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कभी ऊन से दून और अब उखड़ती सांस, भदोही कालीन व्यवसाय का हाल कैसे हुआ बेहाल

भदोही कालीन उद्योग शृंखला – 1  भदोही। ‘यह देखिये।’ हमारे दिशा-निर्देशक कवि कर्मराज किसलय ने एक बाइक पर काती (ऊन) लादे लिए जा रहे है व्यक्ति की ओर इशारा किया और बोले- ‘इतनी देर से घूम रहे हैं लेकिन शायद ही इसके अलावा कोई काती ले जाता दिखा हो जबकि एक ज़माना था कि साइकिल, […]

भदोही कालीन उद्योग शृंखला – 1 

भदोही। ‘यह देखिये।’ हमारे दिशा-निर्देशक कवि कर्मराज किसलय ने एक बाइक पर काती (ऊन) लादे लिए जा रहे है व्यक्ति की ओर इशारा किया और बोले- ‘इतनी देर से घूम रहे हैं लेकिन शायद ही इसके अलावा कोई काती ले जाता दिखा हो जबकि एक ज़माना था कि साइकिल, मोटर साइकिल, सगड़ी, रिक्शा सब पर काती लाद कर लोग दनादन निकलते थे और यहाँ जाम लग जाता लेकिन अब गलीचे का कारोबार खंडहर हो चुका है। मुश्किल से दस परसेंट बचा होगा।’

भदोही को किसी जमाने में डॉलर सिटी कहा जाता था, क्योंकि यहाँ से हजारों करोड़ का गलीचा विदेशों में जाता था और डॉलर में भुगतान होता था। अब दृश्य बदल चुका है। कारोबार की जो गर्मजोशी होती है और चारों तरफ जो ऊर्जा दिखती है वह अब भदोही में नदारद है। चार-पाँच दशक तक अपनी अलग पहचान रखने वाला शहर अब किसी ऊर्जा का संचार नहीं करता बल्कि वहाँ उदासी का आलम दिखता है। बीते दिनों की सफलता की कहानियाँ प्रायः अतीत की कसक बनकर रह गई हैं।

कवि कर्मराज किसलय

इन्हीं कहानियों की खोज और उनके उतार-चढ़ाव को जानने के लिए जब हमने भदोही के पूर्व बैंकर और वरिष्ठ कवि कर्मराज किसलय को फोन किया तो उन्होंने खुशी-खुशी भदोही आने की दावत दी और कहा कि ‘जब आप लोग चौरी पहुंचिए तब मुझे फोन कर दीजिये। मैं आपके पहुँचते-पहुँचते तैयार हो जाऊंगा और फिर हम चलेंगे।’

चौरी से जब हमने फोन किया तब उन्होंने कहा कि ‘मुझे थोड़ी सी देर लगेगी क्योंकि कोई आया है। इंद्रा मिल चौराहे से जौनपुर वाले हाइवे पर काका कार्पेट वालों का पेट्रोल पंप है। वहीं रुकिए। आता हूँ।’

हमें आधा घंटे से अधिक इंतज़ार नहीं करना पड़ा और अभी हम भदोही की इस उदास दोपहर के बारे में अपनी-अपनी टिप्पणियाँ पूरी भी नहीं कर पाये थे कि अपनी बाइक से किसलय जी पहुँच गए। उन्होंने बताया कि ‘पुलिस वाले आए थे और पूछने लगे कि आपके यहाँ कितने सीसीटीवी कैमरे लगे हैं तो मैंने कहा कि बच्चे अभी यहाँ हैं नहीं और मुझे मालूम नहीं। आपलोगों को चेक करना हो तो कर लीजिये। इस पर वे चले गए कि हम बाद में आएंगे।’

इस तरह हम भदोही के कालीन उद्योग की अंदरूनी दुनिया की ओर जाने के लिए तैयार थे। वह दुनिया जो इस हाइवे की तरह निचाट और जनविहीन नहीं बल्कि अपने गर्भ में हजारों कहानियाँ समेटे हुये है। जिसके बारे में जिज्ञासाओं की एक लौ हमेशा जलती रहती है लेकिन बदलती हुई अर्थव्यवस्था में वह अपना आकर्षण खो रही है। यह और बात है कि भदोही के कालीन उद्योग के व्यापक अध्ययन अनुसंधान के लिए अब यहाँ एक स्वतंत्र संस्थान है लेकिन उसको देखकर ऐसा लगता है गोया यहाँ के सारे कर्मचारी और अध्येता लंबी छुट्टी पर चले गए हों।

भदोही के कालीन की कहानियाँ जिन तंतुओं से बनती हैं उनमें हजारों लोगों की व्यक्तिगत आर्थिक सफलताओं और पूंजी के संचय के रोचक तथ्य हैं। उनमें लाखों मजदूरों के परिश्रम और धीरे-धीरे शोषित और पराजित होकर इस काम से विरत होकर दूसरे विकल्पों की तलाश की हृदयविदारक वास्तविकताएं हैं। स्त्रियों और बच्चों की बेहिसाब मेहनत से गुंथी हुई खबरें हैं। अब ये कहानियाँ बासी पड़ चुकी हैं क्योंकि अब इस उद्योग के बड़े-बड़े खिलाड़ी ही किसी को अपनी रूदाद नहीं सुना पा रहे हैं तो मेहनतकशों के दर्द की तरफ ध्यान कौन दे।

कालीन का काम करता मजदूर

लेकिन हमें तो पूरी कहानी के लिए दर-दर भटकना और लोगों से मिलना जरूरी है क्योंकि असल में कालीन की दुनिया का निर्माण किसी एक चीज या व्यक्ति से नहीं होता बल्कि उसमें छोटी-से छोटी और बड़ी से बड़ी ढेरों चीजों की भूमिका होती है। इसलिए यह साफ है कि भले ही भदोही में कालीन निर्माताओं और निर्यातकों की संख्या घटकर एक तिहाई रह गई हो। रंगाई और सफाई की तमाम सारी भट्ठियाँ और हौदियाँ सूनी पड़ी हों लेकिन वास्तव में यह एक बहुत बड़े भूगोल में रहनेवाले लोगों की आजीविका के बर्बाद हो जाने की दर्दनाक गाथा है। जिन लोगों के पास अधिक भौतिक सम्पदा थी और जो लोग इसके बुनियादी कारीगर नहीं थे उन्हें छोड़ दिया जाय तो यह लाखों लोगों की ज़िंदगी पर वज्रपात जैसा ही था लेकिन देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था के पूंजीवादी नैरेटिव के कारण इन्हें दर्ज़ ही नहीं किया जा सका।

इसलिए हो सकता है कि हम जिस उदासी की बात कर रहे हैं वह करूण विलाप की खामोशी से उपजा हो जिसमें कितनी चीजें दफ्न हैं यह उनके भीतर पैठे बगैर नहीं समझा जा सकता। ऐसा लगता है कि एक कालीन के बनने के बीच कई-कई ब्लॉक हैं और इसमें सबसे कमजोर ब्लॉक बुनकरों और मजदूरी के दूसरे काम करने वालों के हैं। बुनकरों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो चालीस-पैंतालीस साल पहले से यह काम करते आ रहे हैं लेकिन अब हालात ये हैं कि वे बढ़ती महंगाई में घर चलाने की भी स्थिति में नहीं हैं।

“आधुनिक टेक्नोलॉजी के साथ तालमेल बैठाते हुए गलीचे की बुनाई के जो तरीके हों उसको बदले जाएँ और क्वालिटी की जो शिकायत है उसको दूर करके उसको प्रमाणित किया जाए कि हमारी चीजें सारी मिलावटों से मुक्त हैं, तो निश्चित रूप से भदोही का जो कालीन उद्योग है वो एक बार फिर चमकेगा। यहाँ के लोग मेहनती हैं, कर्मठ हैं, बहुत लगन से काम करते हैं, बस यही एक चीज है कि जो उनके मालिकान हैं वो लालच कम करें और मिलावट न करें तथा इसकी मार्केटिंग अन्तर्राष्ट्रीय लेवल पर करें तो अभी भी गुंजाइश है, भदोही के कालीन की माँग फिर बढ़ सकती है और बहुत से देशों को पीछे छोड़ सकती है।”

सन 1978 से ही इस काम में लगे अमरनाथ पासवान बताते हैं कि ‘बड़ी मुश्किल से गुजारा होता है। महंगाई इतनी ज्यादा है कि क्या कहूँ और मजदूरी वही नौ की लकड़ी नब्बे खर्चा वाली। ढेरों ऐसे काम हैं जिन्हें बुनाई के पहले तैयारी करने के लिए करना पड़ता है लेकिन वे मजदूरी में नहीं जुड़ते। महीने में मुश्किल से पाँच हज़ार का काम हो पाता है। जबकि मेहनत दस हज़ार से कम नहीं होती।’

ऐसी ही शिकायत तैयार गलीचों में सुई से तगाई कर रही कमरून की भी है। वह कहती हैं कि ‘और कोई रास्ता नहीं है। इसी में खटकर घर चला रही हूँ लेकिन हमारी कोई सुनवाई नहीं है। गरीबी लगातार बढ़ रही है क्योंकि महंगाई बढ़ रही है। लेकिन अमीरों की सुनवाई है।’

संघर्षों और दुखों की बेशुमार कहानियाँ हैं जो भदोही के बुनकरों की ज़िंदगी की अनेक परतें उधेड़ती हैं। लेकिन कुछ ही सुनी जाती हैं और अनगिनत अनसुनी ही रह जाती हैं। हम वही सुनने निकले हैं। अनेक पात्र हैं जो अपनी-अपनी कहानियाँ सुना रहे हैं। भदोही की इस यात्रा के सूत्रधार कर्मराज किसलय अपनी एक कविता में दुर्योधन के मिथक के माध्यम से कहते हैं कि हस्तिनापुर की बर्बादी दुर्योधन के हाथ हुई। वे कहते हैं कि कालीन उद्योग भी अनेक दुर्योधनों द्वारा बर्बादी के कगार पर पहुँचा दिया गया है।

वे हमें लेकर नई बाज़ार स्थित विधान कार्पेट की राह लेते हैं। अनेक टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होते हुये जब हम विधान कार्पेट के प्रांगण में पहुंचे तो वहाँ भी उतनी ही उदासी थी जितनी हाइवे पर देखकर हम आए थे। चार कर्मचारी गलीचों की साफ-सफाई में लगे हुये थे। एक के सिर पर पट्टियाँ बँधी थीं।

विधान यादव

इस कंपनी के संचालक विधान यादव अभी थोड़ी ही देर पहले बाहर गए थे। किसलयजी ने सूचित किया कि हम आ गए हैं। उनके भाई विकास ने हमें बैठाया और बातचीत करने लगे। कालीन के निर्माण से लेकर उसके बाजार तक की हर प्रक्रिया पर विधान यादव से लंबी बात हुई। उन्होने बताया कि ‘कालीन बनाने की पूरी प्रक्रिया में पहले मशीन की कोई भूमिका नहीं होती थी, सब कुछ हाथ से किया जाता था। ऊन की लोई बाहर से खरीदकर लाई जाती थी। इसके बाद सब कुछ हाथ से होता था। कालीन की डिजाइन पहले कागज पर बनाई जाती थी। जो डिजाइन खरीददार को पसंद आती थी उसके हिसाब से सबसे पहले लोई की रंगाई होती थी। रंगाई के बाद बुनाई का काम शुरू होता था। एक एक कालीन की बुनाई में कई दिन और कई कारीगर लगते थे। बुनाई के बाद भी फिनिशिंग और सफाई के कई चरण पूरे करने के बाद कालीन अपनी पूरी रंगत के साथ बाजार में जाने लायक हो जाता था।’ विधान बताते हैं कि ‘बुनाई के हिसाब से  कालीन की सबसे पारंपरिक पार्शियन शैली की डिजाइन सबसे कठिन हुआ करती है। उसकी डिजाइन कागज पर बनानी हो या धागे से कालीन पर बनाना हो हर जगह इस शैली में कुशल कारीगरों की जरूरत होती है।’

कालीन बनाने के लिए रखे गए ऊन

विधान हमें तरह-तरह के कालीन दिखाते हैं। बनावट, बिनावट, शैली और ऊन की क्वालिटी के हिसाब से एक ही साइज के दो कालीन के दाम में अप्रत्याशित अंतर होता है। विधान का ज़्यादातर काम अपने विदेशी ग्राहक, खास तौर पर जर्मनी के बाजार के लिए है। उनका बड़ा सा गो-डाउन(गोदाम) कालीनों से भरा पड़ा है। वह बताते हैं कि, ‘सरकार की अनदेखी ने भदोही के कालीनों की चमक छीन ली। पहले कालीन के विदेशी कारोबार पर 18 प्रतिशत का ड्रा बैक (रिबेट) मिलता था पर अब यह बंद हो चुका है। दूसरी तरफ अब मशीन से बुने हुये कालीन आ जाने से कालीन का पारंपरिक बाजार पूरी तरह से तबाह हो चुका है। पहले सस्ते मजदूर मिल जाते थे पर अब सस्ते मजदूर नहीं मिल रहे हैं। बिहार और नेपाल से आने वाले मजदूर यहाँ के लूम मालिकों से एडवांस पैसा लेकर फरार हो गए। इतना बताते हुये विधान हमें अपने अतीत का वह हिस्सा दिखाने के लिए बढ़ते हैं जो कभी गुलजार था पर अब तो बस उसकी खंडहर हो चुकी स्मृतियाँ बची हैं। अब भी उनके पास 100 लूम का स्ट्रक्चर खड़ा है पर अब इस लूम को चलाने वाला कोई नहीं है। उन ढांचों पर अब भी ऊन की लोई टंगी हुई है। वह अपना गोदाम दिखाते हैं वहाँ भी लोई के लच्छे रखे हुये हैं। जिन्हें अब तक किसी आलीशान फर्श को और आलीशान बनाना था वह धागे अब इतने मटमैले हो चुके हैं उन्हे देखकर यह आभास भी नहीं होता है कि यही वह धागा है जो कारीगर के हाथों की बुनाई के बाद शानदार कालीन में बादल जाता है। विधान हमें वे कमरे भी दिखाते हैं जिनमें कभी बाहर से आने वाले मजदूर और कारीगर रहते थे। जाने कितने ही मौसम बीत गए लेकिन इन दरवाजों की सांकलें नहीं खोली गईं। कभी इन घरों में मजदूरों के सैकड़ो परिवार आबाद रहते थे। अब सब कुछ ठप्प हो चुका है। विधान बताते हैं कि पूरा कारोबार ही धीरे-धीरे बिखर रहा है। जिस कालीन की बुनाई के लिए भदोही जाना जाता था आज उसी भदोही को सीतापुर और शाहजहाँपुर से कालीन की बुनवाई करानी पड़ रही है। बस भदोही के नाम की ब्रांडिंग के सहारे हम लोग काम कर रहे हैं। यहाँ आस-पास के गाँव में भी बहुत कम लूम बची हैं। कुछ लोग हैं जो इस कारोबार को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। अब सस्ते मशीन से बने हुये कालीन भी भदोही के कारोबारी बेच रहे हैं। इसके बाद विधान हमें कालीन धुलाई की पूरी प्रक्रिया दिखाते और समझाते हैं। कालीन की चमक और सौंदर्य के पीछे एक कठिन मेहनत दिखती है पर सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है भदोही की पहचान बन चुके कालीन कारोबार का धीरे-धीरे खत्म होना। कालीन कारोबार की चमक अब बिखर रही है जिसकी वजह से पूर्वांचल की यह डॉलर सिटी अपना अर्थ खोती जा रही है। जिसकी वजह से बुनकर और अन्य कारीगरों को मजदूर के रूप में दूसरे शहरों में पलायन करना पड़ रहा है।

एडवोकेट बाल विद्या विकास

एडवोकेट बाल विद्या विकास बताते हैं कि ‘मेरे दादा इस व्यवसाय में बहुत पहले आ गए थे और एक जमाने में उन्होंने ऊन की सफ़ाई का सबसे बड़ा कारख़ाना स्थापित किया था।’ कालीन उद्योग की दुर्दशा पर वे अनेक बाते बताते हैं। मसलन, ‘पहले ज्यादा मार्जिन था अब  मार्जिन कम हो गया है। जिसकी वजह से गांव की सारी बुनाई सीतापुर चली गई है। पहले पूरा माल यहीं बनता था। हमारे पास 40 लोग थे, नेपाल बंगाल बिहार के लोग काम कर रहे थे पर बाद में यही लोग यहां से एडवांस पैसे लेकर के भाग गए।’  वह बताते हैं कि ‘यहाँ का कालीन व्यवसाय कमजोर  होने की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान स्थानीय मजदूरों का हुआ है। उन्हें पहले दूसरे शहर में काम खोजने नहीं जाना पड़ता था, पर यहाँ रोजगार छिन जाने की वजह से उन्हें धक्के खाने पड़ रहे हैं। वह इस धंधे में शामिल जातियों की बात करते हुये कहते हैं कि पहले सब थे पर अब मुस्लिम, पिछड़ी जाति और दलित समाज के लोग ही इस धंधे में बचे हैं। वह जाति को सामाजिक धारणा के अनुरूप बड़ी और छोटी जाति के वर्गीकरण में बांटते हैं और बताते हैं कि बड़ी जाति के बहुत ही कम लोग अब इस धंधे में बचे हैं। इसकी कोई खास वजह वह नहीं बताते हैं पर यह कहते हैं कि ‘पहले सबने इस धंधे से जमकर कमाया और उसी पैसे से दूसरे धंधे में शिफ्ट हो गए।’

लेखक गुलाब चंद यादव

भदोही की कालीन उद्योग के उत्कर्ष और अब बदतर स्थिति में पंहुचने को लेकर लेखक और बैंकर गुलाब चंद यादव कहते हैं कि, ‘कालीन कारोबार को करीब 1978 में मैंने करीब से देखा क्योंकि भदोही के आस-पास के कई गाँवो में मेरी रिश्तेदारियां हैं तो गर्मी की छुट्टियों में मैं यहाँ आया करता था। देखता था कि लगभग हर घर में लकड़ी के काठ, जो बुनाई के करघे होते थे, वे लगे होते थे और घर के सारे सदस्य चाहे 13, 14 साल के बच्चे हों या 50, 55 साल के बुजुर्ग, हर कोई गलीचे की बुनाई के काम में लगा रहता था। कुछ लोग रंगाई का काम, सफाई का काम, या उसके डिफेक्ट को ठीक करने के काम भी करते थे लेकिन ज्यादातर लोग अपने घर पे कांठ लगाकर उसको बुनते थे, तो जो ठेकेदार होते थे वो उनको अच्छा-खासा पैसा देते थे मजदूरी देते थे और अच्छा पैसा एडवांस के रूप भी देते थे ताकि जिससे हम काम ले रहे है वे दूसरे ठेकेदारों की तरफ आकर्षित न हों। चूँकि यह क्षेत्र काफी गरीबी वाला क्षेत्र रहा है तो हर घर से चार-चार, छ:- छ: लोग कमाने लगे तो आमदनियाँ बढ़ने लगी तो हमने देखा की उस दौर में बहुत सारे लोग जो भूमिहीन किसान थे वो गलीचे यानी कालीन की बुनाई से कमाई करके जमीनें खरिदते थे और खेती करने में लग जाते थे। जिनके घर कच्चे थे उन्होंने पक्के आवास बनवाए।

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वह बताते हैं कि, ‘बाद में हमने देखा की 1990 आते-आते गलीचे का जो कारोबार है वह धीरे-धीरे मंदी की ओर बढ़ने लगा उसके कई कारण है। जानकार लोग बताते हैं कि यहाँ थोड़ी मिलावट की जाने लगी यानी कि जो कालीन की गुणवत्ता थी और जिससे भदोही का नाम जाना जाता था, वह नाम खराब होने लगा। यहाँ के जो बुनाई करने वाले थे इसमें मिलावट करने लगे।  दूसरी बात सामने आई की भदोही की कालीन में बाल श्रम लगा होता है। इससे जागरूक लोगों ने यहाँ के कालीन का निषेध करना शुरू कर दिया, जिसकी वजह से सरकार के लोगों को कालीन कारोबार में प्रवेश करने का रास्ता मिल गया। बाल श्रम के मुद्दे ने पूरी दुनिया में कालीन कारोबार को प्रभावित किया और भारतीय श्रम विभाग ने भी बाल श्रमिक के बहाने कारोबारियों का उत्पीड़न किया। उसके बाद दूसरे देशो से भी कम्पटीशन होने लगा जैसे चीन में भी कार्पेट बनने लगा और दूसरे मुल्के भी गलीचे की कारोबार करने लगे और अपने भारत में ही जयपुर, सोनीपत, पानीपत वहाँ भी गलीचे की बुनाई का कार्य शुरू हो गया जिससे धीरे-धीरे मंदी आने लगी और इनके जो पैसे थे जो बहुत सारे व्यापारियों के पास रुके हुए थे जिसकी वजह से वो माल नही छुड़ाते जो कि रोड पर पड़ा रह जाता था। ऑर्डर भी आने कम हो गए तो इस अनुपात में जो इसकी क्वांटिटी थी विक्रय की, वह धीरे-धीरे कम हो गई।

वर्षों से कालीन का काम कर रहे हैं ये मजदूर

कालीन कारोबार की परिस्थितियों को लेकर गुलाब चंद कहते हैं कि ‘कालीन का उद्योग आखिर यहीं क्यों हुआ इस पर मुझे ये लगता है कि यदि आप कुछ बनाते हैं तो सबसे जरूरी होती है मजदूरों की उपलब्धता और कम लागत। भदोही का पूरा क्षेत्र जौनपुर से लगा हुआ है इसकी आबादी का घनत्व बहुत ज्यादा है यानी की आबादी के अनुपात में लोगों के पास कृषि योग्य भूमि नही है। पहले लोग महानगरों में जाकर काम करते थे पर जब यहाँ रोजगार मिलने लगा तो लोगों को ये लगा कि हम कालीन बुनते हैं तो अपनी जो जरूरत की चीजें हैं, उसको पूरी कर लेते हैं, समाज की जो जिम्मेदारियां हैं उनको भी निभा लेते हैं तो हम परदेश क्यों जाएँ, इससे कालीन कारोबारियों को आसानी से और कम दाम पर लेबर मिलने लगे। इसमें कोई ज्यादा प्रशिक्षण का काम भी नही है। गलीचा बुनाई ऐसा कोई टेक्निकल कार्य नही है कि जिसके लिए ITI या ऐसी किसी संस्था में जाना पड़े और साल दो साल का प्रशिक्षण लेने की आवश्यक्ता पड़े। महीने-पंद्रह दिन के अभ्यास और प्रशिक्षण के बाद आदमी बुनाई का काम करने लग जाता है।’

कालीन उद्योग के माध्यम से भदोही की बड़ी आर्थिक ग्रोथ न हो पाने को लेकर वह कहते हैं कि ‘जिन परिस्थितियों में गलीचे की बुनाई का काम होता है उसके साथ स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतें भी हैं। मैं आपको बता दूँ कि गलीचा बुनने वाले लोग एक अँधेरे जैसे वातावरण में काम करते हैं, जहाँ पंखा तो छोडिये अच्छी रोशनी आने की भी व्यवस्था नहीं होती। जाहिर है इससे आँख में दिक्कत पैदा होती थी और जिस पोजीशन में बैठ कर बुनाई का काम करते थे उससे उनकी रीढ़ की हड्डी कमजोर होती थी तो इससे भी बुनाई भी बंद होने लगी। जब सन 75-80 से यहाँ बुनाई शुरु हुई तो उस समय लोगों को इसके साइड इफेक्ट के बारे में उतना पता नहीं था। जब धीरे-धीरे हुआ तो उनको लगा की ये जो हम कमाई कर रहे हैं इसके बदले हमें कितना कुछ गंवाना पड़ रहा है।

आकर्षक डिज़ाइन की कालीन

‘कुछ तो सेहत के रूप में और सबसे बड़ी त्रासदी जो मैंने उस दौर में देखी कि उस दौर में बड़ा नुकसान ये हुआ की बहुत सारे बच्चों की पढ़ाई छूट गई। जिन बच्चों को स्कूल में होना चाहिए था उनके माता-पिता ने कमाई के लालच में गलीचे की बुनाई के काम में लगा दिया कि पढ़ लिख कर कहाँ भटकोगे। आखिर यहीं पर अपना दो पैसे का काम सीख लो। पर, बाद में जब मंदी आने लगी तब उनको बड़ा दुःख हुआ कि इस गलीचे के थोड़े से पैसे के चक्कर में हमने अपनी पढाई छोड़ी, हम पढ़-लिख नहीं पाए फिर यहीं 90 के दशक वाली पीढ़ी जो मुंबई, सूरत गई तो वहां जाकर ऑटोरिक्शा चलाया, वाचमैनी की, अख़बार बेचे, दूध बेचे, सब्जियां बेचीं। शहरों में जो लोग गए कम से कम उन्हें बेहतर सवास्थ मिला और सम्मानजनक कमाई की। धीरे-धीरे यहाँ के जो लोकल लोग थे उन्हें अभ्यास हुआ कि ये अब उतना पैसा नहीं दे रहा है जिसमें उनकी गुजर हो सके। यहाँ के व्यापारी बंगाल से, बिहार से, नेपाल से लेबर मंगाने लगे तो उसके चलते भी लोगों को लगा कि कालीन उद्योग उतना आकर्षक नहीं है, बेहतर है कि हम लोग दूसरे विकसित प्रदेशों में जाएँ और अगर वहां हमें कोई भी टेक्निकल काम करने का मौका मिला तो हम ज्यादा पैसा कमा सकते हैं। तो वह जेनरेशन धीरे-धीरे महानगरों की तरफ आकर्षित हुई और वहां रोजगार और काम को तलाशना ज्यादा बेहतर समझा।

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गुलाबचंदजी जहां इस कारोबार की तमाम खामियों को देखते हैं, वहीं वह इसे पुनः बेहतर बनाने का दृष्टिकोण भी रखते हैं। वह कहते हैं कि ‘जो बुराइयां, जो कमियाँ हैं उनका उपचारात्मक उपाय किया जाये तो चीजें ठीक हो सकती हैं। जो आरोप थे कि यहाँ बाल श्रमिक हैं तो सही बात है, आप 18 साल के ऊपर के लोगों को ही इसमें लगाएं। जो आधुनिक टेक्नोलॉजी हो वह काम की जगह पर हो और वह सेहत को नुकसान पहुंचाने वाली न हो। काम करने का जो समय हो वो निश्चित हो, जैसे अन्य उद्योगकर्मियों को छुट्टी मिलती है वैसे ही एक दिन छुट्टी मिले। कर्मचारी राज्य बीमा योजना की सुविधा मिले। कामगारों का वेतन इस रूप में हो कि वह परिवार का पेट पाल सके, बच्चों को शिक्षा दिला सके, मेडिकल की सुविधा मिले,  प्रोविडेंट फंड और जीवन बीमा की सुविधा मिले। इस तरह से और आधुनिक टेक्नोलॉजी के साथ तालमेल बैठाते हुए गलीचे की बुनाई के जो तरीके हों उसको बदले जाएँ और क्वालिटी की जो शिकायत है उसको दूर करके उसको प्रमाणित किया जाए कि हमारी चीजें सारी मिलावटों से मुक्त हैं, तो निश्चित रूप से भदोही का जो कालीन उद्योग है वो एक बार फिर चमकेगा। यहाँ के लोग मेहनती हैं, कर्मठ हैं, बहुत लगन से काम करते हैं, बस यही एक चीज है कि जो उनके मालिकान हैं वो लालच कम करें और मिलावट न करें तथा इसकी मार्केटिंग अन्तर्राष्ट्रीय लेवल पर करें तो अभी भी गुंजाइश है, भदोही के कालीन की माँग फिर बढ़ सकती है और बहुत से देशों को पीछे छोड़ सकती है।’

कालीन की धुलाई करते हुए

गुलाबजी जिन बिन्दुओं की ओर संकेत कर रहे हैं दरअसल वे किसी भी उद्योग और व्यवसाय के स्वतंत्र विकास की सबसे जरूरी शर्तें हैं लेकिन उनका पूरा होना एक चुनौती है। एक्सपोर्टर अपनी समस्याओं का बयान कर रहे हैं और बुनकरों-श्रमिकों की तकलीफ़ों का भी कोई अंत नहीं है। ऐसे में अधिक से अधिक लोगों की बातों को सुनना और उस दास्तान को एक धागे में पिरो देना स्वयं में एक श्रमसाध्य कार्य है जिसके पात्र बहुत ज्यादा बिखरे हों। फिर भी हम कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें क्रमबद्ध कर सकें।

अगले हिस्से में इतिहास और वर्तमान के तमाम पड़ावों से गुजरते एक जीवंत कारोबार की गिरावट पर हम और भी तफसील पेश करने वाले हैं।

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