Saturday, July 27, 2024
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पीड़ा और संघर्ष की अथक दूरी पार कर स्त्री चेतना की नायिका बनीं देवरिया की संगीता कुशवाहा

संगीता कुशवाहा ने मलवाबर गाँव में बहुत से लोगों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने और उन्हें पाने के लिए प्रेरित किया है। आज सामाजिक कामों के कारण देवरिया जिले में उनकी एक अलग पहचान है। लेकिन संगीता को यह सब आसानी से हासिल नहीं हुआ। बेशक इसके लिए संगीता ने बहुत कुछ खोया और झेला है।

देवरिया। बघौचघाट के पास मलवाबर गाँव स्थित प्रेरणा केंद्र का संचालन करने वाली संगीता कुशवाहा की छोटी बेटी सिमरन कहती है ‘अब हम होली से ज्यादा महत्व सावित्रीबाई फुले की जयंती को देते हैं। मुझे पता है कि इन्हीं की वजह से औरतें न केवल पढ़-लिख सकीं बल्कि वे अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान के लिए लड़ भी रही हैं और यह बात मेरी माँ ने मुझे सिखाया। हमारे सामने एक बड़ा संसार है जिसमें हमारी भूमिका है। हमारे सपने बड़े हैं। भले ही हम एक गाँव में रहते हैं लेकिन दुनिया के बारे में हम किसी शहरी से अधिक समझते हैं। माँ ने हमें बांधा नहीं, हमारे पंखों को मजबूत किया।’

सिमरन का आत्मविश्वास देखकर लगता है कि वह अपनी उम्र की आम युवतियों से अलग है। वह फ़ैशन डिजाइनिंग के क्षेत्र में जाना चाहती है। सिमरन की बड़ी बहन रिया ने नर्सिंग का कोर्स कर लिया है और अच्छे अस्पताल में नौकरी की तलाश कर रही है। दोनों बहनें वैचारिक रूप से बहुत परिपक्व हैं और वे अपनी प्रेरणा अपनी माँ संगीता कुशवाहा को मानती हैं।

संगीता कुशवाहा ने मलवाबर गाँव में बहुत से लोगों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने और उन्हें पाने के लिए प्रेरित किया है। आज सामाजिक कामों के कारण देवरिया जिले में उनकी एक अलग पहचान है। लेकिन संगीता को यह सब आसानी से हासिल नहीं हुआ। बेशक इसके लिए संगीता ने बहुत कुछ खोया और झेला है।

संगीता की कहानी

संगीता कुशवाहा का जन्म कुशीनगर के एक गाँव में हुआ। महज़ 13 वर्ष की उम्र में उसकी शादी कुशीनगर जिले में एक ऐसे व्यक्ति से कर दी गई जिसकी पहली पत्नी मर चुकी थी और उसका एक बच्चा भी था। असल में साँवले रंग की संगीता के माँ-बाप सोचते थे कि उसकी शादी में रंग आड़े आएगा और बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

उसके माँ बाप ने सोचा कि खानदान अच्छा है और जमीन भी है।  अब इससे ज्यादा क्या चाहिए। इसलिए दुवाह लड़का भी बुरा नहीं है। यही सोचकर संगीता का विवाह अर्जुन कुशवाहा से कर दिया गया। लड़कियों के प्रति भारतीय समाज बेहद मतलबी सोच रखता है और संगीता के माँ-बाप के दिमाग में भी यही था कि परिवार में ननद, देवर और अन्य के न होने के कारण उनकी बेटी ‘राज’ करेगी।  एक छोटा बेटा है तो क्या फर्क पड़ता है।

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिला साथियों के साथ संगीता कुशवाहा।

विवाह में अर्जुन को पर्याप्त दहेज़ मिला। सभी लोग खुश थे।  विवाह के एक वर्ष के अन्दर ही अर्जुन की पत्नी संगीता ने एक बेटी को जन्म दिया। वह बहुत खुश थी लेकिन दुर्भाग्य से घर में और किसी को कोई खुशी नहीं हुई। सबके मुंह लटके हुए थे। अर्जुन बात-बात में संगीता को मारता और ताने देता। उसने अपनी बेटी को कभी छुआ तक नहीं।

रोज-रोज की पिटाई और तानों से परेशान हो कर संगीता अपनी बेटी के साथ अपने मायके में आकर रहने लगी। अर्जुन ने कभी प्रयास नहीं किया की वह अपनी पत्नी और बेटी के बारे में पूछे। जब पूरे दो-ढाई वर्ष हो गए तो उसके माँ-बाप ने गाँव की पंचायत के सामने यह वायदा करवाकर अपनी बहू को घर वापस बुलवाया कि अर्जुन आइन्दा उसको मारेगा नहीं और कोई गाली-गलौज भी नहीं करेगा।

ससुराल वापस आने के एक वर्ष के अन्दर ही संगीता फिर गर्भवती हुई। पुनः उसे बेटी हुई और इस बार तो अर्जुन गुस्से में लाल-पीला था। उसने बेटी पैदा करने का सारा दोष अपनी पत्नी पर डाला और उसे खूब मारा-पीटा। मजबूरन उसकी पत्नी संगीता अपनी दोनों बेटियों को लेकर अपने मायके आ गयी। उसके ससुर केदार और उनकी पत्नी यह जानते हुए भी अपनी बहू के साथ न्याय नहीं कर पाए।

अपनी दो छोटी बेटियों के साथ संगीता मायके तो आ गयी लेकिन उसे कहीं कोई विशेष सपोर्ट नहीं था और उसके परिवार वाले यही प्रयास करते रहे कि वह अपनी ससुराल चली जाए लेकिन अर्जुन को इन सबसे अब कोई मतलब नहीं था।  वह जानता था कि बीवी नहीं भी आएगी तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

हमारे सामंती समाज में तो आज भी पुरुष कई पाप करने के बाद भी पुरुष ही है और उसके साथ विवाह करने के लिए कई ‘संगीताओं’ को ऐसे ‘क़ैदखानों’ में झोंक दिया जाता है जहाँ उनकी हैसियत पति की ईगो तो संतुष्ट रखना भर होता है। उसके बच्चो की माँ बनना है और यदि बच्चे नहीं होते तो उसके लिए खुद को दोषी मान लेना है। यदि लड़की होती है तो भी समाज और परिवार के ताने सुनने हैं।

दो बेटियों को साथ लेकर 17-18 वर्षीय लड़की से आप क्या उम्मीद करेंगे? वह कितना लड़ेगी? उसे सुनाने वाले तो हर जगह पर बैठे होते हैं और बच्चे भी परिवारों के अन्दर भेदभाव का शिकार बन जाते है।

संगीता के पिता इस कोशिश में थे कि उसे वापस ससुराल भिजवा दें। इस बीच खेल-खेल में संगीता की बड़ी बेटी के हाथ में फ्रैक्चर हो गया और डाक्टर ने ऑपरेशन करने की सलाह दी। अब कोई भी महिला अपने पति को ही यह बात बताकर कोशिश करेगी कि सब ठीक हो जाए। बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि कई बार परेशानी के समय में लोगों के मतभेद दूर हो जाते हैं। संगीता के माँ-बाप ने भी सोचा कि अर्जुन अपनी बेटी के इलाज के लिए जरूर आयेगा और यहीं से उनके रिश्ते संभल जायेंगे। लेकिन अर्जुन को इससे कोई मतलब नहीं था। उसने संगीता को दो टूक जवाब दिया कि बेटी के इलाज की क्या जरूरत है। वह नहीं आ पायेगा।

अपनी बेटी के लिए अपशब्द सुनकर संगीता ने यह सोच लिया कि अब बहुत हो गया। अब रिश्ते संभलने की कोई गुंजाइश नहीं है। आखिर कोई पिता इतना क्रूर कैसे हो सकता है कि अपनी बेटी का इलाज़ भी करवाने से ही इन्कार कर दे। उसे कभी यह भी ख़याल नहीं आता कि उसके दो बच्चे हैं जो उसको याद करते होंगे।

“2007 में संगीता स्वैच्छिक संस्था सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन के संपर्क में आई और यहाँ उसे एक नयी राह मिली। 2009 में उसे मलवाबर गाँव में बने प्रेरणा केंद्र का समन्यवयक बनाया गया और फिर उसने जो तरक्की की वह एक मिसाल है। अब संगीता पूरे मलवाबर गाँव और देवरिया जनपद में एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता है।”

इस कहानी से पहले भी एक स्त्री की करुण कहानी है  

संगीता की कहानी का एक सिरा उसके माँ-बाप से जुड़ा है तो दूसरा सिरा एक ऐसे परिवार के सदस्यों से जो उसकी जिंदगी में लगातार नकारात्मक भूमिकाओं में रहे लेकिन जिनसे निबटते हुये संगीता ने अपनी अलग पहचान और जगह बनाई। इनमें से एक हैं केदार भगत जो संगीता के ससुर थे।

वे देवरिया जिले के बलुआ अफ़ग़ान गाँव के एक किसान परिवार में जन्मे थे और अपने पिता की अकेली संतान थे लेकिन माँ-बाप के बचपन में ही देहावसान हो जाने से इनके चाचाओं ने ही इनका भरण पोषण किया। बचपन में ही अकेले होने के कारण यह अंतर्मुखी हो गए थे और पारिवारिक मसलों पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देते थे। केदार भगत केवल खेती किसानी करते रहे और कभी पढ़ाई नहीं कर पाए। युवा होने पर केदार का विवाह हुआ और उनका घर बसा दिया गया। पहले कुछ वर्षो में उनके बच्चे होते लेकिन बच नहीं पाते। इस प्रकार इनके तीन पुत्र चल बसे। बाद में एक पुत्री और एक पुत्र हुए।

बहुत मन्नतों के बात बेटा हुआ था इसलिए वह खूब बिगड़ा और कोई भी उसे सुधार नहीं पाया। जवानी में ही उसे शराब और जुए की लत लग गयी। खेती की जमीन करीब 4 बीघा से ऊपर थी और पुस्तैनी घर भी था इसलिए केदार और उनकी पत्नी को ज्यादा जिंता नहीं हुई लेकिन जब लगा के अब पानी हाथ से निकल रहा है तो बड़े-बुजुर्गों ने समझाया कि  लड़के को जिम्मेवारी संभालनी चाहिए और यह तभी संभव होगा जब उसकी शादी कर दी जायेगी। लिहाजा रिश्ते ढूंढ़े गए और फिर एक दिन अर्जुन का विवाह कर दिया गया।

लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करते हुए

विवाह के एक वर्ष के अन्दर ही अर्जुन की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। घर पर सभी लोगों में जश्न था लेकिन अर्जुन की पत्नी घर के काम के बोझ तले दब रही थी। उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा क्योंकि घर में कोई उसकी देखभाल करने वाला नहीं था। बच्चा अधिकतर दादी के पास ही रहता और माँ से हर परिस्थिति में काम करने की उम्मीद की जाती रही। अर्जुन को अपनी पत्नी के गिरते स्वास्थ्य से कोई मतलब नहीं था। वह घर भी कम ही आता था और काम के बहाने पर बाहर रहता।

माँ-बाप घर में पोते के आने से खुश थे इसलिए पहले से ही बिगड़ैल अर्जुन से कुछ भी नहीं कहते थे। सभी की लापरवाही के चलते अर्जुन की पत्नी की मौत हो गयी। बताते है कि अर्जुन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा और वह अपनी बीवी को देखने तक नहीं गया। अब माँ-बाप को पुनः बेटे की चिंता हुई और उन्होंने उसकी दूसरी शादी करने का निर्णय किया।  दरअसल, अभी अर्जुन के बेटे की उम्र एक वर्ष की थी और उसकी दादी, माँ की जगह तो नहीं ले सकती थी। ऊपर से घर के काम करने के लिये  भी बहु की जरूरत थी। इस प्रकार इस त्रासदी में संगीता के प्रवेश की भूमिका बनी। संगीता के माँ-बाप ने सांवले रंग के कारण शादी न होने के डर से अपनी बेटी को एक आवारा और संवेदनहीन व्यक्ति के हवाले कर दिया।

संगीता के लिए ससुराल एक दुःस्वप्न से अधिक कुछ नहीं साबित हुई। गाँव में अर्जुन ने पंचायत की कि वह पहली पत्नी से हुए बेटे को अपने साथ रखना चाहता है। गौरतलब है कि वह बेटे को तो अपनाना चाहता था लेकिन अपनी ही बेटियों से उसको कोई मोह नहीं था। वह बेटियों को स्वीकार करने को तैयार नहीं था।

अंततः गाँव में पंचायत जुटी और उसके बेटे से पूछा कि क्या वह पिता के साथ रहने को तैयार है तो बेटे ने साफ मना कर दिया और अपनी माँ (संगीता) के साथ रहने की इच्छा जताई। इससे अर्जुन और उसके परिवार की बहुत फजीहत हुई। पंचायत ने फैसला दिया कि बेटे को उसकी इच्छा के अनुसार माँ ही अपने साथ रखे।

संगीता ने गुजारा भत्ते के लिए कोर्ट में मुकदमा किया। जज ने निर्णय दिया कि अर्जुन  प्रतिमाह अपनी पत्नी को 2000 रुपये देगा।  यह निर्णय 2004 में आया लेकिन अर्जुन ने इतने कम पैसे भी देना गवारा न समझा। कोर्ट के आदेश से अर्जुन और उसकी हैसियत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। संगीता अपने बच्चों को लेकर भटकती रही।

मरणासन्न सास को कोई देखनेवाला भी नहीं था

इस बीच अर्जुन की माँ बहुत बीमार पड़ी और घर में उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। बूढ़े केदार भगत ने उन्हें गोरखपुर के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में दाखिल करवाने का फैसला किया। भगत जी को महसूस हुआ कि साथ में कोई महिला नहीं है और जिन्दगी भर कभी उन्होंने इस प्रकार से गृहस्थी में कामों को किया भी नहीं था, इसलिए रास्ते में उन्होंने अपने समधी के गाँव हाटा में थोड़ी देर के लिए गाड़ी रुकवाई और उन्हें स्थिति की जानकारी दी।  सास की ऐसी दशा देखकर उनकी बहु संगीता ने अपने गिले-शिकवे भुला दिये और अपने दो बच्चो को अकेला छोड़कर ससुर के साथ गोरखपुर गई। अस्पताल में तीन-चार दिन के बाद डाक्टरों ने कह दिया के अब इनकी स्थिति गंभीर है और उन्हें घर ले जाकर सेवा करें।

केदार भगत अपनी पुत्रबधू संगीता के साथ अपनी पत्नी को लेकर घर वापस आ गए। संगीता अपने ससुराल में ही रही और सास-ससुर की सेवा करती रही लेकिन उनके बेटे-बेटी और कोई भी अन्य रिश्तेदार काम न आये। संगीता का एक कदम ससुराल और दूसरा मायके में था ताकि वह सास के साथ अपनी बेटियों की देखभाल कर सके। 14 दिन तक संगीता ने अपनी सास की सेवा की। बेटे और बेटी दोनों माँ के अंतिम समय में साथ नहीं थे।

घर में और कोई नहीं था इसलिए एक दिन भगत जी ने संगीता को दवा लेने के लिए गोरखपुर भेजा। संगीता ने दिन का खाना तैयार कर अपने ससुर को खिलाया और गोरखपुर चली गयी। उसकी ननद को खबर लगी कि संगीता घर पर नहीं है तो वह अपने पिता के पास पहुँची और माँ के सभी जेवरात और नकदी बटोरकर चली गयी।

भगत जी के अंतिम संस्कार में सैंकड़ों कबीरपंथी संतों और मलवाबर गाँव के मुसहर समाज के करीब 50 लोगों ने हिस्सा लिया जो गाँव से उनका शव लेकर कबीर मठ आये थे। शव को ध्यान मुद्रा में रखा गया था और गाड़ी में उनकी पुत्रबधू आगे बैठी थी। यह पहली बार हुआ कि मठ में दफनाये जाने पर एक महिला अंतिम कार्य कर रही थी। हालांकि वहाँ पर सभी संत मौजूद थे।”

संगीता जब वापस आयी तो भगत जी ने उसे यह बात बताई। वह बहुत नाराज हो रहे थे लेकिन उनमें अपने बेटे-बेटी के दुर्व्यवहार से सख्ती से निपटने की क्षमता नहीं थी। तीन हफ्ते जीवन संघर्ष के बाद संगीता की सास चल बसीं। उनका बेटा अर्जुन थोड़ी देर के लिए आया लेकिन सभी अंतिम कार्य संगीता ने ही संपन्न करवाया।

नए रास्ते खुलते गए

सास की अन्त्येष्टि के बाद संगीता वापस हाटा आ गई। उसने एक संस्था में कार्य शुरू किया था लेकिन वहाँ हुये कड़वे अनुभवों के बाद उसने वह काम छोड़ दिया। जीवन निर्वाह के लिए एक ब्यूटी पार्लर खोल लिया और अपने बच्चों  की परवरिश करने लगी।

2007 में संगीता स्वैच्छिक संस्था सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन के संपर्क में आई और यहाँ उसे एक नयी राह मिली। 2009 में उसे मलवाबर गाँव में बने प्रेरणा केंद्र का समन्वयक बनाया गया और फिर उसने जो तरक्की की वह एक मिसाल है। अब संगीता पूरे मलवाबर गाँव और देवरिया जनपद में एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता हैं। जिले के प्रमुख अधिकारी उसे नाम से जानते हैं। मुसहर समाज में वह दीदी है। उसके संगठन ने उसे पूरा सहयोग दिया। उसकी बेटियों ने भी अब नयी दुनिया देखी।

केदार भगत का पश्चाताप

पत्नी की मौत के बाद केदार भगत और भी निराश हो गए। बेटे को पिता के दुःख से कोई मतलब नहीं था। उनकी एकलौती बेटी भी पैसों के लिए ही घर आती थी। बुढापे में घर पर कोई देखभाल करने वाला नहीं था। बेटे को जब पैसों की जरूरत होती तब वह अपने पिता से झगड़ने आ जाता। केदार भगत बहुत परेशान हो गए। उनका परिवार पारंपरिक तौर पर कबीरपंथी था और कहीं से उन्हें कबीर मठ के संत विनोद गुसाई जी के विषय में पता चला तो वह उनके पास पहुंचे। कुछ समय बाद विनोद गुसाई ने उन्हें दीक्षा दी।

केदार भगत ने निर्णय लिया कि अब वह कबीर मठ में ही रहेंगे। इस प्रकार सन 2005 से ही  उन्होंने अपने को सम्पूर्ण रूप से बालापुर कबीर मठ को समर्पित कर दिया।  लेकिन वहाँ भी इनके बेटे और बेटी ने परेशान करना शुरू किया। बेटी की शादी बहुत पहले हो चुकी थी और वह अपने परिवार में रहती थी, लेकिन जब उसने देखा के उसके पिता कबीर मठ में चले गए हैं तो उसने अपने भाई के साथ मिलकर पुश्तैनी सम्पत्ति को हड़पने की योजना बनाई।

वह कतई नहीं चाहती थी पुश्तैनी घर में उसकी भाभी को भी हिस्सा मिले। दोनों भाई-बहन पिता से पैसा ऐंठते और उन पर जमीन बेचने के लिए दवाब बनाते। ऐसा करते-करते घर की अधिकांश जमीनें जा चुकी थीं और केदार अब चाहते थे कि उनकी पुश्तैनी सम्पत्ति बची रहे।  उन्होंने अपनी जमीन पर मालिकाना हक़ बचाए रखने के लिए बहुत संघर्ष किया और न्यायालय तक गए। भगत जी ने जमीन बेचने के अपने बेटे के प्रयासों का अंत तक विरोध किया।

उम्र के ढलान पर व्यक्ति असहाय हो जाता है। बालापुर मठ में रहते एक दिन भगत जी को पता चला कि उनकी बहू संगीता सामाजिक कार्यों में समय दे रही है और अब उसके बच्चे पढ़ रहे हैं तो उन्होंने अपनी बहू से संपर्क करने का निर्णय लिया। वह पता पूछते-पूछते प्रेरणा केंद्र पहुँच गए। यह साल 2012-13 की बात रही होगी। यहाँ पहुँचकर उन्होंने जो देखा तो बस उनकी आँखों में ख़ुशी के आंसू छलक पड़े। अपनी बहू की सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रेरणा केंद्र में चल रहे कामों से उन्हें बहू पर बहुत गर्व तो हुआ लेकिन उनकी अंतरात्मा ने उनको झकझोरा और याद दिलाया कि कैसे वह उस समय असहाय और निर्ल्लज बनकर चुप थे जब उनके बेटे ने मारपीट कर और गाली-गलौज करते हुए अपनी पत्नी को दो छोटी बेटियों के साथ घर से बाहर निकाल दिया था।

आज उनकी दोनों पोतियाँ अपने बाबा की सेवा कर रही थीं। भगत जी की अंतरात्मा उनको झकझोर रही थी और वह कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने सोचा कि कुछ दिन यहाँ रह लूंगातो सभी से बातें करूंगा और अपने मन का बोझ हल्का कर लूंगा। अब वह संत थे और वह जानते थे कि व्यक्ति यदि गलती करता है तो ईमानदारी से प्रायश्चित करके दिल के बोझ को हटा सकता है।  भूलवश हुये अन्याय को लगातार होने से रोक सकता है।

बस, उन्होंने सोच लिया कि प्रायश्चित करूंगा और अपनी बहू-पोतियों के साथ जो अन्याय हुआ है उसे आगे नहीं होने दूंगा। 22 मई 2014 को उन्होंने अपनी चल-अचल सम्पत्ति की वसीयत अपनी बहू संगीता के नाम कर दी।  यह निर्णय बहुत सोच-समझ कर लिया गया था, क्योंकि वह जानते थे कि उनकी बहू इतने बड़े केंद्र की प्रबंधक बन कर उसको संभाल रही है तो वह उनकी पैतृक सम्पत्ति को भी बचा पायेगी। हालांकि उसका अधिकांश हिस्सा तो बेटा अर्जुन पहले ही बेच चुका था।

अर्जुन को जब इस बात का पता चला तो उसने पिता को दवाब डालकर रोकने की कोशिश की और एक दिन वह बालापुर मठ चला गया। वहाँ उसने अपने पिता के साथ मारपीट की। उन्हें बंधक बनाकर कुछ गुंडों के साथ जबरन बैनामा करवाने की कोशिश की, लेकिन भगत जी ने मठ के लोगो की मदद से अपनी बहू संगीता को पूरी स्थिति से अवगत करवाते हुए जान बचाने का अनुरोध किया। संगीता ने लोगों की मदद से भगत जी को गुंडों के चंगुल से छुड़ाया और सीधे देवरिया के एसएसपी का सामने प्रस्तुत किया। केदार भगत ने अपने बेटे द्वारा जबरन बैनामा करवाने की बात कही। मीडिया की उपस्थिति में उन्होंने कहा कि वह अपनी बहू के पास रहना चाहते हैं क्योंकि उनका बेटा उनको धमका रहा है। वह बालापुर मठ में आकर उनसे मारपीट करता है जिससे उनकी जान को खतरा है।

दुख-सुख में नदारद लेकिन संपत्ति पर दावा  

बहू को पैतृक संपत्ति देने के बाद केदार भगत की शादीशुदा बेटी ने आपत्ति जताई। यह वही बेटी थी जो न माँ के मरने में साथ में थी और न ही अपने पिता की उसने कोई सेवा की। वह केवल उनकी सम्पति को हड़पना चाहती थी और किसी भी कीमत पर उसकी असली हक़दार संगीता को नहीं देना चाहती थी। दरअसल, संगीता ने अपने पति अर्जुन पर अपने और बच्चों के भरण-पोषण का मुकदमा किया था और 2004 में ही न्यायालय ने अर्जुन को मासिक भत्ता देने के आदेश दिया था लेकिन अर्जुन ने कभी भी उस आदेश का पालन नहीं किया। अब न्यायालय ने जब पुनः आदेश दिए तो अर्जुन फरार दिखाया जाने लगा। अब उसकी पूरी सम्पत्ति कुर्क करके ही मुआवजा मिल सकता था। अर्जुन जानता था कि अपनी पत्नी से वह सीधे मुंह नहीं दिखा पायेगा और जब भी वह सामने आयेगा तो जेल ही जाएगा। इसलिए  उसने अपनी बहन के साथ मिलकर साजिश की और बहिन के जरिये न्यायालय में अपनी पत्नी के दुश्चरित्र होने का मुकदमा दायर करवाया। जब न्यायालय में मुकदमा चल रहा था तब से लेकर उसने कभी कोई ऐसी बात नहीं की लेकिन अब जब संगीता आत्मसम्मान के साथ लड़ रही थी तो उसने चरित्र हनन कर सम्पति से वंचित करने की नई कोशिश की। हकीकत यह है कि जब भी कोई महिला अपने अधिकारों के लिए बिना आंसू बहाए लड़ेगी तो उसकाचरित्र हनन कर केस को पलटने की कोशिश होती है।

2004 से  संगीता अपनी दो बेटियों के साथ दर-दर भटक रही थी और मायके में भी बच्चे दया का पात्र बनते थे। सभी उसे बोझ समझते थे। इसलिए 2000 रुपए की मासिक राशि भी उसके लिए ‘बहुत’ थी लेकिन 2014 की संगीता आत्मसम्मान से लबरेज थी और डटकर अपने हक़ की लड़ाई लड़ रही थी। उसे अपनी बेटियों का हक़ भी चाहिए था लेकिन वह असहाय नहीं थी।

केदार भगत के अंतिम दिन

भगत जी की बढ़ती उम्र में उन्हें सेवा की जरूरत थी। हालाँकि मठ में वह ठीक-ठाक थे लेकिन उन्हें अपने बेटे से खतरा था और इसलिए उन्हें महसूस हुआ कि अब उम्र के इस मोड़ में उन्हें सुरक्षा और सेवा केवल बहू ही दे सकती है।

यहाँ तक कि भगतजी ने जिस पोते के लिए पंचायत करवाई थी ताकि वह अर्जुन के पास रह सके, उस पोते ने भी उनका ख्याल नहीं रखा। वह कभी-कभार प्रेरणा केंद्र में आ जाता था लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं। अक्टूबर से ही यह आभास होने लगा था कि भगत जी कभी भी ‘जा’ सकते हैं। संगीता ने अर्जुन के बेटे से कहा के वह कुछ समय यहाँ दे, लेकिन अपनी माँ की सहायता करने की बजाय बेटा अपनी पत्नी के साथ उसके मायके चला गया। जहाँ उसके बेटी हुई और अपने बाबा की अंतिम हालत को देखते हुए भी वह दुबई चला गया। यह नवम्बर के पहले हफ्ते की बात है। वह चाहता तो यात्रा रोक सकता था लेकिन उसने कहा कि वह नहीं रुक पायेगा। पूरे केंद्र में तीन महिलाएँ और बाबा। संगीता और उनकी दोनों बेटियों ने बहुत साहस और धैर्य के साथ भगत जी की सेवा की।

कुकुत्था नदी संरक्षण यात्रा में अन्य साथियों के साथ संगीता कुशवाहा।

एक माह से भगत जी की तबियत अधिक खराब हो गयी थी इसलिए उन्हें देवरिया जिला अस्पताल में दाखिल करवाया गया जहाँ चिकित्सकों ने उनकी स्थिति को गंभीर बताते हुए उन्हें घर ले जाने की सलाह दी। संगीता और उनकी बेटियों रिया और सिमरन ने जिस प्रकार से उनकी सेवा की है वह एक उदाहरण है।

9 नवंबर को 90 वर्ष की आयु में शाम 6 बजे प्रेरणा केंद्र, बघौचघाट में केदार भगत ने अंतिम सांस ली। ढाई वर्षों से यहाँ रह रहे बुजुर्ग ने प्रेरणा केंद्र में थोड़ी उदासी भर दी। उनके निधन के बाद संगीता ने सभी रिश्तेदारों को खबर किया और बताया कि भगत जी का  उनकी अंतिम इच्छानुसार कबीर मठ में संस्कार किया जाएगा। अनेक लोग आए लेकिन पिता की मौत के बाद भी उनका बेटा अर्जुन नहीं आया। उनकी बेटी थोड़ी देर के लिए आई और फोटो खिंचवा रही थी एक संत ने उसे फटकार लगाई और कहा कि इतने वर्षों तक तुमने कभी अपने बुजुर्ग पिता की सुध नहीं ली और आज उनके मरने पर फोटो खिंचवा कर प्यार जताना चाहती हो?

उन्होंने यह कहा कि यह बहू आप सभी को बिना बताये भी यह कार्य कर सकती थी लेकिन उसने अपने हर रिश्ते को निभाया। उनका कहना था कि भगत जी को कभी भी महिलाओं की शक्ति पर इतना भरोसा नहीं था, क्योंकि पारंपरिक पिता होने से उन्हें भरोसा था कि उनका बेटा ही उनकी अंतिम इच्छा पूरी करेगा और यदि  बेटा नहीं कर सके तो उन्हें अपने पोते पर भरोसा था लेकिन इन सभी ने जानते हुए भी कुछ नहीं किया।

भगत जी के अंतिम संस्कार में सैंकड़ों कबीरपंथी संतों और मलवाबर गाँव के मुसहर समाज के करीब 50 लोगों ने हिस्सा लिया जो गाँव से उनका शव लेकर कबीर मठ आये थे। शव को ध्यान मुद्रा में रखा गया था और गाड़ी में उनकी पुत्रबधू आगे बैठी थी। यह पहली बार हुआ कि मठ में दफनाये जाने पर एक महिला अंतिम कार्य कर रही थी। हालांकि वहाँ पर सभी संत मौजूद थे। उन्होंने स्वयं ही उनकी पुत्रबुधू को इस कार्य को करने के लिए प्रोत्साहित किया। सभी ये बात मान रहे थे कि एक महिला होते हुए और वह भी ऐसी, जिसे परिवार ने त्याग दिया, अपनी दो बेटियों के साथ जिस तरीके से स्वामी जी की सेवा की वह सभी के लिए एक अच्छा उदाहरण है।

आज संगीता किसी पहचान की मुहताज नहीं हैं। प्रेरणा केंद्र चलाते हुये उन्होंने समाज के सबसे वंचित समूहों की बेहतरी के लिए अपना काम जारी रखा है। उनकी निजी ज़िंदगी की कहानी यह सबक देती है कि अपनी बेटियों और बहुओं पर भी भरोसा करो क्योंकि समय आने पर वही आपकी अंतिम इच्छा को पूरी कर सकती हैं।

 

 

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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