बंद करते हुए हमें बताया कि यहाँ का माहौल ठीक नहीं है, यदि सुरक्षा न रखें तो कोई भी अंदर आकर  नुकसान पहुंचा सकता है।

कुछ देर में मंजू जी वहाँ आईं। उन्हें देखते ही नीचे के कमरे में ड्राइंग करते बच्चों ने बहुत खुश होकर ज़ोर से अभिवादन किया और कुछ बच्चे उनके नजदीक आ गए। बच्चे बड़ा सा गोल घेरा बनाकर बैठे थे और ड्राइंग कर रहे थे। सभी को लग रहा था कि मंजू जी उनके पास आएँ। उनका स्नेह और ध्यान बराबर बच्चों पर था। ये ऐसे बच्चे हैं जिन्हें उनकी माँओं ने पाला है, जो देह व्यापार के दलदल में धकेल दी गई थीं। लेकिन मंजू चाहती हैं कि उनके बच्चे वह बने जिसकी उनके अंदर काबिलियत है।

बच्चों द्वारा किए गए कामों के लिए उन्हें उपहार दे सराहते हुए गुड़िया संस्थान

मंजू खुद एक अनाथ आश्रम में बड़ी हुईं हैं। जहां वे रहती थीं वहाँ उनका पालन-पोषण बेहतर तरीके से हुआ लेकिन एक बात की कमी हमेशा महसूस होती रही। वह था भावनात्मक संबल। इसलिए उन्होंने शुरू से ही यह मन बना लिया था कि जब वह अपने पैरों पर खड़ी होऊँगी और आर्थिक रूप सक्षम होऊँगी तब दो अनाथ बच्चों को गोद लेकर उनकी परवरिश करूंगी। आज यह सब देखकर लगता है कि अपनी उस मंशा को उन्होंने ज्यादा बड़ा फ़लक दिया है।

बनारस के चौबेपुर इलाके में स्थित एसओएस स्कूल में उनकी प्रारम्भिक पढ़ाई हुई। बारहवीं करने के बाद एक वोकेशनल कोर्स करने दिल्ली गईं और दिल्ली में ही उन्हें एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई। नौकरी मिलने की उन्हें बहुत खुशी थी और इस को बाँटने और बनारस सबसे मिलने आईं। उसी दौरान गुड़िया संस्थान के संस्थापक अजीत सिंह से उनके फील्ड पर मुलाक़ात करने गई थीं। अजीत सिंह रेड लाइट एरिया की महिलाओं के साथ काम कर रहे थे। वह उनके करीब 100 बच्चों को एक पेड़ के नीचे पढ़ाते थे।

गुड़िया संस्थान में कम्प्यूटर सीखते हुए बच्चे

मंजू बताती हैं ‘मैंने उनके साथ मात्र दो घंटे गुजारे। वापस आते समय उन बच्चों ने स्नेहपूर्वक मुझसे पूछा कि आप दुबारा भी आएंगी? इतना सुनकर मुझे लगा मैं तो 2 बच्चों की परवरिश की बात सोच रही हूँ। यहाँ तो ऐसे बहुत से बच्चे हैं, जिनके लिए मै बहुत कुछ कर सकती हूँ। उसी वक्त मैंने तुरंत निर्णय ले लिया कि मुझे गुड़िया ज्वाइन करनी है। मैंने अजीत जी को बोला कि मैं गुड़िया ज्वाइन करना चाहती हूँ तो उन्होंने कहा कि तुम इतनी पढ़ी लिखी हो। हम तुम्हें ज्यादा कुछ भुगतान नहीं कर पाएँगे। यह सन 2000 की बात है। मैंने उन्हें कहा कि मैं  पैसे के लिए नहीं आ रही हूँ। मुझे यह बहुत पसंद आया है इसलिए मुझे यहाँ काम करना है। इस तरह दुर्घटनावश मैंने गुड़िया में काम करने का सोचा।’

गुड़िया संस्थान का काम शिवदासपुर के रेड लाइट एरिया में देह व्यापार में लिप्त महिलाओं के बच्चों की पढ़ाई की तरफ रुचि जगाना है ताकि वे बच्चे खुद के लिए दूसरे रोजगार तलाश कर अपने पैरों में खड़े होकर समाज की मुख्यधारा में शामिल हों और इस बुराई से दूर हो सकें। इस संस्था में उन्हें रचनात्मक गतिविधियों से भी जुड़ने का मौका मिलता है। यहाँ लगभग 80 से 100 बच्चे आते हैं, जिनकी उम्र 5-6 वर्ष से लेकर 16-17 वर्ष तक की होती है।

हर उम्र के बच्चों के लिए अलग-अलग गतिविधियाँ कराई जाती हैं। 5 से 10-11 वर्ष तक के बच्चे चित्रकारी कर अपनी कल्पनाओं में रंग भरते दिखे। ऊपर के कमरे में लड़कियों को डांस सिखाया जा रहा था और दूसरी तरफ ब्यूटी पार्लर का काम सिखाया जाता है ताकि यदि वे चाहें तो इसे अपनी कमाई का जरिया बना सकें। सबसे ऊपर के कमरे में बहुत सारा सजावट का सामान बना हुआ रखा था और कुछ बच्चे इसे बना भी रहे थे। बाटिक प्रिंट के कुछ कपड़े और दुपट्टे वहाँ तार पर फैले हुए थे। जैसे ही हम ऊपर पहुंचे सभी बच्चों ने एक स्वर में अभिवादन किया और मंजू जी को देखकर सभी बहुत खुश हो गए। उनसे मिलते ही अपनी बहुत सी जरूरतें बताई व शिकायतें भी कहीं।

घर जाने से पहले  मगन हो मेडिटेशन करते हुए बच्चे

आमतौर पर ऐसे बच्चे हीनभावना से ग्रस्त होते हैं और इन्हें दिशा देने वाला कोई नहीं होता। परिवार के नाम मां के अलावा कोई नहीं और समाज में अपमान और उपेक्षा के अलावा कुछ मिलता नहीं। इस वजह से इनके असामाजिक गतिविधियों में लिप्त होने में जरा भी समय नहीं लगता।

इन हालात के चलते रेड लाइट एरिया में काम करने वाली महिलाओं के बच्चों के मनोविज्ञान पर अच्छा-खासा नकारात्मक असर पड़ता है। इन बच्चों  को समाज और स्कूल में अक्सर अपमानित होना पड़ता है। किसी बच्चे के सही विकास और जीवन को दिशा प्रदान करने में परिवार और समाज महत्वपूर्ण  भूमिका निभाते हैं लेकिन इन बच्चों से परिवार, शिक्षा, समाज, बेहतर अनुभव, संस्कृति, वातावरण जैसी बातें कोसों दूर होती हैं। ऐसे में इनके भटकने की गुंजाइश बहुत अधिक होती है। कुछ मामलों को छोड़ दें तो अक्सर इनकी लड़कियां देह व्यापार में आ जाती हैं। लड़के लड़कियों की सप्लाई और दलाली के धंधे मे शामिल हो जाते हैं।

इन बच्चों से शारीरिक, मानसिक और मौखिक भेदभाव आम बात है। यदि किसी लड़की की माँ देह व्यापार के काम में है तो उसकी बेटी को समाज में इसी नज़र से देखा जाता है और उससे यही काम करने की उम्मीद रखी जाती है। अपमान और भेदभाव से बच्चे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं और सामने आने में उन्हें शर्म आती है।

रेड लाइट एरिया के बच्चों द्वारा कार्यशाला में बनाई गईं कलाकृतियों के साथ खुश होते बच्चे और मंजू जी

इन बच्चों की माएं मजबूरी में बच्चों को जन्म तो देती हैं लेकिन आर्थिक दिक्कतों के चलते उनकी परवरिश नहीं कर पातीं। पिता का नाम नहीं होने की वजह से इन बच्चों को गलियाँ देकर अपमानित किया जाता है।

पूरे देश में ह्यूमन राइट्स वॉच के अनुसार 2 करोड़ महिलाएं और लड़कियां देह व्यापार के काम में शामिल हैं। इसमें से कुछ मजबूरीवश और कुछ को देह व्यापार मंडी में बेच दिया गया, जहां काम करना पड़ रहा है।

मंजू अपने अनुभव के बारे में बताती हैं कि अमूमन किसी भी बच्चे का दाखिला स्कूल में आसानी से हो जाता है लेकिन जब हम पहली बार बच्चे का दाखिला करवाने स्कूल पहुंचे तो स्कूल में दाखिले से मना कर दिया गया । उसके बाद  शुरुआत में इनके लिए प्रधान से अनुमति लिखवाना पड़ा। दाखिला तो हो गया लेकिन जब स्कूल में बाकी लोगों को मालूम हुआ कि यह रेड लाइट एरिया का बच्चा है तो अन्य बच्चों के अभिभावक वहाँ पहुंचे और सख्त प्रतिक्रिया देते हुए उस बच्चे को स्कूल से निकाल देने पर ज़ोर देने लगे। यह बहुत ही मुश्किल समय था। आम लोग इस बात को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते कि इसमें ऐसे बच्चे का क्या कसूर है? उस बच्चे की मन:स्थिति को समझने के लिए कोई तैयार नहीं। सभी को एक बात ही लग रही थी कि उस बच्चे के साथ हमारा बच्चा कैसे पढ़ सकता है? ऐसे में हमारा बच्चा बिगड़ जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि समाज की संरचना में यही सोच शामिल है।’

रचनात्मकता के साथ आत्मनिर्भर बनने का प्रशिक्षण लेते छोटे-बड़े बच्चे

‘हम लोगों ने अभिभावकों को बात कर समझाया।’ मंजू आगे बताती हैं ‘अभिभावकों, शिक्षकों और बच्चों की काउंसिलिंग की गई। तब जाकर वे इस बात को समझे और अब तो यहाँ के सभी पढ़ने वाले बच्चे बिना किसी  परेशानी के मुख्यधारा के स्कूलों में पढ़ रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं। हमारे संस्थान में किताबी ज्ञान के अलावा भी बहुत कुछ सिखाया जाता है। लेकिन आज भी कभी-कभी कोई बच्चा आकर कहता है कि ‘मुझे स्कूल नहीं जाना है’। कारण जानकार उन्हें समझाया जाता है। इसके लिए जरूरत पड़ने पर उनकी माँओं के साथ भी बातचीत की जाती है।’

स्कूल में यहाँ के बच्चे गुड़िया के बच्चे के नाम से जाने जाते हैं। यहाँ के सभी बच्चे पढ़ने के साथ अन्य रचनात्मक गतिविधियों में भी आगे हैं क्योंकि यहाँ किताबी ज्ञान के अलावा उनके सर्वांगीण विकास पर ध्यान दिया जाता है।

लीक से हटकर संस्थान चलाना खेल नहीं था

देह व्यापार में जाने वाली महिलाओं और लड़कियों के रोकने के लिए किए जा रहे कामों से सबसे ज्यादा दिक्कतें दलालों को होती हैं। वे बिलकुल नहीं चाहते कि उनके काम में कोई दखल दे या उन्हें रोकने की कोशिश करे। इसे करते हुए गुड़िया के संस्थापक अजीत सिंह पर 36 बार हमला हुआ। खुद मंजू के ऊपर भी अनेक बार हमले की कोशिश की गई। शिवदासपुर में स्थित गुड़िया संस्थान के आसपास रहने वाले वहाँ घुसकर कई बार संस्था को नुकसान पहुंचा चुके हैं। फोन पर तो सैकड़ों बार धमकी मिली लेकिन उनको काम करना था तो सतर्कता रखते हुए काम जारी है।

देह व्यापार से जुड़ी महिलाएं इस काम में लाई जाती हैं। हज़ारों बच्चियों का धोखे से अपहरण कर कोठे पर बेच दिया जाता है। जबर्दस्ती इन्हें धकेल कर काम कराया जाता है। नहीं करने पर तार से मारा जाता है, सिगरेट से दागा जाता है। कई बार हफ्तों तक उनका गैंगरेप होता है। शोषण होता है।

रेड लाइट एरिया की महिलाओं के बीच मंजू

मंजू बताती हैं कि ‘गुड़िया ने गुजरात, महाराष्ट्र,  बंगलौर सहित देश के अनेक जगहों से इस तरह की लड़कियों को बचाया। पहले उन्हें रेस्क्यू करना बहुत मुश्किल होता था लेकिन जैसे-जैसे यह काम आगे बढ़ता गया तो एक मजबूत नेटवर्क बनता गया। जब लापता हुई लड़की के घर वाले हमारे संस्थान तक आकर हमें कहते हैं तब उसकी केस स्टोरी पता कर अपने मुखबिर लगा देते हैं। कुछ जानकारी मिलने के बाद उसके सबूत इकट्ठा करते हैं। प्रशासन और पुलिस के साथ उस लड़की को निकालकर परिवार को सौंपने के पहले दोनों काउंसिलिंग करके उन्हें उस स्थिति से निकाला जाता है।

गुड़िया संस्थान की उपलब्धियाँ  

गुड़िया ने अब तक 6433 लोगों को यौन शोषण और बंधुआ मजदूरी से बचाया। मानव तस्करी और वेश्यालय चलाने वालों के खिलाफ 3667 आपराधिक मामले चलाए गए। मानव तस्करी के 956 मामलों की जमानत खारिज करवाई गई और मानव तस्करी और वेश्यालय चलाने के मामलों में 156 लोगों को सजा दिलाई गई।

भारत में पहली बार एक ही यौन तस्करी के मामले में 41 तस्करों/ वेश्यालय चलाने वालों को दोषी ठहराया गया। इसका उल्लेख वर्ष 2022 की यूएस टीआईपी रिपोर्ट दर्ज किया गया है, जो अपने आपमें विश्व रिकॉर्ड है।

बचाए गए 216 पीड़ितों को गवाह संरक्षण तथा 1191 बचाए गए पीड़ितों/जोखिमग्रस्त किशोरों को आजीविका सहायता प्रदान की गई। गुड़िया को भारत में 216 वेश्यालयों को बंद कराने में सफलता मिली। इन उपलब्धियों की गूंज दुनिया भर ने सुनी। गुड़िया संस्थान पर तैयार हुई डॉक्युमेंट्री ‘वॉटर ऑफ बर्ड्स’ को मेलबोर्न फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कृत किया गया।

इस फोटो में बनी हर कलाकारी गुड़िया के बच्चों ने सीखकर बनाई है (सभी waste material का उपयोग कर बनाई गई हैं)

गुड़िया ने अपने काम को विस्तार देते हुए गाँव में भी महिला सतर्कता समिति तैयार की है। इस समिति में ग्रामीण क्षेत्रों में मानव तस्करी रोकने के लिए 1 लाख 10 हजार सदस्यों वाली महिला सतर्कता समिति तैयार की गई है, जिसके द्वारा समय-समय पर गांवों में जाकर महिलाओं को प्रशिक्षित करने का काम किया जाता है।

इन सब बातों को विस्तार से बताते हुए मंजू के चेहरे पर सुकून दिखाई दे रहा था। उन्होंने कहा कि जोखिम तो इतना है कि मैं अपनी बेटी को स्कूल नहीं भेज पाती। अनौपचारिक शिक्षा लेते हुए वह केवल परीक्षा देने स्कूल जाती है। लेकिन इस संस्थान में 80-100 बच्चे जो लिख-पढ़-सीख रहे हैं, वह मुझे इस तकलीफ से उबार लेता है।

यह भी देखें –

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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