आज मुझे राजनीति का पुराना चलन याद आ रहा है, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष के सदस्य सदन में एक दूसरे का वैचारिक आधार पर जमकर विरोध करते थे किंतु उनमें पारस्परिक वैमनस्य दूर-दूर तक नहीं पनप पाता था। आपसी सद्भाव देखने को मिलता था। चुनावी मैदान में भी एक दूसरे के प्रति अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता था। पक्ष-विपक्ष सार्वजनिक जीवन में अपरिपक्वता का परिचय कतई नहीं देते थे। एक दूसरे के सामाजिक व पारस्परिक उत्सवों में बिना किसी दुराव के शामिल हुआ करते थे। बेशक उनके राजनीतिक हित आपस में टकराते थे किंतु सामाजिक समंव्यता बनी रहती थी।
भाषा की जो शालीनता भारत में या यों कहें कि पूर्व की संस्कृति में थी, वह अपने में अद्भुत थी वैसी अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। अनेक विकसित और महत्वपूर्ण देशों के सर्वोच्च शासक भी खुलेआम ऐसे असंसदीय/ अपमानजनक शब्दों का प्रयोग नहीं करते जैसे भारतीय राजनीति में आजकल धड़ल्ले से प्रयोग किए जाते हैं। उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता सेनानी और पक्ष-विपक्ष के अनेक महत्वपूर्ण नेता थे जो पक्ष-विपक्ष में होते हुए भी एक दूसरे का परस्पर सम्मान किया करते थे, उनमे से कुछ प्रमुख नाम पंडित नेहरू, डॉ. राम मनोहर लोहिया, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास टंडन, कृष्ण मेनन, डॉ. राधाकृष्णन, आचार्य कृपलानी, जयप्रकाश नारायण, डॉ. संपूर्णानंद, केएम मुंशी आदि हैं। स्मरण रहे कि सत्तापक्ष के नेताओं द्वारा वहां अपनी उपलब्धियां गिनाई जाती थीं तो विपक्ष उनकी धज्जियां उड़ाता था, लेकिन शालीनता के साथ। आज पक्ष-विपक्ष के नेताओं के बीच पारस्परिक सम्मान और भाषाई शालीनता की अनुपस्थिति गहरे से झकझोरती है। मुझे ही नहीं, संभवत: अधिकांश लोगों की चिंता यही होगी कि भाषाई अशालीनता और अभद्रता का भारत की राजनीति में तेजी से सामान्यीकरण हो रहा है। आखिर इसे रोकने का कोई प्रयास क्यों नहीं किया जा रहा है? राजनीति में सहमति-असहमति और आरोप-प्रत्यारोप से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन असहमति या आरोप की अभिव्यक्ति करते में आवश्यक होता है कि भाषाई शुचिता के प्रति सचेत रहा जाए। लेकिन आज क्या हो रहा है, किसी से छुपा नहीं है। अक्सर राजनीतिक दल एक दूसरे पर कीचड़ उछालने से नहीं चूकते। अब अगर एक पक्ष ने कुछ आपत्तिजनक कहा, तो दूसरा पक्ष उससे भी अधिक आपत्तिजनक शब्दों के साथ जवाब देने उतर पड़ता है। जबकि वास्तव में अशिष्ट भाषा न केवल बात की गंभीरता को खत्म कर देती है, बल्कि बोलने वाले के वैचारिक दिवालियेपन को भी दिखाती है।
राजनीतिक अपरिपक्वता के इस दौर में अपशब्दों का प्रयोग राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है। आज राजनीति की परिभाषा ही बदल गई है। अशिष्ट शब्दों का प्रयोग, झूठ बोलना, धोखा देना, पीठ में चाकू मारना, एक दूसरे की टांग खीचना जैसे राजनीति का मुख्य आचरण हो गया है। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से विरोधियों से गालियों के साथ बात करने का चलन बढ़ा है। भाजपा के छोटे से बड़े नेता तक भाषाई और सामाजिक स्तर पर बेलगाम देखे जा रहे हैं। इस नैतिकता और जीवनमूल्य विहीन राजनीति से देश को जो दिशा मिल रही है, वह हमें सभ्य और कर्तव्य पारायण नहीं बना पा रही। भाजपा के नेताओं के इस रवैये के चलते कांग्रेस के स्वर भी कड़वाहट की चाशनी में पगने को मजबूर हो गए। इस प्रकार हमारे राजनेताओं ने सभी सामाजिक मापदंडों को जैसे कूड़े में फेंक दिया है। राजनीति की भाषा निरंतर हिंसक होती जा रही है। राजनेताओं की लगातार जहरीली होती भाषा देश के लिए चिंता का विषय है।
यह चलन न्यूज चैनलों के प्रचार-प्रसार के साथ भी बढ़ा है लेकिन सोशल मीडिया के आने के बाद इसमें जबर्दस्त तेजी आई है। भाजपा और कांग्रेस के अपने-अपने आई टी सेल हैं जो फेक न्यूज के जरिए बिना सिर-पैर की खबरें फैलाकर हिन्दू और मुसलमान का खेल खेल रहे हैं। धार्मिक शतरंज पर अपने-अपने मोहरे बैठाने में तत्पर हैं। एक अध्ययन के मुताबिक मई 2014 से लेकर अब तक 44 अति विशिष्ठ नेताओं ने 124 बार हेट स्पीच दी, जबकि यूपीए-2 के दौरान ऐसी बातें सिर्फ 21 बार हुई थीं। इस तरह मोदी सरकार के दौरान वीआईपी हेट स्पीच में 490 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्तमान सरकार के दौरान हेट स्पीच देने वालों में 90 प्रतिशत बीजेपी नेता हैं। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि नेताओं के बयानों का लोगों पर सीधा असर होता है। कई जगहों पर इनके आक्रामक बयानों से हिंसा भड़क उठती है और जानमाल का नुकसान होता है, लेकिन नेताओं का कभी बाल भी बांका नहीं होता। लीडर किसी भी पार्टी के हों, गाली देकर या अभद्र टिप्पणी करके प्राय: माफी मांग लेते हैं। पार्टी आलाकमान अपने नेता की बात को उसका निजी बयान बताकर मामले से पल्ला झाड़ लेता है। जब तक चुनाव में नुकसान की आशंका न हो, तब तक शायद ही किसी नेता पर कार्रवाई होती हो। कभी ऐसी कोई नौबत आ भी जाए तो थोड़े समय बाद सब कुछ भुला दिया जाता है। पार्टियां अपने ऐसे बदजुबान नेताओं को टिकट देने में कोई कोताही नहीं बरततीं। इधर कुछ समय से चुनाव आयोग इस मामले में सचेत हुआ है पर उसकी अपनी सीमा है। इस बारे में सख्त नियम बनाने का काम जन प्रतिनिधियों का है, पर वे अपने ही खिलाफ नियम क्यों बनाने लगे?
सबसे बड़ी बात है कि अब लोग ऐसे भाषणों को नियति की तरह स्वीकार करने लगे हैं और इन्हें पॉलिटिक्स का एक जरूरी अंग मानने लगे हैं। नेताओं को समझना चाहिए कि उनकी देखादेखी सामान्य लोगों की बोलचाल में भी आक्रामकता चली आती है, जिससे कटुता फैलती है। इससे विरोध और असहमति की जगह कम होती है और लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर पड़ती है। ऐसी भाषा के प्रति सभी दलों को सख्ती बरतनी चाहिए।
यह अजीब विडंबना है कि एक चपरासी पद पर तैनात सरकारी कर्मचारी के लिए आचरण संहिता बनी हुई है। यह नियमावली ब्रिटिश सत्ता के हितों की हिफाजत के लिए बनी थी, जो आज तक कायम है। अगर चपरासी कारण-अकारण भी गैर-कानूनी काम करता है या चौबीस घंटे से अधिक जेल में डाल दिया जाता है तो उसे तुरंत निलंबित कर दिया जाता है। उसकी सीआर खराब कर दी जाती है। सरकारी कर्मचारियों के लिए प्रतिबंधों की लंबी सूची है। उनकी सेवा निवृत्ति की उम्र भी निर्धारित है। मगर खेद है कि देश चलानेवाले राजनेताओं के लिए आचरण की ऐसी कोई भी नियमावली तय नहीं है। वे स्वतंत्र और बेलगाम हैं। नेताओं के लिए सौ खून माफ हैं। दर्जनों आपराधिक मुकदमे दर्ज होने या वर्षों जेल में बिताने के बाद भी वे माननीय हैं। केवल राजनीतिक नफा-नुकसान का ध्यान रख कर ही, कभी-कभार पार्टियां कुछ नेताओं के विरुद्ध कड़े कदम उठाने को बाध्य होती हैं, अन्यथा नहीं। अमानवीय आचरण के कारण कभी किसी नेता को चुनाव लड़ने से रोक दिया गया हो यह देखने को नहीं मिलता। आजकल तो राजनीतिज्ञों द्वारा महिलाओं के प्रति अत्याचार की जितनी घटनाएं घट रही हैं, उतनी पहले शायद ही कभी घटी हों। हर कदम पर बेटियों को भी अपमानित होना पड़ रहा है। वे क्या खायें, क्या पहनें, क्या बोलें, सब पर हमारे राजनेता सवाल खड़े करते ही रहते हैं। इस प्रकार की गाली-गलौज करना राजनीति की मुख्यधारा का अंग बन चुका है। अब तो राजनीतिक साधु-साध्वियों के मुंह से भी अशोभनीय शब्द निकलने लगे हैं। हाशिये के समाज के प्रति अपशब्दों की तो परंपरा ही रही है। अल्पसंख्यक, महिलाएं, दलित और आदिवासी तो हमेशा से ही सबसे ज्यादा निशाने पर रहे हैं। अब जूता या स्याही फेंकना, पोस्टरों पर कालिख पोतना, हाथापाई पर उतर आना, सदन में कपड़े फाड़ देना, महापुरुषों की मूर्तियों को नुकसान पहुँचाना जैसी घटनाएं आम हो गई हैं। विगत कुछ सालों में राजनेताओं ने अपने विरोधियों के लिए बहुत ही घिनौने और स्त्रीजनित अपशब्दों का इस्तेमाल किया है। इसे राजनीति में भाषाई स्खलन अथवा हिंसा भी कहा जा सकता है।
हाल ही में मध्य प्रदेश में बेतूल की एक रैली में चुनाव प्रचार करने पहुंचे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार(14.11.2023) को मौजूदा चुनावी मौसम में कांग्रेस पर अपना सबसे जोरदार हमला बोला, क्योंकि उन्होंने भारत में मोबाइल फोन के बारे में राहुल गांधी की टिप्पणी पर उन्हें ‘मूर्खों के सरदार’ (मूर्ख लोगों का नेता) कहा। पीएम मोदी ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि राहुल गांधी ने कहा था , ‘आप अपने मोबाइल फोन के पीछे, अपनी शर्ट, अपने जूते के पीछे देखें, आपको वहां ‘मेड इन चाइना’ लिखा हुआ मिलेगा। क्या आपने कैमरे और शर्ट के पीछे ‘मेड इन मध्य प्रदेश’ टैग देखा है? मोदी जी ने आगे कहा कि अब भारत ₹1 लाख करोड़ से अधिक मूल्य के मोबाइल फोन निर्यात करता है, कांग्रेस नेता भारत की उपलब्धि को नजरअंदाज करने की मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं।
वैसे तो 2014 के बाद भाजपा के नेताओं द्वारा अक्सर यह देखा गया है कि राजनीतिक आकाओं ने भाषा की मर्यादा को तिलांजली दे रखी है। उल्लेखनीय है कि जब देश के शीर्ष पद पर आसीन प्रधान मंत्री ही अपनी भाषा को विवादित आवरण पहनाने लगे तो उनके अधीनस्थ नेताओं का भाषा की मर्यादा को ध्यान में न रखना स्वाभाविक ही है। ‘अरे मूर्खों के सरदार, किस दुनिया में रहते हो’, क्या किसी प्रधान मंत्री से ऐसी अमर्यादित भाषा के प्रयोग की अपेक्षा की जा सकती है? वैसे ऐसी अमर्यादित भाषा का प्रयोग किसी के भी द्वारा किया जाना उचित नही कहा जा सकता।
इस तरह की भाषायी अराजकता और असभ्यता को रोकने के लिए क्या कोई आचरण नियमावली बनायी जानी चाहिए या इसे यूं ही छोड़ दिया जाना चाहिए? आज समय की मांग है कि राजनीति की भाषा और आचरण को नियंत्रित करने के लिए आचरण नियमावली का निर्माण किया जाये और उसके उल्लंघन पर राजनीतिज्ञों को राजनीति से निलंबित करने की प्रक्रिया निर्धारित हो। किंतु खेद है कि जिस देश में आज संविधान की ही उपेक्षा की जा रही है, वहां किसी भी नए कानून का बनाना कितना सार्थक होगा, यह प्रश्न तो बना ही रहेगा। वैसे भी आज जब राजनीति में अपराधी और गुंडे किस्म के नेताओं का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है, तब इसे बेलगाम छोड़ने का मतलब मेरे ख्याल से लोकतंत्र को खत्म करना होगा। किंतु भाषायी अराजकता और असभ्यता को रोकने के लिए कोई आचरण नियमावली आखिर बनाएगा कौन?