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ग्राउंड रिपोर्ट

छत्तीसगढ़ धर्मांतरण मामला : झूठे साबित हुए हिंदुत्व के ठेकेदार, ननों को मिली जमानत

फिलहाल सिस्टर प्रीति मैरी, वंदना फ्रांसिस और आदिवासी युवक सुखमई को जमानत मिल गई है। इस प्रकरण में पूरे देश में हुए हंगामे के बाद एनआईए अदालत से आरोपियों को जमानत मिलने का एक ही अर्थ है कि सरकार के प्रथम दृष्टया सबूतों को अदालत ने खारिज कर दिया है।

जब हमारा प्रतिनिधिमंडल (जिसके सदस्यों में कॉमरेड एनी राजा, संसद सदस्य और पार्टी नेता श्री जोस के. मणि, के. राहकृष्णन, ए.ए. रहीम, पी.पी. सुनीर और मैं स्वयं शामिल थीं।) दुर्ग केंद्रीय कारागार में ननों – सिस्टर प्रीति मैरी और वंदना फ्रांसिस से मिला, तो दोनों बहनों के साहस और गरिमापूर्ण व्यवहार ने छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के घोर अन्याय को और भी उजागर कर दिया। वे आदिवासी युवक सुखमन मंडावी के लिए ज़्यादा चिंतित थीं, जिसे उनके साथ ही गिरफ्तार किया गया था।

ये दोनों नन दशकों से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ सबसे वंचित और दूरदराज के इलाकों में, जहाँ कोई सुविधाएँ नहीं हैं, नि:स्वार्थ सेवा कर रही हैं। वे अपने संस्थानों द्वारा स्थापित क्लीनिक और अस्पतालों में सभी  तबकों के गरीबों की सेवा कर रही हैं और मदद के लिए आने वाले लोगों का धर्म या जाति कभी नहीं पूछतीं। हमने सोचा कि उन्हें इस निरंतर कार्य के लिए पुरस्कृत किया जाना चाहिए, लेकिन इसके बजाय उन्हें जेल में डाल दिया गया। दोनों नन अभी तक जेल में ही हैं, जबकि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप पूरी तरह से झूठे और मनगढ़ंत साबित हुए हैं। जबरन धर्मांतरण का आरोप ही झूठा है, क्योंकि ननों के साथ मौजूद संबंधित आदिवासी तो कई साल पहले ईसाई धर्म अपना चुके हैं। अगर वे पहले से ही ईसाई हैं, तो जबरन धर्मांतरण का मुद्दा कहाँ से उठता है? दूसरी बात, मानव तस्करी के मुद्दे पर। तीनों आदिवासी युवतियाँ बालिग हैं, यह उनके आधार कार्ड से साबित होता है। उन्होंने बयान दिया है कि वे अपनी मर्ज़ी से उनके साथ जा रही थीं। उनके माता-पिता ने भी ऐसा ही बयान दिया है। इसलिए, मानव तस्करी का आरोप भी झूठा है। फिर भी भाजपा सरकार ने बेशर्मी से मामला एनआईए को भेज दिया है, ताकि ज़मानत मुश्किल हो जाए। अगर कहीं जबरन धर्मांतरण का मामला है, तो वह है छत्तीसगढ़ को हिंदुत्व राष्ट्र में जबरन बदलने का मामला।

जब हम जेल में ननों से मिले और मैंने उनका हाथ पकड़ा, तो पता चला कि दोनों को बुखार था। उन्हें कुछ पुरानी स्वास्थ्य समस्याएँ थीं, जिनके लिए उन्हें नियमित उपचार की आवश्यकता थी, लेकिन जेल में, जेल की सर्द, ठंडी फर्श पर सोने से उनकी हालत और बिगड़ गई। हमने जेल अधीक्षक से बहस की कि वह ननों  को बिस्तर उपलब्ध कराएं और उन्हें उचित जाँच के लिए अस्पताल भेजें। हम सुखमन मंडावी नामक उस आदिवासी युवक से भी मिले, जो इसी मामले में जेल में बंद था।

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तीन आदिवासी महिलाएं, जो काम के लिए नन के साथ जा रही थीं

उन्होंने हमें पूरा घटनाक्रम बताया। आगरा, भोपाल और शहडोल स्थित उनके संस्थानों को रसोई सहायकों की आवश्यकता है। पूर्व सहायकों में से एक, सुखमती नामक एक आदिवासी महिला है, जो कई वर्षों तक अस्पताल में काम कर चुकी थी। उसने अपनी शादी के कारण नौकरी छोड़ दिया था और छत्तीसगढ़ स्थित अपने गाँव में चली गई थी। अब वह तीन साल के बच्चे की माँ है। उससे संपर्क करके पूछा गया था कि क्या वह किसी ऐसे व्यक्ति को जानती है, जो यह नौकरी करना चाहेगा, वेतन 10,000 रुपये प्रति माह है। सुखमती ने नारायणपुर जिले के अपने गाँव में अपने कुछ परिचित परिवारों से संपर्क किया, तो तीन परिवार इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए। तीन युवा आदिवासी महिलाओं – ललिता, कमलेश्वरी और एक तीसरी महिला, जिसका नाम भी सुखमती है – ने पहले प्रशिक्षण के लिए आगरा और फिर किसी एक संस्थान में जाने की अपनी यात्रा की योजना बनाई। चूंकि इनमें से किसी भी युवती ने पहले अपने जिले से बाहर यात्रा नहीं की थी और इसलिए वे स्वाभाविक रूप से वे घबराई हुई थीं। इसलिए उनके माता-पिता ने पूर्व-सहायिका सुखमती के बड़े भाई सुखमन मरांडी को उनके साथ दुर्ग रेलवे स्टेशन तक जाने की व्यवस्था की, जहाँ नन उनसे मिलने और उन्हें आगरा तक छोड़ने वाली थीं। स्टेशन पर सुखमन ने प्लेटफ़ॉर्म टिकट नहीं खरीदा था। एक गुज़रते हुए टिकट निरीक्षक ने इस समूह को देखा और उनसे उनके टिकट मांगे। उन्होंने बताया कि टिकट उन ननों के पास हैं, जिनसे वे मिलने वाली थीं। इस बातचीत ने अन्य लोगों का भी  ध्यान खींचा और वहाँ मौजूद लोगों में से एक बजरंग दल का सदस्य था। इसी बीच नन भी आ गईं। जल्द ही वहां बजरंग दल के लोगों की भीड़ जमा हो गई और उन्होंने आक्रामक नारे लगाते हुए रेलवे पुलिस से उन्हें गिरफ्तार करने की माँग की। समूह को रेलवे पुलिस नियंत्रण कक्ष में धकेल दिया गया। वहाँ सभी ने बयान दिया कि वे अपनी मर्ज़ी से जा रही हैं। सुखमन ने लड़कियों के माता-पिता से फ़ोन पर संपर्क किया और उन्होंने भी पुलिस को बताया कि यात्रा को उनका समर्थन और सहमति प्राप्त है।

लेकिन इस मामले में ये तथ्य काम नहीं कर रहे थे, बल्कि आरएसएस संगठनों का जहरीला एजेंडा काम कर रहा था। ननों ने हमारे प्रतिनिधिमंडल को बताया कि  मूकदर्शक बनी रही पुलिस के सामने, दुर्गा वाहिनी से जुड़ी ज्योति शर्मा नामक महिला के नेतृत्व में बजरंग दल के गुंडों ने उन सभी पर मौखिक और शारीरिक हमला शुरू कर दिया। इसे साबित करने के लिए वीडियो साक्ष्य मौजूद हैं। ननों को बेहद गंदी लैंगिकवादी भाषा में गालियां दी गईं, जिसे यहां दोहराया नहीं जा सकता, लेकिन जो कानून के तहत मौखिक यौन उत्पीड़न का अपराध है। उन्हें धमकाया गया, कोसा गया, डराया गया और अपमानित किया गया। तीनों आदिवासी महिलाओं पर शारीरिक हमला किया गया। उनमें से एक ने सार्वजनिक बयान दिया है कि कैसे ज्योति शर्मा ने उसे दो बार थप्पड़ मारे और उनसे बयान देने की मांग की कि उन्हें तस्करी के लिए ले जाया जा रहा है। प्रत्येक लड़की को अलग-अलग बगल के कमरे में ले जाया गया और बयान देने के लिए मजबूर किया गया।

अगर बजरंग दल और उसके लोग पुलिस के सामने इस तरह की हरकत करने की हिम्मत कर पा रहे हैं, तो इसकी वजह सिर्फ़ यही है कि उन्हें भाजपा सरकार का पूरा समर्थन हासिल है। स्पष्ट सबूतों के बावजूद, इस अत्याचार के दोषियों के ख़िलाफ़ कोई मामला दर्ज नहीं किया गया है।

निचली अदालत में ज़मानत याचिकाएँ दायर की गईं थीं, जिन्हें खारिज कर दिया गया। जब सत्र न्यायालय में अपील की गई, तो अभियोजन पक्ष ने न्यायाधीश से कहा कि सत्र न्यायालय के पास कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, क्योंकि बीएनएस की धारा-143 के तहत मामले की सुनवाई राष्ट्रीय जाँच एजेंसी के तहत विशेष अदालत द्वारा की जानी चाहिए। 2018 में, मोदी सरकार ने राष्ट्रीय जाँच एजेंसी अधिनियम में संशोधन किया था और मानव तस्करी से संबंधित तत्कालीन आईपीसी की धारा-370 को अपराधों की अनुसूची में शामिल किया था। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि मानव तस्करी के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव हैं। बहरहाल, अधिनियम में यह नहीं कहा गया है कि मानव तस्करी के सभी मामलों की अनिवार्य रूप से एनआईए द्वारा जाँच की जानी चाहिए। वर्तमान मामले में, जाँच स्थानीय पुलिस द्वारा की गई थी। स्थानीय अदालत ने पहले ज़मानत की अर्जी पर सुनवाई की। उस समय अभियोजन पक्ष द्वारा इस बात का कोई उल्लेख नहीं किया गया था कि मामला एनआईए को भेजा गया था। सत्र न्यायालय में अपील में अभियोजन पक्ष ने सरकार की ओर से कोई अधिसूचना भी नहीं दिखाई कि मामला एनआईए को भेजा गया है। यह एक और घोर अन्याय है। चूँकि मामला बनावटी और फर्जी है, इसलिए एनआईए को सौंपने से ज़मानत मिलना और भी मुश्किल हो जाएगा। यह डबल इंजन वाली मोदी सरकार का चेहरा है।

ईसाई समुदाय को निशाना बनाने के अलावा, इस मामले में और भी कई मुद्दे शामिल हैं। यह भारत के किसी भी नागरिक के, देश में कहीं भी यात्रा करने और काम करने के, संवैधानिक अधिकार पर हमला है। क्या ईसाई समुदाय से ताल्लुक रखने वाली एक युवा आदिवासी महिला को दूसरे राज्य की यात्रा करने के लिए बजरंग दल जैसे आरएसएस के संगठन से पासपोर्ट पर मुहर लगवानी पड़ेगी? वयस्क आदिवासी ईसाई महिलाओं को यह साबित करने के लिए सबूत क्यों दिखाने पड़ेंगे कि वे क्यों और किसके साथ यात्रा कर रही हैं? यह मामला एक भयावह मिसाल कायम करता है, जिसका सीधा असर काम के लिए अपने गाँवों से बाहर जाने वाली युवा आदिवासी महिलाओं के जीवन और आजीविका पर पड़ता है। दूसरा मुद्दा ननों और आदिवासी महिलाओं पर हमले की प्रकृति का है। क्या कोई भी पुरुष या महिला, हिरासत में लिए गए लोगों के खिलाफ मौखिक यौन उत्पीड़न जैसी भाषा का इस्तेमाल कर सकता है और उस पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता? यह भी एक लैंगिक भेदभावपूर्ण हमला था, जो सभी महिलाओं के अधिकारों से जुड़ा है। हमारे प्रतिनिधिमंडल से बातचीत करते हुए बहादुर सिस्टर प्रीति मैरी केवल एक बार ही रोईं, जब उन्होंने बताया कि गुंडों ने उन पर विदेशी होने का आरोप लगाया और उन्हें राष्ट्रीय हितों के खिलाफ काम करने वाली ‘धीमक (दीमक)’ कहा। आँखों में आँसू भरकर उन्होंने पूछा, “इतने सालों से गरीबों, कुष्ठ रोगियों और दूरदराज के इलाकों में, जहाँ कोई सुविधा नहीं है, उनके लिए काम करने के बाद, क्या मुझे राष्ट्र-विरोधी दीमक कहा जाएगा? मेरा धर्म मुझे गरीबों के लिए काम करने के लिए प्रेरित करता है, तो मुझे इसकी सज़ा क्यों दी जाए?”

हमने भारत के गृह मंत्री द्वारा बंगाली भाषी मुसलमानों को अवैध प्रवासी कहकर गाली देने के लिए अक्सर ‘दीमक’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल होते सुना है। यहाँ छत्तीसगढ़ में, ईसाई ननों को “दीमक” कहा जा रहा है। दुर्ग सेंट्रल जेल की उस कोठरी और दिल्ली व अन्य जगहों की बस्तियों के बीच, जहाँ भारतीय नागरिकों और बंगाली भाषी मुसलमानों को अवैध प्रवासियों का पता लगाने के नाम पर परेशान और प्रताड़ित किया जा रहा है, हमने जो शब्द सुने हैं, वे ये हैं: “जो कोई भी हिंदुत्व के ढाँचे में फिट नहीं बैठता, उसे विदेशी कहा जा सकता है और उसके अधिकारों में कटौती की जा सकती है।” इसे एक कदम आगे बढ़ाते हुए, बिहार में लाखों मतदाताओं, मुख्यतः गरीब, दलित और हाशिए के समुदायों के मतदाताओं को मतदाता सूची में शुद्धिकरण के लिए विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान में विदेशियों का पता लगाने के नाम पर हटाया जा रहा है। पकड़े गए विदेशियों की संख्या नगण्य है, लेकिन चुनाव आयोग द्वारा मांगे गए दस्तावेज़, जिन्हें प्राप्त करना असंभव है, ने मूल रूप से गरीबों से हर भारतीय के मूल अधिकार, चुनाव में मतदान करने के अधिकार, को छीन लिया है।

पूरे भारत में जो कुछ हो रहा है, उसे एक साथ जोड़िए। ननों और आदिवासी ईसाइयों पर भयानक हमला और गिरफ़्तारी कोई अकेली घटना नहीं है। पादरी नीमॉलर ने जो कहा था, उसे शब्दों में कहें तो अगर हम आज चुप रहे, तो कल जब वे हम पर हमला करेंगे, तो विरोध करने वाला कोई नहीं होगा।

हमारे दौरे के बाद, हमें पता चला कि यूडीएफ सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने भी जेल का दौरा किया था। हमने प्रेस रिपोर्ट्स देखीं, जिनमें राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस नेताओं ने संसद के बाहर तख्तियाँ पकड़ी थीं। ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन अक्टूबर 2022 से फरवरी 2023 तक, जब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता में थी, ईसाई आदिवासियों पर कई भयानक हमले हुए थे। नारायणपुर के मुख्य कैथोलिक चर्च पर हमला किया गया और ईसा मसीह और मदर मैरी की मूर्तियों को तोड़ दिया गया था। दुर्ग में दो ननों पर हमला करने वाले आरएसएस संगठनों के वही लोग उस समय भी इसके लिए ज़िम्मेदार थे। इसके बाद केवल माकपा ही नारायणपुर और प्रभावित इलाकों में गई थीं और उन सभी लोगों से मिली थीं, जिन पर हमला हुआ था। मैं उस टीम का हिस्सा थी और हमने कांग्रेस के मुख्यमंत्री को एक रिपोर्ट दी थी। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। कांग्रेस का कोई भी प्रतिनिधिमंडल उन परिवारों से मिलने नहीं गया। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस द्वारा दिखाए गए दोहरे मापदंड भाजपा के खिलाफ लड़ाई को कमजोर करते हैं।

हम ननों और आदिवासियों के साथ एकजुटता से खड़े हैं। हमने तब भी (कांग्रेस राज में) ऐसा किया था और (भाजपा राज में) अब भी ऐसा ही कर रहे हैं।

फिलहाल सिस्टर प्रीति मैरी, वंदना फ्रांसिस और आदिवासी युवक सुखमई को जमानत मिल गई है। माकपा के जॉन ब्रिटास, भाकपा के पी. संतोष कुमार और केसी(एम) के जोस के मणि सहित सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल एनआईए अदालत में सुनवाई के दौरान ननों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए बिलासपुर में मौजूद था। इस प्रकरण में पूरे देश में हुए हंगामे के बाद एनआईए अदालत से आरोपियों को जमानत मिलने का एक ही अर्थ है कि सरकार के प्रथम दृष्टया सबूतों को अदालत ने खारिज कर दिया है। (अनुवाद : संजय पराते)

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