एक तरफ राहुल गांधी के नाम की आंधी उठ रही है, दूसरी ओर उनके करीबी और स्थापित नेताओं का पार्टी छोड़ने का सिलसिला भी जारी है। इस कड़ी में नया नाम महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का है। चव्हाण के साथ उनके समर्थक कांग्रेस के पूर्व एमएलसी अमरनाथ राजुरकर ने भी महाराष्ट्र कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया है।
इसके पूर्व 14 जनवरी, 2024 को महाराष्ट्र के ही मिलिंद देवड़ा ने कांग्रेस पार्टी से अपने परिवार का 55 साल पुराना नाता खत्म कर लिया था। थोड़ा और अतीत मे जाएं तो दिखेगा कि मई, 2022 में हार्दिक पटेल, जनवरी, 2022 में आरपीएन सिंह, 2021 में जितिन प्रसाद, 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे राहुल गांधी के करीबियों ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया था। इससे भी ज्यादा अतीत मे जाएं तो पाएंगे कि 2014 के बाद 23 बड़े नेताओं ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया है, जिनमें गुलाम नबी आज़ाद और जगदंबिका पाल जैसे पुराने नेता भी हैं।
कांग्रेस छोड़ते वक्त सभी नेताओं का जो एक खास आरोप रहा, वह यह कि राहुल गांधी सुनते नहीं हैं! वैसे तो सभी नेताओं का कांग्रेस छोड़ना चर्चा का विषय बना पर, अशोक चव्हाण का जाना विशेष विषय इसलिए बना है, क्योंकि लोकसभा चुनाव बहुत करीब है और राहुल गांधी अपनी लोकप्रियता के शिखर की ओर अग्रसर हैं।
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बहरहाल, अशोक चव्हाण के पार्टी छोड़ने की घटना पर अखबारों और राजनीतिक विश्लेषकों की राय देश के एक चर्चित अखबार के संपादकीय में प्रकाशित एक अंश – जिसमें लिखा है, ‘चव्हाण का कांग्रेस छोड़कर भाजपा मे जाना कोई अकेला मामला नहीं है। भाजपा के केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से ही कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की पूरी कतार है और यह कतार अभी बनी रह सकती है। मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश समेत कई राज्यों में अभी और कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़ जाने की चर्चा है।
आम चुनाव निकट हैं और यही हालात रहे तो कांग्रेस को सक्षम प्रत्याशी खड़े करने मे दिक्कत आ सकती है। लेकिन कांग्रेस का आला कमान इस खबर से बेपरवाह है। लगता तो नहीं कि उसे अपने नेताओं, यहाँ तक कि मुख्यमंत्री रहे नेताओं तक के पार्टी छोड़ जाने की कोई परवाह हो। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने कांग्रेस में बने रहने को हिम्मत से जोड़ लिया है।
वे कई दफा कह चुके हैं कि जिसमें सत्तारूढ़ मजबूत सरकार से टक्कर लेने की हिम्मत हो, वही पार्टी में रहे, यही कांग्रेस के हित में होगा। दरअसल, कांग्रेस काफी समय सत्ता में रही और अपने कार्यकर्ताओं एवं नेताओं, खासकर पुराने व अनुभवियों के लिए विपक्ष में बैठकर राजनीति करना दुष्कर कार्य जैसा है। सत्ता सुख के लिए वे सत्तारूढ़ पार्टी के साथ जुड़ने के लिए ललक दिखाते रहे हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू ज्यादा हैरत में डालने वाला है।
भाजपा विपक्ष के पुराने नेताओं तक को अपने साथ क्यों जोड़ना चाहती है? जबकि इन नेताओं की कोई चमकदार संभावनाएं अब बची नहीं रह गई हैं। इसके पीछे एक बात तो यह समझ में आती है कि भाजपा इस प्रकार का नैरेटिव सेट करना चाहती है कि देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का दंभ भरने वाली कांग्रेस में उसके नेता और कार्यकर्ता अब बने नहीं रहना चाहते।
पार्टी ऐसा परिदृश्य उकेरना चाहती है, जिससे लगे कि कांग्रेस में भगदड़ की स्थिति है और नेतृत्व अपने नेताओं व कार्यकर्ताओं को एकजुट नहीं रख पा रहा तो बदहाल देश को मजबूत नेतृत्व कैसे दे सकेगा? अलबत्ता, इस प्रकार नेताओं का अपनी पार्टी छोड़ जाना राजनीति में शुचिता और नैतिकता की बजाय अवसरवादिता का परिचायक है।’
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बहरहाल, कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़कर जाने के बाद मीडिया में जो सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है, वह यह कि कांग्रेस आला कमान क्यों अपनी पार्टी नेताओं के पलायन को रोकने में कोई रुचि नहीं ले रहा है तथा क्यों ऐसा आभास करा रहा है कि मानो पुराने नेताओं के पार्टी छोड़ने से उसे राहत मिली है और वह इसी के इंतजार मे था!
वास्तव मे पार्टी नेताओं के पलायन पर कांग्रेस आला कमान, खासकर भाजपा के खिलाफ अक्लांत संग्राम चला रहे राहुल गांधी की उदासीनता, आज के समय का सबसे दिलचस्प सवाल बन गया है। इस सवाल का जवाब जानने के लिए उन सवालों की तह में जाना होगा, जो राहुल गांधी वर्तमान में उठा रहे हैं!
अब सामाजिक न्याय मुद्दा
राहुल गांधी पिछले वर्ष कर्नाटक चुनाव को सामाजिक न्याय पर केंद्रित कर भाजपा को शिकस्त देने के बाद से ही लगातार सामाजिक न्याय का सवाल उठा रहे हैं। ऐसा करने के क्रम में आज वह सामाजिक न्याय की राजनीति के नए आइकॉन बन चुके हैं। पिछले कई महीनों से ‘जितनी आबादी-उतना हक’ के उद्घोष के जरिए सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करते हुए आज वह कहाँ पहुंच गए गए हैं, इसका अनुमान 14 जनवरी से शुरू हुई ‘भारत जोड़ो सामाजिक न्याय यात्रा’ के दौरान गांधीजी के शहादत दिवस पर पूर्णिया में की गई उनकी खुली घोषणा से लगाया जा सकता है।
पूर्णिया में उन्होंने कहा था, ‘आर्थिक और सामाजिक न्याय इस वक्त सबसे बड़ा मुद्दा है। यदि आप हिंदुस्तान का भविष्य अच्छा बनाना चाहते हैं तो देश की जनता को सामाजिक न्याय देना ही होगा।’
सामाजिक न्याय पर इससे पूर्व इतनी खरी-खरी बातें किसी ने नहीं की। सामाजिक न्याय के लिए वह फरवरी, 2023 में रायपुर अधिवेशन में दलित, आदिवासी, पिछड़ों को उच्च न्यायपालिका में आरक्षण देने और जाति जनगणना सहित कई बातों को उठाया ही, कर्नाटक से उन्होंने आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा तोड़कर कानून के ज़रिए एससी, एसटी, ओबीसी को आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी देने की गारंटी देना शुरू किया।
बाद में उन्होंने सवाल उठाना शुरू किया कि देश के धन-संपदा में दलित, आदिवासी, ओबीसी की हिस्सेदारी कितनी है? धन के न्यायपूर्ण बंटवारे की ऐसी आवाज शायद इसके पूर्व कभी नहीं उठी। उन्होंने बीमार भारतीय समाज का एक्स-रे के लिए जाति जनगणना की जरूरत पर जोर देना शुरू किया। बहरहाल, सामाजिक और आर्थिक अन्याय का सदियों से शिकार समुदायों को न्याय दिलाने का जो सवाल उन्होंने 2023 से उठाना शुरू किया, वह 2024 में एक्सट्रीम की ओर बढ़ता दिख रहा है।
2024 में वह सड़कों पर उतरकर देश के समक्ष जोर गले से सवाल उठाना शुरू किए हैं कि देश की 500 कंपनियों में कितनों के मालिक और मैनेजर दलित, आदिवासी, पिछड़े हैं? इसी तरह कितने अखबारों, प्राइवेट यूनिवर्सिटीज और अस्पतालों इत्यादि के मालिक और मैनेजर दलित, आदिवासी, ओबीसी हैं? देश में जो धन है, उसमें दलित, आदिवासी, ओबीसी की कितनी हिस्सेदारी है? वह लोगों से पूछ रहे हैं कि आप भारत माता की बेटा या बेटी हो तो पूछो कि भारत माता, आपके पास जो धन है, उसमें कितना हिस्सा हमारा है? इन सारे सवालों का जवाब जानने के लिए वह जनगणना की जरूरत बता रहे हैं।
वह कह रहे हैं, ‘देश को आजादी मिली, हरित और श्वेत क्रांति के साथ बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ, यह सब क्रांतिकारी कदम थे। अब सबसे क्रांतिकारी कदम जाति जनगणना होगा! जाति जनगणना से पता चलेगा कि देश की धन-दौलत, कंपनियों, मीडिया, प्राइवेट यूनिवर्सिटीज, अस्पतालों, न्यायपालिका इत्यादि में किसकी कितनी हिस्सेदारी है! आंकड़ा मिलने के बाद सबकी हिस्सेदारी तय की जाएगी। वह वंचितों की हिस्सेदारी का सवाल उठाने के साथ यह भी कह रहे हैं कि सब जगह देश के 2 से 3 प्रतिशत लोगों का कब्जा है।
राहुल गांधी, जो सवाल उठा रहे हैं, उससे उन लोगों की शिराओं में भय का संचार हो गया है, जिनका शक्ति के समस्त स्रोतों (आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक) पर कब्जा है। सदियों से शक्ति के स्रोतों पर कब्जा जमाए लोगों को लगता है कि राहुल गांधी, आर्थिक और सामाजिक न्याय लागू करवाने की जो कार्ययोजना लेकर आगे बढ़ रहे हैं, उससे कांग्रेस की सत्ता कायम होने पर उनका वर्चस्व ध्वस्त हो जाएगा।
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यही कारण है जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का हर तबका यानी साधु-संत, छात्र और उनके अभिभावक, लेखक-पत्रकार और धन्ना सेठ राहुल गांधी एवं उनकी पार्टी से खौफ़जदा हैं। अब जो लोग कांग्रेस छोड़कर भाजपा मे शामिल हो रहे हैं, उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पर नज़र डाली जाए तो पता चलेगा कि वे उन समुदायों से आते हैं, जिन्हें राहुल गांधी दो प्रतिशत वाली जमात बता रहे हैं: जिनका देश की संपदा- संसाधनों, उद्योग-धंधों, मीडिया, उच्च शिक्षण संस्थाओं, न्यायपालिका, शासन-प्रशासन सहित शक्ति के समस्त स्रोतों पर एकाधिकार है।
यही कारण है, ये लोग उस भाजपा मे शामिल हो रहे हैं, जो शक्ति के स्रोतों के एकाधिकारी वर्ग के हाथों में सारा कुछ सौंपने के लिए देश में निजीकरण का सैलाब बहाने के साथ अंबेडकर के संविधान की जगह ‘मनु लॉ’ लागू करने पर आमादा हैं। ऐसे में यह मानकर चलना होगा कि काग्रेस छोड़ने वाले नेता सिर्फ ईडी, सीबीआई इत्यादि के भय से ही नहीं, अपने स्व-वर्गीय हित में भी कांग्रेस छोड़ रहे हैं।
कांग्रेस संगठन में जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का ही वर्चस्व है और वे स्व-वर्गीय हित में राहुल गांधी के उस सामाजिक न्यायवादी एजेंडे को आम जनता के बीच पहुँचाने मे कोई रुचि नहीं ले रहे रहे हैं, जिनके जोर से भाजपा को शिकस्त दिया जा सकता है। राहुल गांधी यह बात समझ रहे हैं। यह सब समझते हुए ही वह इनके पलायन से निर्लिप्त हैं।
उन्हें भलीभांति पता है कि ऐसे नेता कांग्रेस में रहते हुए पार्टी का आर्थिक और सामाजिक न्यायवादी एजेंडा लागू करने मे बाधक होंगे, इसलिए वह इनके पलायन से बेपरवाह हैं! मीडिया में चर्चा है कि मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश समेत कई राज्यों में अभी और कांग्रेस नेता पार्टी छोड़ने का मन बना रहे हैं। अगर ऐसा होता है, तो यह कांग्रेस के लिए फायदेमंद ही होगा। क्योंकि तब उनकी जगह ऐसे नेता ले सकते हैं, जो राहुल गांधी के सामाजिक न्यायवादी एजेंडे को परवान चढ़ाने के लिए हद से गुजरने की मानसिकता से लैस हैं।