Saturday, July 27, 2024
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गरीबों और पटरी व्यवसायियों की अर्थव्यवस्था को आधार देता भदोही का मेला

उत्तर आधुनिकता के उभार और पूंजी के दबाव ने अकेलापन, व्यक्तिवाद और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर सामूहिकता और सामाजिकता के बोध को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। बावजूद इसके स्त्रियों का समूह में मेला देखने आने का चलन अभी ग्रामीण समाज में बचा हुआ देखना इस बात की बानगी है कि कृषि आधारित ग्रामीण बहुजन समाज में अभी पूंजी और उत्तरआधुनिकता का रंग उतना नहीं चढ़ा है और वहां सामूहिकता और सामाजिकता का भावबोध अभी भी बहुत ठोस और सघन दिखता है

भदोही (संत रविदास नगर)। सैदाबाद से लगभग 20 किलोमीटर दूर साइकिल चलाकर मेला देखने आया एक अधेड़ दम्पति बच्चों के लिए दुकान से जलेबी ख़रीद रहा है। मैंने पूछा- बच्चों को नहीं लिवा आये तो कहने लगे- ‘एक को ले आते तो बाक़ी भी ज़िद करते, इसलिए किसी को नहीं ले आये। जलेबी-खिलौने पाकर बच्चे मेला न आने का दुख भूल जाएंगे।’

कुछ बुजुर्ग स्त्रियां गंगा घाट से ऊपर बाल्मीकि आश्रम के पास तख़्ते पर बैठकर इत्मीनान से गुड़हिया जलेबी खा रही हैं। एक बूढ़ी औरत झट से अपने झोले से लोटा निकालकर हैंडपम्प से पानी भर ले आती है। फिर बारी-बारी से सारी गुइयां लोटे से पानी पीती हैं। मेला क्षेत्र में सड़क किनारे और मंदिरों और घाट के आस पास इंडिया मार्का हैंडपम्प लगा हुआ है। जो लोग लोटा आदि लेकर नहीं आये हैं वे जलेबी, चाट, समोसा, टिकिया और चाउमिन खाने के बाद हैंडपम्प पर अँजुरी लगाकर पानी पी रहे हैं। वहीं, दूर किसी गांव की बहुत-सी स्त्रियां मिनी ट्रक की ट्राली में बैठकर मेला देखने आयी हैं।

घनी धूप में पेड़ की छाँव तले थकान मिटाते लोग।

ये पिछले हफ़्ते भदोही जिले के डीघ ब्लॉक स्थित सीतामढ़ी में लगे लवकुश जन्मोत्सव मेले के दृश्य हैं। इसे नवमी मेला भी कहा जाता है। ऐसे मेले अब दिनों-दिन कम होते जा रहे हैं। बहुत से मेलों के नाम तो अब दंतकथाओं में ही मिलते हैं, लेकिन जैसे-जैसे बड़े-बुजुर्गों की आबादी अनुपस्थित होती जाएगी, तब शायद दंतकथाएँ भी लुप्त हो जाएँ। मेले पहले जिन पोखरों और मैदानों में लगते थे अब वे भूमाफियाओं की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। अब मेले सड़क के किनारे और बहुत सीमित संख्या में लगते हैं। कभी खुदरा अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे मेलों पर नई आर्थिक स्थितियों और प्रवृत्तियों का क्या असर पड़ा है, इसका अध्ययन इन मेलों से गुजरकर ही किया जा सकता है। फिलहाल मुझे तो बहुत मज़ा आ रहा है, यह देखकर कि लोगों में अभी बहुत उत्साह बचा है और वे इस दिन को भरपूर जी लेना चाहते हैं।

मेले में जाते ग्रामीण।

इस मेले में बड़ी तादाद में हर आयु वर्ग और लिंग के लोगों की भागीदारी देखने को मिली। विशेषकर बड़ी संख्या में बुजुर्ग महिलाओं को मेले में देखना एक बड़ी उपलब्धि ही है। जीवन के इस पड़ाव पर जब शरीर शिथिलता का शिकार हो जाता है, बुजुर्ग घर के एक कोने में उपेक्षित पड़े रहते हैं। लेकिन ग्रामीण समाज की बुजुर्ग स्त्रियां संग जोड़ करके अपनी बुजुर्ग टोली के साथ सिर पर बोरी का झोला धरे कोसों पैदल चलकर दूर-दराज के गांवों से मेले में आयी हैं। गंगा नहाने के बाद अपनी धोती झाड़ियों और जंगली घासों पर सूखने के लिए डालकर बग़िया में पेड़ की छांव में बैठकर मजे से चाट खा रही हैं। नई उम्र की लड़कियों की तरह उन्हें चाट वाले को घेरे हुए देखना गाँव की बुजुर्ग स्त्री दुनिया को एक अलग ही कैनवास पर देखने जैसा है।

उत्तर आधुनिकता के उभार और पूंजी के दबाव ने अकेलापन, व्यक्तिवाद और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर सामूहिकता और सामाजिकता के बोध को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। बावजूद इसके स्त्रियों का समूह में मेला देखने आने का चलन अभी ग्रामीण समाज में बचा हुआ देखना इस बात की बानगी है कि कृषि आधारित ग्रामीण बहुजन समाज में अभी पूंजी और उत्तरआधुनिकता का रंग उतना नहीं चढ़ा है और वहां सामूहिकता और सामाजिकता का भावबोध अभी भी बहुत ठोस और सघन दिखता है। निश्चित ही ये एक साथ खेतों में रोपनी गीत गाते हुए रोपाई करने वाली, या मजूरी के बजाय एक दूसरे के खेतों में हूंड़ा करने वाली कृषि मज़दूरिनें और खेती-किसानी से जुड़ी बहुत मजबूत और कसाव वाले जातीय समूह की स्त्रियां हैं। उनकी देह की रंगत, पउली से एक बित्ता ऊपर उतँग साड़ी पहनने, आंचल खोंसने की सीधा पल्ला शैली, और कृषि से जुड़ी शब्दावली और मुहावरों वाली बोली आदि उनके इसी पक्ष की ओर गवाही दे रहे हैं।

पाँच ट्रिलियन की संभावित अर्थव्यवस्था में गंवई जीवन के असबाब

इस मेले में एक और खास बात जो देखने को मिली वो यह कि खांटी गांव का जो स्वाद विकास ने छीन लिया है, वह स्वाद भी इस मेले में एक सशक्त प्रतिरोध की तरह मौजूद दिखता है। जैसे कि कक्षा छह में पढ़ने वाले जिगर ‘सीकर’ की दुकान सजाये बैठे हैं। स्थानीय गाँव के निवासी जिगर बताते हैं ये सीकर उनके अपने बाग़ के हैं। उनके बाग़ में आम के देशी किस्म के सीकर के लगभग 9 पेड़ हैं। ये प्राकृतिक रूप से पेड़ में ही पके आम है। इन्हें असमय तोड़कर केमिकल से नहीं पकाया गया है। गौरतलब है कि उजड़ते बागों और सड़कों के किनारे के विशाल आम के दरख्तों के विकास की बलि चढ़ने के बाद आम की सीकर किस्म अब इस देश में लुप्तप्राय है।

मेले में एक ग्रामीण महिला पका कटहल बेच रही है। जिस व्यक्ति ने जीवन में कभी पका कटहल खाया है उसका स्वाद वही जानता है। रोज़गार और बच्चों की शिक्षा के लिए प्रयागराज जिले के झूंसी में रहन रहीं पूर्वांचल की कुछ स्त्रियां बताती हैं कि सब्जी लेने जब वह लोग यहाँ लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार में जाती हैं तो वहां कच्चा कटहल काटकर बेचने वाले दुकानदार धोखे से आ गए पके कटहल को सड़ा बताकर फेंक देते हैं। जब ये स्त्रियां दुकानदार से कहती हैं कि वह पका कटहल उन्हें दे दे, तो दुकानदार कहता है कि बहनजी क्या करोगी सड़ा कटहल ले जाकर? रात में सब्जी की दुकानें उठने के बाद पूर्वांचल की वह स्त्रियां वहां दोबारा जाती हैं और आवारा पशुओं के उन पके कटहलों तक तक पहुंचने से पहले ही उन्हें उठा लाती हैं और आपस में बांटकर खाती हैं। पका कटहल सामूहिक भोज है। एक बड़ा पका कटहल ग्रामीण समाज में फाड़ा जाता तो घर-परिवार में अंटने के बाद अगल-बगल पास-पड़ोस में पहुंचाकर मिल-बांटकर खाया जाता।

ऐसे ही एक बच्चा मेले में जामुन बेच रहा है। पेड़ के ताजा फलों के अलावा ‘गुड़ का खाझा’, अनरसा, चोटहिया जलेबी, गुड़हवा सेव, नारियल की मिठाई, नानखटाई, बिस्किट आदि भी इस मेले के बड़े आकर्षण हैं, जो मेले में आने-जाने वालों को अपने भूले हुए देशी स्वाद याद दिला रहे हैं। नारियल की मिठाई की दुकान पर खड़ी एक औरत मोल-भाव कर रही है। दुकानदार कह रहा है 30 रुपये पाव है। औरत कह रही है कि ठीक-ठीक लगा लो तो बच्चों के लिए आधा सेर ख़रीद लूँगी।

पत्थर के हउदे पर सजी दुकान।

भदोही के सीतामढ़ी में लगा लवकुश मेला ग्रामीण समाज और उनके रहन-सहन की एक मुकम्मल तस्वीर पेश करता है। जैसे एक लड़की एक पत्थर के हउदे पर प्लाईवुड रखकर ताला-चाबी आदि की दुकान सजाये खड़ी है। मेरे साथ मेला देखने आये एक ग्रामीण साथी दावा करते हैं कि वो हउदा नहीं बल्कि कोल्हू है। जो पहले बैल से चला करते थे। उस पर ख़ूबसूरत नक्काशी भी बनी हुई है।

अपने घर के दरवाजे पर निखरहरे खटिया पर एक व्यक्ति मिट्टी के गुल्लक की दुकान लगाये बैठा है। ऐसे समय में जब बाज़ार ने छोटे-छोटे बच्चों को भी उपभोक्ता बना दिया है। बच्चों के लिए फर्स्टक्राई, हॉप्सकॉच, फैबपिक जैसी तमाम अलग शॉपिंग एप मोबाइल में मौजूद हैं। लोग क्रेडिट कार्ड के ज़रिए ख़रीदारी करके ईएमआई के बोझ तले दबे जाते हैं। या फिर जहाँ पैसे मिलते ही बच्चे कुरकुरे, चिप्स, चॉकलेट, फ्रूटी आदि के लिए दुकानों की ओर भागते हैं, वहां ग्रामीण समाज का यह आदमी अभी भी हारे-गाढ़े वक़्त के लिए बचत की अवधारणा लिए माटी के गुल्लक बेच रहा है। एक दूसरी दुकान पर सजे चीनी मिट्टी के फैन्सी गुल्लक भी खरीदार की राह देख रहे हैं। ये गुल्लक ही हैं, जो बच्चों में बचत की अवधारणा का विकास करते हैं और कर्ज़ लेकर उपभोग करने की बाज़ारवादी प्रवृत्ति पर चोट करते हैं।

ग्राहक का इंतजार करते दुकानदार।

मेले में घरेलू उपयोग के उन चीजों और सामानों की दुकानें हैं, जो बड़े-बड़े शॉपिंग कॉम्पलेक्स, मल्टीप्लेक्स और सजी-धजी कार्पेट बिछी दुकानों पर नहीं मिलती है। यहां निम्न आय वर्ग के जीवन से जुड़ी हुई चीजें हैं, जिनका उत्पादन असंगठित क्षेत्र करता है। दरअसल, उड़द और मूंग की फसलें तैयार हो चुकी हैं। धान की बिजाई भी तैयार है। अगले सप्ताह से खेतों में धान की रोपाई का काम शुरू हो जाएगा। उससे पहले घर की मुखिया और जिम्मेदार स्त्रियां उड़द और मूंग की फसलों को बेचकर घरेलू और व्यक्तिगत इस्तेमाल की चीजें ख़रीदने आयी हैं। खेत और बाग़ की पैदावार को साल भर संजोए रखने के लिए मर्तबान, झन्ना, कड़ाही, सिन्दूर, आलता, कंगन, ब्रेसीयर, जांघिया आदि की ख़रीदारी हो रही है। एक स्त्री मेले में चलते हुए दूसरी स्त्री से कहती है- ‘सेव झारै वाला करछा लेना है बढ़िया कहीं दिखे तो याद दिलाना।’ दूसरी स्त्री कहती है- मुझे भी दाल और सरसों झारने वाला झन्ना लेना है।’

चलते-चलते उन स्त्रियों की नज़र उस दुकान पर पड़ती है जहां खड़ी होकर कुछ औरतें झन्ना और करछा मोलवा रही हैं। कुछ स्त्रियां बेलन और चौका खरीदने के लिए मोलभाव रही हैं। मेले में जगह-जगह बांस से निर्मित डलिया दउरी, खांची, बेना, सूप आदि घरेलू उपयोग की चीजें बिक रही हैं और आने-जाने वाली हर घरेलू महिला-पुरुष इन दुकानों पर ठिठककर मोल-तोल कर रहे हैं। खांची 120 रुपये, डलिया 100 रुपये और दउरी 150 रुपये की बिक रही है। एक बुजुर्ग महिला दुकानदर बताती है कि वह स्थानीय ही है। मेले में सामान लेकर चली आयी है। गांव में उसकी जजमानी है। और शादी-ब्याह आदि के सीजन में वह बांस के झाब, झबिया, बेना, डलिया, दउरी आदि पहुँचाती है।

मूसल खरीदती महिला।

एक महिला मेले में सड़क किनारे पुटपाथ पर लगे एक दुकान पर मूसल मोलवा रही है। दुकानदार 200 रुपये दाम लगाते हुए बताता है कि नीम की लकड़ी का बना है। महिला मूसल हाथ में उठाती है और निराश होकर कहती है ‘बहुत हल्का है’। अगर केवल शादी-विवाह आदि में परछन आदि जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए लेना होता तो जाहिर तौर पर वह स्त्री हल्का या वजनी न देखती। मेले में वजनी मूसल तलाशने का आशय है कि वह इसे घरेलू काम में इस्तेमाल के लिए ले रही है। आज के भौतिक जीवन में जब घर-घर मिक्सर और गली-गली में चक्की और राइस मिल लगी हैं और चलता-फिरता राइस मिल तो भूसी और चावल की पॉलिश के बदले अब घर-घर जाकर धान कूट रहा है। बावजूद इसके यदि किसी समाज में कोई महिला ओखल और मूसल का इस्तेमाल कर रही है तो इसका आशय है कि वह सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहद पिछड़े वर्ग जाति से तालुल्क रखती है।

मेले में चीनी मिट्टी के छोटे-छोटे मर्तबान (जार) भी बिक रहे हैं, जो अचार आदि बनाकर रखने के काम आते हैं। पहले अक्सर आम, कटहल, बड़हल के सीजन में फेरीवाले कांच और चीनी मिट्टी के मर्तबान टूटे, कटी-फटी साड़ियों, बोरे या अनाज के बदले बेचा करते थे। जिसे ग्रामीण समाज के लोग अचार बनाकर रखने के लिए ख़रीदते थे। लेकिन प्लास्टिक और स्टील के बर्तनों और डब्बों के इस्तेमाल के बाद चीनी मिट्टी के मर्तबान हाशिए पर धकेल दिये गये।

एक जगह प्लास्टिक के फैन्सी बर्तन बिक रहे हैं, जैसे कभी पीतल या चद्दर के बनकर बिकते थे। प्लास्टिक का गगरा, प्लास्टिक का हंडा, फ्लास्टिक का कैन (जिसमें दुधहरे दूध लेकर चलते हैं) प्लास्टिक की टंकी, स्त्रियों के श्रृगांर और साज-सज्जा के सामान रखने के लिए प्लास्टिक की डोलची आदि।

यहाँ मुहावरा भर नहीं है प्यार में दर्द से गुजरना 

युवा पीढ़ी, विशेषकर पिछले चार-पांच साल के विवाहित जोड़े टैटू की दुकानों पर मजमा लगाए टैटू बनवा रहे हैं। नई पीढ़ी विशेषकर ग्रामीण समाज के युवक अपने प्यार की परीक्षा दर्द से गुज़रकर और अपने जीवनसाथी को दर्द से गुज़ारकर ही लेते हैं। एक दूसरे के प्रति अपना प्यार जताने की हिंसक सोच उन्हें दर्द सहने के लिए मज़बूर कर रही है। कई बार दर्द इतना असहनीय हो जाता है कि टैटू बनवाते-बनवाते स्त्रियां अपना हाथ पीछे खींचने लगती हैं। तब पुरुष साथी मजबूती से उनका हाथ पकड़ लेता है और टैटू वाला उनके हाथ के एक किनारे पर टैटू से उनके पति का नाम दर्ज़ कर देता है। इस प्रक्रिया में गुदे अक्षरों के आस-पास ख़ून छलक आता है। फिर एक कपड़े में तेल जैसा कुछ लगाकर टैटू बनाने वाला साफ करता है और फिर अपने काम में जुट जाता है। पूरे मेले में कम से कम 10-12 टैटू की दुकाने हैं, जो 20 रुपये प्रति शब्द की दर से टैटू बना रहे हैं। टैटू की सभी दुकानों पर युवा पीढ़ी, विशेषकर नवब्याहता स्त्रियां, अपने साथी का नाम दर्ज़ करवाकर अपने प्यार और वफ़ादारी का सबूत दे रही है।

भदोही के ही रहनेवाले राकेश नाम वाली अंगूठी की दुकान लगाये बैठे हैं। दिल के आकार वाली पीतल की अंगूठियों में वह प्रेमी-प्रेमिका और मियां-बीवी का नाम उकेर कर दे रहे हैं और कीमत भी केवल 20 और 30 रुपये है। इनके ठीक सामने ही सड़क की दूसरी साइड एक अन्य राकेश छल्लों की दुकान सजाये बैठे हैं। टैटू के बाद युवा जोड़ियों की पसंदीदा दुकानें यही हैं। ‘आ मेरी रानी, ले जा छल्ला निशानी…’ नामक फिल्मी गाना बज रहा है और गाने की तर्ज़ पर युवा जोड़े छल्ले की दुकान पर छल्लों पर एक-दूजे का नाम लिखवाकर ख़रीद रहा है या फिर एक दूसरे के नाम की अंगूठी बनवाते दिख रहा है।

बीते ज़माने का किस्सा नहीं, भदोही की बात है 

खड़खड़िया (तिनगोड़वा गरारी), जिसे पकड़कर बच्चे चलना सीखते हैं और जिसके प्लास्टिक वर्जन को वर्तमान बज़ार की भाषा में वॉकर कहते हैं। वह घर-गृहस्थी के सामान जैसे कि आमफरनी, छुरी, खुरपा और पहसुल के साथ बिक रहा है। पूरे मेले में बच्चों के खिलौनों के नाम पर केवल प्लास्टिक के कचरे ही पटे पड़े हैं। लकड़ी और मिट्टी के खिलौनों की एक भी दुकान पूरे मेले में कहीं भी नहीं दिखी।

हाथ से बने रंग-विरंगे खिलौने।

खड़खड़िया (तिनगोड़वा गरारी) के बाद मेले में लकड़ी का जो दूसरा खिलौना दिखा वह है वह रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी, मोटी-पतली तरह-तरह की बाँसुरी है। बाँसुरी विक्रेता तौफीक़ बताता है कि वह बिहार के बक्सर जिला का रहने वाला है और बुधवार को मेले के बाद वह वापस अपने गांव बकरीद मनाने के लिए लौट जाएगा। तौफीक़ बताता है कि असम के सिलचर जिले से पीस के हिसाब से बांस आता है। पतले-मोटे साइज के हिसाब से एक पीस की क़ीमत दो रुपये से लेकर चार रुपये तक पड़ती है। उसके बाद ये लोग उस बांस से बाँसुरी बनाकर जगह-जगह मेले में जाकर बेंचते हैं। गौरतलब है कि बांसुरी बनाने के लिए डोलू (निब्बा) प्रजाति का बांस इस्तेमाल किया जाता है, जो सिर्फ़ दलदली ज़मीन में उगता है और असम के सिलचर जिले के अलावा त्रिपुरा में पैदा होता है। वैसे उत्तर प्रदेश का पीलीभीत जिला बांसुरी उद्योग के लिए विश्व प्रसिद्ध है।

इन्होंने कम उम्र में कंधों पर रख ली गृहस्थी 

मेले में कई बच्चे दुकान सम्हाले हुए दिखते हैं। एक छोटा बच्चा (12-14 साल का) रंगे-बिरंगे तरह-तरह के आकार प्रकार वाले चश्मे बेच रहा है। दुनिया को जिस रंग में देखना चाहो, उस रंग के चश्मे ख़रीद लो। किसी समाज में बहुत अधिक बच्चों का दुकान सम्हालना या काम में लगे होना उस समाज के शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े होने की सूचना देता है।

एक लाठी पर सजी दुकान।

मेले में जगह-जगह हरदोई जिले से आये हिंगियारे लड़के हींग, आलता और सिन्दूर बेंच रहे हैं। अधिकतर लड़कों की उम्र 20 साल से कम है।कई नाबालिग भी हैं। ये लड़के बताते हैं कि उनके पुरखे कई पीढ़ियों से हिन्दू समाज की महिलाओं के लिए सुहाग और साज-सज्जा की चीजें मुहैया करवाते आ रहे हैं। मुस्लिम समाज के ये लड़के हर आने-जाने वाली महिला से आलता और सिन्दूर ख़रीदने की गुहार लगा रहे हैं। बगल में ही कुछ लड़के चूड़ियाँ और रेडीमेड फैन्सी हारों का सेट बेच रहे हैं। तो कहीं रंग-बिरंगी बिन्दियों की दुकानें सजी हैं। मेले में कई चलती- फिरती दुकानें भी दिख रही हैं। मसलन एक लाठी पर लगी दुकान, जिसमें चोटी, क्लिप, जूड़ा रबर, हेयर बैंड, लॉकेट, रोल गोल्ड की जंजीर यानी ‘सोलहो सिंगार’ का सामान लटका हुआ है।

कई दुकानों पर रोल गोल्ड के मंगलसूत्र, जंजीर, अंगूठी, झुमका, बाली और गिलट के पायल, बिछिया आदि बिक रही हैं, जिनका टारगेट खेतों में मज़दूरी करने वाले ग़रीब मज़दूर स्त्रियां हैं, जो अपनी ग़रीबी के कारण सोने-चांदी जैसी महंगी धातुओं की जगह गिलट और रोल गोल्ड के गहने पहनकर अपने शौक-श्रृंगार पूरे करती हैं। एक दुकान पर आधे घूंघट वाली तीन-चार स्त्रियां खड़ी होकर अधेड़ दुकानदार से ब्रेसियर मोलवा रही हैं। एक स्त्री हाथ से तानकर कहती है इसका इलास्टिक तो खराब नहीं होगा न। दुकानदार जवाब देता है कि ‘गारंटी है, नहीं खराब होगा। ढेरों औरतें ख़रीदकर ले जाती हैं, लेकिन आज तक कभी कोई शिक़ायत नहीं आयी।’ स्त्री पूछती है कॉटन का नहीं है क्या। दुकानदार कहता है ‘कॉटन ही तो है, मिक्स कॉटन। आजकल यही चल रहा है।’ उसके साथ की दूसरी स्त्री बीच में कहती है, ‘साइज छोटी लग रही है, कप भी छोटी है। बहुत कसा रहेगा।’ दुकानदार झट से दूसरा पीस थमाते हुए कहता है ‘ये बड़ी साइज है, इसे देख लीजिए।’ इस तरह मेले में यह भी देखने को मिलता है ग्रामीण परिवेश की स्त्रियां अपनी ज़रूरत की चीजों को ख़रीदने में पर-पुरुषों के सामने हिचकिचाती नहीं हैं। यह दृश्य गंगा किनारे भी देखने को मिला, जहां सार्वजनिक तौर पर सैकड़ों पुरुषों के सामने उन्हें नहाते या कपड़े बदलते हुए देखना एक सामान्य दृश्य है।

ग्रामीण परिवेश और लोकेशन के इस मेले में सबसे अच्छी बात यही है कि आयोजन स्थल के आस-पास घने बाग़-बग़ीचे और वैभवशाली दरख्त लगातार शीतल छाया दे रहे हैं। बाग़ों में ही जगह-जगह गाड़ियों के खड़े करने के लिए पार्किंग बनायी गई है। एक तरफ जादू का तमाशा चल रहा है तो दूसरी ओर, बच्चों के लिए तरह-तरह के झूले और ट्रेम्पोलिन लगे हुए हैं, जिन पर बच्चे उछल-कूद रहे हैं। उनकी माँयें या साथ आईं स्त्रियां गिरे हुए पेड़ की डालियों पर बैठकर अपने बच्चों को उछलता-कूदता देख रही हैं।

खुदरा व्यवसाय का बड़ा आधार है मेला 

खाने-पीने की दुकानों को छोड़ दें तो अधिकतर दुकानदार आस-पास के जिले प्रयागराज और वाराणसी से आये हैं। दो दिन के इस मेले में इतना ताम-झाम करके दुकान लाद-फांद करके मेले में आने का कारण पूछने पर बनारस से आया एक अधेड़ दुकानदार बताता है कि मेले में एकमुश्त दुकानदारी हो जाती है। मेले में आने वाला हर कोई कुछ न कुछ ख़रीदता ही है। जबकि वैसे किसी बाज़ार में दुकान लगाकर बेचने में फुटकर दुकानदारी ही होती है। मेले से दूर फुटपाथ पर दुकान सजाये बैठा एक दुकानदार प्रशासन पर नाराजगी जाहिर करते हुए बताता है कि इस साल दुकानदारी नहीं हुई। वजह पूछने पर वह बताता है कि पिछले साल मेला स्थल से तीन किलोमीटर पहले ही गाड़ियां रोक दी गई थीं। लोग पैदल चलकर आते-जाते थे तो दुकानों पर नज़र डालते, मोल-तोल करते कुछ न कुछ ख़रीदते जाते थे। अबकि बार प्रशासन ने बिल्कुल मेले के पास तक गाड़ियों की आवाजाही कर रखी है। इसके चलते लोग गाड़ियों में बैठे-बैठे मेले में पहुंच रहे हैं और वहीं से बैठकर वापस चले जा रहे हैं। दुकान तक पहुंच ही नहीं रहे हैं। एक ऑटो वाला बताता है कि पिछले साल की तुलना में इस साल मेले में आधी भीड़ भी नहीं आई है। वह बताता है कि दोपहर हो गई और भीटी से सीतामढ़ी तक केवल तीन चक्कर ही लगा पाया है। वैसे ऑटो वालों ने ‘आपदा को अवसर’ में बदल रखा है। भीटी से सीतामढ़ी 20 रुपये, बरौत से सीतामढ़ी 30 रुपये, गोपीगंज से सीतामढ़ी 40 रुपये, और जंगीगंज से सीतामढ़ी का प्रति सवारी 30 रुपये वसूल रहे हैं।

दुकानों पर पहले जैसे नहीं रही खरीदारी।

हर मेले का एक आर्थिक महत्व होता है। मेला लगता है तो कुछ लोगों को काम मिलता है। फेरीवालों, दुकानवालों की आमदनी बढ़ती है। मेले में आने वाले अधिकतर छोटे दुकानदारों ने बताया कि वे केवल मेले में ही दुकान लगाते हैं। जबकि कुछ ही दुकानदारों ने बताया कि उनकी अपनी दुकानें भी हैं, उनके अपने शहर या क्षेत्र में। केवल मेले में दुकान लगाने वाले दुकानदारों ने बताया कि वे लोग दूसरे राज्यों में लगने वाले मेलों में भी जाते हैं। और जब मेला नहीं होता तो ग्रामीण क्षेत्र के साप्ताहिक बाज़ारों में दुकान लगाते हैं। कुछ तो फेरी लगाकर बेंचने वाले हैं। जो एकमुश्त आमदनी की आस लिए मेले में चले आये हैं। एक पाख या एक महीने चलने वाले मेलों की तुलना में गांवों में लगने वाले दो-तीन दिन के मेले में दुकानदारों पर प्रेशर ज़्यादा होता है। ग्रामीण मेले में लोग इस उम्मीद से हाथ के बने सामान लेकर मेले में पहुंचते हैं कि बिक्री हो गयी तो घर-परिवार का कोई रुका हुआ काम पूरा कर लेंगे। तो जो गैर-पेशेवर या ज़रूरतमंद व्यक्ति मेले में अपना सामान लेकर आया होता है वह सस्ता-मंदा जैसा भी होता है बेचकर कुछ पैसे कमा लेना चाहता है। जबकि पेशेवर दुकानदार ग्राहक की गरज़ देखता है। वह ग्राहक की नब्ज़ पकड़ता है कि आया है तो लेकर ही जाएगा। बांस का सामान बनाने वाले बंसोड़, धरकार, रहट्ठा का पलड़ा, झउवा, खांची-खांचा बनाने वाले कोइरी, लोहे का सामान बनाने वाले लोहार, लकड़ी का सामान बनाने वाले बढ़ई, कड़ाही, भगोना, थाली, झन्ना बनाने वाले ठठेरे, मिट्टी और प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ति बनाने वाले विश्वकर्मा आदि सब ज़रूरतमंद लोग हैं जो अपना बनाया उत्पाद लेकर मेले में आते हैं और आर्थिक मूल्य के साथ-साथ मानवीय मूल्य को भी वरीयता देते हैं। कई बार ये लोग ख़रीददार की आर्थिक निरीहता देखकर लागत दाम पर भी दे देते हैं।

ब्याह के लिए ‘लड़का-लड़की देखाई’ का माध्यम भी है मेला 

मेले में कई तरह के संयोग होते हैं। कई अपरिचित मिलते हैं। बहुत दिनों के बिछड़े कई यार-दोस्त, सखी-सहेली नात-रिश्तेदार भी मिल जाते हैं। कई नये जोड़े भी बनते हैं मेले में। मेले के बहाने एक जगह देखवारी का कार्यकम भी चल रहा है। सीतामढ़ी जानकी मंदिर के परिसर में बैठने के लिए बने सीमेंटेड कैनोपी के नीचे तीन स्त्रियां, एक लड़की और एक पुरुष चटाई बिछाकर एक जगह बैठे हुए हैं। उनके पास दो झोले भी रखे हैं। एक अगुवा पंडित सिर खुजाते हुए लड़के पक्ष को बार-बार फोन करके पूछ रहा है कि कहाँ पहुंचे? लड़की वाले घंटों से इंतज़ार कर रहे हैं। बात करने के बाद अगुवा पंडित लड़की पक्ष वालों से कुछ बोलता है, जिसके बाद एक महिला झोले से थर्मस निकालकर डिस्पोजल गिलास में चाय निकालती है और बारी-बारी से सबको थमाती है। कई किशोर लड़के अपने दोस्तों के साथ मेले में केक लेकर आए हैं और एक-दूसरे के मुंह पर केक पोत-पोतकर सेल्फी लेने में मगन है। शायद इनमें से किसी का जन्मदिन हो, या कहीं एडमिशन, सेलेक्शन की बात हो।

गंगा स्नान करते लोग।

गंगा के घाट पर भी मेला लगा हुआ है। लोग बाग जो भी मेला देखने आये हैं पहले वे जाकर गंगा में नहा रहे हैं। विशेषकर बुजुर्ग स्त्रियां जो अपनी उम्र की स्त्रियों का साथ जोड़कर आयी हैं। जवान स्त्रियां जो अपना परिवार लेकर आयी हैं। कई नवब्याहे जोड़े हाथ पकड़कर गंगा नहाने के बाद साथ-साथ जानकी मंदिर में दर्शन के लिए जा रहे हैं।

गंगा किनारे तोड़े हुए पीपे के पुल पर खड़े होकर युवा पीढ़ी के लड़के ख़तरे मोल लेते हुए तरह-तरह के पोज में सेल्फी ले रहे हैं। हालांकि एहतियात के तौर पर घाट पर जल-पुलिस मौज़ूद है। तेज हवा के चलते गंगा में लहरे उठ रही हैं।

मेले में सीतामढ़ी पुलिस माइक पर पुकार कर मेले में आये लोगों से अपील कर रही है कि मोबाइल पर्स आदि पीछे के ज़ेब में क़तई न रखें बल्कि उसे शर्ट में सामने की जेब में रखें। बच्चों का हाथ पकड़कर चलें और छोटे बच्चों को मेले में अकेला न छोड़े। न अकेला किसी दुकान सामान के लिए भेजें। पुलिस चौकी परिसर में ही स्वास्थ्य विभाग के लोग एहतियाती स्वास्थ्य कैम्प लगाकर बैठे हैं। ताकि मेले में आये किसी व्यक्ति या बच्चे को कोई तकलीफ़ हो तो उसे प्राथमिक उपचार दिया जा सके। भदोही की खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन मोबाइल वैन पर माइक में खाद्य सुरक्षा को लेकर एनाउंस कर रहा है कि मेले में धूप से आने के बाद थोड़ी देर आराम कर, ठंडा होकर ही खाद्य या पेय पदार्थ ग्रहण करें। साथ ही खाद्य सुरक्षा विभाग मेले में महत्वपूर्ण सुरक्षा सम्बन्धी पर्चे वितरित कर रहा है। इसके अलावा भदोही जल निगम की ओर से भी मेले में जगह-जगह पेयजल टैंक, और मिनरल वॉटर के बोतल थर्मस और मग आदि रखवाये गये हैं ताकि लोगों को मेले में शुद्ध पेय जल की तकलीफ न हो।

 

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