Sunday, July 7, 2024
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कभी कालीन उद्योग की रीढ़ रहा एशिया का सबसे बड़ा भेड़ा फार्म आज धूल फाँक रहा है!

नौगढ़। उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिले चंदौली के तालुके नौगढ़ का भेड़ प्रजनन केंद्र जिसको स्थानीय लोग भेड़ा फार्म कहते हैं, एशिया का सबसे बड़ा भेड़ा फार्म है लेकिन अब यह एक विडम्बना बन गया है। 1973 में बने इस भेड़ा फार्म का शुरुआती विस्तार पाँच हज़ार एकड़ में था जो नौगढ़ से रिठिया, जरगर, […]

नौगढ़। उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिले चंदौली के तालुके नौगढ़ का भेड़ प्रजनन केंद्र जिसको स्थानीय लोग भेड़ा फार्म कहते हैं, एशिया का सबसे बड़ा भेड़ा फार्म है लेकिन अब यह एक विडम्बना बन गया है। 1973 में बने इस भेड़ा फार्म का शुरुआती विस्तार पाँच हज़ार एकड़ में था जो नौगढ़ से रिठिया, जरगर, बसौली, लालतापुर, भैसौड़ा बांध तक फैला हुआ था। भैसौड़ा बांध तो मूलतः भेड़ा फार्म के लिए ही बनाया गया था। लेकिन आज भेड़ा फार्म का प्रशिक्षण केंद्र न केवल वीरान हो चुका है बल्कि उसके खिड़की, दरवाजे, पल्ले सब उखड़ रहे हैं। छत पर घास उग रही है। संविदा पर काम कर रहे दो चौकीदारों के अलावा शायद ही कोई और यहाँ आता हो। यहाँ के एक चौकीदार ने बताया कि कई साल से यहाँ प्रशिक्षण का कोई कार्यक्रम नहीं हुआ। बसौली गाँव के कैलाश यादव ने बताया कि कुछ साल पहले एक कॉलेज वालों ने बिल्डिंग अपने लिए पाने की कोशिश की लेकिन उन्हें नहीं दी गई। इस जगह से तीन-चार सौ मीटर दूर वह फार्म है जहां भेड़ें रहती हैं। भेड़ों की संख्या भी लगातार कम होती जा रही है।

उदासीन पड़ा भेड़ा फार्म

भेड़ा फार्म को लेकर आसपास के गांवों के लोग अनेक प्रकार की बातें बताते हैं। जिन दिनों यह शुरू हुआ था उन दिनों लोगों को इससे बड़ी सख्या में रोजगार की उम्मीद थी। बताया जाता है कि उन दिनों बसौली के रहनेवाले ब्लॉक प्रमुख शांता सिंह ने इसे यहाँ लाने में बुनियादी भूमिका निभाई थी। जिस समय भेड़ा फार्म की बिल्डिंग नहीं बनी थी तब उन्होंने उस समय बसौली गाँव में ही भेड़ों और चरवाहों के रहने के लिए जगह का इंतजाम किया था लेकिन बाद में उनका गाँव इस योजना से बाहर हो गया। स्थानीय लोगों को रोजगार भी नहीं मिला और फिलहाल इसकी तीन-चौथाई से अधिक ज़मीनें वन विभाग को जंगल लगाने के लिए दे दी गईं। अब विशाल वन प्रांतर दिखाई देता है जिसमें कहीं-कहीं महुए, पीपल और सागौन के पेड़ दिखते हैं और ज़्यादातर में पलाश की झाड़ियाँ हैं। लालतापुर की सीमा से कुछ बीघे दूर एक झंडा दिखता है जो किसी छोटे-मोटे मंदिर का है।

ज़मीन पर धूसरित और किंवदंतियों में रेंगता एक संस्थान

वन विभाग द्वारा वापस लिए जाने के बाद भेड़ा फार्म का पूरा रकबा अब पलाश की झाड़ियों से आबाद है। गर्मी का मौसम आने पर जब पलाश फूलता है तब लगता है मानो जंगल में आग लगी हो। हालांकि, इस आग से शायद ही किसी की बटलोई का भात पका हो लेकिन किसी समय इस ज़मीन ने ढेरों सपने और उम्मीदें पैदा की थी। हजारों लोगों के रोजगार की सुगबुगाहट थी लेकिन अब इस विषय में कोई बात नहीं करता हालांकि, जब कोई संदर्भ आ जाए और कई लोग मौजूद हों तो बहुत-सी बातें चल निकलती हैं।

सन 1973-74 में स्थापित वृहद भेड़ प्रजनन प्रक्षेत्र भैसौड़ा, नौगढ़ अर्थात भेड़ा फार्म जरहर, रिठिया और नौगढ़ प्रखंड में विस्तृत है और उस समय इसकी कुल भूमि 4798.95 एकड़ थी। इसमें विकसित कृषि योग्य भूमि 440 एकड़ और अविकसित कृषि योग्य भूमि 620 एकड़ थी। नदी, नाला और तालाब 380 एकड़ में, 560 एकड़ बंजर और पथरीली भूमि थी। अविकसित चरागाह 2798 एकड़ में था।

नौगढ़ बाज़ार में राम हलुवाई की दुकान पर नंबर एक की बर्फी यानी कम चीनी वाली बर्फी चुभलाते हुये एक सज्जन बोले- ‘अब तो सब खत्म हो गया। चरवाहों को तनख्वाह देने को पैसा नहीं है। कई महीने पहले चरवाहों ने हड़ताल किया था। लेकिन अभी इसकी हालत खराब हुई है। अगर सरकार ने ध्यान दिया होता तो आज यहाँ से हजारों घरों में चूल्हा जलता।’

वहीं पर बैठे लौवारी कलाँ के युवा ग्राम प्रधान जसवंत यादव बोले कि वे भेड़ा फार्म के डॉ. अशोक सिंह को जानते हैं। फिर उन्होंने डॉ. अशोक सिंह को फोन मिलाया। वे उस समय सेंटर पर नहीं थे बल्कि कहीं गए थे। बातचीत डॉ. अशोक सिंह को लेकर होने लगी। किसी तीसरे सज्जन ने कहा कि अशोक सिंह बहुत कर्मठ डॉक्टर हैं। जसवंत ने बताया कि ‘पद से तो वे वेटनरी अफसर हैं लेकिन सबेरे उठकर झाड़ू भी लगा देते हैं। उन्हें इस बात से कोई परवाह नहीं है कि कोई क्या कहेगा। बस सेंटर साफ-सुथरा रहना चाहिए। भेड़ों की लेड़ी और पेशाब की बदबू नहीं दिखनी चाहिए।’

भेड़ा फार्म की तरह सरकारी दीवार और बोर्ड की लिखाई भी अनदेखी और दुर्दशा का शिकार हो गई

तरह-तरह की बातें थीं। मेरी भी जिज्ञासा बढ़ रही थी कि आखिर इतने कर्मठ और कर्तव्य-परायण अफसरों और कर्मचारियों के रहते हुये एक बड़ी परियोजना बरबादी के कगार पर कैसे पहुँच गई? हालांकि, इस देश में न जाने कितनी परियोजनाएं धूल फांक रही हैं और कितनी तो शुरू ही नहीं हो पाईं कि बंद हो गईं। नौगढ़ से सौ सवा सौ किलोमीटर दूर सोनभद्र जिले की दुद्धी तहसील में पचास साल पहले शुरू हुई कनहर सिंचाई परियोजना आज भी पूरी नहीं हो सकी, जबकि उसका बजट लगातार बढ़ते-बढ़ते पाँच सौ करोड़ को भी पार कर गया है। बनारस में बीच गंगा में नहर खुदवाने के नाम पर 18 करोड़ रुपये स्वाहा हो गए। कहीं यह भेड़ा फार्म भी ऐसी ही शृंखला की एक कड़ी तो नहीं है?

भेड़ा फार्म में भेड़ों की संख्या लगातार घट रही है

शाम के समय हम उस जगह पहुंचे जहां भेड़ों का शेल्टर है। यह जगह देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि इसे बने हुये पचास साल हो चुके हैं। दीवारें पुरानी हो चुकी हैं और उनपर लिखे हुये अक्षर मिट चुके हैं। दीवार से लगा बोर्ड पढ़कर भी किसी सूचना की थाह नहीं ली जा सकती।

बंसी लाल पाल और सोहनलाल यादव

जब हम पहुंचे तब भेड़ें चराकर वापस लाई जा चुकी थीं। वहाँ दो चरवाहे मिले। बंसी लाल पाल और सोहनलाल यादव। सोहनलाल ग्राम डुमरिया, चकिया के रहने वाले हैं। बंसी लाल चंदौली के गाँव सवैया केराय के रहने वाले हैं और उनकी नौकरी स्थायी है। कुल चौदह चरवाहों में एकमात्र बंसी लाल ही परमानेंट हैं और सबसे पुराने भी। सोहनलाल यादव समेत बाकी तेरह लोग संविदा पर हैं और उन्हें दो सौ रुपये प्रतिदिन मानदेय मिलता है। पहले सत्तर चरवाहे थे जो संविदा पर काम करते थे। लेकिन कुल चौदह ही रह गए हैं।

बंसी लाल शुरुआती दौर के कर्मचारी हैं और बताते हैं कि जब भेड़ा फार्म बसौली गाँव में शुरू हुआ तब वे नियुक्त हुये थे। उस समय वे बसौली में शांता सिंह के घर पर रहते थे। वे बताते हैं कि जब यहाँ भेड़ा फार्म शुरू हुआ तो वह सबसे बड़ा सरकारी उपक्रम था और बहुत से लोगों को इसमें काम मिला।

एक समय यहाँ 1400 भेड़ें हुआ करती थीं अब एक तिहाई ही रह गई हैं।

वे बताते हैं कि भेड़ा फार्म एशिया का सबसे बड़ा भेड़ प्रजनन केंद्र था, जिसमें उन्नत नस्ल की भेड़ें पैदा की जाती थीं। अब यहाँ मात्र 500 भेड़ें रह गई हैं। एक भेड़ से ढाई किलो ऊन मिलता है। लेकिन मेरिनो नस्ल की रशियन भेड़ों से नौ किलो ऊन निकलता था। अब वे नहीं पाली जातीं।

ऊन को कौन और कैसे निकालता है? यह पूछने पर बंसी लाल बताते हैं कि हम ही लोग ऊन निकालते हैं। पहले मशीन से निकाला जाता था लेकिन अब कैंची से निकाला जाता है। ऊन निकालने के बाद उसे मीरजापुर ले जाते हैं और तुलवाकर वहीं छोड़ आते हैं। बाद में अकाउंट में पैसा आता है।

बंसी लाल अब कुछ महीनों में सेवानिवृत्त होने वाले हैं। उनके पास इस जगह से जुड़ी बहुत-सी बातें हैं। उन्हें इस बात का दुख भी है कि भेड़ा फार्म लगातार घट रहा है और इसमें बढ़ोत्तरी नहीं हो रही हैं। सुबह से शाम तक वे अपने अन्य चरवाहा साथियों के साथ भेड़ों को लेकर जंगल में चराने जाते हैं। वे इन जंगलों के हर हिस्से से परिचित हैं। रिटायर होने पर बहुत दिनों तक इसको याद कर उदास होंगे।

पचास साल पुराने मुख्यालय की ओर

नौगढ़ तहसील के ठीक बगल में भेड़ा फार्म का केंद्रीय कार्यालय है। सबसे पहले हमने इसकी स्थापना को सूचित करने वाले शिलापट्ट की तस्वीर ली। इस सेंटर का शिलान्यास 11 जुलाई, 1973 को भारत सरकार के तत्कालीन कृषि एवं पशुपालन राज्यमंत्री प्रोफेसर शेर सिंह ने किया था।

11 जुलाई, 1973 में भारत सरकार के तत्कालीन कृषि और पशुपालन राज्य मंत्री प्रोफेसर शेर सिंह द्वारा लोकार्पित हुआ था वृहद् भेड़ा फार्म

तत्पश्चात हम ऑफिस में गए। वेटनरी ऑफिसर डॉ. अशोक सिंह और दो अन्य कर्मचारी मौजूद थे। डॉ. अशोक सिंह वास्तव में बहुत उत्साही हैं और उन्हें इस बात को कहते हुये फख्र महसूस होता है कि वे एक किसान परिवार से आते हैं। उनका पैतृक गाँव वाराणसी-मीरजापुर की सीमा पर निगतपुर है। वे यहाँ 2014 से नियुक्त हैं।

मैंने जब उनसे नौगढ़ बाज़ार में होने वाली उनकी तारीफ के बारे में बताया तो वे भारी संकोच में पड़ गए। वस्तुतः वे अत्यंत विनम्र व्यक्ति हैं और आत्मप्रचार से बचते हैं। साफ-सफाई के बारे में उन्होंने कहा कि इस ऑफिस के पास कुछ समय तक सीआरपीएफ कैंप था और वे लोग साफ-सफाई को लेकर बहुत जागरूक थे। जब कैंप उखड़ने लगा तो उनके कमांडेंट ने कहा कि डॉ. साहब अब यह जगह ऐसी साफ-सुथरी नहीं रहेगी। बात मुझे लग गई और मैंने चुनौती स्वीकार करते हुये झाड़ू उठा लिया। तब से यह मेरी दिनचर्या में है।

फार्म के बारे में कुछ जानकारी

परियोजना अधिकारी डॉ. सुरेश चन्द्र शुक्ल बनारस में हैं और डॉ. अशोक सिंह ने ऑफिशियल अनुशासन के कारण उनकी अनुपस्थिति में किसी तथ्य को लिखने या रिकॉर्ड करने से मना कर दिया। उन्होंने हमारे लिए चाय मँगवाई। भेड़ा फार्म के तथ्यों को लेकर बनाई गई एक पुस्तिका दिखाई और नोट न करने की हिदायत देते हुये कुछ जानकारियाँ दी।

सन 1973-74 में स्थापित वृहद भेड़ प्रजनन प्रक्षेत्र भैसौड़ा, नौगढ़ अर्थात भेड़ा फार्म जरहर, रिठिया और नौगढ़ प्रखंड में विस्तृत है और उस समय इसकी कुल भूमि 4798.95 एकड़ थी। इसमें विकसित कृषि योग्य भूमि 440 एकड़ और अविकसित कृषि योग्य भूमि 620 एकड़ थी। नदी, नाला और तालाब 380 एकड़ में, 560 एकड़ बंजर और पथरीली भूमि थी। अविकसित चरागाह 2798 एकड़ में था।

फिलहाल, अब भेड़ा फार्म के पास 72 एकड़ का रकबा है। शेष ज़मीन में 60 एकड़ पर देउरा के विस्थापित किसानों का कब्जा है। 308 एकड़ में वन विभाग द्वारा पौधरोपण किया गया है। भेड़ा फार्म के पास तीन जगह भवन हैं। यह मुख्य कार्यालय, नौगढ़-मधुपुर मार्ग पर प्रशिक्षण केंद्र और भैसौड़ा मार्ग पर भेड़ा फार्म है जहां भेड़ें रखी जाती हैं।

अपने हाल पर आँसू बहाता भेड़ा फार्म

तीनों जगह की बिल्डिंग्स देखने से पता चलता है कि एशिया का सबसे बड़ा भेड़ प्रजनन केंद्र कितना उपेक्षित और जर्जर हो चुका है जबकि यह सरकार की एक महत्वाकांक्षी परियोजना थी। वास्तव में यह भेड़ों के नस्ल सुधार और उन्हें विकसित करने के लिए शुरू की गई परियोजना थी। ऊन और दुग्ध उत्पादन के उद्देश्य से अविकसित नस्लों को विकसित नस्लों से प्रजनन कराकर एक नई नस्ल पैदा करना और विभिन्न केन्द्रों के साथ ही स्वतंत्र रूप से गड़रियों को देना इस केंद्र का उद्देश्य है।

भेड़ों के लिए बना भवन

इस जगह के अतिरिक्त धानापुर, कमालपुर, सकलडीहा, चिरईगाँव, सैदूपुर, बबुरी और शिकारगंज में भेड़ा सेंटर बनाए गए। यहाँ से विकसित नस्ल की भेड़ें इन केन्द्रों पर भेजी जाती हैं। ये सेंटर चरवाहों को सात हज़ार रुपये में भेड़ उपलब्ध कराते हैं तथा उनसे ऊन इकट्ठा करते हैं। लेकिन चरागाहों के घटते जाने से उन केन्द्रों पर भी उतनी तेजी नहीं रही। नौगढ़ भेड़ा फार्म का विस्तृत रकबा भेड़ों को चरने के लिए पर्याप्त है लेकिन दूसरे केन्द्रों पर ऐसा नहीं है।

किसी जमाने में यहाँ रूस से मेरिनो नस्ल की भेड़ें मंगाई गई थीं जिनसे उन्नत दर्जे का ऊन प्राप्त होता था लेकिन अब वे भेड़ें नहीं हैं। एशिया के इस सबसे बड़े भेड़ प्रजनन केंद्र को भदोही और मीरजापुर के कालीन उद्योग के मद्देनजर ऊन उत्पादन के लिए विकसित किया गया था। इसके योजनाकारों ने मौसम तथा चारे की उपलब्धता को देखते हुये नौगढ़ को चुना।

सारी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी थीं। कालीन उद्योग में मांग की पूर्ति के लिए ऊन की पैदावार होने से अधिकाधिक लोगों को रोजगार मिलना संभावित था। लेकिन कालीन उद्योग के लगातार सिमटते जाने से मांग में कमी आती गई जिससे इस परियोजना को सुचारु रूप से चलाया नहीं जा सका। हालांकि, आज भी यहाँ से ऊन मीरजापुर केंद्र पर जाता है लेकिन उससे प्रजनन केंद्र को खास फायदा मिलता नहीं दिखता। मांग में लगातार कमी होते जाने से अन्य केन्द्रों के लिए प्रजनन केंद्र से अधिक भेड़ें नहीं भेजी जा रही हैं। लिहाजा, एक-दूसरे से मांग और पूर्ति के अन्योन्यश्रित संबंध रखने वाले सारे घटक धीरे-धीरे उपेक्षा का शिकार होते गए।

पहले प्रजनन केंद्र और दूसरे केन्द्रों पर कुल 82 स्टाफ था लेकिन अब केवल 17 रह गए हैं। 65 पद लंबे समय से रिक्त हैं। चरवाहों के अधिकतर पद संविदा पर हैं। एक बार चरवाहों ने वेतन के लिए हड़ताल भी किया था। पहले 1400 भेड़ें थीं लेकिन उनकी संख्या एक तिहाई रह गई है।

जंग लगकर गिर रहीं है खिड़की की जाली

प्रशिक्षण केंद्र पर पिछले कई साल से कोई प्रशिक्षण ही नहीं हुआ है। एक विशाल प्रांतर में बने प्रशिक्षण भवन के एकेडमिक ब्लॉक और छात्रावास अब खंडहर हो रहे हैं। छतों पर घासें उग आई हैं। कमरों के दरवाजों पर ताला लगा है लेकिन खिड़कियों के चौखट उखड़ रहे हैं। जालियाँ जंग लग जाने से टूटकर गिर रही हैं। कमरों में गंदगी, सीलन और बदबू भरी हुई है। सभी हैंडपंप उखड़ चुके हैं।

संभावनाओं की कमी नहीं अगर नीति और नीयत सही हो

भारत में परियोजनाएं एक फैशन के साथ शुरू होती हैं और भारी बजट के खर्च के बाद अंतिम सांस लेने लगती हैं। कई बार तो बिना सोचे-समझे भी धूम-धड़ाके से शुरू होती हैं और कुछ समय बाद पता लगता है दिशा ही गलत चुन ली गई। फिर उसे ठीक करने के लिए एक नए बजट का प्रावधान किया जाता है लेकिन उससे भी स्थिति सुधरने की बजाय और भयावह होती जाती है। राजनीतिक विद्वेष और अवसरवादी नौकरशाही की भी शिकार परियोजनाएं ही होती हैं।

खस्ताहाल कक्षा। कमरे की हालत देखकर ही पता चल रहा है कि इसमें वर्षों से कोई नहीं आया।

सुप्रसिद्ध पत्रकार पी. साईनाथ की एक रिपोर्ट का ज़िक्र करना मौजू होगा जो उन्होंने मध्य प्रदेश के खरियार नस्ल के साँड़ों को लेकर लिखी थी। मध्य प्रदेश पशुपालन विभाग ने यह विचार किया कि खरियार नस्ल के साँड़ों के कारण उन्नत कोटि के बछड़े नहीं पैदा हो रहे हैं इसलिए विभाग ने तय किया कि खरियार नस्ल के सभी साँड़ों को बधिया करना होगा। इस परियोजना में तत्कालीन समय में नौ करोड़ रुपये का बजट खर्च किया गया। तीन साल बाद पाया गया कि नई नस्ल के साँड़ों से न केवल गायों की समस्याएँ बढ़ गई हैं बल्कि बैलों की प्रजाति भी कृषि के सर्वथा अनुपयुक्त है। फिर से विचार हुआ और तय किया गया कि खरियार साँड़ों का ही पुनः विकास किया जाय लेकिन तब तक सभी साँड़ों का बधियाकरण किया जा चुका था। तब फिर दस करोड़ का बजट खर्च तय किया गया और बहुत मुश्किल से एक खरियार साँड़ ढूंढकर पाया जा सका। लेकिन बाद में कई साल की मेहनत के बावजूद फिर से उस नस्ल को विकसित नहीं किया जा सका।

नौगढ़ का भेड़ा फार्म भारत के क्षेत्रफल और ज़रूरतों को देखते हुये एक आकर्षक और बड़ी परियोजना हो सकती थी। देश भर में भेड़पालन में एक क्रांतिकारी उपलब्धि हासिल हो सकती थी। ऊन और दुग्ध उत्पादन का बहुत बड़े पैमाने पर विकास हो सकता था। हजारों लोगों को रोजगार मिल सकता था लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अब यह परियोजना न केवल धूल-धूसरित हो चुकी है, बल्कि आगे इसका क्या भविष्य होगा इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।

भेड़ प्रजनन केंद्र नौगढ़ के परियोजना अधिकारी डॉ. सुरेश चंद्र शुक्ल

बेशक यह सरकारी उपेक्षा और नौकरशाही का भी शिकार हुई है और इसको लेकर कोई विजनरी योजना न तो बनी और न ही कामयाब होने पाई। दो सौ रुपये प्रतिदिन के मानदेय पर संविदा वाले चरवाहों का जीवन और भविष्य क्या हो सकता है। इसकी कल्पना बहुत कठिन नहीं है। जैसा कि भेड़ प्रजनन केंद्र नौगढ़ के वर्तमान परियोजना अधिकारी डॉ. सुरेश चंद्र शुक्ल कहते हैं कि वे कई संकटों से जूझ रहे हैं जिनमें बजट एक बड़ा संकट है।

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3 COMMENTS

  1. आपके द्वारा दी गई जानकारी पूर्णता सत्य है हम नौगढ़ से ही है हमेंं भी भेड़ा फार्म के बारे में जानकारी नहीं थी।
    यह देखकर हमें बहुत अच्छा लगा 👌

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