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ग्राउंड रिपोर्ट

देश में माओवाद के नाम पर दमन का खुला खेल हो रहा है

कठघरे में खड़ी संस्थाओं का प्रसंग एक बार फिर इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि जीएन साई बाबा के मामले में अदालत का फैसला पीड़ित के पक्ष में आया है। लंबे संघर्ष के बाद प्रोफेसर साईबाबा जेल की सलाखों से निकलकर आजाद हवा में सांस ले रहे हैं।

देश में माओवाद के नाम पर दमन का खुला खेल हो रहा है। यह बात इसलिए क्योंकि जीएन साईबाबा के मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट का आदेश लंबे समय के बाद आया है। सात साल बाद जेल से निकले प्रोफेसर जीएन साईबाबा ने मीडिया के सामने आने के बाद कहा कि उनकी सेहत बेहद खराब है और वे बात करने की स्थिति में नहीं हैं। प्रोफेसर साईबाबा पर नक्सलियों से संबंध के होने के आरोप लगे थे, लेकिन जांच एजेंसियां और पुलिस आरोपों को साबित करने में विफल रहीं। नतीजतन 10 वर्ष जेल में रहने के बाद अदालत ने इन्हें बरी कर दिया।

लेकिन इस प्रक्रिया में न्याय प्रणाली, पुलिसिया जांच और देश का जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में आ चुकी है। सरकार पर असहमति को कुचलने और विपक्षी आवाज को दबाने के आरोप लग रहे हैं। कठघरे में खड़ी संस्थाओं का प्रसंग एक बार फिर इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि जीएन साई बाबा के मामले में अदालत का फैसला पीड़ित के पक्ष में आया है। लंबे संघर्ष के बाद प्रोफेसर साईबाबा जेल की सलाखों से निकलकर आजाद हवा में सांस ले रहे हैं।

अदालत का फैसला

जीएन साईबाबा के मामले में सत्र न्यायालय में पेश दलीलों में कहा गया था कि वे और दो अन्य अभियुक्तों के पास नक्सली साहित्य बरामद हुआ था। इसकी मदद से गढ़चिरौली में अंडरग्राउंड नक्सलवादियों को उकसाने और हिंसा फैलाने की साजिश के आरोप भी लगे। हालांकि, लंबी अदालती जिरह में ये दलीलें कमजोर साबित हुईं। 14 अक्टूबर 2022 को हाई कोर्ट ने साईबाबा को रिहा कर एनआईए को अपील की छूट दी थी। हाई कोर्ट के फैसले के मुताबिक आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक ख़तरा है, लेकिन एक नागरिक को मिले अधिकार और उसकी प्रक्रिया को दरकिनार नहीं किया जा सकता। एजेंसी को आतंकवाद पर नकेल कसने का पूरा अधिकार है, हर संभव कोशिश होनी चाहिए लेकिन नागरिक स्वतंत्रता सर्वोपरी है।

2014 में प्रोफेसर जीएन साईबाबा को दिल्ली में उनके घर से महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार किया था। इसके बाद उन्हें यूनिवर्सिटी ने निलंबित कर दिया। जेल में प्रोफेसर साईबाबा को पक्षाघात का अटैक आया। 90 प्रतिशत विकलांगता की श्रेणी में आने वाले इस आरोपी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप कर जुलाई 2015 में जमानत पर रिहा करने का फरमान सुनाया। हालांकि, अदालती प्रक्रियाओं का बेजा इस्तेमाल उस समय स्पष्ट हो गया, जब एक बार फिर हाईकोर्ट ने उनकी ज़मानत रद्द करते हुए उन्हें आत्मसमर्पण करने को कहा। लगातार बिगड़ती सेहत के आधार पर भी उन्हें रिहाई नहीं मिली। अंत में सात साल के बाद कोर्ट ने 2024 में प्रोफेसर को बरी करने का फैसला सुनाया। इससे साफ है कि अदालतों और जांच एजेंसियों के तंत्र में आरोपी पिस रहा है, शायद पीड़ा के कारण ही इसे दमन का खुला खेल कहा जा रहा है।

जीएन साई बाबा से पहले भी नक्सल और माओवाद से जुड़े लोगों से संबंध रखने के नाम पर कुछ लोगों को पहले भी जेल में बंद रखा जा चुका है। इसके बावजूद इन मामलों में भी कुछ ठोस कार्रवाई होती नहीं दिखती। केवल शक की आधार  पर पहले पुलिस हिरासत में लेती है। अदालत में पेश करने के बाद टुकड़ों में हिरासत मांगी जाती है और शुरू हो जाता है दमन का अनंत सिलसिला। ‘वक्त के क्रूर छल का भरोसा नहीं…’ इस मामले में बेहद मौजूं पंक्ति है। हम बात करते हैं कुछ उदाहरणों की जहां जीएन साईबाबा की तरह ही कई कद्दावर और मानिंद लोग समाज में जटिल न्याय के चक्र में फंस चुके हैं। सबसे सहजता से जो मामला याद आता है, वह महाराष्ट्र का बहुचर्चित भीमा कोरेगांव केस है। इस मामले में आनंद तेलतुम्बडे, स्टैन स्वामी, गौतम नवलखा सहित कई अन्य आरोपी भी एजेंसियों की रडार पर हैं। जांच एजेंसी और पुलिस का दावा है कि जांच जारी है, इसलिए इन्हें आजाद करने के मामले की निष्क्षता को प्रभावित करेगी। हालांकि, बरसों बीत जाने के बाद जब अदालतों ने ऐसे आरोपियों को बाइज्जत बरी किया तो इसे ठीक उसी तरह देखा गया मानो माओवाद या नक्सल लिंक के नाम पर दमन का खुला खेल हो रहा है। यह कोई कथन नहीं, इससे जुड़े सभी पक्षों को इसका जवाब खुद तलाशना पड़ेगा।

जनवरी 2018 में पुणे के पास भीमा कोरेगांव में भड़की हिंसा के मामले में कई लोगों को गिरफ्तार किया गया। इसमें एक स्टेन स्वामी हैं। उनका निधन हो चुका है। फादर स्टेन स्वामी पार्किंसन्स नाम की बीमारी से जूझ रहे थे। इसके बावजूद अदालत औऱ जांच एजेंसियों का दिल नहीं पसीजा। उनकी मौत के बाद आक्रोशित लोगों ने कहा कि हिरासत में मौत होने पर ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए। ऐसी कौन सी परिस्थिति रही जिसमें 80 साल से अधिक आयु के शख्स को स्वास्थ्य के आधार पर भी जमानत नहीं दी गई, जबकि देश की शीर्ष अदालत कह चुकी है कि जेल अपवाद होने चाहिए। जमानत आरोपी का अधिकार है, अदालतों को उदारता से इस पर विचार करना चाहिए।

जीएन साईबाबा की तरह ही स्टेन स्वामी पर 2018 के भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में शामिल होने और नक्सलियों के साथ संबंध होने के आरोप भी लगाए गए थे। उन पर ग़ैर क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की धाराएँ लगा कर एनआईए ने हिरासत में लिया था। न्यायिक हिरासत में रखे गए मानवाधिकार कार्यकर्ता फ़ादर स्टेन स्वामी की मौत के बाद राजनीति और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हस्तियों ने पूरे देश की प्रणाली पर सवाल खड़ा करते हुए पूछा था कि महज आरोप के आधार पर लंबे समय से हिरासत में रखे गए फादर की मौत का जवाबदेह कौन है। इस मामले में भी ‘दमन का खुला खेल’ जैसे गंभीर आरोप लगाए गए।

संक्षेप में कुछ और ऐसे ही उदाहरण हैं, जिन्हें ठोस संकेत माना जा रहा है कि दमन का खुला खेल चल रहा है।

पेशे से लेखक-प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े गिरफ्तार होने के दो साल बाद जेल की सलाखों से बाहर आए। बॉम्बे हाई कोर्ट में उनकी जमानत अर्जी 18 नवंबर, 2022 को स्वीकार हुई। साफ है कि शक के बिनाह पर पकड़े एक नागरिक के जीवन के बहुमूल्य साल अदालतों और पुलिस के चक्कर लगाने में बर्बाद हो रहे हैं।

दिल्ली के रहने वाले लेखक, पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट गौतम नवलखा भी इंसाफ की लंबी लड़ाई लड़ने वाले किरदार हैं। ज़मानत याचिकाएं खारिज होती रहीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2022 में नवलखा को उनके घर में नज़रबंद रखने का आदेश पारित किया। फैसला 73 साल के गौतम नवलखा की बिगड़ती सेहत के मद्देनज़र हुआ, लेकिन इस आयु में भी जांच एजेंसी एनआईए इन्हें रिहा करने का विरोध करती रही।

सुधा भारद्वाज को बॉम्बे हाई कोर्ट से दिसंबर 2021 में जमानत मिली थी। NIA ने सुधा को आजादा करने के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रूख किया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला बरकरार रखते हुए सुधा को दोबारा हिरासत में भेजने से इनकार कर दिया। हालांकि शीर्ष अदालच ने यह जरूर कहा कि ज़मानत की अवधि में सुधा भारद्वाज मुंबई से बाहर नहीं जा सकतीं। ऐसे फैसलों को भी नागरिक स्वतंत्रता से जोड़कर देखा जाता है।

नक्सल और माओवाद से जुड़े मामलों से इतर भी कुछ ज्वलंत मुकदमे ऐसे रहे हैं, जिन्हें देखकर न्याय प्रणाली को खुद कठघरे में खड़ा किया जाता है। मसलन उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के डॉ कफील का मामला, केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन का मामला भी ऐसा ही है, उन्हें दो साल के बाद रिहाई मिली।

 

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