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जनता व्यक्ति को नहीं अपने-अपने राजनीतिक दल को वोट करती है

‘यथा राजा तथा प्रजा’ यह लोकोक्ति आपने भी सुनी ही होगी। शायद उस समय की बात होगी जब देश में ‘राजतंत्र’ रहा होगा। किंतु आज जब देश में लोकतंत्र है तो देखने में मिल रहा है कि ‘यथा प्रजा तथा राजा’। ये दोनों बातें विवेचना स्तर पर न केवल एक दूसरे के विलोम हैं, अपित […]

‘यथा राजा तथा प्रजा’ यह लोकोक्ति आपने भी सुनी ही होगी। शायद उस समय की बात होगी जब देश में ‘राजतंत्र’ रहा होगा। किंतु आज जब देश में लोकतंत्र है तो देखने में मिल रहा है कि ‘यथा प्रजा तथा राजा’। ये दोनों बातें विवेचना स्तर पर न केवल एक दूसरे के विलोम हैं, अपित इनके अर्थ और भाव में विभिन्न्ता भी है। स्पष्ट है कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ लोकोक्ति की उत्पपत्तीव राजतंत्र से हुई होगी। राजतंत्र में राजा का राज्य राजा की संपत्तीम हुआ करती थी/ है। आज लोकतंत्र है, लोकतंत्र में राज्य या देश किसी शासक, सरकार या राजा की संपत्ति नहीं है अपितु वह देश, उस देश के आम नागरिकों का देश है, राजा (प्रधानमंत्री) केवल और केवल नागरिकों का सेवक होता है। देश राजा का नहीं, प्रजा का होता है। प्रजा ही अपने लिए राजा का चुनाव करती है, इसलिए ‘यथा प्रजा तथा राजा’ की कहावत लोकतंत्र के अर्थों मे सबल मानी जाती है। किंतु आज के धरातल के लोकतंत्र में राजनीति की गिरते आचरण और भाषा के स्तर को देकते हुए तो कुछ उलटा ही लगता है कि जैसे लोकतंत्र राजतंत्र की राह पर चल पड़ा है। इसलिए राजतंत्र और लोकतंत्र में होने वाली प्रयुक्त अन्योक्तियां एक दूसरे की पर्याय बन गई हैं।इस सबके लिए राजा और प्रजा दोनों ही गुनहगार हैं।

कहा जाता है कि लोकतंत्र में राजा (प्रधानमंत्री) प्रजा के हाथों का खिलौना है। किंतु क्या वास्तव में यह सही आकलन है? शायद नहीं.. आज तो सरकार प्रजा का प्रतिबिम्ब है। लगता है कि लोकतंत्र में राजा और नागरिक की परिभाषाएं पलट गई हैं। वह इसलिए कि आज राजा (प्रधानमंत्री) और नागरिकों के अपने-अपने हित मुखर होकर सामने आ रहे हैं। लोकतंत्र के शुरुआत में जो व्यक्ति और सरकार, दोनों एक दूसरे के अभिन्न रहे थे। किंतु आज राजा और जनता, दोनों अलग-अलग खेमों में बंट गए हैं। राजा केवल और केवल सत्ता में बने रहने के कुछ भी गलत-सही मार्ग चुनने को अपना कर्तव्य समझता है। अत: राजनीति ने जनता को भी अलग-अलग राजनैतिक गुटों में बांटने का काम किया है। इसका अर्थ यह हुआ कि जनता अपने-अपने राजनीतिक दल को वोट करती है, न कि व्यक्ति को। और जब प्रजा अपने लोभ-लालच के खेल में फंसकर किसी भी राजनीतिक सल को अपने गंदे इरादों से मतदान करता है तो नेता प्रजा का प्रतिरूप होकर ही उभरता है। हालांकि, कुछ लोगों का मत देशहित और समाज के समग्र विकास की ओर झुकाव रखता है, किंतु इनकी संख्या ‘भक्त-जनों’ की संख्या से कम ही रहती है।

‘भक्त-जनों’ की चाहत यह होती है कि उसे कम परिश्रम में अधिक धन की प्राप्ति हो जाए और राजनीति के स्तर पर सहज ही उसके निजी हित सध जाएं। यहाँ ‘खासो आम’ में जनता तो ‘आम’ कौन है। और ‘खास’ शासक-प्रशासक है। खासोआम की इस दुनिया में जब प्रजा कुछ पैसे, कुछ वस्त्र अथवा कुछ प्रलोभन के एवज मतदान करने को तैयार हो जाए तो नेता क्या करे भी तो क्या करे? उसने चुनाव में जो धन जनता को प्रलोभन देने के लिए खर्च किया है, चुनाव के बाद पहले तो वह उसकी वसूली का प्रयास करेगा ही करेगा। जब वह शासक हो जाता है, तो अपने खर्चे की वापसी के लिए प्रशासक पर दबाव डालता है, यह दबाव उसी प्रजा तक स्थानांतरित हो जाता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया गतिमान हो जाती है और लोकतंत्र की परिभाषा राजतंत्र में परिवर्तित होती चली जाती है। राजा की ‘व्यक्ति पूजा’ उसको तानाशाही के मार्ग की ओर अग्रसर करती है।

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अंतर्मन से विवेचना की जाए तो देश में आज जो भी अच्छा या बुरा दिखाई दे रहा है, वह किसी राजा की बदौलत नहीं, अपितु प्रजा के बल से दिखाई दे रहा है। प्रजा के व्यवहार और माँग के अनुरूप ही सरकार वह करने के लिए बाध्य या विवश है, जो प्रजा चाहती है। इसी मार्ग पर चलकर शासक भी अपनी आकांक्षा की पूर्ति करने के लिए अपने खाने के दांत बदल लेता है। ऐसे में प्रजा के अंतर्मन की विवेचना करने पर देखने को मिलता है कि शासक के इनके दिखाने के दांत अलग और खाने के दांत अलग हैं। यह अलग बात है कि शत-प्रतिशत जनता के लिए यह कहना सरासर गलत होगा, किंतु इनकी संख्या इतनी तो अवश्य है, जितने में सरकार लोकतंत्र में खुलकर कब्बडी खेल सके। सरकार अपनी मर्जी के हिसाब से आस्था के नाम पर नागरिकों के आस्था की ऐसी की तैसी करने में भाव से देश के हित के लिए बनाए गए संविधान में निहित जनभावना की अनदेखी करने लगती है। अप्रत्यक्ष रूप से संविधान के नाम पर देश को ही गाली देने लगती है तथा ऊपरी तौर से संविधान की जय-जयकार करने का काम करती है। यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जिस देश का राजा भ्रष्ट और पाखंडी हो उस देश के लोग ‘भले’ कैसे हो सकते हैं?

यथोक्त के आलोक में, सरकार की गरीब और निरीह समाज के प्रति उपेक्षा का भाव और अमीरों के प्रति स्नेह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है… यथा 100 रुपये के कर्जदार को सजा और करोड़ों के चोरों को देश से बाइज्जत विदेशों में विचरण करने की छूट इस सरकार से पहले की सरकारों की कार्यकाल में कभी नहीं मिली। कमाल तो यह है कि सारे के सारे आर्थिक भगोड़े केवल और केवल गुजराज के ही रहे हैं। सरकार यानी कि मोदीजी उन्हें बाइज्जत देश में वापस लाने का प्रसाद बाँटते नहीं अघा रहे हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ सबको हर तरह की स्वतंत्रता प्राप्त है। परंतु हमारे देश में इसी इसी प्रकार के भ्रष्टाचार का फैलाव दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। लोग इसी स्वतंत्रता और हमारे देश के लचीले कानूनों की वजह से नहीं अपितु सरकारी पैरोकारों से अच्छे संबंधों का लाभ उठाते रहे हैं। ये बात अलग है कि वर्तमान सरकार के कार्यकाल में हेराफेरी का व्यवसाय कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है।

जैसा कि ऊपर भी कहा गया है कि बचपन में सुना था- जैसा राजा वैसी प्रजा, किंतु आज की तारीख में यह विचार सिरे से पलट गया है, क्योंकि आजादी से पूर्व एकतंत्र अथवा राजतंत्र की व्यवस्था होती थी कि आज लोकतंत्र है यानी कि लोगों/जनता का तंत्र।। लोग अपनी इच्छा से अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। उनका प्रतिनिधि उनका प्रतिनिधित्व संसद में करता है। लोगों को चाहिए कि अपना प्रतिनिधि किसी दल के नाम पर न देकर एक सही और शिक्षित व्यक्ति को दे। परन्तु हमारे यहाँ अपने कीमती वोट को दलों के नाम पर व्यर्थ कर दिया जाता है। लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा फैलाव इन्हीं प्रतिनिधियों के द्वारा फैलाया गया है। क्या इस बाबत यह नहीं कहा जा सकता कि जनता ही भ्रष्ट नेताओं को चुनती है… इसका अर्थ यह हुआ कि अपने देश की जनता ही भ्रष्ट है… फिर केवल नेताओं को ही दोष क्यों ठहराया जाए?

चुनाव विश्लेषण संस्था Alternative Dispute Resolution (एडीआर) की एक रिपोर्ट (May 2019) के अनुसार, 17वीं लोकसभा के लिए चुनकर संसद पहुंचने वाले 542 सांसदों में से 233 यानी 43 फीसदी सांसद दागी छवि के हैं। 2009, 2014 व 2019 के आमचुनाव में जीते आपराधिक मामलों में शामिल सांसदों की संख्या में 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। चुनाव विश्लेषण संस्था एडीआर ने शनिवार को लोकसभा चुनाव परिणाम संबंधी अध्ययन रिपोर्ट जारी की।

बिहार और बंगाल के सबसे ज्यादा सांसदों पर मामले : आपराधिक मामलों में फंसे सर्वाधिक सांसद केरल और बिहार से चुनकर आए। केरल से निर्वाचित 90 फीसदी, बिहार से 82 फीसदी, पश्चिम बंगाल से 55 फीसदी, उत्तर प्रदेश से 56 और महाराष्ट्र से 58 प्रतिशत सांसदों पर केस लंबित हैं। वहीं, सबसे कम नो प्रतिशत सांसद छत्तीसगढ़ के और 15 प्रतिशत गुजरात के हैं।

16वीं लोकसभा में थे 34% दागी: 2014 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 185 (34 प्रतिशत) थी, 112 सांसदों पर चल रहे थे गंभीर केस।

लाइफस्टाइल 88 प्रतिशत सांसद करोड़पति : इस बार की लोकसभा में 88 प्रतिशत नवनिर्वाचित सांसद करोड़पति हैं। 2009 में यह आंकड़ा 58 प्रतिशत था।

रिपोर्ट के मुताबिक 17वीं लोकसभा के लिये चुने गये सांसदों की औसत संपत्ति की कुल कीमत 20.93 करोड़ रुपये आंकी गयी है। भाजपा के 88 प्रतिशत, कांग्रेस के 84 प्रतिशत, द्रमुक के 96 प्रतिशत और तृणमूल कांग्रेस के 91 प्रतिशत करोड़पति उम्मीदवार सांसद बनने में कामयाब रहे। इनके अलावा भाजपा के सहयोगी दल लोजपा और शिवसेना के सभी सांसद करोड़पति हैं। शत प्रतिशत करोड़पति सांसदों वाले दलों में सपा, बसपा, तेदेपा, टीआरएस, आप, एआईएमआईएम और नेशनल कांफ्रेंस भी शामिल हैं।

एडीआर की एक विशेष रिपोर्ट के अनुसार, 43% सांसदों पर केस चल रहे हैं। 542 सांसदों में से 233 यानी 43 फीसदी सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे लंबित हैं। हलफनामों के हिसाब से 159 यानी 29 प्रतिशत सांसदों के खिलाफ हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर मामले लंबित हैं।

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116 निर्वाचित भाजपायी सांसद दागी : भाजपा के 303 में से 301 सांसदों के हलफनामे के विश्लेषण में पाया गया कि साध्वी प्रज्ञा सिंह सहित 116 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। कांग्रेसी सांसद कुरियाकोस पर 204 मुकदमे 204 लंबित मामलों वाले केरल से नवनिर्वाचित कांग्रेसी सांसद डीन कुरियाकोस हैं। सूची में प्रथम कांग्रेस के 52 में से 29 सांसद आपराधिक मामलों में घिरे हैं। सभी प्रमुख दलों में हैं दागी सांसद सत्तारूढ़ राजद के घटक दल लोजपा के सभी छह निर्वाचित सदस्यों, बसपा के आधे (10 में से 5), जदयू के 16 में से 13. तृणमूल कांग्रेस के 22 में से नौ और माकपा के तीन में से दो सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। इस मामले में बीजद के 12 निर्वाचित सांसदों में सिर्फ एक सदस्य ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले की हलफनामे में घोषणा की है।

फिर ये कैसे विश्वास किया जा सकता है कि काम किसी भी तरह का हो… शासनिक अथवा प्रशासनिकजनता को बिना पैसे दिए कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता। इस प्रकार शासन/ प्रशानिक अधिकारी जनता के विकास के नाम पर जनता के हज़ारों/ लाखों रुपया डकार जाते हैं। इसकी चपेट में अब पूरा भारत जकड़ चुका है। मंत्री से लेकर संतरी तक को आपको अपना जायज काम कराने के लिए भी चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है। देश में रिश्वतखोरी की ही समस्या नहीं है। धार्मिक, जातीय, सामाजिक व राजनीतिक जाने कितनी प्रकार की विसंगतियाँ हमारे देश में मुँह बाए खड़ी हैं। कहना अतिशयोक्ति नहीं, इनमें से ज्यादातर बुराईयां धार्मिक और राजनीतिक मान्यताओं के चलते विभत्स होती चली जा रही हैं। धार्मिक और राजनीतिक कूटनीतिज्ञों से किसी को भी मारना एक साधारण काम हो गया है। हाँ, प्राकृतिक अनुशासन बेशक कामयाब है। सूरज का निकलना और डूबना, सर्दी का जाना और गर्मी का आना, अपने समय के अनुसार बदस्तूर जारी है। किंतु आदमी के बारे में कुछ भी कहना अपने आपको धोखा देना है… और कुछ नहीं।

सारांशत: निरीह जनता के लिए रह गया है… राजनेता चाहे जो भी करें… वह अनुशासन के दायरे से बाहर हो सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अनुशासन की कोई एक परिभाषा नहीं है… इंसान की आर्थिक हालत के अनुसार अनुशासन की परिभाषा भी बदलती रहती है। मुझे तो आज यह लगने लगा है कि आज के भारत में केवल और केवल कुशासनिक लोग ही विकास के मार्ग पर अग्रसर हैं… अनुशासनिक लोग नहीं। यही कारण है कि देश की प्रगति और लोगों का विकास सही प्रकार से हो नहीं पा रहा है। इसके इतर राजनेताओं की छाया में पूंजीपतियों का आर्थिक स्तर दिन दूना, रात चौगुना बढ़ता जा रहा है।

 

 

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