देश की राजनीति में युगांतरकारी बदलाव लाने वाली चुनिंदा राजनीतिक यात्राओं मे शुमार की जा रही राहुल गांधी की भारत जोड़ों न्याय यात्रा देश में एक नयी चेतना का संचार किया है। 14 जनवरी से मणिपुर से शुरू हो कर नगालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, प. बंगाल, झारखंड, ओडिशा, बिहार होते हुए वर्तमान में यह उत्तर प्रदेश से गुजर रही है। उत्तर प्रदेश में प्रवेश के पहले से ही इस यात्रा में जिस तरह राहुल गांधी ने पुरजोर तरीके से धन के अन्यायपूर्ण बंटवारे के साथ कंपनियों, मीडिया, अस्पतालों, प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में दलित, आदिवासी, पिछड़ों से युक्त 73 प्रतिशत वंचित आबादी की हिस्सेदारी का सवाल खड़ा किया; जिस तरह अग्निवीरों को न्याय दिलाने का आश्वासन दिया; जिस तरह सत्ता में आने पर अदानी- अंबानी को औने-पौने दामों में बेची गई सरकारी कंपनियों को वापस लाने की बात उठाया, उससे विगत एक साल से धीरे-धीरे सामाजिक न्याय के नई आइकॉन के रूप में निर्मित होती गई उनकी छवि यात्रा के दौरान उत्तरोत्तर निखरती गई।
निरंतर निखरती इस छवि के कारण इस यात्रा में उन्हें देखने-सुनने वालों की भीड़ कदम-कदम पर बढ़ती गई। किन्तु जब वह बिहार की सीमा पार कर उत्तर प्रदेश में प्रवेश किए, उनका तेवर बदलने लगा साथ ही जिला दर जिला रिकार्ड भीड़ उमड़ने लगी। किन्तु सामंतशाही के गढ़ प्रतापगढ़ पहुंच कर बदले तेवर के साथ जो भाषण दिया, उसे सुनकर दुनिया हैरान रह गई।
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तापगढ़ में दिये अपने भाषण में राहुल गांधी ने कहा, दलित-आदिवासी वंचितों के हकों-हुकूक की बात करना, उनके साथ हुए अन्याय की बात करना, सीधे सामंतवाद की छाती में कील ठोंकने जैसा है। राहुल गांधी ने कहा कि आज के लिए नहीं, पीढ़ियों के लिए है। उत्तर प्रदेश की जमीन पर जो पपड़ी जम गई थी, उसे राहुल गांधी ने उर्वर बना दिए है। इसका असर सिर्फ यूपी तक नहीं बल्कि झारखंड, बुन्देलखंड, बिहार और दक्षिण भारत तक होगा। इ
लोग समझ नहीं पाए हैं कि राहुल गांधी बड़ी सफाई से उस सापेक्षिक वंचना(रिलेटिव डिप्राइवेशन) की भावना को उभार रहे हैं, जो क्रांति की आग में घी का काम करती है। यात्रा के दौरान वह अक्सर यह कहते देखे जा रहे हैं कि आजादी के बाद देश में हरित क्रांति हुई, श्वेत क्रांति हुई, बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसा क्रांतिकारी काम हुआ, लेकिन इनमें जाति जनगणना सबसे बड़ी क्रांति होगी। वास्तव में जाति जनगणना में भारत के जड़ समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के बीज छिपे हुए हैं। जाति जनगणना के रास्ते भारत में द्रुत क्रांतिकारी परिवर्तन हो, इसके लिए ही उनकी अधिकतंम गतिविधियां वंचितों को ‘सापेक्षिक वंचना’ के अहसास से लैस करने पर केंद्रित हैं ।
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दुनिया में सामाजिक परिवर्तन के लिए जो क्रांतिकारी आंदोलन हुए, उन आंदोलनों की प्रेरक शक्तियां कौन सी रहीं? इन आंदोलनों के उद्गम के पीछे कौन से कारण क्रियाशील रहे, इसकी खोज करते हुए समाज शास्त्रियों ने तीन सिद्धांत विकसित किए एक ‘तनाव सिद्धांत’(स्ट्रैन थ्योरी), दो, पुनर्निर्माण का सिद्धांत(रेविटलाइजेशन थ्योरी) और तीसरा सापेक्षिक वंचना। इनमे तीसरा सापेक्षिक वंचना ज्यादा मान्य हुआ, जिसके अगुआ रहे मर्टन। मर्टन ने आंदोलनों की प्रेरक शक्ति के रूप में सापेक्षिक वंचना(रिलेटिव डिप्राइवेशन) को सर्वाधिक गुरुत्व दिया। इनके विचार से यह समाज मे पनपी सापेक्षिक वंचना है, जो क्रांति की आग में घी का काम करती है। सापेक्षिक वंचना के सिद्धांत को उसके मूल रूप में ‘अमेरिकन सोल्जर’(1949) में देखा जा सकता है।
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सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिका के कालों में पनपा, जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ, जो परवर्तीकाल में वहां डाइवर्सिटी अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण लागू होने का सबब बना। दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना का एहसास ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसके फलस्वरूप भष्म हो गई 8-9 आबादी वाले उन गोरों की तानाशाही सत्ता, जिनका वहां के शक्ति के स्रोतों पर 90 प्रतिशत के आसपास कब्जा रहा। लेकिन आज भारत में तत्कालीन अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका की तुलना में सापेक्षिक वंचना के एहसास के उभरने के कहीं ज्यादा आधार हैं। यहाँ राहुल गांधी के शब्दों में कहा जाए तो धन-संपदा, मीडिया इत्यादि समस्त क्षेत्रों में 2-3 प्रतिशत जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के लोगों का कब्जा हो गया है।
आज यदि कोई ध्यान से देखे तो साफ दिखेगा कि मेट्रोपॉलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में जो छोटे-बड़े मॉल हैं, उनमें 90 प्रतिशत से भी कहीं ज्यादा दुकानें 2-3 प्रतिशत वालों की है। चार से आठ-दस लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्ही की हैं। देश के जनमत निर्माण मे लगे छोटे-बड़े अखबारों से लेकर तमाम चैनल्स इन्हीं के हैं। फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्जा इन्हीं का है। संसद–विधानसभाओं में वंचित जातियों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीकठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है।
मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजाम पहनाने वाले 80- 90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों के हैं। संक्षेप में आज की तारीख में शासन- प्रशासन, उद्योग–व्यापार, फिल्म–मीडिया, धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सुविधाभोगी वर्ग जैसा दबदबा न तो किसी भी काल में दुनिया के किसी भी देश के समुदाय विशेष का रहा है और न ही आज है। ऐसे में आज भारत में सामाजिक वंचना के तुंग पर पहुँचने लायक जो आधार हैं, उसका सद्व्यवहार कर दुनिया के किसी भी देश में वोट के जरिए लोकतान्त्रिक क्रांति घटित हो गई होती। लेकिन भारत में नहीं होता दिख रहा है तो उसके ऐतिहासिक कारण है!
भाजपा जिस सनातन/हिन्दू धर्म का उत्तोलक है, उस हिन्दू धर्म का प्राणाधार वर्ण-व्यवस्था रही। धर्म पर आधारित वर्ण- व्यवस्था मुख्यत शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रहीं। वितरणवादी वर्ण- व्यवस्था में शक्ति के समस्त स्रोत सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग- मुख, बाहु, जंघे- से जन्में लोगों के लिए आरक्षित रहे। इसमें धर्मादेशों द्वारा शक्ति के समस्त स्रोतों का भोग दलित, आदिवासी और पिछड़ों के लिए अधर्म घोषित रहे। शक्ति के स्रोतों के भोग पर शुद्रातिशूद्रों को इहलोक में राजदंड तो परलोक में नरक का सामाना करना पड़ता था। हिन्दू धर्मादेशों के जरिए दैविक गुलाम(डिवाइन स्लैव) में तब्दील किए गए समुदाय धर्मादेशों की अवहेलना न कर सकें। फलस्वरूप हिन्दू धर्म के सौजन्य से धीरे –धीरे उनके मन से चन्द्रगुप्त मौर्य का उत्तरसूरी, ब्राहमनों की भांति ज्ञान के एकाधिकारी, क्षत्रियों की भांति हथियार स्पर्श और वैश्यों की भांति उद्योगपति- व्यवसायी बनने की भावना कपूर की भांति उड़ा दी गई।
इस तरह शुद्रातिशूद्र हमेशा के लिए ऐसे महत्वाकांक्षाहींन(लैक्स ऑफ ऐसपिरेशन्स) समुदाय में तब्दील हो गए, जिनमें शासक, राजा, व्यापारी, लेखक-पत्रकार और किसी धाम का शंकराचार्य होना तो दूर किसी मंदिर के पुजारी तक बनने की महत्वाकांक्षा न पनप सकी। ऐसे महत्वाकांक्षाहींन समुदाया में कांशीराम ने शासक बनने की महत्वाकांक्षा पैदा कर एक चमत्कार घटित कर दिया। किन्तु नई सदी में कांशीराम के सौजन्य से शासक बनने की भावन तो जरूर पनपी पर, मीडिया स्वामी, सप्लायर, डीलर, ठेकेदार, किसी स्टूडिओ का मालिक इत्यादि बनने की महत्वाकांक्षा पैदा न हो सकी। लेकिन शासक बनने से आगे बढ़कर दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मांतरित तबकों में शक्ति के समस्त स्रोतों में संख्यानुपात में हिस्सेदारी की चाह पनपे, इस दिशा में डाइवर्सिटी समर्थक बहुजन लेखकों ने एक अभियान चलाया, जिसके फलस्वरूप न सिर्फ वंचित जातियों में कुछ-कुछ सप्लायर, डीलर, ठेकेदार इत्यादि बनने की चाह पनपी, बल्कि केंद्र सहित कई सरकारों ने उनके अभियान से प्रभावित होकर दलित पिछड़ों को ठेकों, डीलरशिप, सप्लाई, पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि में आरक्षण भी दिया।
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मोदी जिस तरह मंदिर आंदोलन से मिली राजसत्ता का उपयोग जुनून के साथ सरकारी कंपनियों को बेचने और आरक्षण के खात्मे में करते रहे, उसे देखते हुए सामाजिक न्यायवादी अगर 2019 में ही दलित, आदिवासी, पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित लोगों को नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई , डीलरशिप, ठेकेदारी, मीडिया इत्यादि सभी क्षेत्रों में संख्यानुपात में हिस्सेदारी दिलाने के मुद्दे पर चुनाव को केंद्रित किए होते तो भाजपा 2019 में ही सत्ता से दूर हो गई होती। किन्तु सामाजिक न्यायवादी दलों की उदासीनता को देखते हुए कांग्रेस ने मोदी–राज में पनपी सापेक्षिक वंचना के सदुपयोग का मन बनाया और फरवरी, 2023 में रायपुर के अपने 85वें अधिवेशन में सामाजिक न्याय का पिटारा खोलने के बाद कर्नाटक चुनाव को सामाजिक न्याय पर केंद्रित कर भाजपा को बुरी तरह शिकस्त दे दिया। कर्नाटक चुनाव के दौरान कोलार में राहुल गांधी ने कांशीराम के नारे – जिसकी जितनी आबादी- उसकी उतनी हिस्सेदारी- का नारा उछाला। उसके बाद वह पीछे मुड़कर नहीं देखे ।
राहुल गांधी कांशीराम के भागीदारी नारे को सिर्फ सत्ता में भागीदारी तक सीमित न रखकर हर क्षेत्र में भागीदारी तक प्रसारित करने के साथ मोदी राज की सापेक्षिक वंचना के सद्व्यवहार के लिए भारत जोड़ों न्याय यात्रा के जरिए सड़कों पर उतर गए। सड़कों पर उतर कर वह 73 प्रतिशत वालों से जो लगातार सवाल करते गए कि बताओं देश में जो 200 कंपनियां हैं, मीडिया और अखबार, प्राइवेट यूनिवर्सिटियां हैं, उनमें कितनों के मालिक और मैनेजर तुम्हारे लोग हैं ? उन्होंने मणिपुर से बिहार तक इन्हीं सवालों के जरिए वंचितों मे उस सापेक्षिक वंचना को उभारने का भारत के इतिहास में अभूतपूर्व प्रयास किया जो सापेक्षिक वंचना सामाजिक बदलाव की सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति है। भारत जोड़ों यात्रा के जरिए सापेक्षिक वंचना को धीरे – धीरे उभारते हुए, वह देश की राजनीति की दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश में पहुंच कर अपना तेवर उग्र कर दिए, जिसका चरम रूप सामंतशाही के गढ़ प्रतापगढ़ में देखने को मिला। प्रतापगढ़ में उनके तेवर को जिस तरह दलित बहुजन बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों का समर्थन मिला; जिस तरह दुनिया के समाज विज्ञानी अभिभूत हुए, उससे तय है कि भारत में जल्द ही, शायद 2024 में ही 73 प्रतिशत वालें लोकतान्त्रिक क्रांति घटित कर देंगे!