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ग्राउंड रिपोर्ट

इजरायल की क्रूरता के आगे फिलीस्तीनी बहादुरी से संघर्ष कर रहे हैं

युद्ध किसी समस्या का हल नहीं होता लेकिन दूसरे देश पर कब्जा करने की हवस युद्ध को बढ़ावा देती है। इसका खामियाजा आम नागरिकों को सहना पड़ता है। पिछले एक वर्ष से इजरायल व फिलीस्तीन के बीच चल रहे युद्द में तबाही के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ है।

आज फिलीस्तीन-इज़राइल के ताजा दौर के युद्ध के एक वर्ष पूरे हो गए। फिलीस्तीन हर दृष्टि से इज़राइल से कमजोर हैं लेकिन जिस बहादुरी से उन्होंने पिछले एक वर्ष से इज़राइल का मुकाबला किया है वह वाकई साहस का काम है।

इज़राइल ने कोई कसर नहीं छोड़ी। हमास जिसने 2006 में चुनाव जीतने के बाद के बाद गज़ा में सरकार बनाई, जबकि चुनाव तो वह पूरे फिलीस्तीन का जीता था, को इज़राइल व अमरीका आतंकवादी संगठन बताते हैं। इसी तरह हेज़बुल्ला, जो लेबनान में चुनाव ल़ड़ता है, को भी वे आतंकवादी संगठन बताते हैं। ऐसा दुष्प्रचार वे इसलिए करते हैं ताकि अपनी कमज़ोरियों को छुपा सकें।

असल में 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रस्ताव दो देश बनाने का था – फिलीस्तीन और इज़राइल। इज़राइल तो तुरंत बन गया जबकि उसके ज्यादातर नागरिक वे यहूदी थे जो दुनिया के दूसरे मुल्कों से आए थे। फिलीस्तीन को, जिसके नागरिक वहां पीढ़ियों से रह रहे हैं, को आज तक खुद संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक सदस्य मुल्क का दर्जा नहीं दिया है।

इज़राइल ने जबरदस्ती जहां पहले से अरब लोग रह रहे थे वहां अपना मुल्क बना लिया एवं लाखों फिलीस्तीनियों को वहां से खदेड़ दिया। महात्मा गांधी ने कहा था कि फिलीस्तीन उसी तरह अरब लोगों का है जिस तरह इंग्लैण्ड अंगे्रज लोगों का और फ्रंास फं्रासीसियों का। आज भी इजराइल फिलीस्तीनी इलाके की जमीनों को धीरे धीरे हड़पता जा रहा है।

हम उम्मीद करते हैं कि युद्ध जल्दी ही बंद होगा और वार्ता के जरिए समस्या का हल निकाला जाना चाहिए। फिलीस्तीनियों को यहूदी बंधक छोड़ देने चाहिए। किंतु इजराइल की जेलों में अवैध तरीके से छह हजार फिलीस्तीनी जो बंद हैं उन्हें भी छोड़ा जाना चाहिए।(प्रेस विज्ञप्ति)

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