बुधवार की अलसुबह हर दिल अज़ीज़ साथी संजीव माथुर गुज़र गये। वह कई दिनों से एम्स में भर्ती थे। सोमवार की शाम ब्रेन हेमरेज और कार्डियक अरेस्ट समेत मल्टी ऑर्गन फेल्योर के बाद उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था। मंगलवार की शाम उन्हें डॉक्टरों ने ब्रेनडेड घोषित करते हुए वेंटिलेटर से हटाने की सलाह दी। बुधवार की अलसुबह पाँच बजे उन्होंने इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके बाद परिवार में उनकी रेडियोलॉजिस्ट जीवन संगिनी, बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत छोटा भाई और एक बहन है।
कितने साल पहले और कब संजीव से मुलाक़ात हुई ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा है, लेकिन इतना याद है कि क़रीब एक दशक पहले दिल्ली में किसी आन्दोलन में ही उनसे पहली मुलाकात हुयी थी। संजीव से विधिवत परिचय कॉमरेड सुभाशीष दास शर्मा ने करवाया था। उस समय से ही वह डायबिटीज से त्रस्त थे और इंसुलिन लेते थे। एक बार डायबिटिक हो जाने पर मरीज़ को बहुत संयमित और रुटीन जीवन जीना होता है, लेकिन स्वभाव से ही एनार्किक संजीव माथुर के लिए रुटीन ज़िन्दग़ी का अर्थ जीवन की आज़ादी छीनना था। उनका शरीर लगातार अस्वस्थ रहता और मन लगातार क्रांति के विचारों में रमा रहता। साल 2019 से वह डायलिसिस पर थे। हॉस्पिटल एक तरह से उनका दूसरा घर बन चुका था। हॉस्पिटल और घर की आवाजाही लगी रहती। संजीव से शाम को फोन पर बात होती तो पता लगता हॉस्पिटल में हैं, या घर पर हैं बीमार हालत में, और अगले दिन उनसे किसी आन्दोलन में भेंट हो जाती।
डायबिटीज दिन-ब-दिन उनके शरीर को खाये जा रहा था। दिन-ब-दिन वह और जीर्ण होते जा रहे थे। शारीरिक रुग्णता और जीर्णता कभी उनके इरादों के आड़े नहीं आयी। तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ हुए किसान आन्दोलन में भी वह पूरे एक साल तक आन्दोलन को मजबूत बनाने में लगे रहे। दिन में वह डायलिसिस कराते और शाम को किसान आन्दोलन में ग़ाज़ीपुर से लेकर सिंधु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और शाहजहाँपुर बॉर्डर के मंचों पर दिखते।
कोरोना काल में दिल्ली छोड़ने के बाद अलग-अलग मुद्दों पर राय और टिप्पणी के लिए उनके द्वारा या उनकी भागीदारी वाले कार्यक्रमों और आन्दोलनों के सिलसिले में अक्सर उनसे फोन पर लम्बी बातें होती। बात-चीत के दौरान हर बार संजीव भाई मेरे रोज़गार को लेकर फिक्र जाहिर करते। इसी साल जनवरी में सावित्रीबाई फुले की जयन्ती पर जब उनसे बात हुयी थी तो उन्होंने आश्वासन देते हुए कहा था कि स्वास्थ्य ठीक हो जाये तो वो अपनी पत्रिका निकालेंगे और मुझे उससे जोड़ेंगे। हर बार बातचीत के दौरान मैं उनसे कहता- संजीव भाई अपने शरीर का ख्याल रखा करो। स्वस्थ्य रहोगे, तभी तो हम लोगों और समाज के लिए कुछ कर पाओगे। वह हर बार ‘रखता तो हूँ भाई’ या ‘आगे से रखूंगा भाई’ कहकर बात टाल जाते। जून के दूसरे सप्ताह में आखिरी बार जब संजीव भाई से बात हुयी तो वह अस्पताल में गहरी पीड़ा में थे। पंद्रह मिनट की फोनिक बातचीत में उनकी एक भी बात मैं स्पष्ट तौर पर नहीं समझ पाया। खुद संजीव को भी अंदाजा हो गया था कि उनका शरीर अब ज़्यादा दिन तक साथ नहीं देने वाला।
[bs-quote quote=”संजीव माथुर ने बहुजन समाजवादी मंच के जरिए 2 अप्रैल, 2018 में एट्रोसिटी एक्ट को कमज़ोर किए जाने के खिलाफ़ भारत बंद आन्दोलन में जो 13 बच्चे शहीद हुए थे, उनके परिजनों को एकजुट करने के साथ तमाम तरह की मदद मुहैया करवाया। तर्कसंगत, न्याय संगत, कल्याण संगत समाज बनाने पर उनका पूरा ज़ोर था। उनका आन्दोलन और उनकी बातें इसी पर आधारित होती थीं। किसी आन्दोलन के दौरान कोई स्वार्थी व्यक्ति भी उनसे जुड़ा तो वह उसके साथ ज़्यादा दूर चल नहीं पाये। बालकराम बौद्ध कहते हैं कि एक जातिविहीन-वर्गविहीन समाज बनाने का ख्वाब लेकर उन्होंने जिस बहुजन समाजवादी मंच की बुनियाद डाली है, वही उनके ख्वाब साकार करने के लिए लोगों को एकजुट करके उन्हें सामूहिक संघर्ष के रास्ते पर ले जाएगा। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
एक सप्ताह पहले ग़ाज़ियाबाद से सुभाशीष दादा ने फोन किया और जैसे ही उन्होंने आधा वाक्य कहा- “वह संजीव माथुर…” और अचानक ही मेरे मुंह से निकला- “क्या हुआ!! गुज़र गया क्या?” तब शुभाशीष दादा ने बात स्पष्ट करते हुए बताया संजीव की हालत बहुत ज्यादा खराब है।दरअसल, संजीव लगातार बीमार रहे। उनकी हालत लगातार खराब होती गयी। ऐसे में उनके जीवन को लेकर हमेशा मन में आशंका बनी रहती। ये वह आशंका ही थी जो मुंह से निकल आयी। उनके गुज़रने के साथ वह आशंका भी खत्म हो गयी, जो पिछले चार-पांच साल से भयभीत करती आ रही थी।
रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के बाद जातिविहीन और वर्गविहीन समाज के लिए साझा संघर्ष की अवधारणा एवं इस साझा संघर्ष के लिए जेएनयू में ‘जय भीम, लाल सलाम…’ का नारा गूंजा, तो इस अवधारणा को ज़मीन पर मूर्त रूप देने वालों में से एक थे- संजीव माथुर।
ग़ाज़ियाबाद में रहने और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जहां एक दलित राजनीति का उभार है, वहां आन्दलनों और कार्यक्रमों में जाते हुए उन्हें समझ आया कि वाम और दलित के बीच कोई तालमेल ही नहीं है और दोनों के बीच दूरी भी है। उन्होंने विचार किया कि इस दूरी को पाटने के लिए काम करने की ज़रूरत है। साल 2015 के बाद उन्होंने शिद्दत से महसूस किया कि यह खाली क्षेत्र है और इस पर काम करने की ज़रूरत है। इसी विचार के साथ उन्होंने बहुजन समाजवादी मंच की बुनियाद रखी। जेएनयू में इसी दौरान जय भीम, लाल सलाम.. का नारा गूंजा।
साल 2019 से लगातार डाललिसिस पर होने के बावजूद वह लगातार बहुजन आन्दोलन को आगे बढ़ाने में लगे हुए थे। बहुजन समाजवादी मंच का काम एट्रोसिटी के मामले में दलितों-पीड़ितों को क़ानूनी मदद उपलब्ध करवाना था। ऐसे मामलों में प्रशासन को हैंडल करना। दलित बहुजन बच्चों स्कूल जाने के लिए तैयार करना आदि।
संजीव माथुर का परिवार दिल्ली-6 के चांदनी चौक में रहता था। उनके घर के पास ही सीपीआई का ऑफिस था। वह दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी ये जाया करते थे। वहीं लोगों से बातचीत और मुलाकात से वह सीपीआई दफ़्तर जाने लगे। 12-13 साल की उम्र से ही लेफ्ट की ओर उनका रुझान हो गया था। ज़ाकिर हुसैन कॉलेज से उन्होंने ग्रेजुएशन किया। कैम्पस में तमाम सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहतीं। थिएटर होता, उसमें वह सक्रिय रूप से हिस्सा लेते थे। संजीव माथुर के पिता एक्सेसियल नाम के थिएटर में मैनेजर थे। इसलिए इस तरह से भी कला और संस्कृति की बुनियादी समझ उन्हें विरासत के तौर पर मिली।
संजीव माथुर के अभिन्न साथी और बहुजन समाजवादी (मंच) आन्दोलन के संस्थापकों में से एक कपिल स्वामी उनके पत्रकारीय जीवन से परिचित करवाते हैं। वह बताते हैं कि संजीव माथुर ने देश के विभिन्न नामी मीडिया संस्थाओं में काम किया। संजीव माथुर ने दैनिक भास्कर इन्दौर में साल 2007-08 में काम किया, फिर साल 2008-09 में हिन्दुस्तान दिल्ली में रहे, 2010-12 राजस्थान पत्रिका जयपुर में। 2014 में वेब दुनिया, 2015 में तहलका, फिर 2016 में बीबीसी में भी काम किया और 2016 के आखिर में उन्होंने न्यूज 18 में काम किया। जहाँ साल 2017 में काम छोड़ने के साथ ही उन्होंने पत्रकारिता को छोड़कर खुद को पूरी तरह से सामाजिक कार्यों में झोंक दिया।
बालक राम बौद्ध, संजीव माथुर के दलित आन्दोलन के शुरुआती साथियों में से एक हैं। वह बताते हैं कि सहारनपुर दंगे के आरोप में साल 2017 में जब चंद्रशेखर आज़ाद को रासुका लगाकर जेल में डाल दिया गया तो संजीव माथुर ने उनकी रिहाई के लिए सामाजिक आन्दोलन और न्यायिक लड़ाई शुरु की। साल 2017-18 पूरा एक साल उन्होंने भीम आर्मी प्रमुख की रिहाई आन्दोलन के लिए काम किया। भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेख़र के जेल से छूटने के बाद संजीव माथुर और उनके बीच एक साझा दलित बहुजन संघर्ष को लेकर कई बार बैठक और बातचीत हुयी।चंद्रशेखर आज़ाद का रुझान सामाजिक कम राजनीतिक ज्यादा था, जबकि संजीव माथुर पूरी तरह से सामाजिक आन्दोलन के पक्ष में थे, तो एक वैचारिक मतभेद था दोनों के बीच। आन्दोलन की दशा और दिशा को लेकर अतः दोनों ने अपने रास्ते अलग कर लिए। चंद्रशेखर आज़ाद ने राजनीतिक दल का गठन कर लिया और संजीव माथुर बहुजन समाजवादी मंच बनाकर सामाजिक आन्दोलन को आगे बढ़ाने में जुट गये।
बहुजन समाजवादी मंच ने गांव-गांव जाकर बहुजन समाजवादी पाठशालायें खोलीं। फिलहाल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 28-30 बहुजन समाजवादी पाठशाला चल रही है। जो बच्चे 8-10 साल के हो गये और कभी स्कूल नहीं गये, उनको बहुजन समाजवादी पाठशालाओं में पढ़ाकर आत्मविश्वास देकर सरकारी स्कूलों में दाख़िला दिलवाया जाता है। पाठशाला के अलावा लाइब्रेरी खोलना भी बहुजन लोकवादी मंच के प्रमुख कामों में से एक है। इसके तहत ग़ाज़ियाबाद के कौशाम्बी बुद्ध बिहार में लाइब्रेरी खुलवाया गया है।
संजीव माथुर ने बहुजन समाजवादी मंच के जरिए 2 अप्रैल, 2018 में एट्रोसिटी एक्ट को कमज़ोर किए जाने के खिलाफ़ भारत बंद आन्दोलन में जो 13 बच्चे शहीद हुए थे, उनके परिजनों को एकजुट करने के साथ तमाम तरह की मदद मुहैया करवाया। तर्कसंगत, न्याय संगत, कल्याण संगत समाज बनाने पर उनका पूरा ज़ोर था। उनका आन्दोलन और उनकी बातें इसी पर आधारित होती थीं। किसी आन्दोलन के दौरान कोई स्वार्थी व्यक्ति भी उनसे जुड़ा तो वह उसके साथ ज़्यादा दूर चल नहीं पाये। बालकराम बौद्ध कहते हैं कि एक जातिविहीन-वर्गविहीन समाज बनाने का ख्वाब लेकर उन्होंने जिस बहुजन समाजवादी मंच की बुनियाद डाली है, वही उनके ख्वाब साकार करने के लिए लोगों को एकजुट करके उन्हें सामूहिक संघर्ष के रास्ते पर ले जाएगा।
संजीव माथुर की आखिरी इच्छा थी कि उनका शरीर मेडिकल छात्रों के लिए डोनेट किया जाए, लेकिन डायबिटीज ने उनके शरीर को इस कदर डैमेज कर दिया और सारे ऑर्गन्स फेल्योर हो गये कि मेडिकल कॉलेज वालों ने कहा कि उनकी बॉडी रखने योग्य नहीं है। अतः बिजली शवदाह गृह में उनके शरीर को जला दिया गया। बालकराम बौद्ध बताते हैं कि जहां-जहां बहुजन समाजवादी लाइब्रेरी खुलेगी वहां-वहां उनकी राख रखी जाएगी। बहुजन समाज मंच उनके आन्दोलन को आगे लेकर जाएगा।
सुशील मानव गाँव के लोग डॉट कॉम के भदोही स्थित संवाददाता हैं।
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