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सांस्कृतिक सरोकारों और सामाजिक विद्रूपों के बीच एक अभिनेता एवं गद्यकार राम नगरकर

सुप्रसिद्ध मराठी अभिनेता, लेखक व रंगकर्मी राम नगरकर की ज़िंदगी एक पूरे दौर की दास्तान है। उनके लेखन में तत्कालीन मराठी और मुंबई की ज़िंदगी के इतने शेड्स और इतने चेहरे हैं कि वह समाज बहुत आस-पास का लगने लगता है। मराठी सिनेमा में दादा कोंडके, नीलू फुले और राम नगरकर बहुत ऊंचे मुकाम पर […]

सुप्रसिद्ध मराठी अभिनेता, लेखक व रंगकर्मी राम नगरकर की ज़िंदगी एक पूरे दौर की दास्तान है। उनके लेखन में तत्कालीन मराठी और मुंबई की ज़िंदगी के इतने शेड्स और इतने चेहरे हैं कि वह समाज बहुत आस-पास का लगने लगता है। मराठी सिनेमा में दादा कोंडके, नीलू फुले और राम नगरकर बहुत ऊंचे मुकाम पर प्रतिष्ठित हैं। कोंडके मछुआरा (कोली) जाति से थे, नीलू फुले माली थे और रामनगरकर नाई जाति के थे। तीनों बहुत गहरे दोस्त थे और साथ-साथ दर्जनों काम किए। राम नगरकर की किताब रामनगरी में तत्कालीन मराठी समाज में चल रही सांस्कृतिक उथल-पुथल का बारीक चित्रण है। मराठी अभिजनों के बीच ये तीनों अपनी जगह बनाने में इसलिए कामयाब हो पाये कि इनमें ओरिजिनल प्रतिभा थी और ये न केवल कड़ी मेहनत से अपना काम करते थे, बल्कि अभावों से जूझते हुए अपनी लाचारी को छिपा भी लेते थे।रामनगरी में समाजवादी सामूहिक चेतना की गहरी झलक मिलती है। नया रचने की बेचैनी भी है। अनेक विपरीत और हृदयविदारक स्थितियों को भी राम नगरकर ने जिस अंदाज में व्यक्त किया है वह दुर्लभ है। शायद इसीलिए जहां चेहरे पर हंसी आती है, वहीं आँखों में बेसाख्ता आँसू भी आ जाते हैं। गौरतलब है कि रामनगरकर बड़े अभिनेता होने के बावजूद अपना सैलून भी चलाते थे ताकि आमदनी का नियमित स्रोत बना रहे। लेकिन जब कोई हिकारत से हज्जाम कहता तो वे बहुत दुखी हो जाते। उनका पूरा परिवार रहन-सहन में गंवई था, लेकिन वे चाहते थे कि पत्नी सवर्ण स्त्रियों की तरह साड़ी बांधना सीख ले। लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद वे अपनी पत्नी को इसमें पारंगत नहीं बना पाये तो प्रयास करना छोड़ दिया। ऐसे छोटे-बड़े प्रसंगों से यह आत्मकथात्मक उपन्यास भरा-पड़ा है। युवा कवि-कहानीकार दीपक शर्मा ने किताब देखी तो तुरंत उठा ले गए। पढ़ने के बाद उन्होंने यह टिप्पणी लिखी है। आगे दीपक शर्मा ….

रामनगरकर का आत्म-कथात्मक उपन्यास  ‘रामनगरी’ अपने ढंग का अनूठा आत्म-कथात्मक उपन्यास है, जो देखने में उपन्यास जैसा है किंतु यह लेखक के जीवन की सच्ची घटना है। राम नगरकर बहुत ही विनोदी स्वभाव के व्यक्ति थे। दु:ख के क्षणों में भी वे माथे पर शिकन नहीं आने देते और हर क्षण सबको हँसाते रहते थे। उनके मित्र पु. ल. देशपांडेजी ने लिखा है कि “राम जिस प्रकार बोलता है और आंखों में पानी आने तक हँसता है।” उपन्यास पढ़ते हुए बखूबी इसका अनुभव किया जा सकता है, जिसमें हर क्षण पर व्यंग्य और हँसी है। इस उपन्यास में हासिए पर रहने वाले एक नाई समाज के व्यक्ति की पीड़ा और उनके समाज का दर्द भी दिखाई पड़ता है। लेखक ने मुंबई, पुणे और उसके आसपास के निम्न-मध्यम वर्ग के दैनिक जीवन की स्थिति और उनकी संस्कृति को बहुत ही सजीव ढंग से प्रस्तुत किया है। लेखक के भीतर शिक्षा, गुण, कला, विद्या, संस्कार सबकुछ है, बावजूद इसके वह मुम्बई और पुणे जैसे शहर में जातिय अपमान व प्रताड़ना से बच नहीं पाता और सामाजिक एवं जातीय व्यवस्था से आजीवन लड़ता है। यह उपन्यास मूल रुप से मराठी भाषा में है। राधाकृष्ण पेपरबैक्स से दामोदर खड़से द्वारा इसका हिंदी अनुवाद किया गया है।

रामनगरकर का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के सरोली गांव में नाई परिवार में हुआ था। 1947 के बाद उन्हें मुंबई आना पड़ा था। उसी के आसपास लेखक के जीवन में जो सामाजिक एवं पारिवारिक घटनाएं घटित हो रही थी, इस उपन्यास में उसका मार्मिक चित्रण है। यह उपन्यास  शहरी निम्न-मध्यम वर्ग के जीवन का यथार्थ और उनका जातीय संघर्ष है। आरम्भ से ही लेखक जातीय अपमान का दंश झेलते हुए भी एक बड़ा कलाकार बनने की इच्छा रखता है। जिसमें वह सफल हुआ।

मुंबई में ‘हज्जाम’ एक गालीनुमा शब्द है। जैसा कि लेखक ने एक घटना के माध्यम से संकेत किया है- एक रिक्शेवाला और एक पैदल चलनेवाला जब आपस में टकरा गये तो पैदल चलने वाले व्यक्ति ने रिक्शे वाले को ‘हज्जाम’ कहकर गाली दिया। ‘साला हज्जाम है, हज्जाम!’ प्रतिक्रिया स्वरूप रिक्शावाला पूछता है – ‘क्योंजी, किसे हज्जाम कह रहे हो?’ फिर पैदल चलने वाला कहता है- ‘आपको, ये क्या साइकिल चलाने का तरीका है? साइकिल नहीं चला सकते तो हजामत का धंधा कीजिए!’

उस क्षेत्र में लोग ‘हज्जाम’ शब्द का ज्यादातर प्रयोग गाली देने के लिए या अपमानित करने के लिए ही करते हैं। इसी तरह कंडक्टर और पैसेंजर के बीच, ड्राइवर और अधिकारी के बीच झगड़े होने पर वे एक दूसरे को हज्जाम की गाली देते हैं, यहाँ तक की दर्जी द्वारा ठीक से सिलाई न करने पर या सब्जी बेचने वाले व्यक्ति के धंधा ठीक से न करने पर भी उसे हज्जाम की गाली सुननी पड़ती है। रामनगरकर तो सचमुच हज्जाम थे। जब उसके सामने अपनी ही जाति की गाली कानों में पड़ती थी तो वह कितना अपमानित महसूस करता रहे होंगे।

इसके बावजूद उनके दादा को अपनी जाति का अभिमान था। वे स्वयं को ब्राह्मणों के बराबर बताते थे। कहते थे कि दूसरे नाई और हममें बहुत फर्क है, बजनिया नाई और मसालची नाइयों से हम ऊँचे। उनसे रोटी-बेटी का रिश्ता न होता है न होगा। इसे विस्तार से समझाने के लिए वे एक किस्सा सुनाते थे। किस्सा को परमेश्वर भगवान से जोड़ देते और साबित कर देते कि भगवान ने हमें भूतल पर मानव की सेवा करने के लिए भेजा है। इसके लिए गाँव के सभी कार्य में आगे रहना चाहिए। इसके बदले में उसके हिस्से में जो कुछ भी आए उसे बड़े आदर्श के साथ लेना चाहिए। उनकी इस विचारधारा से राम नगरकर की माँ अलग थीं। जिसके कारण ससुर और बहू में हमेशा खटपट होता रहता था। वे उनकी माँ को बजनिया नाई कहते और बेटे के लिए बहु लाने में अपनी चूक मानते थे। अपनी बहू को भी तमाशवीर या नौटंकी करने वाली की लड़की कहते थे।

राम नगरकर ने सामाजिक अंधविश्वास एवं खोखले रीति-रिवाज पर बड़े चुटीले अंदाज में लिखा है। आमतौर पर आत्मकथा में लेखक अपनी प्रशंसा ही करते हैं किंतु राम नगरकर इसके विपरीत स्वभाव के थे। वे अपनी फजीहत का वर्णन करने में कोई संकोच नहीं करते थे। वे रूढ़िवादी परंपरा का विरोध करते हैं तो भी व्यंग्य और हंसी के रंग में घुल जाता है। उनकी शादी के समय की विभिन्न क्रियाकलाप पाठकों को लोटपोट कर देती है। खास तौर से जब शौच करने की रस्म आयी तो दूल्हा और दुल्हन दोनों को साथ शौच के लिए ले जाया गया, वहाँ पूरा बराती और घराती साथ थे। दूल्हा और दुल्हन दोनों के हाथ में शौच का लौटा था। राम नगरकर को तो सचमुच शौच लगा था। जब सब लोग उन्हें बैलगाड़ी पर बैठाकर घुमाते घुमाते गाँव से बाहर हनुमान मंदिर के पास शौच के लिए ले गए और बैठने को बोले, उसने धीरे से पूछा- “इतने सारे लोग साथ और…” यह बात सब ने सुन ली थी और ठहाके की हँसी हुई। उन्हें बाद में मालूम हुआ कि यह महज एक रिवाज था।

इसके अलावा इस उपन्यास में अन्य ऐसे प्रकरण आते हैं जहां हंसते-हंसते पेट फूल जाता है, जैसे उसके गौरवान्वित पिता ने अपने मित्र के सामने बेटे से गोरी मैडम से अंग्रेजी में समय पूछने के लिए कहा तो थप्पड़ खा कर भी उसने पिता और उनके दोस्त को उल्लू बना दिया। ऐसे ही एक दिन वह खाना खाकर बिस्तर लेकर दुकान के सामने सोने के लिए निकला। वह अपने पिता से छुपकर खंभे से पीठ लगा कर तंबाकू मल रहा था। उसी समय एक होटल का मालिक उड़पी अपनी भाषा में अपने आदमियों को कुछ समझा रहा था। संयोग कुछ ऐसा हुआ कि उनका तंबाकू मलना पूरा हुआ, उनके फाँक मारने की प्रक्रिया और उड़पी का बोलना एक समय हुआ। उसने आव देखा न ताव तड़ाक से एक थप्पड़ उनको रसीद कर दिया। बिस्तर नीचे गिर गया, तंबाकू उड़ गया। उनके पिताजी ने पूछा- ‘अरे क्या हो गया।’ होटल मालिक ने बताया कि साला हम अपने छोकरे को समझाता है कि काम कैसे करना तो तुम्हारा छोकरा ताली बजाता है, साला हम क्या मैदान में लेक्चर देता है? इसी तरह पुराने स्कूटर की रिपेयरिंग रिक्शा रिपेयर से कराने की घटना, पत्नी को मायके पहुँचाते समय ट्रेन यात्रा की घटना तथा फिल्म में काम करने वाली हीरोइनों के साथ टेबल पर बैठकर खाना खाने का शौक का किस्सा मजेदार ढंग का है। यहाँ तक की माँ के निधन के पश्चात् दसवां में कौवे को दूध और चावल खिलाने का प्रसंग भी लेखक ने उसी अंदाज में लिखा है।

मुंबई का रहन-सहन खान-पान और संस्कृति देश के अन्य शहरों से अलग है। यह काफी भीड़-भाड़ वाला व्यस्त शहर है। सबके रहने खाने-पीने और जीने का तरीका भी अलग है। ‘बम्बई में घाटी और पाटिल इन दो नामों से ही मराठी व्यक्ति को पुकारते हैं। जरा ऐसा वैसा दिखा दो घाटी और लाखों की बात करने वाला पाटिल।’

तमाम अभाव के बावजूद राम नगरकर के पिता अपने को पाटिल ही समझते थे। जिन्हें सरोली गाँव में कोई पुछता तक न था। मुंबई आते ही उनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। उन्होंने अपने जीवन में कड़ा संघर्ष किया। शहर जाने के बाद गोदान में रहना, खाना और सोना, लोगों का हजामत करना, पैसे कम होने के बावजूद बेटे को पढ़ाना, तत्पश्चात किराए पर कमरा लेना, छोटी सी कमाई में बीवी बच्चों की परवरिश करना उनके जिंदगी का अहम हिस्सा था। कुछ भी हो वे बहुत गप्पे हाँकने वाले व्यक्ति थे। हर कार्य में चादर से बाहर पैर पसारने की कोशिश करते फिर सिकुड़ जाते थे। मामला शादी के कार्ड छपवाने की हो, या बैंड तय करने की। रुआब किसी पाटिल से कम न था। लेखक के अनुसार – ‘मेरे बाप का हर काम ऊँचा होता, उस्तरा भी, ऊंची कीमत का है, ऐसा मिलने वाला नहीं, धोती लाने पर ऊँची, आखिरी थी, अब मिलने वाला नहीं।’

खर्चे से बचने के लिए सामाजिक परंपरा बना दी गई थी कि औरतों को जचकी (प्रसव) मायके में कराना चाहिए। रामनगरकर के दादा इसके घोर समर्थक थे, उनके पिता इस परंपरा को बिल्कुल नहीं मानते थे। यही कारण था कि राम नगरकर के जन्म के समय उनकी माँ की जचकी मायके में न होकर उनके घर पर ही हुई।

आधुनिक युग में तमाम सरकारी एवं निजी स्कूल और कॉलेज हो जाने के बावजूद लोगों में काफी हद तक जागरूकता की कमी है। जिसके कारण निम्न मध्यम वर्ग के बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। खास तौर से जातिय पेशे में लिप्त रहने वाले व्यक्ति के परिवार में इस प्रकार की समस्याएं अधिक है। उन्हें अभी भी शिक्षा के महत्व समझने की दरकार है। यहां राम नगरकर की माँ जब अपने ससुर से बेटे को स्कूल में डालने की बात कहती तो वे कहते- ‘स्कूल में क्या है? हम नाई। कटोरी में पानी तो सर्वत्र आबादानी। पढ़-लिखकर क्या करना है? जो पढ़-लिख गए उन्होंने ही कौन सा तीर मार लिये।’ बहू के बहुत जोर देने के बाद ही वे उनके दाखिले के लिए राजी हुए तथा राम पोते को खुद सरकारी स्कूल ले जाकर दाखिला करवाये। इसके दो वर्ष बाद राम नगरकर शहर के म्युनिसिपल स्कूल में पढ़ने लगे।

रामनगरी पर बनी फिल्म, जिसमें अभिनेता अमोल पालेकर ने रामनगरकर की भूमिका निभाई-

रामनगरकर का जीवन भजन मंडली से लेकर नाटक खेलने तक, सैलून में हजामत करने से लेकर चपरासी बनने तक, पोस्टमैन की नौकरी से लेकर अभिनेता बनने तक संघर्षमय रहा। इस बीच में उन्होंने जीवन में बहुत कुछ खोया और बहुत कुछ पाया। शहर के गोदान में जीवन आरंभ करने से लेकर किराये का कमरा लेना और अंत में खुद का फ्लैट ले लेना, अपनी कमाई से छोटी बहन की शादी करना और छोटे भाई के लिए अलग से दुकान लेना ये सब उनकी जीवन की कामयाबी थी।

मुंबई में राम नगरकर पढ़ाई करते हुए अपने पिता के साथ सैलून में काम करते थे। जिसमें उनका मन बिल्कुल न लगता था। वे एक महान गायक या कलाकार बनना चाहते थे। वे कभी भजन मंडली, तो कभी बैंड बजाने वाली पार्टी तो कभी नाट्य मंडली की टीम में शामिल हो जाते थे। वे इस तरह का काम पिता से छुपकर करते थे क्योंकि उनके पिता को इस तरह का कार्य बिल्कुल पसंद न था। वे चाहते थे कि राम नौकरी करके खूब पैसा कमाए। वे उनके नाटक वाले काम में हमेशा अड़ंगा अड़ाते थे क्योंकि उनके दिमाग में था कि इसमें घर-परिवार व निजी काम धंधे छोड़कर भाग दौड़ के सिवा कुछ नहीं है, पैसे भी नहीं मिलते थे‌। उनका कहना था कि – ‘कलाकार बनना अर्थात भिखारी के लक्षण है। कौन-सा कलाकार ऊपर उठ पाया है?’ किंतु राम के भीतर की प्रतिभाएं उन्हें और आगे ले जाने के लिए झकझोरती थी। वे हमेशा ठोकर खाते, अपमान सहते  किंतु हिम्मत नहीं हारते थे। विषम परिस्थिति में भी अपना कार्य जारी रखते थे। रामनगर बहुत ही मेहनती, दृढ़ निश्चयी, साहसी एवं स्वाभिमानी व्यक्तित्व वाले थे।

कलाकार बनने की इच्छा से बड़ौदा रेडियो स्टेशन की विज्ञप्ति देखते ही उनके मन में वहाँ पहुँचने का जुनून आ गया। रात में समय साधकर पिता के जेब से पैसे चुराये, एक थैली में कपड़े भरे, माँ सो रही थी उनके चरण छुए, पिता की जेब में पूर्जा रख दिया। ‘मैं बड़ा गायक बनने जा रहा हूं। अब हमारी मुलाकात बारह साल बाद होगी।’ किंतु विधिवत प्रशिक्षण की कमी होने के कारण उन्हें वह नौकरी नहीं मिल सकी।

उनके सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन में उठापटक हमेशा चलती रही। उन्हें लगता कि एक काम कर लेने के बाद वे सुख और चैन से रहने लगेंगे किंतु विपत्तियों उनका पीछा कभी नहीं छोड़ती थी। अपमान और जहालत भरी जिंदगी में भी वे खुशी से रह लेते थे। इस उपन्यास में उनके इस तरह के जीवन की अनेकानेक घटनाएं दर्ज है। देशपांडेजी ने लिखा है कि ‘जो जीवन उसे जीना पड़ा, उसमें अनेकानेक कारणों से अपमान भोगने के प्रसंग हैं। कटुता के प्रसंग हैं। फजीहत के प्रसंग तो अनगिनत हैं। फिर भी, यह सब देखते हुए और भोगते हुए उसने आदमी के स्वभाव की विसंगति उसके छोटे-छोटे अहंकार, उपेक्षा, ब्राह्मण से शूद्र तक रची गई हिंदू समाज की मनुष्य निर्मित उतरन से उत्पन्न मानहानि के प्रसंगों में से विशुद्ध हास्य के बाग ही सींच दिए हैं।’

राम नगरकर अपनी कहानी सुनाते हुए-

उनकी बहन और माँ की मृत्यु भी बहुत दुखद थी। पत्नी के साथ भी उनका जीवन पूरी तरह से सुखमय नहीं था। ‘पुराने लोग बड़ी शान से बताते हैं कि दो बच्चे होने तक वह पत्नी से बात न करते थे।’ शादी के बाद लंबे समय तक वे अपनी पत्नी के पास नहीं जा पाए थे। जिसके लिए उनका हृदय पल-पल धड़कता रहता था। लेखक के अनुसार “परंतु तकलीफ के प्रेम का सुख कुछ और ही होता है।” यदि वे चाहते तो अपनी पत्नी के साथ रह सकते थे और बातें कर सकते थे किंतु उनका समाज उन्हें इस प्रकार के कार्य की अनुमति नहीं देता था। दूसरी बार कि उनके पिता का तेवर ही कुछ ऐसा था जिससे वे हमेशा डरे और सहमे रहते थे। पत्नी के साथ सिनेमा भी जाते तो पिता से छुपकर ही निकल पाते थे। जब वे बाहर निकलने की कोशिश करते तो उन्हें अपने बाप का चेहरा दिख जाता, पता चलते वे तुरंत कहेंगे कि ‘जा, जा आज घूमने जा। सिनेमा देखा! अरे! भड़वे ये बड़ों के चोचले हमें नहीं पचेंगे! पहले पैसे कमाना सीख! फिर बीवी को सर पर चढ़ा!’

उनके गाँव की ऐसी परंपरा थी कि लोग चार लोगों के बीच चप्पल पहन के नहीं चलते थे‌‌। कहीं बाहर निकलने पर ही चप्पल पहन कर चलते थे।राम नगरकर पढ़े-लिखे और बड़े लोगों के बीच में रहते थे, इसलिए उन्हें इस तरह की बातें हमेशा खटकती थीं और ऐसा करने पर अपनी पत्नी को झिड़क देते थे।

राम नगरकर अपने जीवन में पुरानी परंपराओं को तोड़कर नई परंपरा में जीने की कोशिश करते थे। जिसमें किसी प्रकार का सामाजिक बंधन और अंधविश्वास न हो। क्योंकि वे समझ चुके थे कि उनके समाज में आधे से अधिक संस्कार और नियम नकली हैं, जो सिर्फ छोटी जाति के लोगों लिए ही बनाए गए हैं। वे उस तरह के संस्कार और नियम अपने जीवन में लागू होता नहीं देखना चाहते थे। इसीलिए अपनी पत्नी को जहां-तहां टोकते रहते थे। नाटक मंडली में सुंदर एवं आधुनिक महिलाओं के साथ काम करते हुए उनकी भी इच्छा होती थी कि वे भी अपनी पत्नी को उनके जैसा बनाएं। उनकी पत्नी नौ गजी साड़ी, माथे पर गाढ़ा सिंदूर, नाक में नथ जैसी वेशभूषा में रहती थी। वे जब भी अपनी पत्नी को आधुनिकता के हिसाब से बदलने की कोशिश करते तब वह कहती- ‘एक बच्चे की माँ हूँ मैं। मुझे क्या अब शोभा देगा?’ तब वे समझाते – ‘अरी, अभी तो बस एक बच्चे की माँ हुई और ऐसे कह रही हो जैसे गांधारी हो। पढ़ी-लिखी औरतें को क्या बच्चे नहीं होते? परंतु वे तुम्हारी तरह ढीली-ढाली नहीं रहती।’ तब वह झिड़क देती और कहती कि “आपको इतनी ही पसंद है वो तो उन्हीं में से किसी एक से शादी की होती। मुझ पगली को क्यों अपनाया?” इस प्रकार में अपनी पत्नी को आधुनिक बनाने में असफल हो जाते। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण था सामाजिक रीति-रिवाज और पिता का डर।

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शादी के बाद सत्रह वर्ष की उम्र में राम नगरकर की नौकरी कॉरस्पॉडेंट डिपार्टमेंट में पैकर के रूप में लग चुकी थी। डाक विभाग में नौकरी लगने के कारण उन्हें अतिरिक्त समय मिल जाता और वे अपना अतिरिक्त काम कर लेते थे, साथ ही साथ उन्हें पढ़ाई करने का भी मौका मिल जाता था। उन्होंने लिखा है कि ‘डाक विभाग में नौकरी लगी इसीलिए मैं कलाकार बन सका, अन्यथा…’  वे नौकरी के साथ रात्रिकालीन स्कूल भी जाते थे। उन्होंने अपनी ड्यूटी का विवरण बताते हुए लिखा है  कि ‘मेरी ड्यूटी सुबह नौ बजे से शाम पाँच बजे तक होती। साढ़े पाँच तक घर, फिर तुरंत ट्राम पकड़कर स्कूल जाता‌।’ इसके साथ-साथ वे कार्यक्रम के लिए भी समय निकाल लेते थे। उनके गाँव में ‘जनता कालापथक’ का कार्यक्रम था। कार्यक्रम देखने के बाद उन्होंने कलापथक में शामिल होने का निश्चय कर लिया और उसमें शामिल होने के लिए पत्र लिखा। उनका चयन भी हो गया। गाना गाने में उनकी रुचि ज्यादा थी, आवाज अच्छी थी, किंतु उन्हें हारमोनियम बजाना नहीं आता था। वहाँ उन्हें बताया गया कि पहले पेटी (हारमोनियम) बजाना सीखिए, इससे सुरों का ज्ञान होता है, तो उन्होंने ‘महाराष्ट्र संगीत मंडल’ में हारमोनियम बजाने के लिए भी प्रवेश ले लिया। जहाँ पन्द्रह रुपया प्रवेश शुल्क और पाँच रुपया प्रति माह फीस था। बाद में समय के अभाव और कुछ अन्य कारणों से उन्हें पेटी बजाने का काम बंद करना पड़ा। जनता कालापथक के कारण उनका संपर्क ‘राष्ट्र सेवा दल’ के कलापथक से हुआ। उस  दल के साथ भी उन्होंने नाट्य अभिनय का कार्य किया।

उन्होंने शास्त्रीय पद्धति से सिनेमा नाटक का अभिनय सीखने के लिए विख्यात कलाकार स्नेहलता प्रधान के यहाँ क्लास लिया, किंतु कमजोर अंग्रेजी और घर की अड़चनों के कारण उसे भी छोड़ना पड़ा।

रामनगरकर को गोविंद सरैया के साथ डाक विभाग में डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने के लिए अभिनेता की भूमिका में शामिल होने का अवसर मिला था। इसके बहाने उन्हें डाक विभाग से किसी भी समय किसी भी दिन के लिए छुट्टी आसानी से मिल जाती थी। नाटक के लिए वे जितनी छुट्टी लेते, लौटने तक उससे अधिक छुट्टियां हो जाती थी, किंतु उनके बहाने भी अजीब अजीब होते थे। कभी प्रधानमंत्री के साथ फोटो तथा कभी फिल्म में शूटिंग का बहाना होता था। इस प्रकार वे अपने नाटक वाले कार्यक्रम का दौरा आसानी से कर लेते थे। उन्हें पंडित नेहरू और श्री केलकर के सम्मुख भी नाटक खेलने का अवसर मिला था।

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उस दौर में नाटक थिएटर हॉल में नहीं, रास्ते पर गलियों में गणेश उत्सवो में सत्यनारायण की पूजा आदि में खेले जाते थे। राम नगरकर जनता कलापथक एवं राष्ट्रसेवा दल का मुख्य पात्र थे। नाटक के क्षेत्र में आने से उनकी मुलाकात अनेक महत्वपूर्ण महानुभवों, अभिनेताओं एवं निर्देशकों से हुई। उनके इसी पहचान की बदौलत एसएम जोशीजी ने उनके बनाये सैलून का उद्घाटन करने आये थे। उन्हें दादा कोंडके के साथ नाटक में काम करने का बड़ा अवसर मिला था। इसके अतिरिक्त उन्होंने बसंत बापट लीलाधर हेगडे, मधु कदम, नीलू फुले, आठवाले, भागूजी वैकर, सुधाताई, आवावेन, पु.ल. देशपांडे, बापू देशमुख के साथ काम किया। पुंडरीक नाईक, चंद्रकांता सावरकर, अनंत सालूके, नंदा तिरोड़कर ये सब उनके स्नेही मित्र थे।

इस उपन्यास की भाषा शैली बहुत ही प्रभावशाली है। जिसे पाठक बिना रुके आरम्भ से अंत तक सहजता से पढ़ जाते हैं। इसकी सबसे बड़ी खासियत है लेखक की ‘विनोदप्रिय शैली’। इसके बारे में देशपांडेजी ने लिखा है- ‘विनोद, यह मात्र शैली नहीं है, यह कृति है, एक स्वभाव है। उसे पहले स्वयं की ओर देखकर हँसने के गुण की आवश्यकता होती है। स्वयं का छोटा मानकर जीना पड़ता है।’ राम नगरकर व्यक्तित्व के धनी लेखक थे। उन्होंने अपने जीवन में छोटे से लेकर बड़ों तक सबको सम्मान दिया। उनके भीतर न किसी प्रकार का अहंकार था और न ही बड़बोलापन। बस उनकी आकांक्षाएं ऊंची थीं, जिसे पाने के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहें और सफल हुए।

दीपक शर्मा युवा कवि और कहानीकार हैं।

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