भदोही। भदोही जिला ग्राम मजारपट्टी के निवासी हैं रतन बेलवंशी। वे ब्रेन ट्यूमर से पीड़ित हैं। उन्होंने अपना इलाज भदोही, जौनपुर और वाराणसी से करा चुके हैं अब वह अपना इलाज लखनऊ से करा रहे हैं। उनका सफ़ेद राशनकार्ड है जिस सारे राशन नि:शुल्क दिए जाते हैं लेकिन अब उनको इस राशन कार्ड पर राशन नही मिल रहा है। उनका कहना है कि ‘जब से मैंने अपना सफ़ेद राशनकार्ड बनवाया है तब से सिर्फ एक -दो बार ही राशन मिला है, इसके बाद नही मिला है। यहां के कोटेदार दूधनाथ दुबे कहते हैं कि अब तुम्हें राशन नहीं मिलेगा। तुम्हारा राशन कार्ड से नाम कट गया है। हमने कई बार यहाँ के सभासद अजय गुरु से कहा लेकिन हम लोगों को उनकी तरफ से भी कोई मदद नहीं मिली है।’
दुनिया और देश किसी भी विकास पथ पर आगे बढ़ रहे हों, पर बेलवंशी समाज के यह लोग सदियों से इसी कठिन जीवन को अपनी नियति मानकर वहीं रुके हुये हैं, जहां से उनके पुरखों ने चलना शुरू किया था। यह समाज ठहर गया है। इनकी दशा-दुर्दशा से न सरकार को सरोकार है न समाज को। यह बेलवंशी समाज बसोर, धरकार, बांसफोर आदि नामों से भी जाना जाता है। सालों पहले इनके परिवार ने शहरों का रुख किया था कि अपने हुनर और कारीगरी से जमकर मेहनत करेंगे और कमाएंगे-खाएँगे पर अफसोस कि आज भी इनके जीवन में खुशी की कोई रोशनी नजर नहीं आती है। आजादी का अमृत महोत्सव इनके जीवन में कोई अमृत नहीं घोलता।
रास्ते पर जाते हुये जब इनके बनाए हुये बांस के सामान खास तौर पर बाँस की खपच्चियों से बने हुए बुक सेल्फ और शू रैक दिखे तो अनायास ही हम रुक गए। सबसे पहले हम रतन बेलवंशी के पास पंहुचते हैं। वह सड़क के किनारे एक पेड़ की छांव में बुक रैक बनाने में लगे हुये हैं। वह जल्दी से जल्दी एक और बुक रैक बना लेना चाहते हैं। उनका बुक रैक का स्टाक खत्म हो चुका है और बरसात का मौसम है। बारिश होने पर वह काम नहीं कर पाएंगे, क्योंकि जिस घर में वह रहते हैं उसको बाँस संभाल तो लेते हैं पर एक बार जब उस बाँस के ढांचे पर बरसात से बचने के लिए काली पन्नियाँ बांध दी जाती हैं तब उनमें बाँस का काम करना मुनासिब नहीं होता। रतन अपनी पूरी ताकत से बाँस फाड़ने में लगे होते हैं। वह हमारी उपस्थिति से बेखबर अपने काम में लगे रहते हैं। हम उनसे पूछते हैं कि काम कैसा चला रहा है? सामान्यतः यह साधारण सा लगने वाला प्रश्न रतन के लिए एक कठिन प्रश्न बन जाता है।
वह अधिक ताकत से बाँस फाड़ने के लिए अपना गंड़ासा चलाते हैं और एक झटके में बाँस को दो टुकड़ो में बाँट देते हैं। हमारी ओर देखते हैं और एक हल्की झुंझलाहट से बोलते हैं, ‘खाना और जीना है तो जो बन पड़ेगा वह तो करेंगे ही। किसी तरह से राशन कार्ड बन गया था। दो महीने तक राशन भी मिला था पर बाद में कोटेदार पीटर ने नाम कटवा दिया। अब बाजार से खरीदते खाते हैं। खेत-बारी तो है नहीं। कितना कमा लेते हैं रोज का? वह प्रश्न पूरा होने से पहले ही अपने काम में वापस लग जाते हैं। बाँस के अब कई टुकड़े हो चुके हैं। वह उन टुकड़ों को बुक सेल्फ (किताब रखने की आलमारी) में जोड़ने लगते हैं। इस काट-पीट और जोड़-तोड़ के साथ ही वह बोलते हैं ‘अब क्या बताएं, दिन भर पूरा परिवार मिलकर 500रू कमा लेते हैं। अब इसी में पाँच लोगों का घर भी चलाना है और दवा-इलाज भी करवाना है।’
इन आलमारियों के अलावा और क्या-क्या बनाते हैं? यह पूछने पर रतन बनाते हैं कि ‘सबसे ज्यादा तो ये आलमारियाँ ही बिकती हैं लेकिन बाँस की सीढ़ी, टोकरी, तिखती (इसे लाश रखने वाली सीढ़ी भी कहते हैं।) और किसी सामान का आर्डर मिल गया तो उसे भी बनाते हैं। रतन से बातचीत के दौरान ही उनके साथ रहने वाले और भी परिवार हमारे आस-पास आ जाते हैं। रतन भले ही पूरी मुस्तैदी से अपने काम में लगे हुये हों पर बाकी लोग जो हमारे पास आए हैं वह अपने साथ दु:ख दर्द का पूरा जंगल लेकर आए हैं। इसी जंगल में भटकते हुये वह अपने परिवार की आर्थिक सुरक्षा का रास्ता तलाश रहे हैं पर पचासों साल से उनके परिवार और समाज के तमाम लोग इसी जंगल में भटक रहे हैं। उनके पास न इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता है न इससे मुक्ति की कोई कामना।
यह कहना गलत नहीं होगा कि अब इस जीवन के वे इतने अभ्यस्त बन चुके हैं कि इससे बाहर की दुनिया के किसी भौतिक सुख का सपना इनकी आँखों में नहीं तैरता है। शायद जीवन की वंचनाओं ने इतना थका दिया है कि उम्मीद और सपने जैसे शब्द इनके जीवन से बहुत दूर जा चुके हैं। हम उनकी जिंदगी में झाँकने की कोशिश कर रहे होते हैं तभी हमारे पास आरती आती हैं। वैसे तो आरती के पास समस्याओं का अंबार है पर यह देखकर अच्छा लगता है कि आरती के अंदर अभी खूबसूरत जीवन की तमाम उम्मीदें मौजूद हैं। वह तमाम अभाव के सामने खुद को पराजित के रूप में नहीं देखतीं बल्कि पूरी तैयारी के साथ रोज-ब-रोज उससे दो-दो हाथ करती हैं। वह जीवन की चुनौतियों का मुस्कराते हुये सामना करती हैं और संभवतः अपने तरीके से जीत भी दर्ज करती हैं। आरती के पति काम करते हैं पर मानसिक रूप से बीमार भी हैं। आरती अपनी कूवत भर उनका इलाज करवा रही हैं। इनके पति का नाम भी रतन कुमार ही है। आरती जब अपने पति की बीमारी और इलाज के बारे में बताती हैं तब हम उनके बताए घर कि तरफ बढ़ते हैं। शायद आरती को यह उम्मीद नहीं रही होगी कि हम उनके घर की तरफ बढ़ जाएँगे।
हम आगे बढ़ते हैं दरवाजे पर 14 साल का अनुराग एक नवजात बच्चे को गोद में लेकर खड़ा मिलता है। हम घर के ठीक सामने पहुंच जाते हैं। लगभग दस बाई दस के कमरे में एक ओर एक खटोला पड़ा हुआ था। दरवाजे के ठीक सामने ईंट से बना हुआ चूल्हा था और बगल में एक तवा पड़ा हुआ था। चूल्हे में जले हुये बाँस कि बुझी हुई राख़ दिखती है और कमरे में अचानक एकदम अंधेरा हो जाता है। मैं थोड़ा असहज महसूस करने लगा। दरअसल अभी इसी कमरे में एक विशेष पूजा चल रही थी। वह पूजा आरती के पति रतन कुमार की मानसिक बीमारी के इलाज के लिए चल रही थी। परिवार के लोगों का मानना है कि यह कोई भूत-प्रेत से जुड़ा हुआ मामला है। उसी भूत को भगाने के लिए यह पूजा की जा रही थी, पर अप्रत्याशित रूप से मेरे पहुंच जाने की वजह से वह पूजा आपाधापी में पूरी तरह से स्थगित कर दी गई।
रतन कुमार पूजा से उठकर हमारे सामने खड़े हो गए और एकदम ड्रामैटिक तौर पर बोलने लगे, ‘बहुत बीमार हूँ साहब, देखिये खाने के लिए कुछ नहीं है। सब बाल बच्चे भूखे हैं।’ हम जानना चाहते थे कि यह किस तरह की पूजा है पर रतन और आरती उस विषय पर कोई बात नहीं करना चाहते थे। इसी बीच ओझा या तांत्रिक कर्म करने वाला व्यक्ति घर से निकल कर भाग जाता है। उसका बेटा अनुराग हमारी ओर देखकर मुस्कराता है। आरती भी मुस्कराती है, जैसे वह सब कुछ हमारी आँख के सामने ही हमसे छुपा ले जाने में सफल हो गई है। आरती बोलती है, ‘बहुत जगह दिखाये इनको, अब लखनऊ से इलाज करवा रहे हैं। सब जगह डाक्टर कहते हैं कि एमआरआई करवा के लाइये। अब आप ही बताइये की हम लोग इतना पैसा कहाँ से लाएँ कि इनका ठीक से इलाज करवा सकें।’ आरती और रतन को भी इस बात का दुख है कि मुश्किल से बने राशन कार्ड के बाद भी कोटेदार ने राशन से नाम काट दिया है।
ये लोग सड़क के किनारे जिस जगह पर रह रहे हैं वहाँ उसके आस-पास बरसात का पानी इकट्ठा है। सड़े हुये पानी से तीखी गंध आ रही है। इन लोगों की झुग्गी के पास एक हैंडपंप भी लगा हुआ है पर दोनों का जीवन समान रूप से पानीविहीन है। 6 साल से वह नल इन्हें चिढ़ाता हुआ खड़ा है। इन लोगों ने उसे बनवाने के लिए कई जगह से प्रयास किया पर बात बनी नहीं। पिछले सभासद कहते थे कि खुद ही पैसे इकट्ठा करके बनवा लो। नए सभासद ने बनवाने का आश्वासन तो दिया है पर अभी तक कुछ हुआ नहीं है। इन्हें पानी लाने के लिए काफी दूर जाना पड़ता है। ओडीएफ घोषित भदोही में ये परिवार आज भी खुले में शौच के लिए जाते हैं। अब चूँकि इनके पास अपनी कोई जमीन नहीं है, घर नहीं है तब सरकारी शौचालय की बात करना ही बेमानी है।
सूरज बेलवंशी भी 2 साल से अलमारी बनाने का काम करते हैं। छोटे से घर में 10-15 लोग रहते हैं। किसी तरह से जीवन का गुजारा करते हैं। सूरज अभी युवा हैं पर अब जीवन से कोई बड़ी उम्मीद नहीं है। उन्हें इस बात का अफसोस है कि वह इस तरह के परिवार में पैदा हुये जिसकी कोई सामाजिक हैसियत नहीं हैं।
बेलवंशी परिवार के दु:ख दर्द का किस्सा अभी पूरा भी नहीं हुआ था वहीं ठेला लगाने वाले महबूब अंसारी आ जाते हैं और वह अपना दर्द बताने लगते हैं। महबूब अंसारी कहते है कि ‘मैं भदोही का ही रहने वाला हूँ। मेरे दादा, पिता जी और पूरे परिवार के लोग भी यहीं के रहने वाले हैं, लेकिन अभी तक मेरा और पूरे परिवार वालों का राशन कार्ड नहीं बना है। आधार कार्ड और आय तथा जाति प्रमाणपत्र देने के बाद भी हम लोगों का राशन कार्ड नहीं बना। इसके लिए मैंने कई बार जाकर सभासद से बात भी की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। वह कहते हैं कि जब राशनकार्ड बनने लगेगा तो बन जायेगा ऐसे करते-करते कई साल हो गया पर अभी तक राशनकार्ड नही बना।’
सड़क के किनारे कि इस कठिन जिंदगी में अनीता की जिंदगी का दर्द भी शेष लोगों कि तरह ही है। फिलहाल बेलवंशी समाज के इन लोगों के हिस्से में इकलौती खुशी की एक डोर है कि अब तमाम मशक्कत के बाद तीन बच्चे स्कूल जाने लगे हैं।
कुन्दन और अनुराग शिक्षा से वंचित रह जाने को लेकर निराश हैं। वह जानते हैं आने वाले भविष्य में भी उन्हें इसी काम से अपना जीवन चलाना होगा।
कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के एसोसिएट एडिटर हैं।
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