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कुछ उजाले कुछ अंधेरे आग फिर भी शेष है

मस्ती में झूमते-गाते ये लोग देवरिया जिले के आखिरी गाँव मल्वाबर के मुसहर समुदाय से हैं। मुसहर शब्द सुनते ही हमारे सामने ऐसे लोगों का चेहरा सामने आता है जो खेतों और बगीचों से चूहे पकड़ते और भूनकर खाते हैं। आदिवासी के रूप में गिने जाने के बावजूद मुसहर समुदाय मैदानी इलाकों के गाँव में […]

मस्ती में झूमते-गाते ये लोग देवरिया जिले के आखिरी गाँव मल्वाबर के मुसहर समुदाय से हैं। मुसहर शब्द सुनते ही हमारे सामने ऐसे लोगों का चेहरा सामने आता है जो खेतों और बगीचों से चूहे पकड़ते और भूनकर खाते हैं। आदिवासी के रूप में गिने जाने के बावजूद मुसहर समुदाय मैदानी इलाकों के गाँव में रहता है और मेहनत-मजदूरी करते हुये जीवनयापन करता है। पेड़ों से लकड़ियाँ काटना, लकड़ियाँ चीरना, पत्ते तोड़कर दोने-पत्तल बनाना, खेतों में और ईंट भट्ठों पर काम करना आदि इनके मुख्य काम हैं लेकिन यह हर जगह एक जैसा नहीं है। हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में सबसे आखिरी पायदान पर रहनेवाला मुसहर समुदाय ब्राह्मणवाद, जातिवाद और सामंतवाद का सर्वाधिक शिकार है। हर हफ्ते किसी न किसी जगह से उनके उत्पीड़न और दमन की खबरें आती रहती हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के करसड़ा गाँव के मुसहरों की ज़मीन छीनने के लिए सरकारी अधिकारों ने उनकी बस्ती ढहा दिया और कई हफ्ते से खुले आसमान के नीचे जीवन बिताने को मजबूर हैं।

लेकिन देवरिया के इस गाँव के मुसहर बस्ती को ऐसी किसी त्रासदी से नहीं गुजरना पड़ा है बल्कि उनके जीवन में एक हद तक स्थायित्व है और वे बेहतर भविष्य का सपना देखते हैं। जब हम यहाँ लोगों से मिलने पहुंचे तब बस्ती की अधिकांश महिलाएँ पड़ोसी कस्बे बघौचघाट में बाज़ार करने गई थीं। अगले दिन छठ था। एक घर के सामने डीजे पर छठगीत बज रहा था। हमारे साथ प्रेरणाकेंद्र की संचालिका संगीता कुशवाहा थीं जो एक दशक से अधिक समय से यहाँ रहकर मुसहर समुदाय के बीच काम कर रही हैं। वे हर घर में जातीं और मौजूद लोगों से बातचीत करतीं। लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है।

अन्य मुसहर बस्तियों के मुक़ाबले यह बस्ती साफ-सुथरी है। यहाँ लोगों के मकान ईंट के हैं जो मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनवाए गए थे। एक बात जो खासतौर पर दिखी वह है इन लोगों का आत्मसम्मान, जिसे प्रेरणा केंद्र ने इनमें भरा है और अब ये लोग अपने अधिकारों की न केवल बात करते हैं बल्कि उसके लिए संघर्ष भी करते हैं।

लेकिन सब कुछ स्पष्ट नहीं है। अभी प्राथमिक स्तर पर चीजें बेहतर हैं और उन्हें और बेहतर बनाने की जरूरत है। सामाजिक ताने-बाने में परिवर्तन चीजों और स्थितियों ही नहीं सोच को भी बदल रहा है। जाति-उत्पीड़न के विरुद्ध उठ खड़ा होने की इनकी कूवत ने आगे की ज़िंदगी के लिए उनमें एक ऊर्जा भर दी है। आइये सुनते हैं इनके दुख-दर्द और राग-विराग की बातें –

 

गाँव के लोग
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