डॉ मनमोहन सिंह के बाद नरेंद्र मोदी केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए और आज प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल की बराबरी करने की स्थिति में पहुंच गए हैं। लेकिन मोदी भले ही प्रधानमंत्री के रूप में दस साल तक काम करने की बराबरी कर ले,पर पीएसयू के निर्माण में कभी भी डॉ. मनमोहन सिंह की बराबरी नहीं कर सकते। मोदी जिन मनमोहन सिंह को मौनी बाबा कहकर मजाक उड़ाते थे, वह मनमोहन सिंह सत्ता में आने के संग-संग जहां वाजपेयी की खतरनाक विनिवेश नीति पर अंकुश लगाये , वहीं अपने दस साल के कार्यकाल में 23 पीएसयू खड़ा कर दिए और निजीकरण किये सिर्फ तीन का। मनमोहन सिंह के विपरीत मोदी अपने साढ़े नौ सालों के कार्यकाल में एक भी पीएसयू नहीं खड़ा किये और 23 का निजीकरण कर दिए। आज निजीकरण के मामले में वह वाजपेयी तक को बौना बना चुके हैं। बहरहाल सवाल पैदा होता है मोदी क्यों निजीकरण की दिशा में मुस्तैद हुए! इसका जवाब संघ के लक्ष्यों में छुपा है।
मोदी जिस संघ से प्रशिक्षित होकर प्रधानमन्त्री की कुर्सी तक पहुंचे, उस संघ का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना रहा है, यह राजनीति में रूचि रखने वाला एक बच्चा तक जानता है। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का मतलब एक ऐसा राष्ट्र निर्माण करना है, जिसमें देश आंबेडकरी संविधान नहीं, उन हिन्दू धार्मिक कानूनों द्वारा चलेगा, जिसमे शुद्रातिशूद्र अधिकारविहीन नर-पशु एवं शक्ति के समस्त स्रोतों -आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- से पूरी तरह बहिष्कृत रहे। संघ के एकनिष्ठ सेवक होने के नाते मोदी हिन्दू राष्ट्र से अपना ध्यान एक पल के लिए भी नहीं हटाये और 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही अपनी समस्त गतिविधियां इसी पर केन्द्रित रखे। सत्ता में आने के बाद मोदी जिस हिन्दू राष्ट्र को आकार देने में निमंग्न हुए, उसके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा रहा संविधान! संविधान इसलिए बाधा रहा क्योंकि यह शुद्रातिशूद्रों को उन सभी पेशे/ कर्मों में हिस्सेदारी सुनिश्चित कराता है, जो पेशे/कर्म हिन्दू धर्म-शास्त्रों द्वारा सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख-बाहु-जंघे) से उत्पन्न लोगों (ब्राहमण-क्षत्रिय-वैश्यों) के लिए आरक्षित रहे। संविधान के रहते सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर वैसा एकाधिकार कभी नहीं हो सकता, जो अधिकार हिन्दू धर्मशास्त्रों में उन्हें दिया गया था। किन्तु संविधान के रहते हुए भी हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे लोगों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार हो सकता है, यदि इन्हें निजी क्षेत्र में शिफ्ट करा दिया जाय। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही मोदी जिस दिन से सत्ता में आए, उपरी तौर पर संविधान के प्रति अतिशय आदर व्यक्त करते हुए भी, लगातार इसे व्यर्थ करने में जुटे रहे। इस बात को ध्यान में रखते हुए वह लाभजनक सरकारी उपक्रमों को औने –पौने दामों में बेचते हुए निजी क्षेत्र में देने में इस कदर मुस्तैद हुए कि वाजपेयी भी इनके सामने बौने बन गए। (स्रोत: एच. एल. दुसाध, मिशन डाइवर्सिटी, पृष्ठ:8-9)
सत्ता में आने के बाद मोदी शक्ति के स्रोतों को उच्च वर्ण के लोगों के हाथों मे सौपने के इरादे से जो नीतियां ग्रहण किये किये उसका असर 2018 से सामने आना शुरू हो गया। मोदी की हिंदुत्ववादी नीतियों का भयावह परिणाम सबसे पहले ‘2018 में 22 जनवरी को सामने आया जब स्विटज़रलैंड के दावोस में वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम के शुरू होने के पहले अंतर्राष्ट्रीय अधिकार समूह ऑक्सफाम की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। दुनिया में बढ़ रहे असमान धन के बंटवारे पर जारी ऑक्सफाम की रिपोर्ट भारत के लिए किसी भूकंप से कम नहीं थी। 10 देशों के 70 हजार लोगों पर सर्वे कर जारी की गयी ‘रिवॉर्ड वर्क, नॉट वेल्थ’ नामक वह रिपोर्ट अमीर-गरीब के बीच गहरी होती खाई की बहुत ही चिंताजनक तस्वीर पेश की थी। रिपोर्ट बताई थी कि भारत में बीते साल जो धन सृजित हुआ, उसमें से 73% धन देश के टॉप की 1 प्रतिशत आबादी के हिस्से में चला गया। एक वर्ष में यह संपत्ति विस्फोटक रूप से बढ़ी है, क्योंकि पिछले साल जारी रिपोर्ट में 1% अमीर लोगों के पास देश की 58% दौलत थी। इस विस्फोटक वृद्धि के चलते इस साल अमीर आबादी की दौलत में 4.89 लाख करोड़ का इजाफा हुआ, जो सभी राज्यों के शिक्षा व स्वास्थ्य बजट के बराबर है। अब अरबपतियों की कुल दौलत 20.9 लाख करोड़ हो गयी है,जो 2017- 18 के केन्द्रीय बजट के बराबर है। आर्थिक विषमता की भयावह तस्वीर पेश करती इस रिपोर्ट पर चिंता जाहिर करते हुए ऑक्सफाम इंडिया की सीईओ निशा अग्रवाल ने कहा था, ‘अरबपतियों की बढती संख्या अच्छी अर्थव्यवस्था का नहीं, ख़राब होती अर्थव्यवस्था का संकेत है। जो लोग कठिन परिश्रम करके देश के लिए भोजन उगा रहे हैं, फैक्ट्ररियोंमें काम कर रहे हैं, उन्हें अपने बच्चों की फीस भरने, दवा खरीदने और दो वक्त का खाना जुटाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। अमीर-गरीब की खाई लोकतंत्र को खोखला कर रही है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है।’(स्रोत: एचएल दुसाध, इस भयावह विषमता का कैसे हो खत्मा, शिल्कार टाइम्स, 28 जनवरी, 2018)।
2018 के ऑक्सफाम रिपोर्ट पर निशा अग्रवाल ने जो सावधान वाणी सुनाई थी, कोई और शासक होता तो चिंतित होता और विषमता से पार पाने लायक नीतियाँ अख्तियार करता, पर, मोदी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा और उनके शासन में विषमता नई-नई ऊँचाई छूती रही। बहरहाल मोदी-राज में विषमता जो एवरेस्ट सरीखी उंचाई छुई, वह इसलिए छुई क्योंकि उन्होंने नीतियाँ ही ऐसी अख्तियार की थी। टॉप की 1 प्रतिशत जिस आबादी का 73 % दौलत पर कब्ज़ा हुआ, उसमें 99.9% लोग उसी वर्ग से आते हैं, हिन्दू राष्ट्र के जरिये जिनके हाथों में शक्ति के समस्त स्रोत सौपना संघ का लक्ष्य है। ऐसा मोदी की वंचित विरोधी नीतियों की वजह से ही हुआ, इसका अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता कि ‘कई अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों के मुताबिक़ सन 2000 में देश की सृजित दौलत पर टॉप की 1% आबादी का 37% हुआ करता था, जो 2005 में बढ़कर 42% , 2010 में 48 % , 2012 में 52 % तथा 2016 में बढकर 58.5% तक पहुंच गया। इससे जाहिर है कि 2000 से 2016 अर्थात 16 सालों में 15% वालों की दौलत में कुल इजाफा 21% का हुआ, जबकि 2016 के 58.5% के मुकाबले 2017 में 73% होने का मतलब एक साल में प्रायः 15 % का इजाफा। यह मोदी की राष्ट्रवादी नीतियों का कमाल रहा। (स्रोत:एचएल दुसाध, धन-दौलत के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए: सर्वव्यापी आरक्षण की जरुरत, पृष्ठ: 8)।
पूर्व पंक्तियों में बताया गया है कि चूँकि आंबेडकरी आरक्षण से हिंदू धर्म की हानि होती है इसलिए ही संघ का शिशु सगठन हिन्दुत्ववादी भाजपा आरक्षण का खात्मा चाहती है। इस क्रम में सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी ने आरक्षण के खात्मे की दिशा में जुनून के साथ जो काम करना शुरू किया, उसका असर भी 2018 से दिखने लगा।’ 2014 में सत्ता में आने के साथ मोदी सरकार आरक्षित वर्गों के प्रति इतनी निर्मम रही है कि एक ओर जहां निजीकरण, विनिवेशीकरण इत्यादि के जरिये सरकारी नौकरियों के खात्मे में पूरी तरह मुस्तैद रही, वहीं दूसरी ओर वह बची-खुची सरकारी नौकरियों की वैकेंसी निकालने में तरह-तरह का षड्यंत्र करती रही। खुद मोदी सरकार ने मार्च 2016 में माना कि 2013 और 2015 के बीच केंद्र सरकार की नौकरियों में 89 प्रतिशत गिरावट आई है। तब राज्य मंत्री जितेन्द्र कुमार ने संसद में बताया था कि 2013 में 1,51,841 सीधी नौकरिया दी गईं थी। जो 2014 में घटकर 1, 26, 261 रह गयी थीं। और 2015 में केवल 15,877 लोगों की सीधी भर्ती की गयी। इसका मतलब यह हुआ कि 2013 से 2015 के बीच आरक्षित वर्ग की नौकरियों में प्रायः 90 प्रतिशत की गिरावट आई। एससी/ एसटी और पिछड़े वर्गों के निर्धारित आरक्षण के जरिये 2013 में 92, 928 लोगों को नौकरी मिली थी। 2014 में यह तादाद 72,077 थी, जो 2015 में सिमट कर महज 8, 436 रह गयी। अब भाजपा के केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने मराठा आरक्षण पर उठ रही मांग के बीच एलान कर दिया है कि सरकारी नौकरियां ही नहीं हैं और जब सरकारी नौकरियां ही नहीं हैं तब आरक्षण का कोई अर्थ ही नहीं है! तो यह है उस मोदी सरकार की कारगुजारी जो आरक्षण को पूरी तरह कागजों की शोभा बनाने के साथ सरकारी नौकरियों को कपूर की भांति उड़ा चुकी है। कागजों की शोभा बन चुके उसी आरक्षण में आरक्षित वर्गों की अनग्रसर जातियों को वाजिब हिस्सेदारी दिलाने के लिए मोदी आज आरक्षण में विभाजन कर सामाजिक न्याय के नए मसीहा बनने की तैयारियों में जुट गए हैं। और अगर उनकी सामाजिक न्याय की मुहीम सफल हो जाती है तो उसका हस्र एक रोटी के लिए उन दो बिल्लियों जैसा हो जायेगा, जिनके मध्य रोटी का वाजिब बंटवारा करते-करते जज बना बन्दर पूरी रोटी ही खा गया और बिल्लियाँ देखती रह गईं.’- ( स्रोत : एच.एल. दुसाध, हकमार वर्ग (विशेष सन्दर्भ: आरक्षण का वर्गीकरण), पृष्ठ:29).
बहरहाल 2014 में केंद्र की सत्ता पर काबिज होने बाद मोदी वर्ग-संघर्ष का निर्मम खेल खेलते हुए वर्ग- शत्रुओं(दलित-आदिवासी-पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित ) को फिनिश करने के लिए आरक्षण के खात्मे के जो अभियान छेड़े, उसमें अपना कार्यकाल पूरा होते-होते काफी हद तक सफल हो गए, यह बात फरवरी, 2019 में लिखे गए मेरे लेख के इस अंश से स्पष्ट है।
‘विगत साढ़े चार वर्षों में आरक्षण के खात्मे तथा बहुसंख्य लोगों की खुशियां छीनने की रणनीति के तहत ही मोदी राज में श्रम कानूनों को निरंतर कमजोर करने के साथ ही नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा देकर, शक्तिहीन बहुजनों को शोषण-वंचना के दलदल में फंसानें का काम जोर-शोर से हुआ। बहुसंख्य वंचित वर्ग को आरक्षण से महरूम करने के लिए ही एयर इंडिया, रेलवे स्टेशनों और हास्पिटलों इत्यादि को निजीक्षेत्र में देने के साथ लैटरल इंट्री की शुरुआत हुई। आरक्षण के खात्मे के योजना के तहत ही सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100 प्रतिशत एफडीआई की मजूरी दी गयी। आरक्षित वर्ग के लोगों को बदहाल बनाने के लिए ही 62 यूनिवर्सिटियों को स्वायतता प्रदान करने के साथ – साथ ऐसी व्यवस्था कर दी गयी जिससे कि आरक्षित वर्ग, खासकर एससी/एसटी के लोगों का विश्वविद्यालयों में शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाना एक सपना बन जाय। कुल मिलाकर जो सरकारी नौकरियां वंचित वर्गों के धनार्जन का आधार थीं, मोदीराज में उसके स्रोत आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने का काम लगभग पूरा कर लिया गया।’(स्रोत : एच.एल. दुसाध , मोदी नई सदी के सबसे बड़े सवर्ण ह्रदय सम्राट, निष्पक्ष दिव्य सन्देश,16 फ़रवरी, 2019)दौसा
एचएल दुसाध लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के अध्यक्ष हैं।