Thursday, March 28, 2024
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मेरा कोई जीवन संघर्ष नहीं रहा है… चटनी, अचार से काम चला लिया!

शिवमूर्ति हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार से कहानीकार रविशंकर सिंह की बातचीत  प्रणाम दादा ! … हां नमस्कार…और बताइए ।  …दादा !  आपके जीवन के कई किस्से  मित्रों में  प्रचलित हैं, जिसे आपने ही लोगों को सुनाया है । उसे आपने कई जगह लिखा भी है। आपने कभी बताया था कि आपका  आरंभिक जीवन काफी संघर्षपूर्ण […]

शिवमूर्ति हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार से कहानीकार रविशंकर सिंह की बातचीत 

प्रणाम दादा !

… हां नमस्कार…और बताइए ।

 …दादा !  आपके जीवन के कई किस्से  मित्रों में  प्रचलित हैं, जिसे आपने ही लोगों को सुनाया है । उसे आपने कई जगह लिखा भी है। आपने कभी बताया था कि आपका  आरंभिक जीवन काफी संघर्षपूर्ण रहा है। गांव और  गांव- घर की गरीबी को आपने करीब से देखा और भोगा है। आपके पिताजी बीतरागी और संन्यासी प्रकृति के थे। अपने जीवन संघर्ष के लिए आपने जो उपक्रम किए उसके  बारे में आप कुछ बताइए।

जीवन संघर्ष के कार्य मेरे सामने स्पष्ट नहीं हैं , जिनके बारे में कुछ बताया जाए। मेरा ऐसा कोई  जीवन संघर्ष तो रहा नहीं है।….. और जब जीवन संघर्ष रहता भी है तो यह उस समय पता नहीं चलता है कि हम जीवन संघर्ष कर रहे हैं । वह तो एक व्यक्ति के सामने एक परिस्थिति रहती है और वही वास्तव में उसके सामने जीवन रहता है । उसी परिस्थिति के बीच से वह अपना रास्ता निकालता है और सामान्य ढंग से निकालता है । उसको यह भान नहीं रहता है कि वास्तव में जो हुआ है, वह कोई संघर्ष  है । वह तो बहुत बाद में जब वह बेहतर स्थिति में जाता है तो, वह तुलनात्मक ढंग से अपने जीवन को देखता है और पहले वाले को अपना जीवन संघर्ष कहने लगता है, क्योंकि पहले वाले में तकलीफ रहती है कुछ । तकलीफ भी क्या रहती है , थोड़ी कठिनाई रहती है। तकलीफ जैसी बात तो महसूस नहीं होती है। ज्यादा घंटे तक आप काम करने लगते हैं। देर तक काम करते हैं । खाना-पीना में थोड़ा अभाव रहता है , बहुत पौष्टिक भोजन नहीं रहता है। हो सकता है कि आपने रोटी दाल खा लिया हो या नमक , चटनी, अचार से काम चला लिया हो, लेकिन जिस समय जो घटित होता है वही उस समय सामान्य सा लगता है।

आप की शिक्षा दीक्षा तो गांव में ही हुई है ना दादा ?

हां, शिक्षा तो मेरी गांव में ही हुई ।

किस कक्षा तक गांव में पढ़ाई – लिखाई हुई ?

प्राइमरी गांव में हुई फिर मिडिल तक की शिक्षा भी गांव में ही हुई।  बाद में हम सुल्तानपुर पढ़ने के लिए चले गए।  मैंने हाईस्कूल, इंटर वहां से किए।

“लेखन का कार्य तो लगता है जब मैं दर्जा सात में था या आठवें में रहा होगा तो  कृषि की कॉपी में दाईं तरफ लाइन खींची होती थी और बाईं तरफ चित्र बनाने के लिए सफेद होता था। उसी पर मैंने एक उपन्यास लिखा था । उपन्यास , सीधे उपन्यास । कहां से लिखा ? उसका शीर्षक था- मंगली । मैंने प्रेम बाजपेई का एक उपन्यास पढ़ा था। उस समय सामाजिक उपन्यास और जासूसी उपन्यास पढ़ते थे।”

आपके गांव का नाम क्या है ?

मेरे गांव का नाम है  – कुरंग।

आप तो किसान पुत्र है ?

जी -जी , छोटे-मोटे किसान। चार-पांच बीघे ।

… तो खेतों में भी काम करने का अनुभव रहा होगा आपको ?

हां , खेतों में काम करने का तो पक्का अनुभव रहा है जब पिताजी चले गए….!

 पिताजी का चले जाना द्विअर्थी है । इसको स्पष्ट कीजिए। इस दुनिया से चले गए या संन्यास की दुनिया में चले गए ?

नहीं – नहीं, इस दुनिया से तो बहुत बाद में , इधर हाल में 2009 में गए हैं।…. यानी संन्यास में चले गए। उसके बाद भी और जब थे तब भी,  मेरे ऊपर खेती का सारा भार आ गया था। जैसे , नहर का पानी चढ़ाना खेत में। जाड़े  के मौसम में, सुबह 5 बजे थोड़ा-थोड़ा अंधेरा रहता है। उस समय जनवरी महीने में  नाले के ठंडे पानी में घुसकर आपको अपने खेत में पानी को ले जाने के लिए गढ़वार  मिट्टी से बांधना होगा न ! जाड़े के पानी में हाथ पैर जब आप डालते हैं तो वह पैर आपका नहीं रह जाता है थोड़ी देर में। तब ठंडक में आपका  पैर ऐसा कनकना जाता है कि आग लगाएं तो भी पता नहीं चलेगा और चुटकी काटिए तो भी पता नहीं चलेगा।  मेरे पिताजी हमको ही कहते थे बड़े सवेरे, जब मैं छोटा ही था , ” जाओ गढ़वार  काट दो और अपने खेत में पानी चढ़ा दो। ”  वे नहीं जाते थे । तब भी मैं ही जाता था। या मान लीजिए पूर से सिंचाई करनी है, या मोट से सिंचाई करनी है तो भी कहते थे , ” जाओ ढुडारी – गडारी रख आओ।  ” ढुडारी –  गड़ारी जानते हैं ?

हां दादा, मुझे भी खेती करने का अनुभव रहा है।

हां, ढुड़ारी होती है, जिसपर नहन चलती है, मोट चलती है। ….तो घर से ढोकर ले जाओ। दुडारी कुएं के ऊपर रखो ,उसके ऊपर गडारी रखो। उसके ऊपर नहन यानी जो मोटी रस्सी होती थी। उसको लगाओ। पूड को उस में बांधकर नीचे कुएं में डालो। बहुत बड़ा हो जाता है ना चमडा पुड का पानी में भीग कर। पूड  या मोट जो भी कह लीजिए।

जी हां ,मोट कहते हैं हम लोग।

हां, पुड़ भी कहते हैं और मोट भी कहते हैं । जो गोल-गोल होता है , उसे पूर  कहते हैं और जो चौड़ाई में होता है उसे मोट कहते हैं। …तो वे कहते थे , जाओ, उसे पानी में डुबाओ और उसे  दो-चार बार  हिलाओ। उसमें पानी भर जाए,  तब तक बैलों को लेकर हम आते हैं। उसके बाद वे बैलों को लेकर आते थे । उस समय से खेती का सारा काम मैं करता रहा हूं। हम बो लेते थे गेहूं का बीज ,सरसों का बीज या धान वगैरह से संबंधित, जो भी निरन वगैरह डालना होता था, वह सब हम तभी कर लेते थे। जब बहुत छोटे थे तब से ही।

मुख्य फसल क्या है दादा आपके इलाके की ?

हमारे यहां गेहूं और धान।

अच्छा -अच्छा , यानी आपके यहां धान भी हो जाता है।

हां, उसके बाद मटर , सरसों , अरहर की फसल भी हो जाती है।

मैं कह रहा था कि एक किसान के घर में अनाज तो होता है ,लेकिन उसके यहां नकद रुपए का अभाव होता है। उसे अपनी छोटी – मोटी जरूरतों के लिए अनाज  की बिक्री पर आश्रित रहना पड़ता है।

हां, ऐसा तो एक बार मेरे साथ हुआ । फॉर्म भरना था हाई स्कूल बोर्ड का। उस समय फॉर्म भरने के लिए बारह या तेरह  रुपए  लगने थे। घर में पैसा नहीं था। मां ने कहा , ” जाओ प्याज बेच लाओ। बाजार-  दर – बाजार बेचो।

… तो हम गए प्याज बेचने भाई ,.…..और बैठे रह गए । किसी ने एक किलो प्याज नहीं खरीदा। एक किलो प्याज लेने वाला कोई नहीं आया। 11 बजे से बैठा रह गया और 4 बज गया । कोई प्याज लेने नहीं आया।  उसी तरह लादकर मैं उसे वापस ले आया। ऐसा भी हुआ भाई ! तो अब क्या किया जाए ? उस समय लेट फाइन लगता था। हमारी मां गांव में किसी के यहां गई और वहां से कुछ पैसा मांग कर ले आई। तो इस तरह मेरा फॉर्म भरा गया।

केसर कस्तूरी  में भी वह नैरेटर ही है। कथानक का जो पात्र है,  नैरेटर उसी को ज्यादा हाइट देता है । उसमें वह खुद को ज्यादा संलिप्त नहीं करता है। .. लेखक चाहता तो कथावाचक को और आगे बढ़ कर दिखा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। कथा वाचक की जो लाचारी है, वह हमारे समाज की लाचारी है । यहीं आकर के हमारे और समाज के हाथ बंधे हुए हैं। यहीं पर हमारा समाज आज भी ठहरा हुआ है। जिस तरह से कथावाचक किंकर्तव्यविमूढ़ है , उसी तरह से हमारा समाज भी किंकर्तव्यविमूढ़ है। कथावाचक ज्यादा से ज्यादा केसर के लिए क्या कर सकता है ? अपनी परिस्थितियों के अनुसार केसर उस परिणति तक पहुंचती है।”

मैं इसी दुख की बात कर रहा हूं। किसान की संपत्ति तो अनाज है। अनाज बिकता नहीं है। बिचौलिया अनाज बिकने नहीं देता । किसान और बाजार के बीच में बिचौलिए हैं, जो किसान की फसल का लाभ मार लेते हैं।

हां , ऐसा तो हो जाता था । कई बार सामान लेकर जाइए बजार में ,लेकिन गहकी नहीं आते हैं। एक बार तो ऐसा मेरे साथ हुआ था कि माल लेकर लौट आए। पैसा कहां घर में रहता था। पैसा नाम की चीज रहती नहीं थी भाई। अब तो थोड़े बहुत पैसे लोगों के घरों में रहने लगे हैं,  क्योंकि कहीं ना कहीं से कोई ना कोई आमदनी होने लगी है। अन्यथा गांव में पैसा कहां किसी के पास रहता था, अनाज रहता था। उसी को बेचकर मेला देखिए, उसी को बेचकर कोई दवा ले आइए, उसी को बेचकर और भी कोई जरूरत आ गई है तो अपना काम चलाइए।

अच्छा दादाआपने कहा है कि आपने अधिकतर अपनी पढ़ाई पेड़ की डाल पर बैठकर की है। …  इसका क्या कारण था ?

( हंसी की खनकती हुई आवाज ) …. ऐसा था कि हमारे दरवाजे पर  महुवा के बहुत सारे पेड़ थे। और मोटे मोटे पेड़ थे। उनकी डालें इतनी लंबी चौड़ी थी कि जहां डालियां अलग होती हैं , उनके ऊपर छोटा-मोटा खटोला ले जाकर बिछाइये और उसी पर आराम से सोइए। इतना बड़ा मेरे दरवाजे पर एक पेड़ था,  जिस पर चढ़कर मैं बैठता था और पढ़ता था। उस पर मान लीजिए कथरी ले लिए और ऊपर चढ़ गए। पेड़ पर चारों  शाखाएं जहां से फूटी है ,वहां पर जो जॉइंट है , वहां एक आदमी के लेटने भर का रहता था। उसी पर अपनी  खटिया बिछा लिए , कथरी बिछाकर  पढ़ रहे हैं। वहां एकांत है और वह जगह घर से दूर भी है। कोई आवाज नहीं आनी है। तो इस तरह पढ़ते थे वहां।

भाई में तो आप अकेले थे  ?

हां , भाई में हम अकेले थे। एक बहन थी और मां थी बस।

बहन आप से बड़ी या छोटी ?

बहन हमसे 4 साल छोटी।

हमारा घर आज भी गांव से बाहर है। आज तो घर के चारों तरफ बाउंड्री करवा दिए हैं । डेढ़ दो एकड़ की बाउंड्री हो गई है। उस समय खाई मारी जाती थी न,  ऊंची मेढ़। उस की बाउंड्री थी। वैसे भी वहां किसी को आना नहीं रहता था। उधर से किसी का रास्ता नहीं था। हम किसी के दरवाजे पर जाएं तो जाएं या कोई मेरे दरवाजे पर आए तो आए। एकांत तो रहता ही था पहले भी। लेकिन उस पेड़ पर चले जाने से और एकांत हो जाता था। आप जब मर्जी उसी पर झपकी ले लिए और जब मर्जी उसी पर पढ़ते रहे। या तो मैं पेड़ पर पढ़ता था या पुआल की जो गजहर होती है ना। अक्सर किसी पेड़ के नीचे वह पुआल की टाल लगाई जाती है। हमारे यहां बबूल का एक पेड़ था । उसके ऊपर वह टाल लगा दिया जाता था। मैं उसी के ऊपर चढ़कर पढ़ता रहता था। दो – चार घंटे हो जाते थे । खास करके जब मैंने कंपटीशन का एग्जाम दिया ,रेलवे का एग्जाम दिया और 1- 2 एग्जाम दिए ।….तो मैं उसी पर चढ़कर पढ़ता था। सवेरे सवेरे उसी पर चढ़ गया, दोपहर में नहाया – धोया , खाया और फिर उसी पर चढ़ गया। तो पढ़ने का मेरा यही तरीका था। मैं चारपाई पर बैठ कर पढ़ता था। कुर्सी तो घर में थी ही नहीं। चारपाई पर बैठ कर भी बहुत कम पढ़ पाता था ,या तो पेड़ पर या गजहर  पर।

किस वर्ष आपने मैट्रिक पास किया  ?

1966 में।

शादी आपकी किस उम्र में हो गई ?

शादी तो हो गई थी पेट का नौ महीना जोड़कर जब हम सातवें साल में गए थे। यानी कि सवा छह साल ही रहा होगा। बहुत कम उम्र में शादी हो गई थी।

शादी का कुछ याद है आपको  ?

हां – हां थोड़ा सा याद है, क्योंकि उसी शादी में मेरी श्रीमती जी ने मेरी छाती में एक घूंसा मारा था, इसलिए वह घटना याद है। ऐसा है कि मेरी शादी अलग ढंग से हुई । मतलब कि लड़कावाला बारात लेकर जाता है लड़की वाले के यहां । हमारी श्रीमती जी आई थी हमारे यहां शादी करने के लिए। उनको लेकर उनके मां-बाप आए थे हमारे घर। एक तो इस मामले में अलग चीज हो गई। दूसरे इतनी कम उम्र में शादी हुई। तीसरे शादी में कान और नाक दूल्हे का छेदा जाता है। जब सुनार आया नाक -कान छेदने और मुझे भनक लग गई तो मैं भागा। बहुत सारे बच्चे को दौड़ाकर मुझे पकड़वा लिया गया । वे मुझे पकड़कर लाने लगे। मैं रोते-  रोते आ रहा था। जब पास आ गया तो ढेर सारे लड़कों ने मुझे घेर लिया। और सब तो मुझे चिढ़ा रहे थे , लेकिन हमारी जो दुल्हन थी , यह भी दौड़कर आ गई अपने बाप के पास से तमाशा देखने। और सब तो मुझे चिढ़ा रहे थे उसने भी मुझे चिढ़ा दिया। हाथ तो  मेरा बंधा हुआ था। उसे बच्चे पकड़े हुए थे। तो मैंने अपना पैर उसकी तरफ फेंका कि पैर से ही उसको मार दे। वह इतनी दूर थी कि पैर तो उसको नहीं लगा, लेकिन बदले में उन्होंने रिएक्ट किया कि उन्होंने एक घूंसा मेरे सीने पर दे मारा और अपने मां पिताजी के पास भाग गई। तो इसलिए यह घटना मुझे याद है , जबकि बहुत छोटी उम्र थी। मेरा नाक का छेदवाने के डर से भागना, बच्चों का पकड़ कर लाना , बच्चों का चिढ़ाना , मेरा पैर चलाना और फिर उसका मारना यह घटना याद रह गई। उसके बाद हम दोनों में कभी झगड़ा नहीं हुआ।

अद्भुत कथा है  ! सीने पर लगी चोट प्यार बनकर दिल में समा गई। … और एक प्रश्न  लेखन की भावना आपके मन में कहां से आई ?

लेखन का कार्य तो लगता है जब मैं दर्जा सात में था या आठवें में रहा होगा तो  कृषि की कॉपी में दाईं तरफ लाइन खींची होती थी और बाईं तरफ चित्र बनाने के लिए सफेद होता था। उसी पर मैंने एक उपन्यास लिखा था । उपन्यास , सीधे उपन्यास । कहां से लिखा ? उसका शीर्षक था- मंगली । मैंने प्रेम बाजपेई का एक उपन्यास पढ़ा था। उस समय सामाजिक उपन्यास और जासूसी उपन्यास पढ़ते थे।

गुलशन नंदा और कुशवाहा कांत ?

हां, कुशवाहा कांत  । गुलशन नंदा थोड़े बाद में आए थे या मैंने उन्हें बाद में पढ़ा। यह बात मैं बता रहा हूं 62-63 की। उस समय मैं दर्जा पांचवें में था तो मुझे एक जासूसी उपन्यास मिल गया था। मैंने उसको पढ़ लिया था और मैं डरने भी लगा था उसको पढ़ कर। उसमें जितनी गोलियां  चली थी। मर्डर वगैरह हो गया था तो मैं डरने लगा था। लेकिन इतना याद है कि तब मैंने उसे पढ़ा था। बाद में मेरे एक मित्र थे , उनके यहां से उपन्यास मिलने लगा पढ़ने के लिए। मैं उसे पढ़ने लगा था।  प्रेम बाजपेई का एक उपन्यास था , उसका नाम मुझे ठीक ठीक याद नहीं , लेकिन उसका एक कैरेक्टर था मंगली। मंगली  का मुझे लगता है  डाकू जैसा चरित्र था। वह रात के अंधेरे में जा रहा था,  फिर कहीं कई लोगों के साथ इकट्ठा हुआ। जिस से बदला लेना था, वह कोई अत्याचारी था। उससे बदला लिया। तो उसका कैरेक्टर मुझे बहुत अच्छा लगा। आप समझिए कि आज भी मैं एक उपन्यास लिख रहा हूं, उसका एक पात्र है जंगू। उस पर उस मंगली का पूरा प्रभाव है। मेरा पात्र जंगू भी आततायियों को पेड़ की जड़ में बांधकर तोड़ देता है। तो समझिए की कक्षा 7 में जो मंगली मैंने प्रेम बाजपेई का पढ़ा था। उस मंगली का कोई क्लोन मेरे दिमाग में कहीं से बसा हुआ था। वह नए कलेक्टर के रूप में फूटकर आज मेरे उपन्यास में आ रहा है। कितने दिन बीत गए , आधी शताब्दी से भी ज्यादा हो गया। अब वह मेरे उपन्यास में आ रहा है , और उसी तरह की भूमिका में। तो उसी का प्रभाव मेरे ऊपर रहा, जिसे मैं सन 63 या 64 में कृषि की कॉपी पर लिखा था। मेरी भांजी एक बार गांव गई। उन दिनों मैं इलाहाबाद में पोस्टेड था। उसने उस बक्से में देखा और कहा, ” मामा ! देखिए इस कॉपी में आपका कुछ लिखा हुआ है।

मैंने देखा कि अरे , यह तो मेरा उपन्यास है। तो आप कह सकते हैं कि मैंने पहला उपन्यास वही लिखा था उस समय। बाद में इसी तरह पढ़ते पढ़ते लिखने लगा।

आप अभी जिस उपन्यास पर काम कर रहे हैं , बताना चाहेंगे उसका नाम ?

नाम तो अभी नहीं रख पाए हैं । गांव पर केंद्रित उपन्यास है। नाम ही रखने में मुझे मुसीबत होती है। सब कुछ कंपलीट हो जाता है, उसके बाद भी नाम ही नहीं सूझता है।

…….तो मैं यह कह सकता हूं कि किसी ने मुझे लिखना नहीं सिखाया। बस  पढ़ते-पढ़ते मन में आया कि ऐसा मैं भी लिख सकता हूं।

अपने जीवन में कभी ट्यूशन पढ़ने का मौका मिला आपको ?

प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति के साथ कहानीकार रविशंकर

ट्यूशन पढ़ने का मौका नहीं मिला,  ट्यूशन पढ़ाने का मौका मिला। ट्यूशन मैं पढ़ाने लगा था , जब मैं इंटरमीडिएट में पढ़ता था तब से। गांव में एक जमाने में मैं अच्छा ट्यूशन करता था। पढ़ते भी थे और ट्यूशन भी करते थे। अपने गांव से 6 किलोमीटर दूर तक जाकर ट्यूशन पढ़ाते थे। वही मेरी आमदनी का एकमात्र स्रोत था – ट्यूशन । दर्जा आठ से लेकर हाई स्कूल तक ट्यूशन करते थे। टेंथ की गणित पढ़ाते थे , टेंथ की अंग्रेजी पढ़ाते थे। एक स्कूल में पढ़ाने लगे तो उसमें भी 10वीं तक अंग्रेजी पढ़ाते थे, गणित पढ़ाते थे। इसीलिए तो पीसीएस एलाइड में मेरा अच्छी तरह से सिलेक्शन हो गया। अंग्रेजी भी मेरी बहुत अच्छी हो गई , जबकि मैंने हाई स्कूल तक ही केवल अंग्रेजी पढ़ा था। लेकिन अंग्रेजी भी बहुत अच्छी हो गई। पीसीएस की परीक्षा में अंग्रेजी के निबंध में मुझे 100 में 60 अंक मिले थे। और एलिमेंट्री मैथमेटिक्स पीसीएस में होती है, उसमें 100 में 100 अंक मिले थे। उसका श्रेय यही है कि मैंने चार साल तक हाई स्कूल के बच्चों को अंग्रेजी और गणित पढ़ाई थी। दूसरा श्रेय देता हूं, हमारे यहां प्राइमरी स्कूल के एक शिक्षक थे पंडित देव मणि मिश्र। उन्होंने इतना अच्छा पढ़ाया कि प्राइमरी में ही उन्होंने मुझे लाभ हानि , प्रतिशत,  भिन्न, ऐकिक   नियम और ग्राफ, ब्याज यह सारा कुछ पढ़ा दिया था। उन्होंने मुझे इतना मजबूत कर दिया था कि भविष्य में मुझे फिर कोई दिक्कत नहीं हुई। गणित मैं जुबानी लगाता था। मतलब जो सवाल मैं जुबानी लगा लेता था ,उसी को फिर लिखकर बना देता था। मैं उनको बहुत याद करता हूं।

अच्छा दादा ! क्या उन दिनों गांव में  किस्सा कहानी सुनने सुनाने का प्रचलन था ?

हां , हमारी एक फुफेरी बहन थी । वह हमें किस्से सुनाया करती थी। हो सकता है कि उसके किस्से कहानियों को सुनकर मेरे मन में किस्से कहानी लिखने की प्रवृत्ति डिवेलप हुई हो। उनका नाम था, रजना। मुझसे सात- आठ  साल बड़ी थी । अभी 3 साल पहले उनका देहांत हुआ।

…. और लोकगीतों का भंडार जो आपके पास है ये आपके पास कहां से आया ?

लोकगीत  मेरी रूचि में था। मैं जहां कहीं भी लोकगीत सुनता था, तो मुझे वह याद हो जाता था। शादी विवाह में औरतों की गालियां सुन लेता था तो वह गीत मुझे याद हो जाता था। कहीं कोई बिरहा गा रहा है , कहीं कोई भजन गा रहा है , कहीं कोई होलिका गा रहा है , सोहर आदि गीत महिलाएं गा रही हैं , तो वह सुनकर मुझे याद हो जाता था।

यह आपकी रचनाओं के लिए कच्चा माल है ! यही गीत समय-समय पर आपकी रचनाओं में घुल मिलकर रस की सृष्टि करते हैं।

हां , यह अपने आप मेरी रचनाओं में आ जाता है । जहां जरूरत होती है, वह गीत स्वयं कंठ से फूट पड़ता है। जिसको आप रस कहते हैं मेरी रचनाओं में उसे भी प्रकृति दे देती है। नेचर ने दे दिया तो आप मालामाल हो गए और नेचर ने नहीं दिया तो आप अकिंचन रह गए।

दादा ! आपके जीवन का एक रोचक प्रसंग है। आपको याद दिला दूं।  आपके तमाम साहित्यिक मित्र जानते हैं। अपनी कड़की के दिनों में आप खड़िया मिट्टी की गोलियां बनाकर हाट में मर्दानगी की दवा बोल कर बेचा करते थे ?

हां भाई !  वह तो अपना अनुभव है। दो चार सालों का अनुभव है।  उसकी वजह से मेरा बहुत सारा काम आसान हो गया था। इससे रुपए पैसों का जुगाड़ हो जाता था।  इन्हीं सब वजहों से मेरे जीवन में इतनी कठिनाई नहीं हुई।

दादा, आपकी कहानियों को पढ़कर मुझे लगता है कि आप आत्मकथात्मक शैली को ज्यादा पसंद करते हैं। आत्मकथात्मक शैली में जो वाचक है वह कथाकार से भिन्न होते हुए भी अभिन्न है। शेखर एक जीवनी उपन्यास में अज्ञेय कहते हैं, ” कथानक का नायक ‘  मैं  कथाकार अज्ञेय से भिन्न है । ” मेरा सवाल है कि आप की कहानी का कथावाचककथाकार शिवमूर्ति से कितना भिन्न है ?

साम्य तो रहता ही है। जहां अलग से बात कहने की जरूरत पड़ती है, वहां वह अलग हो जाएगा और जहां अपने अनुभव को उस में ऐड करने की बात है तो उसके साथ जुड़ जाएगा। दोनों बातें होती हैं मेरी 3 कहानियां आत्मकथात्मक शैली में है , ख्वाजा ओ मेरे पीरकेसर कस्तूरी और भरतनाट्यम। तीनों में मैं भी है और लेखक भी है।

…. लेकिन ख्वाजा ओ मेरे पीर और  केसर कस्तूरी  में ज्यादा हैं आप।

ख्वाजा मेरे पीर में ज़्यादा हैं,  लेकिन तटस्थ हैं। वह कथानक में कोई भूमिका नहीं निभाता है। वह केवल मोटिवेटर है ।….और मोटिवेटर भी नहीं नैरेटर ही ज्यादा है।

यही तो बड़ी बात है कि नैरेटर के रूप में आप उसकी सीमा भी बता देते हैं। आप फिल्मी नायक की तरह  अतिरिक्त उत्साह नहीं दिखाते हैं।  समाज को बदल देने का स्लोगन नहीं देते हैं।

हां , केसर कस्तूरी  में भी वह नैरेटर ही है। कथानक का जो पात्र है,  नैरेटर उसी को ज्यादा हाइट देता है । उसमें वह खुद को ज्यादा संलिप्त नहीं करता है। .. लेखक चाहता तो कथावाचक को और आगे बढ़ कर दिखा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। कथा वाचक की जो लाचारी है, वह हमारे समाज की लाचारी है । यहीं आकर के हमारे और समाज के हाथ बंधे हुए हैं। यहीं पर हमारा समाज आज भी ठहरा हुआ है। जिस तरह से कथावाचक किंकर्तव्यविमूढ़ है , उसी तरह से हमारा समाज भी किंकर्तव्यविमूढ़ है। कथावाचक ज्यादा से ज्यादा केसर के लिए क्या कर सकता है ? अपनी परिस्थितियों के अनुसार केसर उस परिणति तक पहुंचती है। ”

भ्रष्टाचार भी एक बड़ी चुनौती है । सरकारी ऑफिसों में नियुक्तियां पहले से तय हो चुकी हैं, उसे  आपने केसर कस्तूरी में बड़े सहज ढंग से दिखलाया है। आप अपनी कहानियों में ज्यादा लाउड नहीं होते हैं। यह आपका कला- कौशल है। खैर !  आप जो बलवर्धक दवाएं बेचते थे, आपकी जुबानी उस घटना को सुनना चाहता हूं।

हां , तो ऐसा था कि दर्जा सात में जब मैं था तो पिताजी घर-द्वार , गिरस्थी सब छोड़ दिए। मेरे ऊपर घर गिरस्थी का सारा भार पड़ा उस छोटेपन में।  बलवर्धक दवा की बात तो तब की है, जब मैं ग्यारहवीं क्लास में था । उस समय जिसने मेरी सबसे अधिक मदद की उसके बारे में मैं बताना चाह रहा था । वह था मेरा मकरा बैल। सुनने में यह अजीब लगेगा कि भाई मकरा बैल क्या मदद करेगा , लेकिन सचमुच उस मकरा बैल ने मेरी बहुत मदद की। मैं देखने में छोटा था और सचमुच उम्र में भी छोटा था। पिताजी चले गए थे। मेरी मां उन्हें बुलाने दो बार गई, लेकिन वे नहीं आए । मेरे पड़ोसी भी गए, लेकिन वे नहीं आए । जबकि आषाढ़ और कार्तिक में वे घूमते हुए चले आते थे । एक दो सालों से उनका यह चक्कर चल रहा था,  लेकिन इस बार नहीं आए तो नहीं ही आए। ”

आप को रोकना चाहूंगा। आपने बताया था कि बीच-बीच में वे आते थे और घर का सारा दाना-पानी बांध कर ले जाते थे।

हां, दाना – पानी बांधकर निकल जाते थे।  कभी 4- 6 साधुओं को लेकर चले आते थे। एक बार अपने गुरु जी को लेकर चले आए और भंडारा कर दिए।  उसके बाद घर में एक पाव राशन नहीं बचा । वे यह सब करते रहते थे। साधु बड़े भुक्खड़ किस्म के होते थे। कभी वे कहते थे , ” खाने में घी और ले आओ , कड़ुवा तेल लाओ , सब्जी लाओ । ”  वे खाने-पीने में बड़ा झमेला करते थे, लेकिन वह सब तो बहुत पहले घटित हो चुका था । हम लोग भी पक गए थे। कभी तो दो-चार मुस्टंडे लेकर चले आते थे और मेरी मां को कहते थे कि इनलोगों को खाना खिलाओ। ….लेकिन जब चले गए तो मेरे ऊपर गिरस्थी का सारा भार आ गया। अब खुद ही खेतों को जोतना-बोना है। खुद सारा कुछ करना है, सब कुछ देखना है।  मेरा कद बहुत छोटा था और मेरी उम्र भी कम थी ।  मेरा मकरा बैल था। उसे नाध देता था मैं। नधवाने में  भी वह आनाकानी नहीं करता था। जब नाधने के लिए जाता था मैं , तो खुद खड़ा हो जाता था और अपनी गर्दन बढा देता था। मैं खेत में जाता था और हल नाध देता था। ऐसा समझिए कि वह खुद हराई फनाता था। उसके साथ एक ललिया बैल था मेरा,  तो वह थोड़ा घामड था । वह उसको भी खींच खींचकर  ले जाता था । उसने मेरी बड़ी मदद की और हर प्रकार से मेरी मदद की । वह इतना तेज था कि रात में खुद खूंटे से अपना  पगहा निकाल  लेता था।  मुंह से पगहे को उलझाकर अपनी पीठ पर फेंक देता था और मेड़ पकड़कर चला जाता था । जहां दिन में वह हरियरी देखे रहता था । उस खेत में वह चरता और ऊंचे ऊंचे  सूखे में चल कर लौट आता था, ऐसा कि कहीं पैरों के निशान ना पड़े।… और यह पता ना चले कि किसके बैलों ने फसल खाई है। इस प्रकार वह आकर अपने खूटे के पास बैठ जाता था। हां , इस तरह का था वह।….. और वह मर गया तो  समझिए कि  बहुत अकेला हो गया मैं । घर से एक फर्लांग दूर उसे निकिआया गया ।  चमकटिया ले जाते हैं चमड़ा  बनाने के लिए ना । तो उसकी चमड़ी निकाली गई। उसका मांस गिद्ध खा गए । उसका स्केलेटन पड़ा रह गया । जब मैं स्कूल से आता था तो वहां जाता था और देखता था कि मेरा बैल बेचारा बूढ़ा होकर मरा। मैं वहां बैठकर  सोचता था कि यह मेरे जीवन का बहुत अभिन्न था । मेरा मित्र था। हमारा गार्जियन था । आप ऐसे समझिए कि वह कद का बहुत बड़ा नहीं था । जब वह बैल नहीं बनाया गया था, यानी उसका बधिया नहीं किया गया था  तो वह चरने के लिए जाता था। जब गायें हिट में होती है तो सारे बैल पीछे पीछे दौड़ते हैं। उसमें जो बड़े और तगड़े बैल हैं , वे दूसरों को मारपीट कर अपना मौका निकालते हैं ।…..लेकिन हम कहते हैं कि मेरे छोटे कद का मकरा भी किसी न किसी तरह मौका निकाल लेता था अपने काम का। इस तरह का वह बैल था। जो खेती के काम होते हैं , उसमें उसने मुझे मुक्त किए रखा।

आपसे यह वाकया तो मैंने लखनऊ में सुना था दादा।

… हां कथा- क्रम सम्मान में। लोगों ने कहा कि आप अपनी कुछ सुनाइए तो मैंने उसमें वह बैल की कथा सुनाई थी।

…. और कथा सुनाते हुए आपकी आंखों में आंसू आ गए थे। अब बाजीकरण दवा का प्रकरण भी सुना ही डालिए।

यह जो दवा वाली बात कह रहे हैं ना, यह उस समय की बात है जब मैं नाइंथ में था।  मैं ट्रेन से पढ़ने के लिए सुल्तानपुर जाता था। उसी समय स्टेशन पर दोनों तरफ से गाड़ियां आती थी। एक तो इलाहाबाद से आती थी जिस पर मैं आता था और दूसरी जौनपुर से आती थी । एक ट्रेन लखनऊ से आती थी। मेरे पास डेढ़ दो घंटे का समय होता था।

आप ट्रेन पर चढ़ते कहां  थे ?

हमारा पीपरपुर स्टेशन था । वहीं से मैं ट्रेन पर चढता था। एक स्टेशन के बाद सुल्तानपुर पड़ता था। वहां मैं उतर जाता था। ट्रेन मुझे 8. 00 बजे सुल्तानपुर पहुंचा देती थी । मेरा स्कूल लगता था 10:00 बजे । मेरे पास दो घंटे का समय होता था। वहां मजमा लगाने वाले बहुत बैठते थे । कोई सांडे का तेल बेचता था , कोई दर्द का तेल बेचता था तो कोई दंत मंजन बेचता था। नाना प्रकार की चीजें बेचते थे वे लोग ।….तो हम लोग खड़े हो कर सुनते थे। वे बड़े वाकपटु होते थे । उनको बेचना होता था दंत मंजन , लेकिन वे बात कहीं और से शुरू करते थे। वे इतने वाकपटु होते थे कि उनको सुनने में बहुत अच्छा लगता था। हम खड़े हो जाते थे घंटों। इस प्रकार मैंने उनको नाइंथ में सुना , फिर टेंथ में सुना। धीरे धीरे मेरे मन में भी यह बात आई कि मैं भी इस तरह की कोई चीज बनाकर बेंचू  तो मेरा भी काम निकल आएगा ।  आर्थिक संकट तो रहती ही थी।

 आवश्यकता आविष्कार की जननी है दादा।

हां, आवश्यकता आविष्कार की जननी है। हमें पैसे की जरूरत थी उन दिनों।  समझिए कि एक नया पैसा नहीं होता था जेब में उन दिनों। मैं बिना टिकट के सुल्तानपुर जाता था और उसी तरह बिना टिकट के वापस आता था। घर से निकलता था। पीपरपुर में ट्रेन पकड़ता था।  सुल्तानपुर जाता था। कभी यह दिमाग में नहीं रहा कि मजिस्ट्रेट चेकिंग में पकड़े जाएंगे तो फाइन कहां से देंगे। शायद 55 पैसे या 50 पैसे लगते थे टिकट के उन दिनों। इससे ज्यादा नहीं लगता था, लेकिन मेरी जेब में किराए तक के पैसे नहीं होते थे। एक बार मैं मजिस्ट्रेट चेकिंग में पकड़ा गया। वे लोग नहीं ले गए मुझे अपने साथ। उन लोगों ने बस इतना ही किया कि मुझे ट्रेन से उतार दिया और कहा कि भाग जाओ। तब पांच- छह मील पैदल चल कर अपने घर में आया था।

…..  हां तो मैं बता रहा था कि उन्हीं दिनों मैंने सोचा कि अपना कोई प्रोडक्ट उतारें। हमें पैसे की जरूरत थी। तब मैंने सोचा कि क्या बनाएं ? उन दिनों मैं  दवाएं बनाता था।  एक गर्भनिरोधक वटी और एक स्तंभन वटी।….तो ये दो चीजें मैंने उतारी। और होता यह था कि मेरे घर के बगल में एक कंपाउंडर रहता था। वे आई हॉस्पिटल में कंपाउंडर थे। उनके यहां से मुझे छोटी शीशियां मिल जाती थी । उस पर रबर का  ढक्कन लगा होता था। जब मैं कक्षा 11 में था तो मेरी श्रीमतीजी नहीं आई थी। 12वीं   में एक साल बाद वह खुद आ गईं। पहले तो मैं खड़िया मिट्टी लाया, उसे गीली करके उसकी छोटी छोटी गोलियां बनायी और उसमें पीला रंग मिलाया। उस समय एक चमचमाता हुआ कागज आता था , जिसे छूने पर खड़ खड़ आवाज होती है। उसे चमकउआ कागज कहते हैं । वह हल्का गाढ़ा पीले रंग का होता था। उसको लपेट देते थे शीशी पर । उस पर लेबल लगा दिया जाता था। मैंने लेबल छपवा  लिया था। किसी में गर्भ निरोधक वटी और किसी में स्तंभन वटी। दो तरह की दवाएं बनाकर मैं भी बेचने लगा था।

अपने स्टेशन पर तो मैं खड़ा नहीं होता था।  गांव के सारे बच्चे देखते मुझे स्टेशन पर। मैंने मेले में शुरू किया। छुट्टी के दिनों में।  दशहरे के मेले में।  हमारे एरिया में बीस-पच्चीस मेले लगते हैं। दो महीने के अंदर कुंवार से लेकर कार्तिक तक। उस समय स्कूल नागा करके या संडे के दिनों में उन मेलों में मैं जाता था। वहां मैं गर्भनिरोधक बटी और स्तंभन वटी बेचता था। उसमें रहता कुछ नहीं था, लेकिन बिक जाती थी। वह 50 पैसे में बिक  जाती थी। दोनों 50 – 50 पैसे में बिक जाती थी। यह बात है 1967 – 68 की। 69 -70 में फिर मैंने उसकी कीमत ₹1 कर दी थी। उसके बाद 70 में मैंने बी ए कर लिया। फिर एक स्कूल मैं पढ़ाने लगा तब उस काम को मैने छोड़ दिया।

….और दादा, आप कहते थे कि साधु – संन्यासी शाम में उस दवा को खूब ले जाया करते थे। 

( एक शरारती हंसी का स्वर) … एक बार की बात है वह। गारापुर के मेला में मैं गया था। मेरी सारी शीशियां बिक चुकी थी, मात्र 10 – 15 शीशियां बची थी। वहां मैं मजमा लगाए हुए था तो मैंने देखा उधर से एक बाबाजी गुजरे। वे गेरुआ वस्त्र और खड़ाऊं पहने हुए थे। उन्होंने थोड़ी देर तक मुझे सुना फिर आगे निकल गये। जब मैं अपने सामान समेट रहा था तब वे  फिर  थोड़ी देर बाद लौट कर आए। उन्होंने मुझसे कहा, ”   सारी शीशियां मुझे दे दो बच्चा । ”  वे सब ले गए। तो इस तरह मुझे 10-15 मिल गए। मैंने अपने मन में  सोचा कि ये इन दवाओं का क्या करेंगे ? तब दुनिया का इतना अनुभव नहीं था। मेरी नजर में जो बाबा था तो वह बाबा था और जो गृहस्थ था तो वह गृहस्थ था। धीरे-धीरे समझ में आया कि बाबा वह भी…..!

… आसाराम बापू था।

( वहीं  हंसी ) हां, कुछ दिनों तक इन दवाओं की गोलियों ने हमारा आर्थिक संकट हर लिया ।

अपने अभाव से निकलने का जो रास्ता आप ने निकाला यह भी  बड़ी बात है।

मैंने मकरा बैल  और गोलियों वाली बात  ‘ सृजन का रसायन ‘ में , जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित  है,  उसमें लिखी है।

 

 

                                                                    शेष अगले सोमवार को ….

शिवमूर्ति हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार हैं और लखनऊ में रहते हैं । रविशंकर सिंह कहानीकार हैं और बर्नपुर में रहते हैं ।

 

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