डंसना बनाम डंक मारना (डायरी 5 जून, 2022) 

नवल किशोर कुमार

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पर्यावरण, संपूर्ण क्रांति और बदलाव जैसे अनेक शब्द हैं आज मेरे पास। इसके अलावा अस्वस्थता और फिर एक सुखद रात भी। इन शब्दों के अलावा भी दो शब्द और हैं– डंसना और डंक मारना। ये दो शब्द मुझे मिले हैं गोंडी व मराठी की अध्येता उषाकिरण आत्राम आई से।
तो आज जब दिन प्रारंभ कर रहा हूं तो एक दुविधा भी है कि किस शब्द के बारे में पहले लिखूं। वजह यह कि कल का दिन विषम था मेरे लिए। पूरे दिन लगभग भूखे रहा। रात में भी सिर में दर्द तो था ही, पूरे बदन में ऐंठन हो रही थी। लेकिन यह सब जीवन का हिस्सा है। रात में नींद ने अपनी आगोश में लिया तो अब सब सामान्य महसूस कर रहा हूं। पर्यावरण का सवाल मेरे लिए हर दिन का सवाल रहता है। कोई मुकर्रर दिन पर इसके बारे में सोचने की विशेषज्ञता मेरे पास नहीं है। संपूर्ण क्रांति राजनीतिक शब्द है और इसके पीछे की राजनीति का आलम यह है कि आज आरएसएस सत्ता में है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे एक विषैला सांप जो एक पिटारे में या फिर किसी बिल में पड़ा था, उसे जयप्रकाश नारायण ने मुख्य राजनीति में विचरने और डंसने की खुली छूट दी। विषैला सांप यह समझता था कि उसे डंसने की प्रक्रिया को बदलना होगा और उसने यही किया भी है। अब तो विषैले सांपों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि हर राज्य और शहर में विषम स्थिति बन गई है। इन सांपों की हिम्मत भी खूब बढ़ गई है। कल ही बिहार प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष ने नीतीश कुमार को डंसने की कोशिश की। जातिगत जनगणना के मामले में पहले तो भाजपा ने हामी भरी, लेकिन उसके बाद उसके प्रदेश अध्यक्ष ने कहा है कि क्या राज्य सरकार रोहिंग्याओं की गणना भी करेगी। फिर कल ही विश्व हिंदू परिषद के लोगों ने कर्नाटक के श्रीरंगपट्टनम में धारा-144 के तहत लगाए गए राज्य सरकार के प्रतिबंध को तोड़ते हुए (उन्हें तोड़ने दिया गया, लिखना तकनीकी रूप से सही नहीं) जामिया मस्जिद के बाद जमा हुए और उसे ब्राह्मणों के हवाले करने की मांग की। उनके मुताबिक, यह मस्जिद पहले हनुमान का मंदिर था। वे इसे हनुमान की जन्मस्थली भी बता रहे हैं।
खैर, नीतीश कुमार की बात करूं तो वह भी सांपों के साथ रहते हुए इसके आदी हो चुके हैं। सो उनके उपर तो इसका असर नहीं पड़ता है। या यह हो सकता है कि सत्ता की हवस ने उन्हें मजबूर कर रखा हो। वर्ना मैं इतना तो जानता ही हूं कि यदि वह चाहें तो विषैले सांपों का इलाज आसानी से कर सकते हैं।

संपूर्ण क्रांति राजनीतिक शब्द है और इसके पीछे की राजनीति का आलम यह है कि आज आरएसएस सत्ता में है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे एक विषैला सांप जो एक पिटारे में या फिर किसी बिल में पड़ा था, उसे जयप्रकाश नारायण ने मुख्य राजनीति में विचरने और डंसने की खुली छूट दी। विषैला सांप यह समझता था कि उसे डंसने की प्रक्रिया को बदलना होगा और उसने यही किया भी है। अब तो विषैले सांपों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि हर राज्य और शहर में विषम स्थिति बन गई है। इन सांपों की हिम्मत भी खूब बढ़ गई है। कल ही बिहार प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष ने नीतीश कुमार को डंसने की कोशिश की। जातिगत जनगणना के मामले में पहले तो भाजपा ने हामी भरी, लेकिन उसके बाद उसके प्रदेश अध्यक्ष ने कहा है कि क्या राज्य सरकार रोहिंग्याओं की गणना भी करेगी।

 

खैर, डंसना और डंक मराना दो शब्द ही महत्वपूर्ण हैं आज, जो मुझे आत्राम आई से मिले हैं। दरअसल, कल उनके द्वारा भेजी एक कविता पढ़ रहा था जो उन्होंने छत्तीसगढ़ के हसदेव जंगल को बचाने के लिए आदिवासियों का आह्वान करने के इरादे से रची है। अपनी इसी कविता में उन्होंने डंसना और डंक मारना का उपयोग किया है। पूरी कविता बेहद शानदार है। अपनी कविता में वह कहती हैं कि विषैले सांप पिटारे से निकलकर हसदेव जंगल में घुस आए हैं और वे आदिवासियत को डंस रहे हैं। वह आगे कहती हैं कि आदिवासी उन सांपों को डंक मारकर उन्हें हसदेव से बाहर खदेड़ेंगे।
आदिवासी लेखिका व सांस्कृतिक मुद्दों की कार्यकर्ता उषाकिरण आत्राम आई
मैं यह सोचकर हैरान हूं कि यह भाषा और लहजा कितनी शालीन और मारक है। एक तरफ डंसने वाले सांप और दूसरी तरफ डंक मारने की बात। डंक मारने का संबंध सामान्य तौर पर बिच्छू और मधुमक्खियों से होता है। हमारे बिहार में बिढ़नी होते हैं, वे भी डंक मारते हैं। मगध के जिस हिस्से का मैं मूलनिवासी हूं, वहां बिढ़नी के बदले हड्डा शब्द उपयोग में लाया जाता है। ये हड्डे दो तरह के होते हैं। एक तो पीले और दूसरे लाल। पीले वाले हड्डे का डंक बहुत अधिक पीड़ा नहीं देता है। ऐसा कई बार मेरे साथ हुआ कि पीले रंग के हड्डे ने डंक मारा और कुछ देर की दुखद पीड़ा के बाद मैं सामान्य हो गया। लेकिन लाल रंग का हड्डे का डंक भयंकर पीड़ा देता है। यदि समय पर दवा न मिले तो वह सूजा भी देता है। एक बार गया से लौट रहा था और जहानाबाद-गया के बीच ही एक जगह लाल रंग के हड‍्डे ने डंक मारा था। तब घर पहुंचने पर अपना चेहरा देखा था। आधा हिस्सा गजब विकृत हो गया था।

अधिकांश यह कह रहे हैं कि फिल्म में इतिहास को बदल दिया गया है। इतिहास में मुहम्मद गोरी बाद में मरा और पृथ्वीराज पहले। लेकिन फिल्म में पृथ्वीराज गोरी को मार देता है। दरअसल, मैं जिस बात को यहां दर्ज करना चाहता हूं, वह यह कि भारतीय अकादमियां अपने व्यवहार में बदलाव लाये। उनके शोधार्थियों और अध्येत्ताओं का ज्ञान विश्वविद्यालय के ग्रंथालयों की शोभा मात्र बनकर ना रहे।

खैर, कुछ जीव होते ही होंगे, जिनके डंक मारने से आदमी की मौत हो जाती होगी। लेकिन सामान्य तौर पर डंक के शिकार की मौत नहीं होती। जबकि जो डंसे जाते हैं, उनकी मौत निश्चित होती है। यही तो अंतर है इन दोनों कियाओं में। लेकिन क्या कारण है कि उषाकिरण आत्राम आई डंसने के मुकाबले डंक मारने की बात कह रही हैं।
मुझे लगता है कि यही वह अंतर है, जिसे समझने की आवश्यकता है। खासतौर पर भारतीय विश्वविद्यालयों के उन गुरुओं को जो मुझे आज पृथ्वीराज चौहान पर आधारित एक फिल्म के बारे में अपनी राय सोशल मीडिया पर रखते नजर आ रहे हैं। अधिकांश यह कह रहे हैं कि फिल्म में इतिहास को बदल दिया गया है। इतिहास में मुहम्मद गोरी बाद में मरा और पृथ्वीराज पहले। लेकिन फिल्म में पृथ्वीराज गोरी को मार देता है। दरअसल, मैं जिस बात को यहां दर्ज करना चाहता हूं, वह यह कि भारतीय अकादमियां अपने व्यवहार में बदलाव लाये। उनके शोधार्थियों और अध्येत्ताओं का ज्ञान विश्वविद्यालय के ग्रंथालयों की शोभा मात्र बनकर ना रहे।
यह लिखते समय एक ख्वाब ही देख रहा हूं कि भारत सरकार ने एक नियम बनाया है कि प्रोफेसर की नौकरी पानेवाले सभी पहले पांच साल हाईस्कूलों, फिर पांच साल इंटर कालेजों और फिर विश्ववािद्यालयों के शिक्षक बनाए जाएंगे। सचमुच यदि ऐसा हो तो भारतीय शिक्षा में जबरदस्त बदलाव हो। लेकिन मैं इससे वाकिफ हूं कि यह मेरा ख्वाब ही है। प्रोफेसर की नौकरी पानेवाले भला हाईस्कूलों और इंटर कॉलेजों में पढ़ाने को क्यों तैयार होंगे। आखिरकार उनके पास भी तो ईगो है।
खैर, मैं डंक मारना और डंसने पर खुद को सीमित करता हूं। सोचकर देखिए तो कितना अंतर है। उषाकिरण आत्राम आई अपनी कविता में कह रही हैं सब आदिवासी आओ और हम डंक मारकर हसदेव जंगल को मुक्त कराएं।
ध्यातव्य है कि हसदेव जंगल के आदिवासी अपने जंगल को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। वहां परसा कोल ब्लॉक के खनन का ठेका अडाणी समूह को दिया गया है। यह कंपनी करीब दो लाख पेड़ काटेगी फिर धरती के गर्भ से कोयला निकालेगी। आदिवासी चाहते हैं कि उनका जंगल बचा रहे, उनका आशियाना बचा रहे। इसलिए जब उषाकिरण आत्राम आई डंक मारने की बात कह रही हैं तो उनका आशय यह है कि यदि हम सब मिलकर डंक मारेंगे तो डंसनेवाले विषैले सांपों से हसदेव का जंगल मुक्त हो सकेगा।
इस सामूहिकता को मेरा जिंदाबाद!

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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