Sunday, September 8, 2024
Sunday, September 8, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमराजनीतिLok Sabha Election : क्यों कम हो रही है संसद में पिछड़ी...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

Lok Sabha Election : क्यों कम हो रही है संसद में पिछड़ी जातियों की भागीदारी?

मंडल बनाम कमंडल यानी ओबीसी आरक्षण बनाम राम मंदिर की लड़ाई में उन पिछड़ी जातियों के साथ आरएसएस और भाजपा ने खुलेआम धोखा किया है, जिन्होंने उसके बहकावे में आकर शैक्षिक एवं आर्थिक अधिकारों के लिए लागू किये गए ओबीसी आरक्षण के बजाय राम मंदिर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।

पिछले तीन दशकों से भारतीय राजनीति में प्रमुख रूप से मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई आमने-सामने रही है। जहाँ मंडल शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए उत्थान का पर्याय बना है, वहीं कमंडल शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों को पुनः कमजोर करने का सबसे बड़ा औजार।

अकारण नहीं है कि जब मंडल के तहत शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों को सशक्त करने का प्रयास किया जा रहा था तभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भाजपा सांप्रदायिक उन्माद के रथ पर सवार होकर बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर की लड़ाई छेड़ देते हैं।

शैक्षिक एवं आर्थिक अधिकारों से वंचित पिछड़ी जातियाँ इतनी भोली थीं कि वे धारावाहिक के रूप में परोसे गए ‘रामायण’ सीरियल से प्रेरित होकर अयोध्या में राम जन्मभूमि ठीक बाबरी मस्जिद के स्थान पर ही तलाशने के लिए घरों से निकल पड़ती हैं जबकि आजाद भारत की सरकार उनके लिए पिछले चार दशकों से बंद पड़े शिक्षा एवं आर्थिक उन्नति के कपाट खोल रही थी।

जिस शिक्षा के दरवाजे पर दस्तक देकर पिछड़ी जातियों को डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील, इंजीनियर, कुलपति, सचिव, मुख्य सचिव, प्रधान सचिव, वैज्ञानिक एवं राजदूत जैसे ओहदों पर जाकर आर्थिक रूप से समृद्ध होना था, वे ब्राह्मण जाति के पुस्तैनी कारोबार को मजबूत करने के लिए राम मंदिर की लड़ाई में शरीक हो जाती हैं।

आज जब राम मंदिर बन चुका है तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि राम मंदिर आंदोलन की उग्र अगुआई करने वाले नेताओं को आरएसएस और भाजपा ने क्या दिया है?

यह सर्वविदित है कि उन दिनों राम मंदिर आंदोलन की उग्र अगुआई करने वाले नेता एवं कार्यकर्ता पिछड़ी जातियों से थे। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उन दिनों सवर्ण समाज के नेता कांग्रेस एवं क्षेत्रीय दलों की सरकारों में बैठकर सत्ता-सुख का उपभोग कर रहे थे। सवर्ण समाज के दलबदलू नेताओं ने राम मंदिर आंदोलन की उग्र अगुआई करने वाले विनय कटियार से लेकर उमा भारती तक के सभी पहली पंक्ति के पिछड़ी जातियों के नेताओं को आरएसएस के सहयोग एवं भाजपा की कृपा से किनारे लगा दिया है।

जब राम मंदिर ट्रस्ट में आठ ब्राह्मण सदस्यों के साथ एक दलित को सदस्य बनाया गया तब विनय कटियार और उमा भारती ने हताश, निराश और उदासहोकर ट्रस्ट में महज एक ओबीसी को सदस्य बनाए जाने की आवाज उठा पाते हैं। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि राम मंदिर आंदोलन की उग्र अगुआई करते समय इनकी आवाजों में जो जोश एवं उत्साह था वह आरएसएस और भाजपा द्वारा किनारे लगाए जाने पर एकदम दबा, कुचला एवं सहमा हुआ महसूस कर रहा है।

अतः स्पष्ट है कि मंडल बनाम कमंडल यानी ओबीसी आरक्षण बनाम राम मंदिर की लड़ाई में उन पिछड़ी जातियों के साथ आरएसएस और भाजपा ने खुलेआम धोखा किया है, जिन्होंने उसके बहकावे में आकर शैक्षिक एवं आर्थिक अधिकारों के लिए लागू किये गए ओबीसी आरक्षण के बजाय राम मंदिर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।

मंडल ने देश की राजनीति का लोकतंत्रीकरण करना शुरू किया। यह लोकतंत्रीकरण राजनीति के साथ-साथ सरकारी संस्थानों में भी ओबीसी आरक्षण के माध्यम से दिखना शुरू हुआ मंडल से पहले सरकारी संस्थानों में न ओबीसी आरक्षण था और न ही उनका कोई ख़ास प्रतिनिधित्व।

हालाँकि दलित और आदिवासी समाज के लिए संविधान के साथ ही 15 और 7.5 प्रतिशत आरक्षण लागू हो गया था। लेकिन उच्च शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण मंडल के आने के बाद ही लागू हुआ। कारण यह है कि मंडल ने देश की राजनीति में बड़ा ही प्रभावशाली हस्तक्षेप किया।

अब तक जो पार्टियाँ लोकसभा की सामान्य सीटों पर पिछड़ों को प्रत्याशी नहीं बनाती थीं, केवल सामान्य को सवर्ण समझकर ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर जाति के ही उम्मीदवारों को सर्वाधिक टिकट देती थीं, वे भी मजबूर होकर पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों को टिकट देने लगी। इसके पीछे एक खास बड़ा कारण समाजवादी राजनीति के रूप में जनता दल का उभार था। जनता दल ने देश की राजनीति का ढंग से लोकतंत्रीकरण किया. उस समय देश के कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारें बनीं। केंद्र की राजनीति में क्षेत्रीय दलों के प्रभावशाली होने के कारण ही मंडल कमीशन लागू हो पाया।

मंडल कमीशन के पहले संसद में लोकसभा की सामान्य सीटों पर ओबीसी प्रतिनिधियों की संख्या महज 11 प्रतिशत ही थी जबकि 1931 की जातिवार जनगणना में ओबीसी की जनसंख्या 52 फीसदी सामने आ चुकी थी। 1990 में मंडल कमीशन लागू होने के बाद संसद में ओबीसी प्रतिनिधियों की संख्या 11 प्रतिशत से बढ़कर 22 प्रतिशत हो जाती है, जो उनकी जनसंख्या के आँकड़ों से 30 प्रतिशत कम थी।

आखिर क्या कारण है कि आजाद भारत की सरकार ने 40 साल तक पिछड़ी जातियों को शैक्षिक एवं आर्थिक अधिकारों से वंचित रखा?

मंडल कमीशन के बाद देश की राजनीति में प्रमुख रूप से ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ बनाम ‘कम्युनलपॉलिटिक्स’ की राजनीति शुरू होती है। एक तरफ वे क्षेत्रीय दल हैं जो ‘पहचान की राजनीति’ के सहारे ‘सामाजिक न्याय’ की वकालत करते हैं तो दूसरी तरफ भाजपा और उसके वैचारिक सहयोगी संगठन आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद हैं जो ‘सांप्रदायिक राजनीति’ के रथ पर सवार होकर ओबीसी आरक्षण के विरोध में ‘बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर’ का राग अलापना शुरू कर देते हैं। जबकि सत्ता में मौजूद राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस अपने परंपरागत सवर्ण वर्चस्व को बनाए रखने के कारण उस समय तीव्र गति से बदलती राजनीति की इन दो प्रवृत्तियों से अपनी अनभिज्ञता जाहिर करती है और उसकी इस अनभिज्ञता का परिणाम आज हमारे सामने है।

पिछड़ी जातियों से मंडल के दौर की एकता लंबे समय तक संभाली नहीं गई, उनमें बिखराव हो गया और उनमें से बहुतेरी पिछड़ी जातियाँ शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय के बजाय आरएसएस और भाजपा द्वारा परोसी गई जातीय एवं सांप्रदायिक नफरत को अपना लीं। इस नफरत का परिणाम पिछड़ी जातियों के लिए हानिकारक साबित हुआ। 1990 में संसद में पिछड़ी जातियों का जो प्रतिनिधित्व 22 प्रतिशत था, वह 2009 तक बढ़कर 29 प्रतिशत हो गया था। हालाँकि यह तब भी अपनी आबादी के हिसाब से 23 फीसदी कम था।

भाजपा के 2014 और 2019 के विजय अभियान ने पिछड़ी जातियों के संसदीय प्रतिनिधित्व को जमकर समेटा। 2009 में पिछड़ी जातियों की जो भागीदारी 29 प्रतिशत थी, वही एक दशक बाद यानी 2019 में घटकर महज 16 प्रतिशत ही रह जाती है। जबकि इस दौर में ब्राह्मण जाति के सांसदों की संख्या में अप्रत्याशित रूप सेबढ़ोत्तरी होती है और वे सर्वाधिक टिकट भाजपा से प्राप्त करते हैं। 2009 में संसद में ब्राह्मण जाति के सांसद 30 प्रतिशत थे, जो 2014 में बढ़कर 38.5 प्रतिशत हो जाते हैं और 2019 में इससे भी बढ़कर 45 प्रतिशत।

संसद में ब्राह्मण जाति के सांसदों की संख्या उनकी आबादी से कितने गुना अधिक है, यह तो जातिवार जनगणना के आँकड़े सामने आने पर ही ठीक-ठीक कहा जा सकता है। लेकिन यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जब तक संसद में 15 प्रतिशत से अधिक ब्राह्मण जाति के सांसद रहेंगे तब तक देश में न तो जातिवार जनगणना हो सकती है और न ही पिछड़ी जातियों को उनकी आबादी के अनुसार हिस्सेदारी मिल सकती है।

ज्ञानप्रकाश यादव
ज्ञानप्रकाश यादव
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं और सम-सामयिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here