Friday, June 20, 2025
Friday, June 20, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचार‌सावरकर का वह माफीनामा

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

‌सावरकर का वह माफीनामा

लंदन स्थित इंडिया हाउस में रहकर भारत में ब्रिटिशराज के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के लिए 1910 में विनायक दामोदर सावरकर को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया और आजीवन कारावास का दंड देकर उन्हें 1911 को अंडमान सेल्यूलर जेल भेज दिया गया था। यह कोई साधारण जेल नहीं थी। हालांकि जर्मनी […]

लंदन स्थित इंडिया हाउस में रहकर भारत में ब्रिटिशराज के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के लिए 1910 में विनायक दामोदर सावरकर को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया और आजीवन कारावास का दंड देकर उन्हें 1911 को अंडमान सेल्यूलर जेल भेज दिया गया था। यह कोई साधारण जेल नहीं थी। हालांकि जर्मनी के कुख्यात साइबेरिया के ठंडे रेगिस्तान जैसे यातना शिविरों जैसी नहीं थी लेकिन भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले देशभक्तों को उसमें खूब यातनाएं दी जाती थी। कहा जाता है कि वीर सावरकर इन यातनाओं को सहन नहीं कर सके और भीतर से टूट गए थे। ऐसी हालत में रिहाई की भीख मांगते हुए उन्होंने अंग्रेजी भारत सरकार को बार-बार करीब आधा दर्जन माफ़ीनामे लिखे थे। पहला माफीनामा तो उन्होंने वहां पहुंचने के करीब 5 महीने बाद ही दिसंबर 1911 में लिखा था।

इस तरह बार-बार रिहाई के लिए गिड़गिड़ाते हुए दया की भीख मांगने वाले वीर सावरकर को आखिरकार 1921 में अंग्रेजी सरकार ने महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में एक बंगला और ₹60/-महीने की पेंशन देकर उसकी सेवाएं लेनी शुरू कर दीं। यह वीर सावरकर देश को आज़ादी मिलने तक अंग्रेजों की पेशन पर जीते रहे।

प्रसिद्ध इतिहासकार आरसी मजूमदार ने सावरकर के माफीनामों का जिक्र करते हुए उनके 14 नवंबर, 1913 के माफीनामे को अपनी किताब पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स में पूरा उद्धृत किया है। इस माफ़ीनामे के बाद अंग्रेज सरकार ने इस वीर के बारे में सहानुभूतिपूर्वक विचार करना शुरू किया था। आरसी मजूमदार की यह किताब जनवरी, 1975 में प्रकाशन विभाग, भारत सरकार ने प्रकाशित की थी। यहां यह बता देना भी उचित होगा कि श्री मजूमदार कोई वामपंथी इतिहासकार नहीं हैं और वैचारिक तौर पर वह दक्षिणपंथी विचारधारा के नजदीक पाए जाते हैं। उन्हीं की उपरोक्त पुस्तक से हम सावरकर का वह माफीनामा पाठकों की जानकारी के लिए नीचे दे रहे हैं।

सेवा में,

गृह सदस्य,

भारत सरकार।

मैं आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदुओं को प्रस्तुत करता हूं :

जून 1911 में जब मैं यहां आया, मुझे मेरी पार्टी के अन्य दोषियों के साथ चीफ कमिश्नर के दफ्तर ले जाया गया। वहां मुझे डी यानी डेंजरस (खतरनाक) कैटेगरी के कैदी का दर्जा दिया गया जबकि मेरे साथ के दोषियों को डी‌ श्रेणी में नहीं रखा गया।उसके बाद मुझे 6 महीनों तक अकेले कोठी में बंद रखा गया। अन्य को नहीं रखा गया। मुझे नारियल छीलने के काम में लगाया गया, जबकि मेरे हाथों से खून टपक रहा था। उसके बाद मुझे तेल निकालने की चक्की में लगाया गया, जो जेल में कराए जाने वाला सबसे मुश्किल काम है। इस बीच हालांकि मेरा व्यवहार बेहद अच्छा रहा परंतु फिर भी मुझे 6 महीने बाद यहां से रिहा नहीं किया गया, जबकि मेरे साथ के लोगों को रिहा कर दिया गया। अब तक जितना हो सके मैंने अपने व्यवहार को संगत बनाए रखने की कोशिश की है।

जब मैंने तरक्की के लिए प्रार्थना की तो मुझे बताया गया कि मैं खास श्रेणी का कैदी हूं इसलिए मुझे तरक्की नहीं मिल सकती। जब हमारे किसी साथी ने अच्छे भोजन और अच्छे व्यवहार की मांग की तो हमें कहा गया तुम साधारण कैदी हो, इसलिए तुम्हें वही खाना मिलेगा जो दूसरे कैदी खाते हैं। इस तरह से सर, आप देख सकते हैं कि हमें खासतौर पर तकलीफ देने के लिए ही इस श्रेणी में रखा गया है।

जब मुकदमे में मेरे साथ के ज्यादातर लोग छोड़ दिए गए, तो रिहाई के लिए मैंने भी अर्जी दी। हालांकि मुझ पर ज्यादा से ज्यादा दो-तीन बार मुकदमा चला है, फिर भी मुझे रिहा नहीं किया गया जबकि जिन्हें छोड़ा गया उन पर तो 12 से ज्यादा बार भी मुकदमा चला है। मुझे उनके साथ रिहा नहीं किया गया, क्योंकि मेरा मुकदमा चल रहा था। परंतु जब आखिरकार मेरी रिहाई का हुक्म आया, उस समय संयोग से कुछ राजनीतिक कैदियों को जेल में लाया गया। क्योंकि मेरा मुकदमा उनके साथ चल रहा था, इसलिए मुझे उनके साथ ही बंद कर दिया गया।

यह भी पढ़ें…

क्या हिमांशु कुमार ने कोई कानून तोड़ा है?

अगर मैं किसी भारतीय जेल में होता तो अब तक मुझे काफी राहत मिल गई होती। मैं अपने घर अधिक पत्र लिख पाता, लोग मुझसे मिलने भी आते। अगर मैं आम कैदी होता तो अब तक जेल से रिहा हो चुका होता और टिकट-लीव की उम्मीद कर रहा होता। लेकिन मौजूदा समय में ना तो मुझे भारतीय जेलों की कोई सुविधा मिल रही है और ना ही इस जेलखाने के नियम मुझ पर लागू हो रहे हैं। इस तरह मुझे एक नहीं दो-दो मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

इसलिए, हजूर, क्या आप मुझे भारतीय जेल में भेजकर या अन्य कैदियों की तरह आम कैदी घोषित करके इस विकट स्थिति से निकालने की कृपा करेंगे? मैं मानता हूं कि एक राजनीतिक कैदी होने के नाते मैं किसी स्वतंत्र देश के सभ्य प्रशासन से ऐसी उम्मीद कर सकता था। मैं तो बस सुविधाओं और कृपा की मांग कर रहा हूं जिसके हकदार सबसे वंचित दोषी और पेशेवर अपराधी भी होते हैं। मुझे हमेशा के लिए जेल में बंद रखने की मौजूदा योजना के मद्देनजर मैं जिंदगी की उम्मीद बचाए रखने में निराश होता जा रहा हूं।

निश्चित वर्षों के लिए बंद कैदियों की स्थिति अलग है, परंतु हुजूर मेरी आंखों के सामने 50 साल लंबा समय नाच रहा है। इतना लम्बा समय क़ैद बिताने के लिए मैं नैतिक साहस कहां से जुटाऊंगा। जबकि मुझे तो वे सुविधाएं भी नहीं मिल रहीं, जिनकी आशा सबसे खूंखार कैदी भी अपने जीवन को आसान बनाने के लिए कर सकता है।

या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए ताकि मैं वहां (एक) सजा में छूट हासिल कर सकूं, (दो) हर 4 महीने बाद मैं अपने लोगों से मिल सकूं। जो लोग बदकिस्मती से जेल में हैं, वही यह जानते हैं कि अपने रिश्तेदारों, करीबी लोगों से जब-तब मिलना कितना सुख देता है और (तीन) सबसे ऊपर मेरे पास बेशक कानूनी नहीं, लेकिन 14 वर्षों के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो होगा। अगर मुझे भारत नहीं भेजा जा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी और कैदी की तरह जेल से बाहर निकलने की आशा तो दी जाए, 5 वर्षों के बाद मुलाकातों की इजाजत तो दी जाए, मुझे टिकट-लीव तो दी जाए ताकि मैं अपने परिवार को यहां बुला सकूं।

अगोरा प्रकाशन की किताबें Kindle पर भी…

यदि मुझे यह रियायतें दी जाती हैं, तो मुझे बस एक बात की शिकायत रहेगी कि मुझे सिर्फ मेरी गलती का दोषी माना जाए, न कि दूसरों की गलती का। यह बड़ी दयनीय स्थिति है कि मुझे उन सभी चीजों के लिए फरियाद करनी पड़ रही है, जो हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। ऐसे वक्त में, जब यहां एक तरफ 20 राजनीतिक कैदी हैं जो जवान, सक्रिय और बेचैन हैं, तो दूसरी ओर जेल की इस बस्ती के नियम-कानून हैं, जो विचार और आजादी की अभिव्यक्ति को कम से कम स्तर पर सीमित रखने वाले हैं। क्या यह जरूरी है कि हम में से कोई भी अगर जब किसी नियम-कानून को तोड़ता पाया जाए, तो उसके लिए हम सभी को दोषी ठहराया जाए? ऐसे में तो मुझे बाहर निकलने की कोई उम्मीद ही नज़र नहीं आती।

आखिर में, हुजूर मैं आपको यह याद दिलाना चाहता हूं कि आप दया दिखाते हुए मेरी सज़ा माफी की 1911 में भेजी गई अर्जी पर फिर से विचार करें और इसको भारत सरकार को भेजने की सिफारिश करें। भारत में राजनीति के ताजा घटनाक्रमों और सरकार की सबको साथ लेकर चलने की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर से खोल दिया है। अब भारत और मानवता की भलाई का इच्छुक कोई भी इंसान अंधा होकर उन कांटों भरी राह पर नहीं चलेगा, जैसा 1906-07 की निराशा भरी उत्तेजना के माहौल ने शांति और प्रगति के रास्ते से हमें भटका दिया था।

इसलिए सरकार अगर अपनी अथाह नेकनियति और दया भावना से मुझे रिहा करती है, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेजी सरकार का वफादार रहूंगा, जो विकास की पहली शर्त है।

‌हम जब तक जेल में हैं तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारों वफादार प्रजा के घर में वास्तविक खुशी और सुख नहीं आ सकते, क्योंकि खून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। अगर हमें छोड़ दिया जाता है, तो लोग खुशी और एहसान के साथ सरकार के पक्ष में, जो सजा देने और बदला लेने से अधिक क्षमा करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे।

इससे भी अधिक मेरा संविधान वादी रास्ते का धर्मरूपांतरण भारत के भीतर और बाहर रहने वाले भटके हुए नौजवानों को, जो कभी मुझे अपना पथ-प्रदर्शक मानते थे, सही रास्ते पर लाएगा। मैं भारत सरकार की जैसा चाहे उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण मेरी अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह मेरा भविष्य में व्यवहार भी होगा। मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला लाभ मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले फायदे के सामने कुछ भी नहीं है।

जो ताकतवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार बेटा सरकार के दरवाजे के अलावा और कहां जा सकता है। उम्मीद है, हुज़ूर मेरी दरख्वास्त पर  दयापूर्वक विचार करेंगे।

वी.डी. सावरकर…

अगोरा प्रकाशन की किताबें Kindle पर भी…

इस तरह बार-बार रिहाई के लिए गिड़गिड़ाते हुए दया की भीख मांगने वाले वीर सावरकर को आखिरकार 1921 में अंग्रेजी सरकार ने महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में एक बंगला और ₹60/-महीने की पेंशन देकर उसकी सेवाएं लेनी शुरू कर दीं। यह वीर सावरकर देश को आज़ादी मिलने तक अंग्रेजों की पेशन पर जीते रहे। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति के अंतर्गत उन्होंने 1923 में हिंदुत्व और द्वि-राष्ट्र के सिद्धांतों का सूत्रधार बनकर भारत के भविष्य को साम्प्रदायिकता और विभाजन की आग में झोंक दिया था। आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में ऐसा और कोई ‘वीर’ ढूंढे से नहीं मिलता, जो डरकर उसकी तरह से अंग्रेजों का औज़ार बना हो और जिसकी तसवीर उसके अनुयायियों ने देश में सत्तारूढ़ होने पर संसद भवन के केंद्रीय हॉल में (2003 में ) लगाई गई हो।

अवतार सिंह जसवाल स्वतंत्र पत्रकार हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Bollywood Lifestyle and Entertainment