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पेरियार ने ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ सांस्कृतिक मोर्चा खोला जो आज भी जरूरी है

द्रविड़ कझगम के अध्यक्ष थिरु के वीरामणि से सामाजिक कार्यकर्ता विद्या भूषण रावत की बातचीत यह साक्षात्कार एक नवम्बर 2019 में द्रविड कड़गम के मुख्यालय पेरियार थिदाल, चेन्नई में लिया गया. थिरु वीरामणि कुछ दिनों पहले ही अमेरिका से आये थे जहाँ उन्हें अमेरिकन ह्यूमनिस्ट एसोसिएशन की ओर से दुनिया भर में मानववाद को मजबूत […]

द्रविड़ कझगम के अध्यक्ष थिरु के वीरामणि से सामाजिक कार्यकर्ता विद्या भूषण रावत की बातचीत

यह साक्षात्कार एक नवम्बर 2019 में द्रविड कड़गम के मुख्यालय पेरियार थिदाल, चेन्नई में लिया गया. थिरु वीरामणि कुछ दिनों पहले ही अमेरिका से आये थे जहाँ उन्हें अमेरिकन ह्यूमनिस्ट एसोसिएशन की ओर से दुनिया भर में मानववाद को मजबूत करने के लिए अन्तराष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. मैंने उन्हें इसके लिए बधाई दी और कहा कि समय आ गया है कि पेरियार की विचारधारा और जीवन संघर्ष के विषय में अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों में भी बात जानी चाहिए. वीरामणि मेरी बातों से सहमत होते हैं और कहते हैं कि यह बात सही है. वह यह मानते हैं कि क्योंकि बाबा साहेब आंबेडकर का  अधिकांश लेखन अंग्रेजी में ही था इसलिए उनका साहित्य लोगों को सीधे उपलब्ध हो गया और उसके लिए ‘अनुवादकों’ की जरुरत नहीं पडी. लेकिन पेरियार के भाषण और लेखन प्रायः तमिल में हैं इसलिए उन्हें अनुवाद किये बिना लोग उन्हें नहीं समझ पायेंगे. वीरमणि कहते हैं कि अनुवाद की समस्या सबसे बड़ी है और वह इसलिए नहीं कि ‘अनुवादक’ नहीं मिलते बल्कि इसलिए कि कही अनुवादक बातों के मूल भावों  के बिना अर्थ का अनर्थ न कर डालें. इसलिए जब मैंने उनसे पूछा कि तमिलनाडु में द्रविड़ियन पार्टियों की सरकार होने के बावजूद पेरियार का साहित्य सरकार क्यों नहीं छापती तो उन्होंने बताया कि पेरियार की पुस्तकों के सभी अधिकार पेरियार ट्रस्ट के पास हैं और जब तक किसी भी प्रकार के अनुवाद से संतुष्ट नहीं हो जाते वह किसी को भी पेरियार की पुस्तकें छापने की अनुमति नहीं देते. वीरमणि कहते हैं कि कई बार लोग उनसे पूछते हैं कि वह पेरियार की पुस्तकों को छपने की अनुमति क्यों नहीं देते ? तब उनकी शर्त केवल यही होती है कि पेरियार के विचारों के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए. और इसीलिये वह इसका ध्यान रखते हैं. अब पेरियार मनिअम्माई विश्विद्यालय में अनुवाद के कार्य को देखा जा रहा है और उन्हें उम्मीद है कि शीघ्र ही पेरियार की पुस्तकें और विचार अंग्रेजी में ज्यादा से ज्यादा उपलब्ध होंगे.

“तमिलनाडु हिंदुत्व की शक्तियों के निशाने पर है. तमिलनाडु और केरल के अलावा पंजाब भी उनके निशाने पर है. लेकिन वह यह मानते हैं कि तमिलनाडु और केरल उन्हें पूरी तरह से खारिज कर देंगे. वह पिछड़ी जातियों और दलितों के कुछ नेताओं को पकड़ लेते हैं और फिर उनका इस्तेमाल करते हैं लेकिन इस जमीन को पेरियार ने इतना सींचा है कि हिंदुत्व के लिए यहाँ आना नामुनकिन होगा.”

वीरमणि कहते हैं कि बाबा साहेब और पेरियार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिनके विचारों में समानता है और उन्होंने हमारी समस्याओं की जड़ को पहचाना. दोनों में मुख्य अंतर यह है कि जहाँ बाबा साहेब ने राजनैतिक पद लिया वहीं पेरियार इस सन्दर्भ में बहुत ही कट्टर थे कि राजनितिक पद नहीं लेना है . वह संसद और विधानसभाओं से दूर रहना चाहते थे लेकिन राजनीति से नहीं. पेरियार ने सार्वजनिक जीवन में लोगों की राय को महत्वपूर्ण बना दिया. वीरमणि कहते हैं कि जब लोकशक्ति आगे बढ़ती है तो कानून अपने आप ही लचकते हुए पीछे-पीछे चला आता है. आज दुनिया को विशेषकर भारत के लोगों को पेरियार के आन्दोलन और विचारधारा को समझाने की जरूरत है. वीरामणि कहते हैं कि उत्तर में जो कार्य बाबा साहेब ने किया उसे दक्षिण में पेरियार ने कर दिखाया.

वह यह मानते हैं कि तमिलनाडु हिंदुत्व की शक्तियों के निशाने पर है. तमिलनाडु और केरल के अलावा पंजाब भी उनके निशाने पर है. लेकिन वह यह मानते हैं कि तमिलनाडु और केरल उन्हें पूरी तरह से खारिज कर देंगे. वह पिछड़ी जातियों और दलितों के कुछ नेताओं को पकड़ लेते हैं और फिर उनका इस्तेमाल करते हैं लेकिन इस जमीन को पेरियार ने इतना सींचा है कि हिंदुत्व के लिए यहाँ आना नामुनकिन होगा. वह कहते है कि हिंदुत्व की शक्तिया मसल पॉवर, मीडिया पॉवर और मनी पॉवर के बल पर काम करती हैं लेकिन यहाँ हमें पता ही उन्हें कैसे परास्त करना है. उनके पास ये तीन एम हैं लेकिन हमारे पास मैन पॉवर है जो लोकतंत्र में सबसे बड़ी शक्ति है.

“पिछड़ी जाति के लोगों को पेरियार के इस योगदान का पता है. आज तमिलनाडु अकेला राज्य है जहाँ पिछड़ों के लिए 50% आरक्षण है, दलितों के लिए 18% और आदिवासियो के लिए 1% है . इन जातियों के जो भी लोग आज बड़े बड़े पदों पर हैं वे पेरियार के संघर्ष और विचारों को नहीं भूल सकते क्योंकि उन्हें पता है पेरियार न होते तो इन लोगों का इतनी बड़ी संख्या में बड़े पदों तक पहुँचना संभव नहीं होता.”

आरएसएस का कुप्रचार और पेरियार का योगदान

आरएसएस के लोग अक्सर यह कहते-फिरते हैं कि पेरियार तो नास्तिक थे और तमिलनाडु में भगवान को मानने वालो की संख्या बहुत है. संघ के लोग हमारी संस्था और पत्रिकाओं पर यही आरोप लगाकर हमें खारिज कर देना चाहते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि पेरियार नास्तिक थे लेकिन ऐसा वह क्यों हुए यह भी जानना जरूरी है. जब उन्होंने देखा के वैदिक धर्म में शोषण है और एक जाति की सर्वोच्चता है, अन्धविश्वासों का इस्तेमाल शोषण के लिए किया जा रहा है तो उन्होंने इसे चुनौती दी. पेरियार बिना किसी आधार के अन्धविश्वास के विरुद्ध नहीं बोले. दूसरी बात यह, कि तमिलनाडु में सामाजिक न्याय की पूरी बहस और आन्दोलन पेरियार के विशाल योगदान के बिना कल्पित भी नहीं की जा सकती. इसलिए पिछड़ी जाति के लोगों को पेरियार के इस योगदान का पता है. आज तमिलनाडु अकेला राज्य है जहाँ पिछड़ों के लिए 50% आरक्षण है, दलितों के लिए 18% और आदिवासियो के लिए 1% है . इन जातियों के जो भी लोग आज बड़े बड़े पदों पर हैं वे पेरियार के संघर्ष और विचारों को नहीं भूल सकते क्योंकि उन्हें पता है पेरियार न होते तो इन लोगों का इतनी बड़ी संख्या में बड़े पदों तक पहुँचना संभव नहीं होता.

इसलिए जरूरी यह है कि पेरियार के आन्दोलन को मात्र ‘नास्तिक’ लोगों का आन्दोलन न समझा जाय बल्कि उसके बुनियादी आधारों और तर्कों को जाना जाय. आरएसएस जैसी संस्थाओं द्वारा पेरियार को नास्तिक और हिंदी विरोधी साबित करना उनके द्वारा किये सामजिक परिवर्तन को नकारना है. तमिलनाडु में पिछड़ी जातियों को सम्मानपूर्वक सत्ता में भागीदारी दिलाना पेरियार के आन्दोलन की बहुत बड़ी सफलता रही है. यही कारण है के 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करवाने में द्रविड़ कझगम की बड़ी भूमिका रही है. वीरामणि बताते हैं कि जब मंडल की रिपोर्ट 1982 में संसद में प्रस्तुत की गयी थी तब से लेकर वे लोग 46 से अधिक बड़े सम्मेल्लन कर चुके थे ताकि सरकार पर दवाब बने. वह जानते थे कि सरकारों ने कैसे काका कालेलकर समिति की रिपोर्ट को दबा दिया था.

पेरियार की राजनितिक लड़ाइयाँ

वीरामणि बताते है के द्रविड़ कझगम के बनने के बाद पेरियार की सफलताओं को उनके शिष्य राजनीति में भुनाना चाहते थे. ऐसा नहीं था कि पेरियार उनके राजनीति में जाने के विरुद्ध थे लेकिन वह उस समय की राजनीति को समझ रहे थे. कांग्रेस के के कामराज तमिलनाडु में मुख्यमंत्री थे और राजनैतिक विरोधी होने के बावजूद पेरियार उनका समर्थन करते थे क्योंकि कामराज दलित-पिछड़ों के हितैषी माने जाते थे और उस समय तमिलनाडु के ब्राह्मणवादियों ने राज गोपालाचारी के नेतृत्व में कामराज को हटाने के लिए जोर लगा दिया था. पेरियार यह जानते थे कि यदि कामराज की सरकार गिरी तो फिर तमिलनाडु में राजगोपालाचारी के नेतृत्व में एक ब्राह्मणवादी सरकार आ जायेगी. इसलिए वह उस वक़्त तक अपने साथियों के राजनीति में जाने के खिलाफ थे. के कामराज की सरकार ने मद्रास राज्य को 7% साक्षरता से 37% साक्षरता तक पहुँचाया. मद्रास राज्य में ब्राह्मणवादी शक्तियाँ हावी थीं. राजगोपालाचारी पेरियार के मित्र थे लेकिन उनको पेरियार के राजनीतिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. 1953 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने राज्य में ‘शिक्षा’ में सुधार के लिए एक कानून लागू किया. (मोदी जी भी वैसा ही कर रहे हैं) जिसके तहत प्राइमरी स्कूलों में शिक्षण के घंटे 6 से घटाकर 3 कर दिए गए और स्कूलों को दो शिफ्ट का कर दिया गया. राजाजी का मानना था कि इससे से जो बच्चे अपने माता-पिता के साथ पुश्तैनी धंधे कर रहे हैं उनका भी ‘भला’ हो जाएगा. इससे स्कूलों पर बच्चों की संख्या का बोझ कम होगा. लेकिन इस कारण मद्रास राज्य में  बड़ी संख्या में स्कूल बंद हो गए. पेरियार ने इस निर्णय का जमकर विरोध किया और इसे जातिवादी मानिसकता से प्रेरित बताया. उनका तर्क था कि राजगोपालाचारी के इस कानून से दलित-पिछड़ों को अच्छी शिक्षा से वंचित कर दिया जायेगा.  इस प्रश्न को लेकर कांग्रेस के अन्दर ही घमासान हो गया और फिर राजाजी को जन दवाब में आकर त्यागपत्र देना पड़ा और फिर से के कामराज की ताजपोशी हुई. उन्होंने इस क़ानून को वापस लिया और तमिलनाडु में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया. उन्होंने  बच्चों के लिए दोपहर का भोजन भी स्कूलों में बांटना शुरू किया जिससे स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या अधिक हुई और 12000 से अधिक प्राथमिक स्कूल खोले गए.

राजाजी बनाम पेरियार अर्थात ब्राह्मणवाद बनाम जनवाद

वीरमणि जी कहते हैं कि आज लोग ‘राजाजी’ को ‘याद करते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि उनके कारण तमिलनाडु में दलित-पिछड़ों का कितना नुकसान हुआ. उनकी विचारधारा क्या थी? पेरियार तो उस समय से ही जनता के आन्दोलन को मजबूत कर रहे थे लेकिन वह अच्छे काम कर रही सरकार को भी नहीं छेड़ना चाहते थे. कामराज तो कांग्रेस के नेता थे लेकिन पिछड़ी जातियों-दलितों के हितों का काम कर रहे थे इसलिए पेरियार नहीं चाहते थे कि कामराज के कमजोर होने पर राजगोपालाचारी दोबारा  सत्ता में आएँ. पेरियार की राजनातिक सूझ-बूझ का सम्मान करना पड़ेगा.

द्रविड़ कझगम के अध्यक्ष थिरु के वीरामणि के साथ सामाजिक कार्यकर्ता विद्या भूषण रावत

वीरमणि बताते हैं कि पेरियार ब्राह्मणवाद के मंत्र को समझाते हुए कहते थे कि ब्राह्मणवादी पहले आपकी ‘तारीफ़’ करेंगे और यदि उससे काम न चला तो आपको अपनी विचारधारा में समाहित करने की कोशिश करेंगे या यह दिखाने का प्रयास करेंगे कि वे तो आपके सबसे बड़े अनुयायी हैं. लेकिन यदि इससे भी काम न चला तो वे आपको पूरी तरह से समाप्त करने के प्रयास करेंगे. जो तीन शब्द वीरमणि कहते है वे अंग्रेजी में इस प्रकार से हैं एप्रिसियेट, एप्रोप्रियेट, एनिहिलेट. प्रगतिशील और पुरातनपंथी ‘ब्राह्मण’ में पेरियार प्रगतिशीलों के खतरे से ज्यादा आगाह करते हैं. क्योंकि दोनों का ही उद्देश्य अपनी सर्वोच्चता को बरकार रखना होता है. एक आपको कभी पसंद नहीं करता और हमें उसका पता होता है लेकिन जो ‘प्रगतिशील’ है वह आपका ‘हितैषी’ होने का दावा करता है लेकिन होता नहीं. आखिर यदि किसी भी विचारधारा के मूल में नहीं गए तो उससे लड़ेंगे कैसे? इसीलिये वीरमणि कहते हैं कि ब्राह्मणवाद से लड़ने में बाबा साहेब अम्बेडकर और पेरियार सफल हैं क्योंकि वे इसके मूल में गए और वही बात उनके लेखन और सार्वजनिक कार्यों में नज़र आती है.

पेरियार को लगता था कि सत्ता आपको भ्रष्ट बनाती है इसलिए वह इसको प्रभावित तो करते थे लेकिन दलित-पिछड़ों के अधिकारों के प्रश्न पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया और हमेशा आन्दोलन करते रहे.

हिंदी भाषा का प्रश्न और द्रविड़ संस्कृति

यह प्रश्न हमसे बहुत से लोगों ने पूछा. सीताराम केसरी जी पिछड़ी जातियों से निकले एक बहुत बड़े नेता थे और मै ये मानता हूँ कि वह पेरियारवादी थे. हमने उन्हें कई पुस्तकें दी और उनको पढ़ते-पढ़ते उन्हें जब भी कोई शंका होती तो मुझे फ़ोन करते. वह कहते कि पेरियार एक मानववादी और तर्कवादी थे तो हिंदी भाषा को विरोध क्यों करते थे.

वीरामणि कहते हैं कि हम सभी सोचें कि पेरियार ने ऐसा क्यों किया? क्या हम हिंदी भाषा के विरोधी हैं ? 1968 में तो पेरियार लखनऊ और कानपुर भी आये और उन्होंने लोगों को समझाया भी. पेरियार एक भाषा का विरोध नहीं कर रहे थे. वह तमिलनाडु में एक बाहरी संस्कृति थोपे जाने का विरोध कर रहे थे. हिंदी और संस्कृत के जरिये तमिलनाडु को अपनी मूल भाषा से वंचित करने की चाल का विरोध कर रहे थे. यदि हम संविधान को पढ़ें तो हमारी बात साफ़ हो जायेगी. हिंदी देश की आधिकारिक भाषा थी और अन्य भाषाएँ भी उसके साथ जोड़ी गईं. हिंदी को देवनागरी कहा गया और संस्कृत को देवभाषा. तो फिर तमिल क्या हुई? नीचभाषा. अगर आप भाषाओं को समझते हैं तो संस्कृत और तमिल दोनों को क्लासिकल लैंग्वेज कहा जाता है. लेकिन ऐसा कैसे है कि एक भाषा, जिसे न कोई बोलता और न जिसमें कोई आधुनिक साहित्य है और जिसे मृतभाषा कहा जाता है वह तो देवभाषा है और दूसरी भाषा जिसे दुनिया भर में लोग बोलते हैं  और तमिलनाडु में तो वो लोगो की मुख्य भाषा है, वह नीचभाषा कैसे हो गई ?

तमिल भाषा एक संस्कृति है, वह द्रविड़ियन संस्कृति से उपजी भाषा है जिसमें बराबरी है, मानववाद है और दूसरी तरफ संस्कृत जिसमें गैरबराबरी है, एक जाति की सर्वोच्चता है, जातिवाद है तो उसे कैसे हम स्वीकार करें?  भाषा के नाम पर ब्राह्मणवादी संस्कृति को तमिलनाडु के लोगों पर थोपने का ही पेरियार ने विरोध किया. वह कहते हैं कि हम भी जानते हैं कि उत्तर भारत में भी दलित और पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं और उनकी मातृभाषा हिंदी है और हम उन्हें कभी नहीं कहेंगे कि हिंदी न पढ़ो तो फिर आप हमको हमारी मातृभाषा पढ़ने से क्यों वंचित करना चाहते हैं? आप हम पर अपनी संस्कृति और भाषा क्यों थोपना चाहते हैं?

मैंने वीरमणि से पूछा कि तमिलनाडु के ब्राह्मण भी तो तमिल बोलते हैं तो इस पर वह कहते हैं कि  तमिलनाडु के मंदिरों में ब्राह्मण संस्कृत में ही पूजा करते थे और सारे सामजिक कार्यों में ब्राह्मण  संस्कृत ही इस्तेमाल करते थे चाहे मुंडन संस्कार, नामकरण, श्राद्ध या कोई अन्य सामजिक कार्य हो. ब्राह्मणवाद की सर्वोच्चता संस्कृत के जरिये बनी रही है और पेरियार इसे समझते थे और इसलिए उन्होंने द्रविड़ियन संस्कृति का सवाल खड़ा किया और लोगों को उनकी बात समझ में भी आई.

हमारा हिंदी से कोई बैर नहीं है. हम सांस्कृतिक आक्रमण का विरोध करते रहेंगे. आरएसएस का सिद्धांत है एक भाषा, एक देश, एक संस्कृति और एक सरकार लेकिन हमें विविधता का सम्मान करना चाहिए. फिर जैसे गाँधी कहते थे कि हिन्दुस्तानी भाषा हो जो बोलचाल में आसानी से समझ में आये और जिसमें सभी भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करने की क्षमता हो. वीरमणि एक उदहारण देते है कि पेरियार थिदाल, चेन्नई में राम विलास पासवान लगातार आते थे और हम उन्हें सुनते थे. एक बार उन्होंने करीब डेढ़ घंटे हिंदी में भाषण दिया और ऐसा पहली बार हुआ कि हम सभी ने किसी हिंदी भाषी को इतनी देर तक झेला हो.  लेकिन हम जानते थे कि वह वंचित समुदायों के लिए सबसे बड़ा काम कर रहे थे इसलिए यहाँ भाषा का प्रश्न नहीं है. भाषा के नाम पर एक गैर बराबरी की संस्कृति को तमिलनाडु के ऊपर थोपने का ही पेरियार ने विरोध किया जिसे उनके विरोधियो ने हिंदी विरोध का नाम दे दिया.

दुनिया में बौद्धिकता का सबसे बड़ा वैश्याकरण

वीरमणि यह मानते हैं कि राम मनोहर लोहिया को भी लेखकों ने एक ‘कट्टर हिंदी’ के तौर पर प्रस्तुत किया जबकि जाति उन्मूलन और पिछड़े वर्ग के लिए उनके योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता. लोहिया समाजवादी थे और हम उनका सम्मान करते हैं. बाबा साहेब को उद्धृत करते हुए वह कहते हैं कि दुनिया के अन्दर बौद्धिकता का सबसे बड़ा वैश्याकरण ( prostitution) ब्राह्मणों ने ही किया. आज जरूरत है कि दलित, पिछड़े, आदिवासी, सभी लोग हाथ मिलाएँ. हम तो प्रगतिशील लोगों को भी कहते हैं कि वे भी आएँ  लेकिन तमिलनाडु में वह हमारे साथ नहीं आते और उसका कारण है कि वे अपनी लड़ाई को मात्र राजनीति तक सीमित कर देते हैं. और हम उसे सांस्कृतिक प्रश्नों से भी जोड़ते हैं . हमारा कैडर बहुत सिद्धांतवादी है और पूरी तरह से गैर राजनीतिक है. इसका मतलब यह कि हम राजनैतिक प्रश्न पर आन्दोलन करेंगे, बात करेंगे लेकिन राजनीति का हिस्सा नहीं बनेंगे क्योंकि जैसे पेरियार ने कहा कि सत्ता में आकर आप अकसर समझौतापरस्त हो जाते हैं.  पेरियार की बातें आज तक सही साबित हुई हैं . हमें ऐसे गैर राजनीतिक लोग चाहिए जो राजनैतिक लोगों से ऊपर हों और जिन्हें राजनीतिज्ञ सुनें . दलित-पिछड़ों में अभी ऐसा नेतृत्व नहीं आया जिसे सभी स्वीकारें और दूसरी ओर अन्ना हजारे टाइप खतरनाक लोग आते हैं जिनके पीछे कई बार लोग भ्रमित होकर चले जाते हैं .

जब मै आत्मसम्मान विवाह के ऊपर बात करता हूँ, जो पेरियार ने शुरू किया था, तो वीरमणि कहते हैं कि शादियाँ भी ‘सांस्कृतिक आक्रमण’ के विरुद्ध एक मानववादी विकल्प थीं. इन शादियों में न दहेज़ होता था और ना ही कोई ब्राह्मण और उनकी तथाकथित परम्पराएँ.  पेरियार जस्टिस पार्टी के अपने अनुभवों से सीख चुके थे. जस्टिस पार्टी 1923-1936 तक सत्ता में रही और फिर चुनाव हार गयी और इसका कारण था कि यह ब्राह्मणों से राजनीतिक तौर पर लड़ रही थी लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर नहीं. 1937 के बाद मद्रास प्रेसीडेंसी का राज भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हाथ में आ गया जिसका नेतृत्व ब्राह्मणवादी शक्तियों के पास था. अपनी हार के सदमे से जस्टिस पार्टी नहीं उबर पाई. बाद में पेरियार को इसका अध्यक्ष बनाया गया और उन्होंने इसकी राजनितिक गतिविधियों को बंद करके द्रविड़ कझगम बनाया और दोबारा द्रविड़ आन्दोलन को इतना मजबूत बनया कि तमिलनाडु उसका सबसे मज़बूत गढ़ बना. पेरियार ने ब्राह्मणवाद से लड़ने के द्रविड़ियन सांस्कृतिक विकल्प दिया जिसमें मानववादी विवाह-पद्धति भी थी जो बहुत लोकप्रिय हुई और आज भी पेरियार थिदाल में ऐसे विवाह होते हैं !

 

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